मानसरोवर १/कायर

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मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद
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कायर

युवक का नाम केशव था, युवती का प्रेमा। दोनों एक ही कालेज के और एक ही क्लास के विद्यार्थी थे। केशव नये विचारों का युवक था, जात-पात के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की क़ायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास रखनेवाली; लेकिन फिर भी दोनों में गाढ़ा प्रेम हो गया था। और यह बात सारे कालेज में मशहूर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य कन्या प्रेमा से विवाह करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता को परवाह न थी। कुल मर्यादा का विचार भी उसे स्वाँग-सा लगता था। उसके लिए सत्य कोई वस्तु थी तो प्रेमा थी; किन्तु प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल-परिवार के आदेश के विरुद्ध एक क़दम बढ़ना भी असम्भव था!

संध्या का समय है। विक्टोरिया-पार्क के एक निर्जन स्थान में दोनों आमने-सामने हरियाली पर बैठे हुए हैं। सैर करनेवाले एक-एक करके विदा हो गये; किंतु ये दोनों अभी वहीं बैठे हुए हैं। उनमें एक ऐसा प्रसंग छिड़ा हुआ है, जो किसी तरह समाप्त नहीं होता।

केशव ने झुँझलाकर कहा-इसका यह अर्थ है कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं है।

प्रेमा ने उसको शान्त करने की चेष्टा करके कहा-तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, केशव! लेकिन मैं इस विषय को माता-पिता के सामने कैसे छेड़ूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता। वे लोग पुरानी रूढ़ियों के भक्त हैं। मेरी तरफ़ से कोई ऐसी बात सुनकर उनके मन में जो-जो शंकाएँ होंगी, उनकी कल्पना कर सकते हो?

केशव ने उग्र-भाव से पूछा-तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की गुलाम हो?

प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में मृदु-स्नेह भरकर कहा-नहीं, मैं उनकी गुलाम नहीं हूँ लेकिन माता-पिता की इच्छा मेरे लिए और सब चीज़ों से मान्य है।

'तुम्हारा व्यक्तित्व कुछ नहीं है?'

'ऐसा ही समझ लो।'

'मैं तो समझता था कि वे ढकोसले मूर्खाओं के लिए ही हैं, लेकिन अब [ २१६ ]
मालूम हुआ कि तुम जैसी विदुषियाँ भी उनकी पूजा करती हैं। अब मैं तुम्हारे संमार को छोड़ने पर तैयार हूँ, तो मैं तुमसे भी यही आशा करता हूँ।'

प्रेमा ने मन में सोचा, मेरा अपनी देह पर क्या अधिकार है। जिस माता-पिता ने अपने एक से मेरी सृष्टि की है, और अपने स्नेह से उसे पाला है, उनकी मरजी के खिलाफ कोई काम करने का उसे कोई हक नहीं।

उसने दीनता के साथ केशव से कहा --- क्या प्रेम स्त्री और पुरुष के रूप ही में रह सकता है, मैत्री के रूप में नहीं ? मैं तो प्रेम को आत्मा का बन्धन समझती हूँ।

केशव ने कठोर भाव से कहा --- इन दार्शनिक विचारों से तुम मुझे पागल कर दोगी, प्रेमा। वह इतना ही समझ लो कि मैं निराश होकर जिन्दा नहीं रह सकता। मैं प्रत्यक्षवादी हूँ, और कल्पनाओं के संसार में प्रत्यक्ष का आनन्द उठाना मेरे लिए असम्भव है।

यह कहकर, उसने प्रेमा का हाथ पकड़कर, अपनी ओर खींचने की चेष्टा को प्रेमा ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली --- नहीं केशव, मैं कह चुकी हूँ कि मैं . स्वतन्त्र नहीं हूँ। तुम मुझसे वह चीज़ न मांगी, जिन पर मेरा कोई अधिकार नहीं है।

केशव को अगर प्रेमा ने कठोर शब्द कहे होते, तो भी उसे इतना दुःख न हुआ होता। एक क्षण तक वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा-भरे स्वर में - बोला --- जैसी तुम्हारी इच्छा' और आहिस्ता-आहिस्ता कदम उठाता हुआ वहाँ से चला गया। प्रेमा अब भी वहीं बैठो आँसू पहातो रहो।

( २ )

