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मानसरोवर २/१३ रियासत का दीवान

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मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १५६ से – १७४ तक

 

रियासत का दीवान

महाशय मेहता उन अभागों मे थे, जो अपने स्वामी को नहीं प्रसन्न रख सकते। वह दिल से अपना काम करते थे और चाहते थे कि उनकी प्रशंसा हो। वह यह भूल जाते थे कि वह काम के नौकर तो हैं ही, अपने स्वामी के सेवक भी हैं। जब उनके अन्य सहकारी स्वामी के दरबार में हाजिरी देते थे, तो वह बेचारे दफ्तर में बैठे काग़जों से सिर मारा करते थे। इसका फल यह था कि स्वामी के सेवक तो तरक्कियाँ पाते थे, पुरस्कार और पारितोषिक उड़ाते थे और काम के सेवक मेहता किसी-न-किसी अपराध में निकाल दिये जाते थे। ऐसे कटु अनुभव उन्हें अपने जीवन में कई बार हो चुके थे। इसलिए अबकी जब राजा साहब सतिया ने उन्हें एक अच्छा पद प्रदान किया, तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि अब वह भी स्वामी का रुख देखकर काम करेंगे और उनके स्तुति-गान से ही भाग्य की परीक्षा करेंगे। और इस प्रतिज्ञा को उन्होंने कुछ इस तरह निभाया कि दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक स्वाधीन राज्य की दीवानी का क्या कहना! वेतन तो ५००) मासिक ही था, मगर आख्तयार बड़े लम्बे। राई का पर्वत करो, या पर्वत से राई, कोई पूछनेवाला न था। राजा साहब भोग-विलास मे पड़े रहते थे, राज्य-संचालन का सारा भार मि० मेहता पर था। रियासत के सभी अमले और कर्मचारी दण्डवत् करते, बड़े-बड़े रईस नज़राने देते, यहाँ तक कि रानियां भी उनकी खुशामद करती। राजा साहब उग्र प्रकृति के मनुष्य थे, जैसे प्राय. राजे होते हैं। दुर्बलों के सामने कभी बिल्ली, कभी शेर , सबलों के सामने मि० मेहता को डाँट- फटकार भी बताते । पर मेहता ने अपनी सफाई मे एक शब्द भी मुंह से न निकालने की कसम सा ली थी। सिर झुकाकर सुन लेते। राजा साहब को क्रोयाग्नि इंधन न पाकर शान्त हो जाती।

गर्मियों के दिन थे। पोलिटिकल एजेन्ट का दौरा था। राज्य में उनके स्वागत

की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मेहता को बुलाकर कहा- मैं चाहता हूँ, साहब बहादुर यहाँ से मेरा कलमा पढते हुए जायें।

मेहता ने सिर झुकाकर विनीत भाव से कहा-चेष्टा तो ऐसी ही कर रहा हूँ, अन्नदाता !

'चेष्टा तो सभी करते हैं, मगर वह चेष्टा कभी सफल नहीं होती। मैं चाहता हूँ, तुम दृढ़ता के साथ कहो-ऐसा ही होगा।'

‘ऐसा ही होगा।'

'रुपये की परवाह मत करो।'

'जो हुक्म ।'

'कोई शिकायत न आये , वरना तुम जानोगे ।'

'वह हुजूर को धन्यवाद देते जाय तो सही ।'

'हाँ, मैं यही चाहता हूँ।

'जान लड़ा दूंँगा, दीनबन्धु ।'

'अब मुझे सतोष है।'

इधर तो पोलिटिकल एजेन्ट का आगमन था, उधर मेहता का लड़का जयकृष्ण गर्मियों की छुट्टियां मनाने माता-पिता के पास आया । किसी विश्वविद्यालय में पढ़ता था । एक बार १९३२ में कोई उग्र-भाषण करने के जुर्म में ६ महीने की सज़ा काट चुका था। मि. मेहता की नियुक्ति के बाद जब वह पहली बार आया था तो राजा साहब ने उसे खास तौर पर बुलाया था, और उससे जी खोलकर बातें की थीं, उसे अपने साथ शिकार खेलने ले गये और नित्य उसके साथ टेनिस खेला किये थे। जयकृष्ण पर राजा साहब के साम्यवादी विचारों का बड़ा प्रभाव पड़ा था। उसे ज्ञात हुआ कि राजा साहब केवल देशभक्त ही नहीं, क्रान्ति के समर्थक है। रूस और फ्रांस की क्रान्ति पर दोनों में खूब बहस हुई थी, लेकिन अबकी यहाँ उसने कुछ और ही रंग देखा । रियासत के हरएक किसान और ज़मींदार से जबरन् चन्दा वसूल किया जा रहा था। पुलिस गाँव-गाँव चन्दा उगाहती फिरती थी। रक़म दीवान साहब नियत करते थे । वसूल करना पुलिस का काम था। फरियाद की कहीं सुनवाई न थी ! चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। हजारों मज़दूर सरकारी इमारतों की सफाई, सजावट और सड़कों की मरम्मत मे वेगार भर रहे थे। बनियों से डण्डों के

ज़ोर से रसद जमा की जा रही थी। जयकृष्ण को आश्चर्य हो रहा था कि यह क्या हो रहा है। राजा जाहब के विचार और व्यवहार में इतना अन्तर कैसे हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि महाराज को इन अत्याचारों की खबर ही न हो, या उन्होंने जिन तैयारियो का हुक्म दिया हो, उसकी तामील में कर्मचारियों ने अपनी कारगुजारी की धुन में यह अनर्थ कर डाला हो। रात भर तो उसने किसी तरह जब्त किया । प्रात काल उसने मेहताजी से पूछा-आपने राजा साहब को इन अत्याचारों की सूचना नहीं दी ?

