मानसरोवर १/ घर जमाई

विकिस्रोत से
मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १३२ ]हरिधन ने पड़े-पड़े कहा-क्या है क्या? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिए?

गुमानी कटु स्वर में बोली-गुर्राते क्या हो, खाने को तो बुलाने आई हूँ।

हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के भोजन किये चले आ रहे थे। उसकी देह में आग लग गई। मेरी अब यह नौबत पहुँच गई कि इन लोगों के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता। ये लोग मालिक हैं। मैं इनकी जूठी थाली चाटनेवाला हूँ। मैं इनका कुत्ता हूँ जिसे खाने के बाद एक टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है। यही घर है जहाँ आज के दस साल पहले उसका कितना आदर-सत्कार होता था। साले गुलाम बने रहते थे। सास मुँह जोइती रहती थी। स्त्री पूजा करती थी। तब उसके पास रुपये थे, जायदाद थी। अब वह दरिद्र है, उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया। अब उसे रोटियों के भी लाले हैं। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक्त अन्दर जाकर सास को और सालों को भिगो-भिगोकर लगाये; पर ज़ब्त करके रह गया। पड़े-पड़े बोला-मुझे भूख नहीं है। आज न खाऊँगा।

गुमानी ने कहा-न खाओगे मेरी बला से, हाँ नहीं तो! खाओगे, तुम्हारे ही पेट में जायगा, कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायगा।

हरिधन का क्रोध आँसू बन गया। यह मेरी स्त्री है, जिसके लिए मैंने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बनाकर यह सब अब निकाल देना चाहते हैं। वह अब कहाँ जाय! क्या करे!

उसकी सास आकर बोली-चलकर खा क्यों नहीं लेते जी, रूठते किस पर हो? यहाँ तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं है। जो देते हो वइ मत देना और क्या करोगे। तुमसे बेटी ब्याही है, कुछ तुम्हारी ज़िन्दगी का टीका नहीं लिया है।

हरिधन ने मर्माहत होकर कहा-हाँ अम्मा, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था। अब मेरे पास क्या है कि तुम मेरी ज़िन्दगी का ठीका लोगो। जब मेरे पास भी धन था तब सब कुछ आता था। अब दरिद्र हूँ, तुम क्यों बात पूछोगी।

बूढ़ी सास भी मुँह फुलाकर भीतर चली गई।

( २ )

बच्चों के लिए बाप एक फ़ालतू-सी चीज़-एक विलास की वस्तु-है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग। माँ रोटी दाल है। मोहनभोग उम्र भर [ १३४ ]
अन्धकार का परदा पड़ गया। हरिधन ने इस नकली माँ से बात तक न को, कभी उसके पास गया तक नहीं। एक दिन घर से निकला और ससुराल चला आया।

आप ने बार-बार बुलाया; पर उनके जीते-जी वह फिर उस घर में न गया। जिस दिन उसके पिता के देहान्त की सूचना मिलो, उसे एक प्रकार का इमिय हर्ष हुआ। उसकी भाँखों से आंसू की एक बूंद भी न लाई।

इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर मातृ स्नेह का आनन्द मिला। उसको सास ने ऋषि-वरदान की भांति उसके शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दिया। मरुभूमि में हरियाली तत्पन्न हो गई। सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्-विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन को सारो आकांक्षाएं पूरी हो गई। सास कहती --- बेटा, तुम इस पर को अपना ही समझो, तुम्ही मेरी भों के तारे हो। वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। वह दिल में समझता था, सासजी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं। वाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से को आयशद को कूड़ा करके, रुपयों की थैलो लिये हुए फिर आ गया। अब उसका दना आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी सम्पत्ति सास के चरणों पर अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अब तक उसे कभी-कभी घर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसको याद न आती, मानों वह उसके जीवन का कोई भीषण काड था, जिसे भूल जाना ही उपके लिए अच्छा था। यह सबसे पहले उठता, सबसे ज्यादा काम करता, उसका मनोयोग, उसका परिश्रम कर गांव के लोग दौती उंगली दबाते थे। उसके ससुर का भाग बखानते जिसे ऐसा दामाद मिल गया, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुमाते गरे, उसका मान-सम्मान घटता गया। पहले देवता था, फिर घर का आदमी, अन्त में घर का दास हो गया। रोटियों में भी आधा पड़ गई। अपमान होने लगा। अगर घर के लोग भूखों मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे जरा भी शिकायत न होती। लेकिन जब वह देखता, और लोग मूछों पर, ताव दे रहे हैं, केवल मैं ही दध को मश्मी बना दिया गया है, तो उसके अन्तस्तल से एक लम्बो, ठढो आह निकल आतो अभी उसको उन कुल पच्चीस हो साल की तो थी। इतनी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी ! और तो और, उसको स्त्री ने भो अखि फेर ली ! यह उस विपत्ति