रात को भोजन करके प्रेमा जब अपनी मां के साथ लेटो, तो उसकी आँखों में नींद न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात कह दो यो, जो चचल पानी में पड़नेवाली छाया की तरह उसके दिल पर छाई हुई। प्रतिक्षण उसका रूप बदलता था। वह उसे स्थिर न कर सकती थी। माता से इस विषय में कुछ कहे तो कसे ? लज्जा मुंह. बन्द कर देती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरा विवाह न हुआ तो मेरे लिए संसार में फिर क्या रह जायगा, लेकिन मेरा बस ही क्या है। इन भौति- भांति के विचारों में एक बात जो उसके मन में निश्चित हुई, वह यह थी कि केशव के सिवा वह और किसी से विवाह न करेगी ? [ २१७ ]उसकी माता ने पूछा --- क्या तुझे अब तक नींद न आई ! मैंने तुझसे कितनी पार कहा कि थोड़ा बहुत घर का काम-काज किया ,कर, लेकिन तुझे किताबों हो से फुरसत नहीं मिलती। चार दिन में तू पराये पर जायगी, कौन जाने कैसा घर मिले -भगर कुछ काम करने की आदत न रही, तो कैसे निबाह होगा ?

प्रेमा ने भोलेपन से कहा --- मैं पराये घर जाऊँगी ही क्यों ?

माता ने मुसकिराकर कहा --- लड़कियों के लिये यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है, -बेटो। मां-बाप की गोद में पलकर ज्योहो सयानी हुई, दूसरों को हो जाती हैं। अगर अच्छे प्राणी मिले, तो जीवन आराम से कर पाया, नहीं रो-रोकर दिन काटना पड़ा। सब कुछ भाग्य के अधीन है। अपनो विरादरी में तो मुझे कोई घर नहीं भाता। कहीं लड़कियों का आदर नहीं; लेकिन करना तो विरादरी में ही पड़ेगा। न जाने यह जात-पात का बन्धन कब टूटेगा ?

प्रेमा हरते-डरते बोली --- कहीं कहीं तो विरादरी के बाहर भी विवाह होने लगे हैं।

उसने कहने को कह दिया, लेकिन उसका हृदय कांप रहा था कि माताजी कुछ भांप न जाय ।

माता ने विस्मय के साथ पूछा --- क्या हिन्दुओं में ऐसा हुआ है ?

फिर उसने आप-हो-आर उस प्रश्न का जवाब भी दिया --- अगर दो चार जगह ऐसा हो भी गया, तो उससे क्या होता है ?

प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न दिया, भय हुआ कि माता कही उसकी आशय समझ न जायें। उसका भविष्य एक अँधेरी खाई की तरह उसके सामने मुंह खोले -खड़ा था, मानों उसे निगल जायग ।

उसे न जाने कब नींद आ गई।

( ३ )

प्रातःकाल प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक विचित्र साहस का उदय हो गया था। सभी महत्वपूर्ण फैसले हम आकस्मिक रूप से कर लिया करते हैं, मानों कोई देवी शक्ति हमें उनकी ओर खींच ले जाती है। वही हाजत प्रेमा की भी। कल तक वह माता-पिता के निर्णय को.मान्य समझती थी; पर संकट को सामने देखकर उसमें उस वायु को हिम्मत पैदा हो गई यो, जिसके सामने कोई पर्वत आ
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गया हो। वही मन्द वायु प्रबल वेग से पर्वत के मस्तक पर चढ़ जाती है और उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ जा पहुंचती है। प्रेमा मन में सोच रहो ये माना, यह देह माता-पिता की है ; किन्तु आत्मा तो मेरी है। मेरी आत्मा को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, वह इसी देह से तो भुगतना पड़ेगा। अब वह इस विषय में संकोच करना अनुचित ही नहीं, घातक समझ रही थी। अपने जीवन को क्यों एक झूठे सम्मान पर बलिदान करे ? उसने सोचा, विवाह का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह तो देह का विक्रय है। आत्म-समर्पण क्या बिना प्रेम के भी हो सकता है ? इस कल्पना हो से किन जाने किस अपरिचित युवक से उसका व्याह हो जायगा, उसका हृदय विद्रोह कर उठा।

वह अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा --- मैं कल तुम्हारे प्रिन्सिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बढ़ी तारीफ कर रहे थे।

प्रेमा ने सरल भाव से कहा --- आप तो यो हो कहा करते हैं।

'नहीं, सच।'

यह कहते हुए उन्होंने अपनी मेज़ को दराज खोली और मखमली चौखटों में जड़ी हुई एक तसवीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले-यह लड़का आई० सी० एम० इम्तहान प्रथम आया है। इसका नाम तो तुमने सुना होगा?

बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका माधो थौ कि प्रेमा उनका आशय न समझ सके। लेकिन प्रेमा भाप गई। उसका मन तोर की भांति लक्ष्य पर जा पहुंचा। उसने बिना तसवीर को और देखे ही कहा नहीं, मैंने तो उसका नाम नहीं सुना।

पिता ने बनावटो आश्चर्य में कहा --- क्या ? तुमने उसका नाम ही नहीं सुना ? आज के दैनिक-पत्र में उसका चित्र और जोवन-वृत्तान्त व्या है।

प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया --- होगा ; मगर मैं तो इस परीक्षा का कोई महत्त्व नहीं समझती। मैं तो समम्तो हूँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते हैं। ये पल्ले सिरे के स्वार्थी होते हैं। आखिर उनका उद्दश्य इसके सिवा और क्या होता है कि अपने गरीब, निर्धन, दलित भाइयों पर शासन करें, और खून धन संचय करें। यह तो जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है।

इस आपत्ति में जलन मी, अन्याय था, निर्दयता पौं। पिताजी ने समझा था,
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प्रेमा यह बखान सुनकर लट्ट हो जायगी। यह जवाब सुनकर तीखे स्वर में बोले --- तू तो ऐसी बातें कर रही है, जैसे तेरे लिए धन और अधिकार का कोई मूल्य ही नहीं।

प्रेमा ने ढिठाई से कहा --- हाँ, मैं तो इसका मूल्य नहीं समझतो ; मैं तो आदमी में त्याग देखती हूँ। मैं ऐसे युवकों को जानती हूँ, जिन्हें यह पद जबरदस्ती भी दिया जाय, तो स्वीकार न करेंगे।

पिता ने उपहास के ढग से कहा --- यह तो आज मैंने नई बात सुनौः। मैं तो देखता हूँ कि छोटी-छोटी नौकरियों के लिए लोग मारे-मारे फिरते हैं। मैं जरा उस लड़के को सूरत देखना चाहता हूँ, जिसमें इतना त्याग हो। मैं तो उसकी पूजा करूँगा।

शायद किसी दूसरे अवसर पर ये शब्द सुनकर प्रेमा लज्जा से सिर झुका लेती; पर इस समय की दशा उस सिपाही की-सी थी, जिसके पीछे गहरी खाई हो। आगे मढ़ने के सिवा उसके लिए और कोई मार्ग न था। अपने भावेश को संयम से दबातो हुई, अखिों में निद्रोह भरे, वह अपने कमरे में गई, और केशव के कई चित्रों में से यह एचित्र चुनकर लाई, जो उसकी निगाह में सबसे खराब था, और पिता के सामने रख दिया ! बूढे पिताजी ने चित्र को उपेक्षा के भाव से देखना चाहा, लेकिन पहली ही दृष्टि में उसने उन्हें आकर्षित कर लिया; ऊँचा कद था, और दुर्बल होने पर भी उसका सगठन, स्वास्थ्य और संयम का परिचय दे रहा था। मुख पर प्रतिभा का तेज न था; पर विचारशीलता का कुछ ऐसा प्रतिबिम्ब था, जो उसके प्रति मन में विश्वास पैदा करता था।

उन्होंने उस चित्र को और देखते हुए पूछा --- यह किसका चित्र है ?

प्रेमा ने सकोच से सिर झुकाकर कहा --- यह मेरे ही क्लास में पढते हैं।

'अपनी ही बिरादरी का है ?'