मेहताजी को स्वयं इस अनीति से ग्लानि हो रही थी। वह स्वभावत दयालु मनुष्य थे , लेकिन परिस्थितियों ने उन्हे अशक्त कर रखा था। दुखित स्वर में बोले- राजा साहब का यही हुक्म है, तो क्या किया जाय ।

'तो आपको ऐसी दशा में अलग हो जाना चाहिए था । आप जानते हैं, यह जो कुछ हो रहा है, उसकी सारी ज़िम्मेदारी आपके सिर लादी जा रही है। प्रजा आप ही को अपराधी समझती है।'

'मैं मजबूर हूँ। मैंने कर्मचारियों से बार-बार संकेत किया है कि यथासाध्य किसी पर सख्ती न की जाय , लेकिन हरेक स्थान पर में मौजूद तो नहीं रह सक्ता । अगर प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करूँ, तो शायद कर्मचारो लोग महाराज से मेरी शिका- यत कर दें। यह लोग ऐसे ही अवसरों की ताक मे तो रहते ही हैं। इन्हे तो जनता को लूटने का कोई बहाना चाहिए । जितना सरकारी कोष में जमा करते, उससे ज्यादा अपने घर मे रख लेते हैं । मैं कुछ कर ही नहीं सकता।'

जयकृष्ण ने उत्तेजित होकर कहा-तो आप इस्तीफा क्यो नहीं दे देते ?

मेहता लजित होकर बोले-बेशक, मेरे लिए मुनासिव तो यही था , लेकिन भीवन मे इतने धक्के खा चुका हूँ कि अब और सहने की शक्ति नहीं रही। यह निश्चय है कि नौकरी करके मैं अपने को वेदाग नहीं रख सकता। धर्म और अधर्म, सेवा और परमार्थ के झमेलो में पड़कर मैंने बहुत ठोकरें खाई । मैंने देख लिया कि दुनिया दुनियादारो के लिए है, जो अवसर और काल देखकर काम करते हैं। सिद्धान्त- वादियों के लिए यह अनुकूल स्थान नहीं है।

जयकृष्ण ने तिरस्कार-भरे स्वर में पूछा-मैं राजा साहब के पास जाऊँ ।

'क्या तुम समझते हो, राजा साहब से यह बातें छिपी है ?' 'सभव है, प्रजा की दुःख-कथा सुनकर उन्हे कुछ दया आये ?'

मि० मेहता को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। वह तो ख़ुद चाहते थे कि किसी तरह अन्याय का बोझ उनके सिर से उतर जाय । हाँ, यह भय अवश्य था कि कहीं जयकृष्ण की सत्प्रेरणा उनके लिए हानिकर न हो, और कहीं उन्हें इस सम्मान और अधिकार से हाथ न धोना पढे । बोले- यह खयाल रखना कि तुम्हारे मुंह से कोई ऐसी बात न निकल जाय, जो महाराज को अप्रसन्न कर दे।

जयकृष्ण ने उन्हे आश्वासन दिया-वह ऐसी कोई बात न करेगा । क्या वह इतना नादान है , मगर उसे क्या खबर थी कि आज के महाराजा साहब वह नहीं हैं, जो एक साल पहले थे। या संभव है. पोलिटिकल एजेंट के चले जाने के बाद फिर हो जायें। वह न जानता था कि उनके लिए क्रान्ति और आतंक की चर्चा भी उसी तरह विनोद की वस्तु थी, जैसी हत्या या बलात्कार या जाल की वारदातें या रूप के बाज़ार के आकर्षक समाचार । जब उसने ड्योढी पर पहुँचकर अपनी इत्तला कराई, तो मालूम हुआ कि महाराज इस समय अस्वस्थ हैं, लेकिन वह लौट ही रहा था कि महाराज ने उसे बुला भेजा । शायद उससे सिनेमा-संसार के ताजे समाचार पूछना चाहते थे । उसके सलाम पर मुसकिराकर बोले--तुम खूब आये भई, कहो एम० सी० सी० का भैच देखा या नहीं ? मैं तो इन बखेड़ो में ऐसा फंसा कि जाने की नौबत ही नहीं आई । अब तो यही दुआ कर रहा हूँ कि किसी तरह एजेंट साहब खुश-खुश रुखसत हो जायें। मैंने जो भाषण लिखवाया है, वह जरा तुम भी देख लो । मैंने इन राष्ट्रीय आन्दोलनों की खूध खबर ली है और हरिजनोद्धार पर भी छींटे उडा दिये हैं।

जयकृष्ण ने अपने आवेश को दबाकर कहा-- राष्ट्रीय आन्दोलनो की आपने खबर ली, यह अच्छा किया, लेकिन हरिजनोद्धार को तो सरकार भी पसन्द करती है; इसी लिए उसने महात्मा गांधी को रिहा कर दिया, और जेल में भी उन्हें इस आदोलन के सम्बन्ध में लिखने-पढने और मिलने जुलने की पूरी स्वाधीनता दे रखी थी।

राजा साहब ने तात्त्विक मुस्कान के साथ कहा - तुम जानते नहीं, यह सब प्रदर्शन-मात्र हैं। दिल में सरकार समझती है कि यह भी राजनैतिक आदोलन है। वह इस रहस्य को बड़े ध्यान से देख रही है । लायलटी में जितना प्रदर्शन करो, चाहे वह औचित्य की सीमा के पार ही क्यों न हो जाय, उसका रंग चीखा ही होता है। उसी तरह जैसे कवियों की विरुदावली से हम फूल उठते है, चाहे वह एक क्यों न हो । हम ऐसे कवि को खुशामदी समझे , अहमक भी समझ सकते हैं ; पर उससे अप्रसन्न नहीं हो सकते ; वह हमें जितना ही ऊँचा उठाता है, उतना ही हमारी दृष्टि में ऊँचा उठता जाता है ।

राजा साहब ने अपने भाषण की एक प्रति मेज को दराज से निकालकर जयकृष्ण के सामने रख दी , पर जयकृष्ण के लिए इस भाषण में अब कोई आकर्षण न था । अगर वह सभा-चतुर होता, तो जाहिरदारी के लिए ही इस भाषण को बड़े प्यान से पढता और उसके शब्द-विन्यास और भावोत्कर्ष की प्रशंसा करता, और उसकी तुलना महाराजा बीकानेर या पटियाला के भाषणो से करता, पर अभी दरवारी दुनिया की रीति-नीति से अनभिज्ञ था। जिस चीज़ को बुरा समझता था, उसे बुरा कहता था; जिस चीज़ को अच्छा समझता था, उसे अच्छा कहता । बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा कहना अभी उसे न आया था। उसने भाषण पर सरसरी नजर डालकर उसे मेज पर रख दिया, और अपनी स्पष्टवादिता का बिगुल फूँकता हुआ बोला--में राज- नीति के रहस्यों को भला क्या समझ सकता है, लेकिन मेरा खयाल है कि चाणक्य के यह वंशज इन चालो को खूब समझते हैं और कृत्रिम भावों का उन पर कोई असर नहीं होता , बल्कि इससे आदमी उनकी नज़रों में और भी गिर जाता है। अगर एजेंट को मालूम हो जाय कि उसके स्वागत के लिए प्रजा पर कितने जुल्म ढाये जा रहे हैं, तो शायद वह यहां से प्रसन्न होकर न जाय । फिर, मैं तो प्रजा की दृष्टि देखता हूँ। एजेंट की प्रसन्नता आपके लिए लाभप्रद हो सकती है, प्रजा को तो उससे हानि ही होगी।

