मानसरोवर २/१४ मुफ्त का यश
मुफ़्त का यश
उन दिनो संयोग से हाकिम-ज़िला एक रसिक सज्जन थे। इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्ति कर ली। ईश्वर जाने दफ्तर के सूखे कामों से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। यहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है—'मारे काम के मरा जाता हूँ, सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती।' शायद शिकार और सैर भी उनके काम में शामिल है। उन सज्जन की कीर्तियाँ मैंने देखी थीं और मन में उनका आदर करता था, लेकिन उनकी अफसरी किसी प्रकार की घनिष्ठता में बाधक थी। मुझे यह संकोच था कि अगर मेरी ओर से पहले हुई, तो लोग यही कहेंगे कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है, और मैं किसी दशा में भी यह इलजाम अपने सिर नहीं लेना चाहता। मैं तो हुक्काम की दावतों और सार्वजनिक उत्सवों में नेवता देने का भी विरोधी हूँ, और जब कभी सुनता हूं कि किसी अफसर को किसी आम जलसे का सभापति बनाया गया, या कोई स्कूल या औषधालय या विधवाश्रम किसी गवर्नर के नाम से खोला गया, तो अपने देश-बन्धुओं की दास-मनोवृत्ति पर घण्टों अफसोस करता हूँ। मगर जब एक दिन हाकिम-जिला ने खुद मेरे नाम एक रुक्का भेजा कि मैं आपसे मिलना चाहता हूँ, क्या आप मेरे बङ्गले पर आने का कष्ट स्वीकार करेंगे, तो मैं बड़े दुबिधे में पड़ गया। क्या जवाब दूँ? अपने दो-एक मित्रों से सलाह ली। उन्होंने कहा—'साफ लिख दीजिए, मुझे फुररात नहीं। वह हाकिम-जिला होंगे, तो अपने घर के होंगे। कोई सरकारी वा जाब्ते का काम होता, तो आपका जाना अनिवार्य था; लेकिन निजी मुलाकात के लिए जाना आपकी शान के खिलाफ है। आखिर वह खुद आपके मकान पर क्यों नहीं आये? इससे क्या उनकी शान में बट्टा लगा जाता था, इसी लिए तो खुद नहीं आये कि वह हाकिम-ज़िला हैं। इन अहमक हिन्दुस्तानियों को कब यह समझ आयेगी कि दफ्तर के बाहर वे भी वैसे ही साधारण मनुष्य हैं, जैसे हम या आप । शायद यह लोग अपनी घरवालियों से भी अफसरी जताते होंगे। अपना पद उन्हें कभी नहीं भूलता।
एक मित्र ने, जो लतीफो के चलते-फिरते तिज़ोरी हैं, हिन्दुस्तानी अफसरों के विषय मे कई मनोरञ्जक घटनाएँ सुनाई। एक अफसर साहब ससुराल गये। शायद स्त्री को विदा कराना था । जैसा आम रिवाज है, ससुरजी ने पहले हो वादे पर लड़की को विदा करना उचित न समझा। कहने लगे-बेटा, इतने दिनों के बाद आई है, अभी कैसे बिदा कर दूं? भला छः महीने तो रहने दो। उधर धर्मपत्नीजी ने भी नाइन से सदेशा कहला भेजा-अभी मैं नहीं जाना चाहती। आखिर माता-पिता से भी तो मेरा कोई नाता है। कुछ तुम्हारे हाथ विक थोड़े ही गई हूँ। दामाद साहक अफसर थे, जामे से बाहर हो गये। तुरन्त घोड़े पर बैठे और सदर को राह ली । दूसरे ही दिन ससुरजी पर सम्मन जारी कर दिया । बेचारा बूढा आदमी तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुंचा । तब जाके उसकी जान बची। यह लोग ऐसे मिथ्याभिमानी होते हैं। और फिर तुम्हें हाकिम-जिला से लेना ही क्या है , अगर तुम कोई विद्रोहात्मक गल्प या लेख लिखोगे, तो फौरन् गिरफ्तार कर लिये जाओगे। हाकिम-जिला ज़रा भी मुरौवत न करेंगे।कह देंगे- यह गवर्नमेंट का हुक्म है, मैं क्या करूं। अपने लड़के के लिए कानूनगोई सा नायब तहसीलदारी की लालसा तुम्हे है नहीं , व्यर्थ क्यो दौटे जाओगे।