प्रेमा की मुखमुद्रा धूमिल हो गई। इसी प्रश्न के उत्तर पर उसकी किस्मत का फैसला हो जायगा। उसके मन में पछतावा हुआ कि व्यर्थ में इस चित्र को यहां लाई। उसमें एक क्षण के लिए जो दृढ़ता आई थी, वह इस पैने प्रश्न के सामने कातर हो उठी। दबी हुई आराज़ में बोला ---'जी नहीं, वह ब्राह्मण हैं।' और यह काने के साथ ही वह क्षुब्ध होकर कमरे से निकल गई, मानों वहाँ की वायु में उसका गला धुटा जा रहा हो, और दीवार की खाई में खड़ी होकर रोने लगो।

लालाजी का तो पहले ऐसा क्रोध आया कि प्रेमा को बुलाकर साफ-साफ कह
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दें कि यह असम्भव है। वे उसी गुस्से में दरवाजे तक आये ; लेकिन प्रेमा को रोते देखकर नम्र हो गये। इस युवक के प्रति प्रेमा के मन में क्या भाव थे यह उनसे छिपा न रहा। वे स्त्री-शिक्षा के पूरे समर्थक थे। लेकिन इसके साथ हो कुल- मर्यादा की रक्षा भी करना चाहते थे। अपनी हो जाति के सुयोग्य वर के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर समते थे लेकिन उस क्षेत्र के बाहर कुळोन से कुलीन और योग्य- से योग्य वर की कल्पना भी उनके लिए असह्य थी। इससे बड़ा अपमान वे सोच ही न सकते थे।

उन्होंने कठोर स्वर में कहा--आज से कालेज जाना बन्द कर दो। अगर शिक्षा कुल-मर्यादा को डुबाना ही सिखाती है, तो कुशिक्षा है।

प्रेमा ने कातर कठ से कहा --- परीक्षा तो समीप आ गई है।

लालाजी ने दृढ़ता से कहा --- आने दो।

और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये।

( ४ )

छ. महीने गुज़र गये।

लालाजी ने घर में आकर पत्नी को एकान्त में बुलाया, और बोले --- जहां तक मुझे मालूम हुआ है, शव बहुत ही सुशील और प्रतिभाशाली युवक है। मैं तो समझता हूँ, प्रेमा इस शोक में घुल-घुलकर प्राण दे देगी। तुमने भो समझाया, मैंने भी समझाया, दुसरों ने भी समझाया ; पर उस पर कोई असर हो नहीं होता। ऐसो दशा में हमारे लिए और क्या उपाय है।

उनकी पत्नी ने चिन्तित-भाव से कहा --- कर तो दोगे लेकिन रहोगे कहाँ ? न जाने कहाँ से यह कुलच्छनो मेरो कोख में आई।

लालाजी ने भवें सिकोड़कर तिरस्कार के साथ कहा --- यह तो हज़ार दफ़ा सुन चुका , लेकिन कुल-मर्यादा के नाम को कहाँ तक रोयें। चिड़िया का पर खोलकर यह आशा करना कि वह तुम्हारे आंगन में ही फुदकतो रहेगी, भ्रम है। मैंने इस प्रश्न पर ठण्डे दिल से विचार किया है, और इस नतीजे पर पहुचा हूँ कि हमें इस आपद्धर्म को स्वीकार कर लेना हो चाहिए। कुल-मर्यादा के नाम पर मैं प्रेमा को हत्या नहीं कर सकता। दुनियाँ हँसती हो, हँसे; मगर वह जमाना बहुत जल्द आनेवाला है, जब ये सभी बन्धन टूट जायेंगे। आज भी सैकड़ों विवाह जात-पात के बन्धनों को
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तोड़कर हो चुके हैं। अगर विवाह का उद्देश्य स्त्रो और पुरुष का सुखमय जीवन है, तो हम प्रेम को उपेक्षा नहीं कर सकते।

वृद्धा ने क्षुब्ध होकर कहा --- जब तुम्हारी यही इच्छा है, तो मुझसे क्या पूछते हो ? लेकिन मैं कहे देती हूँ कि मैं इस विवाह के नजदीक न जाऊँगो, न कभी इस छोकरी का मुंँह देखू मी, समझ लूंगी, जैसे और सब लड़के मर गये, वैसे यह भी मर गई।

'तो फिर आखिर तुम क्या करने कहती हो ?'

'क्यों नहीं उस लड़के से विवाह कर देते, उसमें क्या बुराई है ? वह दो साल में सिविल सरविस पास करके आ जायगा। देशव के पास क्या रखा है, बहुत होगा, किसी दफ्तर में क्लर्क हो जायगा।'

'और अगर प्रेमा प्राण-हत्या कर ले, तो ?'