राजा साहब अपने किसी काम की आलोचना नहीं सह सकते थे। उनका क्रोध पहले जिरहों के रूप में निकलता, फिर तर्क का आकार धारण कर लेता और अन्त में भूकम्प के आवेश से उबल पड़ता था, जिससे उनका स्थूल शरीर, कुरसी, मेज़, दीवार और छत सभी में भीषण कम्पन होने लगता था। तिरछी आँखों से देखकर बोले- क्या हानि होगी, ज़रा सुन?

जयकृष्ण समझ गया कि क्रोध की मशीनगन चक्कर मे है और घातक स्फोट होने ही वाला है । संभलकर बोला-इसे आप मुझसे ज्यादा समझ सकते हैं।

'नहीं, मेरी बुद्धि इतनी प्रखर नहीं है।' 'आप बुरा मान जायेंगे।

'क्या तुम समझते हो, मैं वारुद का ढेर हूँ!

‘बेहतर है, आप इसे न पूछे।'

तुम्हें बतलाना पड़ेगा।'

और आप-ही-आप उनकी मुट्ठियाँ बॅध गईं।

'तुम्हे बतलाना पड़ेगा, इसी वक्त!

जयकृष्ण यह धौंस क्यों सहने लगा। क्रिकेट के मैदान में राजकुमारों पर रोव जमाया करता था, बड़े-बड़े हुक्काम की चुटकियाँ लेता था। बोला --अभी आपके दिल में पोलिटिकल एजेन्ट का कुछ भय है, आप प्रजा पर जुल्म करते डरते हैं । जब वह आपके एहसानो से देव जायगा, आप स्वच्छन्द हो जायेंगे। और प्रजा की फरियाद सुननेवाला कोई न रहेगा।

राजा साहब प्रज्वलित नेत्रों से ताकते हुए बोले--में एजेण्ट का गुलाम नहीं हूँ कि उससे डरूँ, कोई कारण नहीं है कि मैं उससे डरूँ, विलकुल कारण नहीं है। मैं पोलिटिकल एजेण्ट की इसी लिए खातिर करता हूँ कि वह हिज मैजेस्टी का प्रति- निधि है। मेरे और हिज़ मैजेस्टो के बीच में भाईचारा है, एजेन्ट केवल उनका दूत है। मैं केवल नीति का पालन कर रहा हूँ। मैं विलायत जाऊँ, तो हिज मैजेस्टी भी इसी तरह मेरा सत्कार करेंगे ! मैं डरूँ क्यो ? मैं अपने राज्य का स्वतन्त्र राजा हूँ। जिसे चाहूँ, फाँसी दे सकता हूँ। मैं किसीसे क्यों डरने लगा ? डरना नामर्दो का काम है, मैं ईश्वर से भी नहीं डरता। डर क्या वस्तु है, यह मैंने आज तक नहीं जाना । मैं तुम्हारी तरह कालेज का मुंहफट छात्र नहीं हूँ कि क्रान्ति और आजादी की हाँक लगाता फिरूँ। तुम क्या जानो, क्रान्ति क्या चीज़ है ? तुमने केवल उसका नाम सुन लिया है । उसके लाल दृश्य आँखों से नहीं देखे । बन्दूक की आवाज़ सुनकर तुम्हारा दिल काँप उठेगा।, क्या तुम चाहते हो, मैं एजेण्ट से कहूँ-प्रजा तबाह है, आपके आने की ज़रूरत नहीं। मैं इतना आतिथ्य-शून्य नहीं हूँ। मैं अन्धा नहीं हूँ, अहमक नहीं हूँ। प्रजा की दशा का मुझे तुमसे वहीं अधिक ज्ञान है, तुमने उसे बाहर से देखा है, मैं उसे नित्य भीतर से देखता हूँ। तुम मेरी प्रजा को क्रान्ति का स्वप्न दिखाकर उसे गुमराह नहीं कर सकते। तुम मेरे राज्य में विद्रोह और असंतोष के बीज नहीं

बो सकते। तुम्हे अपने मुंह पर ताला लगाना होगा, तुम मेरे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाल सकते। चूँ भी नहीं कर सकते

डूबते हुए सूरज की किरणे महरावी दीवानखाने के रंगीन शीशों से होकर राजा साहब के क्रोधोन्मत्त मुख मण्डल को और भी रंजित कर रही थीं। उनके बाल नीले हो गये थे, आँखें पीली, चेहरा लाल और देह हरी। मालूम होता था, प्रेतलोक का कोई पिशाच है। जयकृष्ण की सारी उद्दण्डता हवा हो गई। रोजा साहब को इस उन्माद की दशा में उसने कभी न देखा था , लेकिन इसके साथ हो उसका आत्म- गौरव इस ललकार का जवाब देने के लिए व्याकुल हो रहा था। जैसे विनय का जवाब विनय है, वैसे ही क्रोध का जवाब क्रोध है, जब वह आतङ्क और भय, अदब और लिहाज़ के बन्धनो को तोड़कर निकल पड़ता है।

उसने भी राजा साहब को आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा-मैं अपनी आंखों से यह अत्याचार देखकर मौन नहीं रह सकता।

राजा साहब ने आवेश से खड़े होकर, मानो उसकी गरदन पर सवार होते हुए कहा - तुम्हें यहाँ ज़बान खोलने का कोई हक नहीं है।

'प्रत्येक विचारशील मनुष्य को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का हक़ है। आप वह हक मुझसे नहीं छोन सकते।'

'मैं सब कुछ कर सकता हूं।

'आप कुछ नहीं कर सकते।'

'मैं तुम्हे अभी जेल मे बन्द कर सकता हूं।'