लेकिन, मुझे मित्रों की यह सलाह पसन्द न आई । एक भला आदमी जन
निमन्त्रण देता है, तो उसे केवल इसलिए अस्वीकार कर देना कि हाकिम-जिला ने
भेजा है, मुटमर्दी है।
बेशक हाकिम साहब मेरे घर आ जाते, तो उनकी शान कम न होती। उदार हृदयवाला आदमी वेतकल्लुफ चला आता , लेकिन भाई, जिले की
अफसरी बड़ी चीज़ है। और एक उपन्यासकार की इस्ती हो क्या है । इग्लैंड या
अमेरिका में गल्प-लेसको और उपन्यासकारों की मेज पर निमन्त्रित होने में प्रधान
मंत्री भी अपना गौरव समझेगा, हाकिम-जिला को तो गिनती ही क्या है, लेकिन
यह भारतवर्ष है, जहाँ हरएक रईस के दरवार में कवि-सन्नाटो का एक जत्था रईस के
कीर्तिगान के लिए जमा रहता था और आज भी ताजपोशी में हमारे लेखवृन्द
बिना बुलाये राजाओं की खिदमत में हाजिर होते हैं, कसीदे पेश करते हैं और इनाम
के लिला हाथ पसारते है। तुम ऐसे कहाँ के बड़े वह हो कि हाकिम-जिला तुम्हारे
"घर चला आये। जब तुम मे इतनी अकड़ और तुनुकमिजाजी है, तो वह तो जिले
का बादशाह है ; अगर उसे कुछ अभिमान भी हो, तो उचित है। इसे उसकी कम-
ज़ोरी कहो, बेहूदगी कहो, मूर्खता कहो, उजण्डता कहो, फिर भी उचित है। देवता
होना गर्व की बात है । लेकिन मनुष्य होना भी अपराध नहीं !
और मैं तो कहता हूँ--ईश्वर को धन्यवाद दो कि हाकिम-ज़िला तुम्हारे घर नहीं आये ; वरना तुम्हारी कितनी भद होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था ? गत को एक कुरसी भी तो नहीं है। उन्हें क्या तीन टांँगवाले सिंहा- सन पर बैठाते या मटमैले जाजिम पर ? तीन पैसे की चौबीस बीड़ियां पीकर दिल खुश कर लेते हो। है सामर्थ्य रुपये के दो सिगार खरीदने की ? तुम तो इतना भी नहीं जानते, वह सिगार मिलता कहाँ है, उसका नाम क्या है। अपना भाग्य सराहो कि अफसर साहब तुम्हारे घर नहीं आये और तुम्हें बुला लिया। चार-पांच रुपये विगढ़ भी जाते और लज्जित भी होना पड़ता। और कहीं तुम्हारे परम दुर्भाग्य और पापों के दण्ड-स्वरूप उनकी धर्म-पत्नी भी उनके साथ होती, तब तो तुम्हें धरती में समा जाने के सिवा और कोई ठिकाना न था। तुम या तुम्हारी धर्मपली उस महिला का सत्कार कर सकती थी ? तुम्हारी तो घिग्घी बॅध जाती साहव, बदहवास हो जाते ! वह तुम्हारे दीवानखाने तक ही न रहती, जिसे तुमने गरीवामऊ ढङ्ग से सजा रखा है । वहाँ तुम्हारी गरीबी अवश्य है , पर फूहड़पन नहीं । अन्दर तो पग-पग पर फूहड़- पन के दृश्य नज़र आते । तुम अपने घर में फटे-पुराने पहनकर और अपनी विपन्नता में मगन रहकर जिन्दगी बसर कर सकते हो , लेकिन कोई भी आत्माभिमानो आदमी यह पसन्द नहीं कर सकता कि उसकी दुरवस्था दूसरों के लिए विनोद को वस्तु बने । इन लेडी साहबा के सामने तो तुम्हारी जबान वन्द हो जाती ।