'तो कर ले, तुम तो उसे और शह देते हो। जब उसे हमारी परवाह नहीं है, तो हम उसके लिए अपने नाम को क्यों कलंकित करें ? प्लाण हत्या करना कोई खेल नहीं है। यह सब धमकी है। मन घोड़ा है, जब तक उसे लगाम न दो, पुढे पर हाथ भी न रखने देगा। जम उसके मन का यह हाल है, तो कौन कहे, वर केशव के साथ ही जिन्दगी भर निमाह बरेगी। जिस तरह आज उससे प्रेम है, उसी तरह कल दूसरे से हो सकता है। तो क्या पत्ते पर अपना मांस बिश्वाना चाहते हो ?'

लालाजी मे स्त्री को प्रश्न-सूचक दृष्टि से देखकर कहा-और अगर वह कल खुद जाकर केशव से विवाह कर ले, तो तुम क्या कर लोगी ? फिर तुम्हारी कितनी इज्जत रह जायगी। चाहे वह संकोच वश, या हम लोगों के लिहाज से, योही बैठी रहे ; पर यदि जिद्द पर कमर बांध ले, तो हम तुम कुछ नहीं कर सकते।

इस समस्या का ऐसा भीषण अन्त भी हो सकता है, यह इस वृद्धा के ध्यान में भी न आया था। यह प्रश्न बमगोले की तरह उसके मस्तक पर गिरा। एक क्षण तक वह अवाक् बैठी रह गई, मानों इस आघात ने उसको बुद्धि की धज्जियां उड़ा दी हो। फिर पराभूत होकर बोली --- तुम्हें.अनोखी ही कल्पनाएँ सूझती हैं ! मैंने तो आज तक कभी भी नहीं सुना कि किसी कुलीन कन्या ने अपनी इच्छा से विवाह किया है।

'तुमने न सुना हो ; लेकिन मैंने सुना है, और देखा है, और ऐसा होना बहुत सम्भव है।' [ २२२ ]'जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन तुम मुझे जीती न देखोगे ।'

'मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होगा हो ; लेकिन होना सम्भव है।'

'तो अब ऐसा होना है, तो इससे तो यही अच्छा है कि हमी इसका प्रबन्ध करें। जब नाक हो कट रही है, तो तेज छुरी से क्यों न कटे। कल केशव ' बुलाकर देखो, क्या कहता है।'

( ५ )

केशव के पिता सरकारी पेन्शनर थे, मिजाज के चिड़चिड़े और कृपण। धर्म के आडम्बरों में ही उनके चित्त को शान्ति मिलतो धो। कल्पनाशक्ति का अभाव था। किसी के मनोभावों का सम्मान न कर सकते थे। वे अब भो उस संसार में रहते थे, जिससे उन्होंने अपने बचपन और जवानो के दिन काटे थे। नवयुग को बढतो हुई लहर को वे सर्वनाश कहते थे, और कम-से-कम अपने घर को दोर्नो हाथों और दोनों पैरों का जोर लगाकर उससे बचाया रखना चाहते थे, इसलिए जब एक दिन प्रेमा के पिता उनके पास पहुंचे, और केशव से प्रेमा के विवाह का प्रस्ताव किया, तो बूढ़े पण्डितजी अपने आपे में न रह सके। धुंधली आँखें फाड़कर बोले-भाप भंग तो नहीं खा गये हैं। इस तरह का सम्बन्ध और चाहे जो कुछ हो, विवाह नहीं है। मालूम होता है, आपको भी नये जमाने की हवा लग गई।

बूढ़े बाबूजी ने नम्रता से कहा-मैं खुद ऐसा सम्बन्ध नहीं पसन्द करता। इस विषय में मेरे भो वही विचार हैं, जो आपके , परमात ऐसो आ पड़ी है कि मुझे विवश होकर भापकी सेवा में आना पड़ा। आज-कल के लड़के और लड़कियां कितने स्वेच्छाचारी हो गये हैं, यह तो आप जानते ही हैं। हम चूड़े लोगों के लिए अब अपने सिद्धान्तों की रक्षा करना कठिन हो गया है। मुझे भय है कि कही ये दोनों निराश होकर अपनी जान पर न खेल नाय।