'आप मेरा बाल भी नहीं बांका कर सकते।'

इसी वक्त मि. मेहता बदहवास-से कमरे मे आये और जयकृष्ण की ओर कोप- भरी आँखें उठाकर बोले-कृष्णा-निकल जा यहां से, अभी मेरी आँखों से दूर हो जा, और खबरदार ! फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाना। मैं तुम-जैसे कपृत्त का मुंह नहीं देखना चाहता। जिस थाल में खाता है, उसी में छेद करता है, बेअदव कहीं का ! अब अगर जवान खोली, तो मैं तेरा खून पी जाऊँगा ।

जयकृष्ण ने हिसा-विक्षिप्त पिता को घृणा की आँखो से देखा और अकड़ता हुआ, गर्व से सिर उठाये, दीवानखाने के बाहर निकल गया।

राजा साहब ने कोच पर लेटकर कहा-बदमाश आदमी है, पत्ले सिरे का

बदमाश ! मैं नहीं चाहता कि ऐसा खतरनाक आदमी एक क्षण भी रियासत में रहे। तुम उससे जाकर कहो, इसी वक्त यहाँ से चला जाय; वरना उसके हक़ में अच्छा न होगा। मैं केवल आपकी मुरौवत से गम खा गया, नहीं इसी वक्त उसे इसका मज़ा चखा सकता था। केवल आपकी मुरौवत ने हाथ पकड़ लिया। आपको तुरन्त निर्णय करना पड़ेगा, इस रियासत की दीवानी, या लड़का । अगर दीवानी चाहते हो, तो तुरन्त उसे रियासत से निकाल दो और कह दो कि फिर कभी मेरी रियासत मे पाँव न रखे। लड़के से प्रेम है, तो आज हो रियासत से निकल जाइए । आप यहाँ से कोई चीज नहीं ले जा सकते, एक पाई की भी चीज़ नहीं । जो कुछ है, वह रियासत की है । बोलिए, क्या मजूर है ?

मि. मेहता ने क्रोध के आवेश में जयकृष्ण को डॉट तो बतलाई थी, पर यह न समझे थे कि मामला इतना तूल खींचेगा। एक क्षण के लिए वह सन्नाटे में आ गये। सिर झुकाकर परिस्थिति पर विचार करने लगे-राजा उन्हें मिट्टी में मिला सकता है। वह यहाँ बिलकुल बेकस हैं, कोई उनका साथी नहीं, कोई उनको फरियाद सुननेवाला नहीं । राजा उन्हे भिखारी छोड़ देगा । इस अपमान के साथ निकाले जाने की कल्पना करके, वह काँप उठे। रियासत में उनके बैरियो की कमी न थी। सब-के- सब मूसलों ढोल बजायेंगे । जो आज उनके सामने भीगी बिल्ली बने हुए हैं, कल शेरों की तरह गुर्रायगे । फिर इस उमर अब उन्हे नौकर ही कौन रखेगा । निर्दयी संसार के सामने क्या फिर उन्हें हाथ फैलाना पड़ेगा ? नहीं, इससे तो यह कहीं अच्छा है कि वह यहीं पड़े रहे। कम्पित स्वर मे बोले-मैं आज ही उसे घर से निकाल देता हूँ, अन्नदाता !

'आज नहीं, इसी वक्त!

'इसी वक्त निकाल दूंगा।'

'हमेशा के लिए।'

'हमेशा के लिए।

'अच्छी बात है जाइए, और आध घटे के अन्दर मुझे सूचना दीजिए।'

मि० मेहता घर चले, तो मारे क्रोध के उनके पाँव कांप रहे थे। देह में आग- -सी लगी हुई थी । इस लौंडे के कारण आज उन्हे कितना अपमान सहना पड़ा । गधा चला है यहां अपने साम्यवाद का राग अलापने । अब बचा को मालूम होगा, ज़बान

पर लगाम न रखने का क्या नतीजा होता है। मैं क्यों उसके पीछे गली-गली ठोकरें खाऊँ ? हां, मुझे यह पद और सम्मान प्यारा है। क्यों न प्यारा हो। इसके लिए बरसो एड़ियाँ रगड़ी है, अपना खून और पसीना एक किया है। यह अन्याय बुरा जरूर लगता है , लेकिन बुरी लगने को यही एक बात तो नहीं है। और हजारों बाते भी तो बुरी लगती है। जब किसी बात का उपाय मेरे पास नहीं, तो इस मुआमले के पीछे क्यों अपनी ज़िन्दगी खराब करूँ।

उन्होने घर मे आते-ही-आते पुकारा - जयकृष्ण ।

सुनीता ने कहा -जयकृष्ण तो तुमसे पहले ही राजा साहब के पास गया था। तबसे यहां कब आया ?

'अब तक यहां नहीं आया ? वह तो मुझमे पहले ही चल चुका था ।'

वह फिर बाहर आये और नौकरों से पूछना शुरू किया । अब भी उसका पता न था। मारे डर के कहीं छिप रहा होगा। और राजा ने आध घटे में इत्तला देने का हुक्म दिया है। यह लौडा न जाने क्या करने पर लगा हुआ है। आप तो जायगा ही, मुझे भी अपने साथ ले डूबेगा ।

सहसा एक सिपाही ने एक पुरजा लाकर उनके हाथ मे रख दिया। अच्छा, यह तो जयकृष्ण की लिखावट है । क्या कहता है- इस दुर्दशा के बाद मैं इस रियासत में एक क्षण भी नहीं रह सकता । मैं जाता हूँ। आपको अपना पद और मान अपनी आत्मा से ज्यादा प्रिय है, आप खुशी से उसका उपभोग कीजिए। मैं फिर आपको तकलीफ देने न आऊँगा । अम्माँ से मेरा प्रणाम कहिएगा !