का सबसे कूर दृश्य था। [ १३५ ]

( ३ )

हरिधन तो उधर भूखा-प्यासा चिन्ता-दाद में मल रहा था, इधर घर में सामजी चौर दोनों बालों में घात हो रही भी। गुमानी भी हाँ में हाँ मिलाती हाती थी।

बड़े साले ने कहास लोगों की बराबरी करते हैं। यह नही समन्यते किसी ने उनकी जिन्दगी-भर ना बोला योद में लिया है। दस साल हो गये। इतने दिनों में क्या दो-तीन हार नहर गये होंगे ?

छोटे साले बोले --- मंजूर हो तो आदमो बुद्ध भी, डोटे भी, भय इनसे कोई क्या कहे। न जाने उनसे कभी पिट छूटेगा मो या नहीं। अपने दिल में समझते होगे, मैंने दो हजार रुपये नहीं दिये है ? यह नहीं समम कि सनके दो इक्षार का के सह चुके। सवा सेर तो एक जून को चाहिए।

सास ने गम्भीर भाव से कहा --- बड़ी भारी खोराक है।

गुमानी माता के सिर से जू निकाल रही थी। सुलगते हुर हृदय से बोली- निकम्मे आदमी कोसने के सिवा और काम होगा रहता है।

बड़े --- खाने की कोई बात नहीं है। जिसकी जितनी भूख हो उतना खाय। लेकिन पुरा पैदा भी तो करना चाहिए। यह नहीं समझते कि पहुनई में जिसी के दिन कटे है। छोटे-मैं तो एक दिन पहभा, अब अपनी राह लीजिए, आपका करजा नहीं खाया है।

गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बातें सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी। अगर वह शहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान सम्मान होता, यह भी रानी बनकर रहती। न जाने क्यों कहीं बाहर जाकर कमाते उनकी नानी मरती है। गुमानी को मनोवृत्तियाँ अभी तक मिलल बालपन की-सी थीं। उसका अपना कोई घर न था। उसी घर का हित-अहित उसके लिए भी प्रधान था। वह भी उन्हों शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्ही आँखों से देखती जैसे उसके घश्याले देखते थे। सच तो, दो हजार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे ? दस साल में दो हज़ार होते ही क्या है ? दो सौ ही तो साल भर के हुए। क्या दो आदमो पाल-भर में दो सौ भी न खायेंगे ? फिर कपड़े लत्ते, दुध-धी, सभी कुछ तो है। दस साल हो गये, एक पीतल का छल्ला नहीं मना। घर से निकलते तो जैसे इनके प्रान निकलते हैं। [ १३६ ]
जानते हैं, जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जनम-भर होती रहेगी । यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी, अप और बात है। बहू हो पहले ससुराल जाती है तो उसका कितना महातम होता है। उसने डोलो से उत्तरते ही पाजे बजते हैं, गाँव-महल्ले की औरत उसका मुंह देखने आती है और रुपये देती हैं। महानों उसे घर-भर से अच्छा- खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं लिया जाता ; लेकिन छ महीनों के बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता, वह घर-भर की लौंडी हो जाती है। उनके घर में मेरी भी तो वही गति होती। फिर काहे का रोना। जो यह हो कि मैं तो काम करता है, तो तुम्हारी भूल है, सजूर को और बात है। इसे आदमी डाँटता भी है, मारता भी है, स्व बाहता है, रखता है, जब चाहता है, निकाल देता है। कसकर काम लेता है। यह नहीं कि जब जी में आया, पछ काम किया, जब जो में आया, परकर सो रहे।

( ४ )

हरिधन अभी पड़ा अंदर-ही-अदर सुलग रहा था कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले --- भैया, उठो, तीसरा पहर ढल गया, कम तक सोते रहोगे ? सारा खेत पड़ा हुआ है।

हरिधन चट उठ बैठा और तीन स्वर में बोला --- क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है ?