बूढ़े पण्डितजी जमीन पर पांच पटकते हुए गरज उठे-आप क्या कहते हैं, पाहम ! आपको शरम नहीं भातो। हम ब्राह्मण हैं, और ब्राह्मणों में भी कुलीन। ब्राह्मण कितने हो पतित हो गये हों, इतने मर्यादाशुन्य नहीं हुए हैं कि बनिए अवालों को लड़को से विवाह करते फिरें! भिस दिन कुलीन ब्राह्मणों में लड़कियां न रहेंगी, उन दिन यह समस्या उपस्थित हो सकती है। मैं कहता हूँ, आपको मुझसे यह बात कहने का साइन कैसे हुआ ? [ २२३ ]बूढ़े बाबूजी जितना ही दबते थे, उतना हो पण्डितजी बिगड़ते थे। यहाँ तक कि लालाजो अपना अपमान ज्यादा न सह सके। और अपनी तकदीर को कोसते हुए चले गये।

उसी वक्त केशव कालेज से आया। पण्डितजी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर कंठ से कहा --- सुना है, तुमने किसी बनिये की लड़को से अपना विवाह कर लिया है। यह खबर कहाँ तक सही है !

केशव ने अनजान बनकर पूछा --- आपसे किसने कहा ?

'किसी ने कहा। मैं पूछता हूँ, यह बात ठीक है, या नहीं ? अगर टीक है, और तुमने अपनी मर्यादा को डुबाना निश्चय कर लिया है, तो तुम्हारे लिए हमारे घर में कोई स्थान नहीं। तुम्हें मेरी कमाई का एक धेला भी नहीं मिलेगा। मेरे पास जो कुछ है, वह मेरी अपनी कमाई है, मुझे अख्तियार है कि मैं उसे जिसे चाहूँ, दे। तुम यह अनीति करके मेरे घर में कदम नहीं रख सकते।'

केशव पिता के स्वभाव से परिचित था। प्रेमा से उसे प्रेम था। वह गुप्त रूप से प्रेमा से विवाह कर लेना चाहता था। पाप हमेशा तो बैठे न रहेंगे। माता के स्नेह पर उसे विश्वास था। उस प्रेम को तरङ्ग में वह सारे कष्टों को झेलने के लिए तैयार मालूम होता था लेकिन जैसे कोई कायर सिपाही बन्दूक के सामने जाकर हिम्मत खो बैठता है, और कदम पीछे हटा लेता है, वही दशा केशव की हुई। वह साधारण युवकों की तरह सिद्धान्तों के लिए बड़े-बड़े तर्क कर सकता था, जवान से उनमें अपनी भक्ति की दोहाई दे सकता था, लेकिन इसके लिए यातनाएँ झेलने का सामर्थ्य उसमें न था। अगर वह अपनी जिद पर अड़ा, और पिता ने भी अपनी टेक रखो, तो उसका कहाँ ठिकाना लगेगा ? उसका जीवन ही नष्ट हो जायगा।

उसने दबी जबान से कहा --- जिसने आपसे यह कहा है, बिलकुल झूठ कहा है। पण्डितजी ने तीन नेत्रों से देखकर कहा-तो यह खबर बिलकुल गलत है ?

'जी हाँ, बिलकुल गलत।'

'तो तुम आज ही इस वक्त उस बनिए को खत लिख दो, और याद रखो कि अगर इस तरह की चर्चा फिर कभी उठी, तो मैं तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रुहूँगा। बस, जाओ।'

केशव और कुछ न कह सका। यह वहां से चला, तो ऐसा मालूम होता था कि

पैरों में दम नहीं है। [ २२४ ]

( ६ )

दूसरे दिन प्रेमा ने केशव के नाम यह पत्र लिखा ---

'प्रिय केशव!