मेहता ने पुरजा लाकर सुनीता को दिखाया और खिन्न होकर बोले-इसे न जाने कब समझ आयेगी , लेकिन बहुत अच्छा हुआ। अब लाला को मालूम होगा, दुनिया में किस तरह रहना चाहिए। बिना ठोकरें खाये आदमी की आंखें नहीं खुलतीं। मैं ऐसे तमाशे बहुत खेल चुका। अब इस खुराफात के पीछे अपना शेष जीवन नहीं बरबाद करना चाहता-और तुरन्त राजा साहब को सूचना देने चले।

(२ )

दम-के दम मे सारी रियासत में यह समाचार फैल गया। जयकृष्ण अपने शील- स्वभाव के कारण जनता मे बड़ा प्रिय था । लोग बाज़ारों और चौरस्तों पर खड़े हो- होकर इस काण्ड पर आलोचना करने लगे-अजी, वह आदमी नहीं था भाई, उसे
भड़काना कोई भले आदमी का काम है ? जिस पत्तल में खाओ, उसीमें छेद करो। महाराज ने दीवान साहब का मुलाहजा़ किया, नहीं उसे हिरासत में डलवा देते । अब बच्चा नहीं है। खासा पांच हाथ का जवान है। सब कुछ देखता और समझता है । हम हाकिमों से वैर करें, तो के दिन निबाह हो । उसका क्या बिगड़ता है । कहीं सौ- पचास की चाकरी पा जायगा । यहाँ तो करोड़ो की रियासत बरबाद हो जायगी।

सुनीता ने अंचल फैलाकर कहा-महारानी बहुत सत्य कहती हैं , पर अब तो उसका अपराध क्षमा कीजिए। बेचारा लज्जा और भय के मारे घर नहीं गया। न- जाने किधर चला गया। हमारे जीवन का यही एक अवलम्बन है, महारानी ! हम दोनों रो-रोकर मर जायेंगे। अञ्चल फैलाकर आपसे भीख मांगती हूँ, उसको क्षमा- दान दीजिए। माता के हृदय को आपसे ज्यादा और कौन समझेगा, आप महाराज से सिफारिश कर दें

महारानो ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी और देखा , मानो वह कोई बड़ी अनोखी बात कह रही हो और अपने रँगे हुए ओठो पर अंगूठियों से जगमगाती हुई उँगली रखकर बालो-क्या कहती हो सुनीता देवी। उस युवक की महाराज से सिफारिश करूँ, जो हमारी जड़ खोदने पर तुला हुआ है ? आस्तीन में साँप पालूं ? ना, मैं इसके बीच मे न पङूँगी। उसने जो बीज बोये है, उनका फल खाये। मेरा लड़का ऐसा नाखलक होता, तो उसका मुंह न देखती। और, तुम ऐसे बेटे की सिफारिश करती हो।

सुनीता ने आँखो में आँसू भरकर कहा-महारानी, एसी बातें आपके मुँह से गोभा नहीं देती।

महारानी मसनद टेककर उठ बैठी, और तिरस्कार के स्वर में बोली-अगर तुमने सोचा था कि मैं तुम्हारे आँसू पोछूँगी, तो तुमने भूल की। हमारे द्रोही की सिफा- रिश लेकर हमारे ही पास आना, इसके सिवा और क्या है, कि तुम उसके अपराव को बाल-क्रीड़ा समझ रही हो। अगर तुमने उसके अपराध की भीषणता का ठीक अनुमान किया होता, तो मेरे पास कभी न आती । जिसने इस रियासत का नमक खाया हो, वह रियासत के द्रोही की पीठ सहलाये। वह स्वयं राजद्रोही है। इसके सिवा और क्या कहूँ।

सुनीता भी गर्म हो गई। पुत्र-स्नेह म्यान के बाहर निकल आया , बोली-

११
राजा का कर्तव्य केवल अपने अफसरों को प्रसन्न करना नहीं है। प्रजा को पालने ज़िम्मेदारी इससे कही बढ़कर है।

उसी समय महाराज ने कमरे में कदम रखा। रानी ने उठकर स्वागत किया और सुनीता सिर झुकाये निःस्पन्द खड़ी रह गई ।

राजा ने व्यग्यपूर्ण मुस्कान के साथ पूछा-वह कौन महिला तुम्हें राजा के कर्तव्य का उपदेश दे रही थी।

रानी ने सुनीता की ओर आँखें मारकर कहा-यह दीवान साहब की धर्मपत्नी हैं। राजा की त्योंरियां चढ़ गई। ओठ चबाकर बोले-~-जब माँ ऐसी पैनो छुरी है, तो लड़का क्यों न जहर का वुझाया हुआ हो ! देवीजी, मैं तुमसे यह शिक्षा नहीं लेना चाहता कि राजा का अपनी प्रजा के साथ क्या धर्म है। यह शिक्षा मुझे कई पीढ़ियों से मिलती चली आई है। बेहतर हो कि तुम किसीसे यह शिक्षा प्राप्त कर लो कि स्वामी के प्रति उसके सेवक का क्या धर्म है, और जो नमकहराम है, उसके साथ स्वामी को कैसा व्यवहार करना चाहिए।

यह कहते हुए राजा साहब उसी उन्माद की दशा में वाहर चले गये। मि० -मेहता घर जा रहे थे कि राजा साहब ने कठोर स्वर में पुकारा-सुनिए मि० मेहता, आपके सपूत तो विदा हो गये ; लेकिन मुझे अभी मालूम हुआ कि आपकी देवीजी राजद्रोह के मैदान में उनसे भी दो कदम आगे हैं ; बल्कि मैं तो कहूंगा, वह केवल रेकर्ड है, जिसमें देवीजी की ही आवाज़ बोल रही है। मैं नहीं चाहता कि जो व्यक्ति रियासत का संचालक हो, उसके साये में रियासत के विद्रोहियों को आश्रय मिले । आप खुद इस दोष से मुक्त नहीं हो सकते । यह हरगिज़ मेरा अन्याय न होगा, यदि मैं यह अनुमान कर लूँ कि आप ही ने यह मन्त्र फूँका है।

मि० मेहता अपनी स्वामि-भक्ति पर यह आक्षेप न सह सके । व्यथित कंठ से बोले-यह तो मैं किस ज़बान से कहूँ कि दीनबन्धु इस विषय में मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं , लेकिन मैं सर्वदा निर्दोष हूँ और मुझे यह देखकर दुःख होता है कि मेरी वफादारी पर यों संदेह किया जा रहा है।

'वफादारी केवल शब्दो से नहीं होती।'

'मेरा खयाल है कि मैं उसका प्रमाण दे चुका।'

'नयो-नयी दलीलों के लिए नये-नये प्रमाणों की जरूरत है। आपके पुन्न के लिए

जो दण्ड-विधान था, वही आपकी स्त्री के लिए भी है। मैं इसमें किसी तरह का उज नहीं चाहता । और इसी वक्त इस हुक्म को तामील होनी चाहिए।

'लेकिन दीनानाथ...'

मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।'

'मुझे कुछ निवेदन करने की आज्ञा न मिलेगी?'

'बिलकुल नहीं, यह मेरा आखिरी हुक्म है।'

मि० मेहता यहाँ से चले, तो उन्हे सुनीता पर बेहद गुस्सा आ रहा था। इन सभी को न जाने क्या सनक सवार हो गई है। जयकृष्ण तो खैर बालक है, बेसमझ है, इस बुढ़िया को क्या सूझो ? न-जाने रानी साहब से जाकर क्या कह आई । किसी को मुझसे हमदर्दी नहीं, सब अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं। किस मुसीबत से मैं अपनी ज़िन्दगी के दिन काट रहा हूँ, यह कोई नहीं समझता । कितनी निराशा और विपत्तियों के बाद यहाँ ज़रा निश्चिन्त हुआ था कि इन सभी ने यह नया तूफान खड़ा कर दिया । न्याय और सत्य का ठोका क्या हमी ने लिया है ? यहाँ भी वही हो रहा है, जो सारी दुनिया मे हो रहा है। कोई नयी बात नहीं है। संसार में दुर्बल और दरिद्र होना पाप है । इसकी सजा से कोई बच ही नहीं सकता है बाज़ कबूतर पर कभी दया नहीं करता। सत्य और न्याय का समर्थन मनुष्य की सज्जनता और सभ्यता का एक अंग है, बेशक। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता; लेकिन जिस तरह और सभी प्राणी केवल मुख से इसका समर्थन करते है, क्या उसी तरह हम भी नहीं कर। सकते। और जिन लोगों का पक्ष लिया जाय, वे भी तो कुछ इसका महत्व समझे। आज राजा साहव इन्हों वेगारो से जरा हँसकर बातें करें, तो वे अपने सारे दुखढ़े भूल जायँगे और उल्टे हमारे हो शत्रु बन जायेंगे। शायद सुनीता महारानी के पास जाकर अपने दिल का बुखार निकाल आई है। गधी यह नहीं समझती कि दुनिया में किसी तरह मान-मर्यादा का निर्वाह करते हुए जिन्दगी काट लेना ही हमारा धर्म है। अगर भाग्य मे यश और कीर्ति वदी होती, तो इस तरह दूसरों की गुलामी क्यों करता , लेकिन समस्या यह है कि इसे भेजूँ कहाँ ? मैके में कोई है नहीं, मेरे घर में कोई है नहीं। उँह ! अब मैं इस चिन्ता में कहाँ तक मरूँ ? जहाँ जी चाहे जाय, जैसा किया है वैसा भोगे।

वह इसी क्षोभ और ग्लानि की दशा मे घर मे गये और सुनीता से बोले -

आखिर तुम्हें भी वही पागलपन सूझा, जो उस लौंडे को सूझा था। मैं कहता हूँ, आखिर तुम्हें कभी समझ आयेगी या नहीं ? क्या सारे संसार के सुधार का बोड़ा हमी ने उठाया है ? कौन राजा ऐसा है, जो अपनी प्रजा पर जुल्म न करता हो, उनके स्वत्त्वों का अपहरण न करता हो ; राजा ही क्यो, हम तुम सभी तो दूसरों पर अन्याय कर रहे हैं। तुम्हे क्या हक्क है कि तुम दर्जनों खिदमतगार रखो और उन्हें ज़रा-जरा- सी बात पर सजा दो ? न्याय और सत्य निरर्थक शब्द हैं, जिनकी उपयोगिता इसके सिवा और कुछ नहीं बुढधुओं की गर्दन मारी जाय और समझदारों की वाह-वाह हो । तुम और तुम्हारा लड़का उन्ही बुद्धुओ में हैं। और इसका दण्ड तुम्हें भोगना पड़ेगा। महाराज का हुक्म है कि तुम तीन घंटे के अन्दर रियासत से निकल जाओ, नहीं पुलिस आकर तुम्हे निकाल देगी। मैंने तो तय कर लिया है कि राजा साहब की इच्छा के विरुद्ध एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा । न्याय का पक्ष लेकर देख लिया। हैरानी और अपमान के सिवा और कुछ हाथ न आया । जिनकी मैंने हिमायत की थी, वे आज भी उसी दशा में हैं ; वल्कि उससे भी और बदतर । मै साफ कहता हूँ कि मैं तुम्हारी उद्दण्डताओं का तावान देने के लिए तैयार नहीं। मैं गुप्त रूप से तुम्हारी सहायता करता रहूँगा । इसके सिवा मैं और कुछ नहीं कर सकता।

सुनीता ने गर्व के साथ कहा---मुझे तुम्हारी सहायता की ज़रूरत नहीं। कहीं भेद खुल जाय, तो दीन बन्धु तुम्हारे ऊपर कोप का वज्र गिरा दें। तुम्हें अपना पद और सम्मान प्यारा है। उसका आनन्द से उपभोग करो। मेरा लड़का और कुछ न कर सकेगा, तो पाव-भर आटा तो कमा ही लायगा । मैं भी देखूगी कि तुम्हारी यह स्वामिभक्ति कब तक निभती है और कब तक तुम अपनी आत्मा की हत्या करते हो।

मेहता ने तिलमिलाकर कहा--तुम क्या चाहती हो कि फिर उसी तरह चारों तरफ ठोकरें खाता फिरूँ।

सुनीता ने घाव पर नमक छिड़का-नहीं, कदापि नहीं , अब तक तो मैं समझती थी, तुम्हें ठोकरें खाने मे मज़ा आता है, और पद और अधिकार से भी मूल्यवान् कोई वस्तु तुम्हारे पास है, जिसकी रक्षा के लिए तुम ठोकरें खाना अच्छा समझते हो। अब मालूम हुआ, तुम्हे अपना पद अपनी आत्मा से भी प्रिय है। फिर क्यों ठोकरें खाओ; मगर कभी-कभी अपना कुशल-समाचार तो भेजते रहोगे, या राजा साहब की आज्ञा लेनी पड़ेगी? 'राजा साहब इतने न्याय-शून्य हैं कि मेरे पत्र-व्यवहार में रोक-टोक करें ?