दोनों साले हका-बक्का हो गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बाँधे हातिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो जाय, यह उनको चौंका देने के लिए काफी था। कुछ जवाब न सूझा।

हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गये हैं, तो एक धका और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका। उसी ढग से बोला --- मेरे भी बाल है। अन्धा नहीं हूँ, न महरा ही हूँ। छाती फादकर काम करूँ और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊँ, ऐसे गधे कहीं और होंगे।

अब बड़े साले भी गर्म पड़े --- तुम्हें किसी ने यहां बांध तो नहीं रखा है।

अबकी हरिधन लाजवाब हुआ। कोई बात न सूझी‌।

बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा --- अगर तुम यह चाही कि जन्म भर पाहुने घने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहे, तो यह हमारे यस की बात नहीं है। [ १३७ ]हरिधन ने आँखें निकालकर कहा --- क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूँ?

बड़े --- यह कौन कहता है ?

हरिधन --- तो तुम्हारे घर की यही नीति है कि जो सबसे ज्यादा काम करे वही भूखों मारा जाय ?

बड़े --- तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुंह में कौर हाल देता ?

हरिधन ने ओंठ चबाकर कहा --- मैं खुद खाने नहीं गया ! कहते तुम्हें लाज नहीं आती?

'नहीं आई थी बहन तुम्हें बुलाने ?'

हरिधन की आँखों में खून उतर आया, दाँत पोसकर रह गया। छोटे साले ने कहा --- अम्मा भो तो आई थीं। तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं है तो क्या करती।

सास भीतर से लपकी चली आ रही थी। यह बात सुनकर बोली --- कितना कह कर हार गई, कोई उठे न तो मैं क्या करूं।

हरिधन ने विष खुन और आग से भरे हुए स्वर में कहा --- मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिए हूँ। मैं कुत्ता हूँ कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रूखी रोटी- का एक टुकड़ा फंछ दो?

बुढ़िया ने ऐठकर कहा --- तो क्या तुम लड़कों को बराबरी करोगे ? हरिधन पेरास्त हो गया ! बुढ़िया ने एक ही वाप्रहार में उपका काम तमाम कर दिया। उसको तनी हुई भवे ढोलो पड़ गई, आंखों को आग बुझ गई, फड़कते हुए नथने शांत हो गये। किसी आहत मनुष्य को भांति वह ज़मीन पर गिर पड़ा। 'क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ?' यह वाक्य एक लम्बे माके की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था --- न हृदय का अन्त था, न उस भाले का।

( ५ )

सारे घर ने खाया पर हरिधन न उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर हार गये। हरिधन न उठा। वहीं द्वार पर एक -टाट पड़ा था। उसे उठाकर सबसे अलग कुएँ पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ रहा।

रात भीग चुकी थी। अनन्त आकाश में उज्ज्वल तारे बालकों की भत कोड़
[ १३८ ]
कर रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आंखें मींचकर फिर खोल देता था। रह-रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहाँ छिप जाता था हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था। उसकी बाल- स्मृतियां उन्हीं चमकीले तारों की भांति प्रज्वलित हो गई। वह अपना छोटा-सा घर, वह आम का भाग जहाँ वह केरियां चुना करता था, वह मैदान जहाँ वह कबड्डी खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गई। उन आँखों में जितनी करुणा थी, कितनी दया थी। उसे ऐसा जान पड़ा मानों माता आँखों में मासू-भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही है। वह उल मधुर भावना में अपने को भूल गया। ऐसा जान पड़ी मानों माता ने उसे छाती से लगा लिया है और उसके सिर पर हाथ फेर रही है। वह रोने लगा, फूट फूट कर रोने लगा। उसो आत्म सम्माहित दशा। में उसके मुंह से यह शब्द निकले --- अम्माँ, तुमने मुझे इतना भुला दिया। देखो, तुम्हारे प्यारे लाल को क्या दशा हो रहो है ! कोई उसे पानी को भी नहीं पूछता। क्या जहाँ तुम हो वहाँ मेरे लिए जगह नहीं है।

सहसा गुमानी ने भाकर पुकारा --- क्या सो गये तुम, नौज किसी को ऐसी राच्छसी नींद आये! चलकर खा क्यों नहीं लेते? का तक कोई तुम्हारे लिए बैठारहे।

हरिधन उस कल्पना अगत् से कर प्रत्यक्ष मे आ गया। वही कुएँ की जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी --- कम तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे‌।

हरिधन उठ बैठा और मानों तलवार ग्यान से निकालकर बोला --- भला, तुम्हें मेरी सुध तो आई। मैने तो कह दिया था, मुझे भूख नहीं है।

गुमानी --- तो के दिन न खाओगे ?