चुनाचे मैंने हाकिम-ज़िला का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और यद्यपि उनके स्वभाव में कुछ अनावश्यक अफसरी को शान थी, लेकिन उनके स्नेह और उदारता ने उसे यथासाध्य प्रस्ट न होने दिया। कम-से-कम उन्होंने मुझे शिकायत का कोई मौका न दिया। अफसराना प्रकृति को तबदील करना उनकी शक्ति के बाहर था।
मैंने, इस प्रसंग को कोई महत्त्व देने की कोई बात भी न थी, महत्त्व न दिया। उन्होंने मुझे बुलाया, मैं चला गया। कुछ गप-शप किया और लौट आया। किसीसे इसका ज़िक्र करने की ज़रूरत ही क्या। मानो भाजी खरीदने बाजार गया था। लेकिन टोहियों ने जाने कैसे टोह लगा लिया। विशेष समुदायों में यह चर्चा होने लगी कि हाकिम-जिला से मेरी बड़ी गहरी मैत्री है, और वह मेरा बड़ा सम्मान करते हैं। अतिशयोक्ति ने मेरा सम्मान और भी बढा दिया। यहाँ तक मशहूर हुआ कि वह मुझसे सलाह लिये बगैर कोई फैसला या रिपोर्ट नहीं लिखते।
कोई समझदार आदमी इस ख्याति से लाभ उठा सकता था। स्वार्थ मे आदमी बावला हो जाता है । तिनके का सहारा हूँढता फिरता है। ऐसी को विश्वास दिलाना कुछ मुश्किल न था कि मेरे द्वारा उनका काम निकल सकता है , लेकिन मैं ऐसी बातों से घृणा करता हूँ। सैकड़ी व्यक्ति अपनी कथाएँ लेकर मेरे पास आये। किसीके साथ पुलिस ने बेजा ज्यादती की थी। कोई इन्कमटैक्सवालों की सख्तियों से दुखी था, किसीकी यह शिकायत थी कि दफ्तर में उसकी हकतलफी हो रही है और उसके पीछे के आदमियों को दनादन तरक्कियाँ मिल रही हैं। उसका नम्बर आता है, तो कोई परवाह नहीं करता। इस तरह का कोई-न-कोई प्रसंग नित्य ही मेरे पास आने लगा , लेकिन मेरे पास उन सबके लिए एक ही जवाब था-मुझसे कोई मतलब नहीं।
एक दिन मैं अपने कमरे मे बैठा था कि मेरे बचपन के एक सहपाठी मित्र आ टपके । हम दोनो एक ही मकतब में पढ़ने जाया करते थे। कोई ४५ साल की पुरानी बात है। मेरी उन ८-९ साल से अधिक न थी। वह भी लगभग इसी उन्न के रहे होंगे , लेकिन मुझसे कहीं बलवान् और हृष्ट-पुष्ट । मैं ज़हीन था, वह निरे कौदन । मौलवी साहब उनसे हार गये थे। और उन्हे सबक पढाने का भार मुझ पर डाल- दिया था। अपने से दुगुने व्यक्ति को पढाना मैं अपने लिए गौरव की बात समझता था और खूब मन लगाकर पढाता था। फल यह हुआ कि मौलवी साहव की छड़ी जहाँ असफल रही, वहाँ मेरा प्रेम सफल हो गया। बलदेव चल निकला, खालिक़वारी तक जा पहुँचा , मगर इस बोच मे मौलवी साहब का स्वर्गवास हो गया और वह शाखा टूट गई। उनके छात्र भी इधर उधर हो गये। तबसे वलदेव को मैंने केवल दो-तीन बार रास्ते मे देखा, ( मैं अब भी वही सींकिया पहलवान हूँ, वह अब भी वही भीमकाय ) राम-राम हुई, क्षेम-कुशल पूछा और अपनी-अपनी राह चले गये।
मैंने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा-आओ भाई बलदेव, मजे मे तो हो ? कैसे याद किया ? क्या करते हो आजकल ?