तुम्हारे पूज्य पिताजी ने लालाजी के साथ जो भशिष्ट और अपमान जनक व्यवहार किया है, उसका हाल सुनकर मेरे मन में बड़ो शका उत्पन्न हो रही है। शायद उन्होंने तुम्हें भी डाट-फटकार बताई होगी, ऐसी दशा में मैं तुम्हारा निश्चय सुनने के लिए विकल हो रही हूं। मैं तुम्हारे साथ हर तरह का कष्ट झेलने को तैयार हूँ। मुझे तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति का मोह नहीं है, मैं तो केवल तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ और उप्पो में प्रसन्न हूँ। आज शाम को यही आकर भोजन करो। दादा और मां दोनों तुमसे मिलने के लिए बहुत इच्छुक हैं । मैं वह स्वप्न देखने में मग्न हूँ, जब हम दोनों उस सूत्र में बंध जायँगे, जो हाना नहीं जानता। जो बड़ी से-बड़ो आपत्ति में भी अटूट रहता है।

तुम्हारी ---
 

प्रेमा।

सन्ध्या हो गई और इस पत्र का कोई जवाब न आया। उसको माता बार-बार पूछतो थी --- केशव आये नहीं ? बूढे लाला भो द्वार को और माँख लगाये बैठे थे। यहां तक कि रात के नौ बज गये ; पर न तो केशव ही आये, न उनका पत्र।

प्रेमा के मन में भाँति-भाँति के सकल्प-विकल्प उठ रहे थे; कशचित् उन्हें पन्न लिखने का अवकाश न मिला होगा, या आज आने को फुरसत न मिली होगी, कल अवश्य आ जायगे। केशव ने पहले उसके पास जो प्रेम पत्र लिखे थे, उन सबको उसने फिर पढ़ा ! उनके एक एक शब्द से कितना अनुराग टपक रहा था, उनमें कितना कम्पन था, कितनी विकलता, कितनी तोब आकांक्षा ! फिर उसे केशव के के वाश्य याद आये, जो उसने सैकड़ों हो पार कहे थे। कितनी बार वह उसके सामने रोया था। इतने प्रमाणों के होते हुए निराशा के लिये कहाँ स्थान था; मगर फिर भी सारो रात उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहा।

प्रात काल कौशव का जवान आया। प्रेमा ने कांपते हुए हाथों से पत्र लेकर पड़ा। पत्र हाथ से गिर गया , ऐसा मान पड़ा, मानों उसके देह का रत स्थिर हो गया हो। लिखा था --[ २२५ ]'मैं बड़े संकट में है कि तुम्हें क्या जवाब दूं। मैंने इधर इस समस्या पर खूब ठण्डे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि वर्तमान दशाभों में मेरे लिए पिता की आज्ञा की उपेक्षा करना दुःसह है। मुझे कायर न समझना। मैं स्थार्थी भी नहीं है, लेकिन मेरे सामने जो बाधाएँ है, उन पर विजय पाने की शकि मुममें नहीं है। पुरानी बातों को भूल जाओ। उस समय मैंने इन बाधाओं की कल्पना न की थी।

प्रेमा ने एक लम्बी, गहरी, जलती हुई साँस खींची और उस खत को फाड़कर फैक दिया। उसकी आँखों से अश्रुधार महने लगी। जिस केशव को उसने अपने अन्तःकरण से पर लिया था, वह इतना निष्ठुर हो जायगा, इसकी उसको रत्ती भर भी आशा न थी। ऐसा मान्म पड़ा, मानो अस तक वह कोई सुनहला स्वप्न देख रही थी। पर भाख खुलने पर सब कुछ अदृश्य हो गया। जीवन में जक आशा ही लुप्त हो गई, तो अन्धकार के सिवा और क्या था ! अपने हृदय को गरी सम्पत्ति लगाकर उसने एक नाव दवाई थी, वह नाव जलमग्न हो गई । अब दूसरी नाव वह कहाँ से लदवाये। सगर वह नाव डूबी है, तो उसके साथ ही वह भी खूब बायगी।

माता ने पूछा --- क्या केशव का पत्र है।

प्रेमा ने भूमि को और ताकते हुए कहा --- हां, उनकी तबीयत अच्छी नहीं है। इसके सिवा वह और क्या कहे ? केशव की निष्ठुरता और बेवफ्राई का समाचार कहकर कजित होने का साहस उसमें न था।

दिन भर वह घर के काम-धन्धों में लगी रही, मानो से कोई चिन्ता ही नहीं है। गत को उसने समको भोजन कराया, खुद भी भोजन किया, और बड़ी देर तक हारमोनियम पर गाती रही।

मगर सवेरा हुआ, तो उसके कमरे में उसकी लाश पड़ी हुई थी। प्रभात की सुनहरी किरणें उसके पीले मुख को-जीवन की आभा प्रदान कर रही थीं।