'अब इस घर का पानी भी न पीऊँगा, तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं?

दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शन्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली-कहाँ जा रहे हो?

हरिधन ने मानों नशे में कहा --- तुझे इससे क्या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं। [ १३९ ]गुमानी आपत्ति के भाव से बोली --- तुम बताते क्यों नहीं, हाँ जा रहे हो ?

'तू मेरे साथ चलेगी या नहीं ?'

'जब तक तुम बता न दोगे, मैं न जाऊँगी।'

मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहतो। मुझे इतना हो पूछना था, नहीं अब तक में आधी दूर निकल दाया होता।'

यह कहकर वह उठा और अपने घर को ओर चला। गुमानी पुकारती रही --- 'सुन लो, सुन लो'; पर उसने पीछे फिरकर भी न देखा।

( ६ )

तीस मील की मंजिल हरिधन ने पांच घण्टों में तय की। जब वह अपने गाँव की अमराइयों के सामने पहुंचा, तो उसको मातृ-भावना ऊषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी। उन वृक्षों को देखकर उसका विह्वल हृदय नाचने लगा। मन्दिर का यह सुनहरा श देखकर वह इस तरह दौड़ा मानों एक छलांग में उसके ऊपर आ पहुँचेगा। वह वेग से दौड़ा जा रहा था मानों उसको माता गोद फैलाये उसे बुला रहो हो। जप वह धामों के बाग में पहुंचा, जहाँ डालियों पर पैठर वह हाथी की सवारीका बालन्द पाता था, जहाँ कच्ची नेरों और लिसोड़ों में एक स्वर्गीय स्वाद था, तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुकाकर रोने लगा, मानों अपनी माता को अपनी विपत्ति कथा सुना रहा हो। वहाँ लो वायु में, वहाँ के प्रकाश में, मानों उसकी विराट-रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी, वहाँ की अगुल- भगुल भूमि माता के पद-चिहों से पवित्र थी, माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक मानो आकाश में गूंज रहे थे। इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन-सी संजीवनी थी जिसने उसके शोकात हृदय को फिर वालोत्साह से भर दिया। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और अधर से आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। सास के वह कठोर शब्द, स्त्री का वह निष्ठुर आघात, वह सारा अपमान उसे भूल गया। उसके पाव फूल गये थे, तलवों में जलन हो रही थी। पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न था।

सहसा रखवाले ने पुकारा --- वह कौन ऊपर चढ़ा हुआ है रे ? उतर अभी, नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूंगा कि वहीं ठंडे हो जाओगे।

उसने कई गालियां भी दी। इस फाटकर और इन गालियों में इस समय हरिधन
[ १४० ]
को अलौकिक आनन्द मिल रहा था। वह डालियों में छिप गया, कई आम काट- काटकर नीचे गिराये, और जोर से ठछा मारकर हँसा। ऐसी उल्लास से भरी हुई हँसी उसने बहुत दिन से न हँसी थी।

रखवाले को यह हँसी परिचित मालूम हुई , मगर हरिधन यहाँ कहाँ ? वह तो ससुराल की रोटियाँ तोड़ रहा है। केसा हंसोड़ था, कितना चिविल्ला। न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ। पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था। अब गाँव में ऐसा

डाँटकर बोला --- वहाँ से वैठे भेटे हँसोगे, तो आकर सारी हँसो निशाल दूंगा, नहीं सीधे से उतर आओ।

वह गालियां देने जा रहा था कि एक गुठली आकर उसके सिर पर लगी। सिर सहलाता हुआ बोला --- यह कौन सैतान है, नहीं मानता, ठहर तो, मैं आभर तेरो खबर लेता हूँ।

उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दो और बन्दरों की तरह चट-पट कार चढ़ गया। देखा तो हरिधन बैठा मुखकिरा रहा है। चकित होकर बोला --- अरे हरिधन। तुम यहाँ कब आये। इस पेड़ पर कबसे पेठे हो ?