बलदेव ने व्यथित कण्ठ से कहा-जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे है भाई, और
क्या । तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी । याद करो वह मकतबवाली बात,
जब तुम मुझे पढ़ाया करते थे। तुम्हारी बदौलत चार अक्षर पढ़ गया और अपनी
जमींदारी का काम सँभाल लेता हूँ, नहीं सूरख ही बना रहता। तुम मेरे गुरु हो
भाई, सच कहता हूँ। मुझ जैसे गधे को पढाना तुम्हारा ही काम था। न जाने क्या
चात्त थी कि मौलवी साहब से सबक पढकर अपनी जगह पर आया नहीं कि बिलकुल
साफ । तुम जो पढाते थे, वह बिना याद किये ही याद हो जाता था। तुम तब भी
बड़े जहीन थे।
यह कहकर उन्होंने मुझे सगर्व नेत्रों से देखा ।
मैं बचपन के साथियो को देखकर फूल उठता हूँ। सजल नेत्र होकर बोला- मैं तो जर तुम्हे देखता हूँ, तो यही जी में आता है कि दौड़कर तुम्हारे गले लिफ्ट जाऊँ । ४५ वर्ष का युग मानो बिलकुल गायब हो जाता है। वह मकतव आँखो के सामने फिरने लगता है, और बचपन सारी मनोहरताओं के साथ ताजा हो जाता है ।
बलदेव ने भी द्रवित कण्ठ से उत्तर दिया-मैंने तो भाई, तुम्हें सदैव अपना इष्टदेव
समझा है । जब तुम्हें देखता हूँ, तो छाती गज-भर की हो जाती है कि वह मेरा
बचपन का सगी जा रहा है, जो समय आ पड़ने पर कभी दया न देगा। तुम्हारी
चडाई सुन-सुनकर मन-ही-मन प्रसन्न हो जाता हूँ; लेकिन यह बताओ, क्या तुम्हें
खाना नहीं मिलता है? कुछ खाते-पोते क्यों नहीं ? सूखते क्यों जाते हो ? घी न मिलता
हो, तो दो-चार कनस्टर भिजवा दूं । अब तुम भी बूढ़े हुए, खूब डटकर खाया करो।
अब तो देह में जो कुछ तेज और बल है, वह केवल भोजन के अधीन है। मैं तो
अब भी सेर-भर दूध और पाव-भर धी उड़ाये जाता हूँ। इधर थोडा मक्खन भी
खाने लगा हूँ। जिन्दगी-भर बाल-बच्चों के लिए मर मिटे, अब कोई यह भी नहीं
पूछता, तुम्हारी तबीयत कैसी है ; अगर आज कघा डाल दूं, तो कोई एक लोटे पानी
को न पूछे , इसलिए खूब खाता हूँ और सबसे ज्यादा काम करता हूँ। घर पर अपना
रोब बना हुआ है। वही जो तुम्हारा जेठा लड़का है, उस पर पुलिस ने एक झूठा
मुकदमा चला दिया है। जवानी के मद में किसीको कुछ समझता नहीं । है भी
अच्छा खासा पहलवान । दारोगाजी से एक बार कुछ कहा-सुनी हो गई। तबसे घात
थे । इधर गाँव मे एक डाका पड़ गया । दारोगाजी ने तहकीकात में उसे
भी फांस लिया । आज एक सप्ताह से हिरासत मे है । सुकदमा मुहम्मद खलील डिप्टी
के इजलास में है और मुहम्मद खलील और दारोगाजी की दाँत-काटी रोटी है । अवश्य
सजा हो जायगी। अब तुम्ही बचाओ, तो उसकी जान बच सकती है। और कोई
आशा नहीं। सज़ा तो जो होगी वह होगी ही, इज्जत भी खाक में मिल जायगी।
तुम जाकर हाकिम-जिला से इतना कह दो कि मुकदमा झूठा है, आप खुद चलकर
तहकीकात कर लें। बस देखो भाई, वचपन के साथी हो, नाहीं न करना। जानता
हूँ, तुम इन मुआमलों में नहीं पड़ते और तुम्हारे-जैसे आदमी को पढ़ना भी न
चाहिए । तुम प्रजा की लड़ाई लड़नेवाले जीव हो, तुम्हें सरकार के आदमियों से मेल-
जोल बढाना उचित नहीं। नहीं जनता की नज़रों से गिर जाओगे, लेकिन यह घर
का मुआमला है। इतना समझ लो ; अगर बिलकुल झूठा न होता, तो मैं कभी
तुम्हारे पास न आता ! लड़के की माँ रो-रोकर जान दिये डालती है, बहू ने दाना-पानी