'अच्छा ! राजा साहब में इतनी आदमीयत है ? मुझे तो विश्वास नहीं आता।'

'तुम अब भी अपनी गलती पर लज्जित नहीं हो?'

'मैंने कोई गलती नहीं की । मैं तो ईश्वर से चाहती हूँ कि जो मैंने आज किया, वह बार-बार करने का मुझे अवसर मिले।'

मेहता ने अरुचि के साथ पूछा-तुमने कहाँ जाने का इरादा किया है ?

'जहन्नुम में।

'गलतो आप करती हो, गुस्सा मुझ पर उतारती हो?'

'मैं तुम्हें इतना निर्लज न समझती थी।'

'मैं भी इसी शब्द का तुम्हारे लिए प्रयोग कर सकता हूँ।'

'केवल मुख से, मन से नहीं।'

मि० मेहता लजित हो गये।

( ३ )

जब सुनीता की विदाई का समय आया, तो स्त्री-पुरुष दोनों खूब रोये और एक तरह से सुनीता ने अपनी भूल स्वीकार कर ली। वास्तव में इस बेकारी के दिनों में मेहता ने जो कुछ किया, वही उचित था, बेचारे कहाँ मारे-मारे फिरते ।

पोलिटिकल एजेण्ट साहब पधारे और कई दिनों तक खूब दावतें खाई। और खूब शिकार खेला। राजा साहब ने उनकी तारीफ की। उन्होंने राजा साहब की तारीफ की। राजा साहब ने उन्हें अपनी लायलटो का विश्वास दिलाया, उन्होंने सतिया राज्य को आदर्श कहा और राजा साहब को न्याय और सेवा का अवतार स्वीकार किया और तीन दिन में रिसायत को ढाई लाख की वपत देकर विदा हो गये।

मि. मेहता का दिमाग आसमान पर था। सभी उनको कारगुजारी की प्रशंसा कर रहे थे। एजेण्ट साब तो उनकी दक्षता पर मुग्ध हो गये। उन्हे 'राय साहब' की उपाधि मिली और उनके अधिकारों में भी वृद्धि हुई। उन्होंने अपनी आत्मा को उठाकर ताख पर रख दिया था। उनको यह साधना कि महाराज और एजेण्ट दोनों उनसे प्रसन्न रहें, सम्पूर्ण रीति से पूरी हो गई। रियासत में ऐसा स्वामि-भक्त सेवक दूसरा न था। राजा साहब अब कम-से-कम तीन साल के लिए निश्चिन्त थे। एजेण्ट खुश है, तो फिर किसका भय । कामुकता और लम्पटता और भांति-भांति के दुर्व्यसनों की लहर प्रचण्ड हो उठी। सुन्दरियों की टोह लगाने के लिए सुराग-रसानी का एक विभाग खुल गया, जिसका सम्बन्ध सीधे राजा साहब से था। एक बूढा खुर्राट, जिसका पेशा हिमालय की परियां को फंसाकर राजाओं को लूटना था, और जो इसी पेशे को बदौलत राज-दरबारों में पुजता था, इस विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया । नयी-नयो चिड़ियां आने लगीं। भय और लोभ और सम्मान, सभी अस्त्रों से शिकार खेला जाने लगा , लेकिन एक ऐसा अवसर भी पड़ा, जहाँ इस तिकड़म की सारी सामूहिक और वैयक्तिक चेष्टाएँ निष्फल हो गई और गुप्त-विभाग ने निश्चय किया कि इस बालिका को किसी तरह उड़ा लाया जाय । और इस महत्त्व-पूर्ण कार्य के सम्पादन का भार मि. मेहता पर रखा गया, जिनसे ज़्यादा स्वामि-भक्त सेवक रियासत मे दूसरा न था। उनके ऊपर महाराजा साहब को पूरा विश्वास था। दूसरों के विषय मे सन्देह था कि कहीं रिशवत लेकर शिकार बहका दें, या भण्डाफोड़ कर दें, या अमानत में खयानत कर बैठे। मेहता की ओर से किसी तरह को उन बातो की शंका न थी। रात को नौ बजे उनकी तलबी हुई-अन्नदाता ने हजूर को याद किया है ।

मेहता साहब ड्योढी पर पहुंचे, तो राजा साहब पाईवान में टहल रहे थे। मेहता को देखते ही बोले---आइए मि० मेहता, आपसे एक खास बात में सलाह लेनी है। यहाँ कुछ लोगो की राय है कि सिहद्वार के सामने आपकी एक प्रतिमा स्थापित की जाय, जिससे चिरकाल तक आपकी यादगार कायम रहे। आपको तो शायद इसमें कोई आपत्ति न होगी । और यदि हो भी, तो लोग इस विषय मे आपकी अवज्ञा करने पर भी तैयार हैं। सतिया की आपने जो अमूत्य सेवा की है, उसका पुरस्कार तो कोई क्या दे सकता है । लेकिन जनता के हृदय में आपसे जो श्रद्धा है, उसे तो वह किसी-न-किसी रूप में प्रकट ही करेगी।

मेहता ने बड़ी नम्रता से कहा-यह अन्नदाता की गुण-ग्राहकता है, मैं तो एक तुच्छ सेवक हूँ। मैंने जो कुछ किया, वह इतना ही है कि नमक का हक अदा करने का सदैव प्रयत्न किया ; मगर मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ।

राजा साहब ने कृपालु भाव से हँसकर कहा-~आप योग्य हैं या नहीं, इसका निर्णय आपके हाथ में नहीं है मि० मेहता, आपकी दीवानी यहाँ न चलेगी। हम

आपका सम्मान नहीं कर रहे हैं, अपनी भक्ति का परिचय दे रहे हैं। थोड़े दिनो में न हम रहेंगे, न आप रहेगे, उस वक्त भी यह प्रतिमा अपनी मूक वाणो से कहती रहेगी कि पिछले लोग अपने उद्धारकों का आदर करना जानते थे। मैंने लोगो से कह दिया है कि चन्दा जमा करें । एजेण्ट ने अबकी जो पत्र लिखा है, उसमें आपको खास तौर से सलाम लिखा है।

मेहता ने जमीन मे गड़कर कहा--यह उनकी उदारता है, मैं तो जैसा आपका सेवक हूँ, वैसा उनका भी सेवक हूँ।

राजा साहब कई मिनट तक फूलो को वहार देखते रहे । फिर इस तरह बोले, मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो-- तहसील स्वास में एक गांव लगनपुर है, आप कभी वहाँ गये हैं ?