दोनों बचपन के सखा वहीं गले मिले।

'यहाँ कर आये ? चलो, घर चलो। भले आदमी, क्या वहाँ आप्न भो मयस्सर न होते थे ?

हरिधन ने मुस्किराकर कहा --- मॅगरू, इन आर्मों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आर्मों में नहीं है। गाँव का क्या रजा ढग है ?

मँगरू --- सब चैनवान है भैया ! तुमने तो जैसे नाता हो तोड़ लिया। इस तरह कोई अपना गांध-घर छोड़ देता है। जबसे तुम्हारे दादा मरे, सारी गिरस्ती चौपट हो गई। दो छोटे-छोटे लड़के हैं। उनके लिये क्या होता है।

हरिधन --- अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई ? मैं तो अपना ले-दे चुका । मजूरी तो मिलेगी न ? तुम्हारी भैया मैं ही चरा दिया करूँगा, मुझे खाने को दे देना।

मँगरू ने अविश्वास के भाव से कहा --- अरे भैया, कैसी.बाते करते हो, तुम्हारे लिए जान हाजिर है। क्या ससुराल में अब न रहोगे ? कोई चिन्ता नहीं। पहले तो तुम्हारा घर ही है। उसे सँभालो ! छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको पालो ! तुम नई अम्माँ
[ १४१ ]
से नाहक करते थे। बड़ी सीधी है बेचारी। बस, अपनी मां ही समझो। तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे ?

हरिधन --- उसका अब मुंह न देखूगा‌। मेरे लिए वह मर गई।

मँगरू --- तो दूसरी सगाई हो जायगी। अबकी ऐसो मेहरिया ला दूँगा कि उसके पैर धो-धो पिओगे ; लेकिन कहीं पहली भी आ गई तो?

हरिधन --- वह न आयेगी।

( ७ )

हरिधन अपने घर पहुंचा तो दोनों भाई, 'भैया आये। भैया आये! कहकर भीतर दौड़े और मां को खबर दी।

उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शान्त महिमा का अनुभव हुआ मानों वह अपनी मां की गोद में बैठा हुआ है। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका हृदय कोमल हो गया था। जहां पहले अभिमान था, आप्रथा, हेकड़ो थो; वहाँ अब निराशा थी, पराजय थी और याचना थी। बीमारी का जोर कम हो चला था, अब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थो, किले की दीवारें छिद चुको थी, अब उसमें घुस जाना असाध्य न था। वही घर जिससे वह एक दिन विरक हो गया था, अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था। इरिधन का निरवलम्ब मन यह माश्रय पाकर मानों तृप्त हो गया।

शाम को विमाता ने कहा --- बेटा, तुम पर आ गये, हमारे धन भाग। मब इन बच्चों को पालो, मां का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही। मुझे एक रोटो दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी। तुम्हारी अम्मा से मेरा बहन का नाता है। उस नाते से भो तुम मेरे लड़के होते हो।

हरिधन की मातृ-विह्वल आँखों को विमाता के रूप में अपनी माता के दर्शन हुए। घर के एक-एक कोने में मातृ स्मृतियों की छटा चाँदनी को भांति छिटकी हुई थी, विमाता का प्रौढ़ मुखमण्डल भी उसो छटा से रजित भा। दूसरे दिन हरिधन फिर कन्धे पर हल रखकर खेत को चला। उसके मुख पर उल्लास था और आंखों में गर्द। वह अब किसी का आश्रित नहीं, आश्रयदाता था; किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं, घर का रक्षक था। [ १४२ ]एक दिन उसने मुना, गुमानी ने दुसरा पर कर लिया । माँ से बोला --- तुमने सुना काकी ! गुमानी ने घर कर लिया।

काकी ने कहा --- घर क्या कर लेगो, ठट्ठा है ! बिरादरी में ऐसा अन्धेर ? पंचायत नहीं, अदालत तो है ?

हरिधन ने कहा --- नहीं काकी, बहुत अच्छा हुआ। का, महाबीरजी को लड्डू चढ़ा आऊ। मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े। भगवान् ने मेरी सुन ली। मैं वहाँ से यही ठानकर चला था, अब उसका मुँह न देखूँगा।