छोड़ रखा है। सात दिन से घर में चूल्हा नहीं जला। मैं तो थोड़ा-सा दूध पी लेता
हूँ, लेकिन दोनों सास-बहू तो निराहार पड़ी हुई हैं। अगर बच्चा को सज़ा हो गई,
तो दोनों मर जायेंगी। मैंने यही कहकर उन्हे ढाढस दिया है कि जब तक हमारा
छोटा भाई सलामत्त है, कोई हमारा बाल बांका नहीं कर सकता। तुम्हारी भाभी ने
तुम्हारी एक पुस्तक पढी है । वह तो तुम्हें देव-तुल्य समझती है, और जब कोई बात
होती है तो तुम्हारी नजीर देकर मुझे लज्जित करती रहती है। मैं भी साफ कह देता
हूँ-~~मैं उस छोकरे को-सौ बुद्धि कहाँ से लाऊँ। तुम्हे उसकी नज़रो से गिराने के
लिए तुम्हें छोकरा, मरियल सभी कुछ कहता है , पर तुम्हारे सामने मेरा रंग नहीं
जमता।
मैं बड़े संकट में पड़ गया। मेरी ओर से जितनी आपत्तियां हो सकती थीं, उन सबका जवाब बलदेवसिह ने पहले ही से दे दिया था । उनको फिर से दुहराना व्यर्थ था। इसके सिवा कोई भी जवाब न सूझा कि मैं जाकर साहब से कहूँगा। हाँ, इतना मैंने अपनी तरफ से और वढा दिया कि मुझे आशा नहीं कि मेरे कहने का विशेष खयाल किया जाय , क्योंकि सरकारी मुआमलों में हुक्काम हमेशा अपने मातहतो का पक्ष लिया करते हैं।
बलदेवसिंह ने प्रसन्न होकर कहा---इसकी चिन्ता नहीं, तकदीर में जो लिखा है, वह तो होगा ही , बस तुम जाकर कह-भर दो।
'अच्छी बात है।' 'तो कल जाओगे?'
'हाँ, अवश्य जाऊँगा।'
'यह जरूर कहना कि आप चलकर तहकीकात कर लें।'
'हाँ, यह ज़रूर कहूँगा।'
'और यह भी कह देना कि वलदेवसिंह मेरा भाई है।'
'झूठ बोलने के लिए मुझे मजबूर न करो।'
'तुम मेरे भाई नहीं हो ? मैंने तो हमेशा तुम्हें अपना भाई समझा है।'
'अच्छा, यह भी कह दूंँगा।'
बलदेवसिह को बिदा करके मैंने अपना लेख समाप्त किया। और आराम से भोजन करके लेटा । मैंने उनसे गला छुड़ाने के लिए झूठा वादा कर दिया था। मेरा इरादा हाकिम-जिला से कुछ कहने का नहीं था । मैंने पेशवदी के तौर पर पहले ही जता दिया था कि हुक्काम आम तौर पर पुलिस के मुआमलो मे दखल नहीं देते , इसलिए सजा हो भी गई, तो मुझे यह कहने की काफी गुंजाइश थी कि साहब ने मेरी बात स्वीकार नहीं की।
कई दिन गुज़र गये थे । मैं इस वाकिये को बिलकुल भूल गया था। सहसा एक दिन बलदेवसिह अपने पहलवान बेटे के साथ मेरे कमरे में दाखिल हुए। बेटे ने मेरे चरणों पर सिर रख दिया और अदब से एक किनारे खड़ा हो गया। बलदेवसिह बोले--बिलकुल बरी हो गया भैरो । साहब ने दारोगा को बुलाकर खून डाटा कि तुम भले आदमियों को सताते और बदनाम करते हो । अगर फिर ऐसा झूठा मुकदमा लाये, तो बर्खास्त कर दिये जाओगे । दारोगाजी बहुत झेंपे । मैंने उन्हें झुक- कर सलाम किया। बचा पर धड़ी पानी पड़ गया। यह तुम्हारी सिफारिश का चमत्कार है भाईजान , अगर तुमने मदद न की होती, तो हम तबाह हो गये थे। यह समझ लो कि तुमने चार प्राणियो कि जान बचा ली । मैं तुम्हारे पास बहुत डरते-डरते आया था। लोगों ने कहा था-उसके पास नाहक जाते हो, वह बड़ा बेमुरौवत आदमी है, उसकी जाति से किसीका उपकार नहीं हो सकता। आदमी वह है, जो दूसरो का हित करे । वह क्या आदमी है, जो किसी कि कुछ सुने हो नहीं ! लेकिन भाईजान, मैंने किसीकी बात न मानी। मेरे दिल में मेरा राम बैठा कह रहा था--तुम चाहे कितना ही रूखे और बेलाग हो । लेकिन मुझ पर अवश्य दया करोगे ।