'हाँ अन्नदाता, एक बार गया हूँ, वहाँ एक धनी साहूकार है। उसीके दीवान- खाने मे ठहरा था। अच्छा आदमी है।'

'हाँ, ऊपर से बहुत अच्छा आदमी है , लेकिन अन्दर से पक्का पिशाच । आपको शायद मालूम न हो, इधर कुछ दिनो से महारानी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया है। और मैं सोच रहा हूँ कि उन्हें किसी सैनेटोरियम मे भेज दूं। वहाँ सब तरह की चिन्ताओं-झंझटो से मुक्त होकर वह आराम से रह सकेंगी लेकिन रनिवास में एक नारी का रहना लाजिम है। अफसरों के साथ उनकी लेडियां भी आती है, और भी कितने अंग्रेज मित्र अपनी लेडियो के साथ मेरे मेहमान होते रहते हैं। कभी राजे-महाराजे भी रानियो के साथ आ जाते हैं। रानी के वगर लेडियो का आदर-सत्कार कौन करेगा ? मेरे लिए यह वैयक्तिक प्रश्न नहीं, राजनैतिक समस्या है, और शायद आप भी मुझसे सहमत होगे, इसलिए मैंने दूसरी शादी करने का इरादा कर लिया है। इस साहूकार की एक लड़की है, जो कुछ दिनो अजमेर में शिक्षा पा चुकी है। मैं एक बार उस गाँव से होकर निकला, तो मैंने उसे अपने घर की छत पर खड़े देखा। मेरे मन में तुरन्त भावना उठी कि अगर यह रमणी रनिवास मे आ जाय तो रनिवास की शोभा बढ़ जाय । मैंने महारानी की अनुमति लेकर साहूकार के पास सदेशा भेजा , किन्तु मेरे द्रोहियों ने उसे कुछ ऐसी पट्टी पढा दी कि उसने मेरा संदेशा स्वीकार न किया। कहता है, कन्या का विवाह हो चुका है। मैंने कहला भेजा, इसमें कोई हानि नहीं, मैं तावान देने को तैयार हूँ,
लेकिन वह दुष्ट बराबर इन्कार किये जाता है। आप जानते हैं प्रेम असाध्य रोग है। आपको भी शायद इसका कुछ-न-कुछ अनुभव हो। बस, यह समझ लीजिए कि जीवन निरानन्द हो रहा है । नींद और आराम हराम है। भोजन से अरुचि हो गई है। अगर कुछ दिन यही हाल रहा, तो समझ लीजिए कि मेरी जान पर बन आयगी । सोते-जागते वही मूर्ति आँखो के सामने नाचती रहती है । मन को समझा- कर हार गया और अब विवश होकर मैंने कूटनीति से काम लेने का निश्चय किया है। प्रेम और समर में सब कुछ क्षम्य है। मै चाहता हूँ, आप थोड़े-से मातबर आदमियों को लेकर जाये और उस रमणी को किसी तरह ले आयें। खुशी से आये खुशी से, बल से आये बल से, इसकी चिन्ता नहीं। मैं अपने राज्य का मालिक हूँ। इसमें जिस वस्तु पर मेरी इच्छा हो, उस पर किसी दूसरे व्यक्ति का नैतिक या समाजिक स्वत्व नहीं हो सकता। यह समझ लीजिए कि आप ही मेरे प्राणो की रक्षा कर सकते हैं। कोई दूसरा ऐसा आदमी नहीं है, जो इस काम को इतने सुचारू रूप से पूरा कर दिखाये। आपने राज्य की बड़ी-बड़ी सेवाएँ की हैं ! यह उस यज्ञ की पूर्णाहुति होगी और आप जन्म-जन्मान्तर तक राजवंश के इटदेव समझे जायेंगे।

मि० मेहता का मरा हुआ आत्म-गौरव एकाएक सचेत हो गया। जो रक्त चिर काल से प्रवाह-शून्य हो गया था, उममे सहसा उद्रेक हो उठा। त्योरियां चढाकर बोले तो आप चाहते हैं, मैं उसे किडनैप करूं?

राजा साहब ने उनके तेवर देखकर आग पर पानी डालते हुए कहा-कदापि नहीं मि० मेहता, आप मेरे साथ घोर अन्याय कर रहे है। मैं आपको अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज रहा हूँ। कार्य-सिद्धि के लिए आप जिस नीति से चाहे काम ले सकते हैं । आपको पुरा अधिकार है।

मि. मेहता ने और भी उत्तेजित होकर कहा- मुझसे ऐसा पाजीपन नहीं हो सक्ता।

राजा साहब की आंखों से चिनगारियाँ निक्लने लगी।

'अपने स्वामी का आज्ञा-पालन करना पाजीपन है ?'

'जो आज्ञा नीति और धर्म के विरुद्ध हो, उसका पालन करना बेशक पाजी-

'किसी स्त्री से विवाह का प्रस्ताव करना नीति और धर्म के विरुद्ध है ?' 'इसे आप विवाह कहकर 'विवाह' शब्द को क्लकित करते हैं। यह बलात्कार

'आप अपने होश में हैं?

'खूब अच्छी तरह।'

'मैं आपको धूल में मिला सकता हूँ !'

'तो आपकी गद्दी भी सलामत न रहेगी ।'

'मेरी नेकियों का यही बदला है, नमकहराम ।'

'आप अब शिष्टता की सीमा से आगे बढे जा रहे हैं, राजा साहब । मैंने अब तक अपनी आत्मा की हत्या की है और आपके हरएक जा और बेजा हुक्म की तामील की है , लेकिन आत्मसेवा की भी एक हद होती है, जिसके आगे कोई भला आदमी नहीं जा सकता। आपका यह कृत्य जधन्य है और इसमें जो व्यक्ति आपका सहायक हो, वह इसी योग्य है कि उसकी गर्दन काट ली जाय। मैं ऐसी नौकरी पर लानत भेजता हूँ।'

यह कहकर वह घर आये और रातो-रात बोरिया बकचा समेटकर रियासत से निकल गये , मगर इसके पहले सारा वृत्तान्त लिखकर एजेण्ट के पास भेज दिया।




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