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मानसरोवर २/४ चमत्कार

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मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ५८ से – ७२ तक

 




चमत्कार

बी० ए० पास करने के बाद चन्द्रप्रकाश को एक ट्यूशन करने के सिवा और कुछ न सूझा । उसको माता पहले ही मर चुकी थीं, इसी साल पिता का भी देहान्त हो गया और प्रकाश जीवन के जो मधुर स्वप्न देखा करता था, वह सब धूल मे मिल गये। पिता ऊँचे ओहदे पर थे, उनकी कोशिश से चन्द्रप्रकाश को कोई अच्छी जगह मिलने की पूरी आशा थी , पर वह सब मसूबे धरे रह गये और अब गुजर-बसर के लिए वही ३०) महीने की ट्यूशन रह गई । पिता ने कुछ सपत्ति भी न छोड़ी, उलटे वधू का बोझ और सिर पर लाद दिया और स्त्री भी मिली, तो पढ़ी-लिखी, शौकीन, जवान की तेज़, जिसे मोटा खाने और मोटा पहनने से मर जाना कबूल था । चन्द्रप्रकाश को ३०) की नौकरी करते शर्म तो आई , लेकिन ठाकुर साहब ने रहने का स्थान देकर उनके आँसू पोछ दिये । यह सकान ठाकुर साहब के मकान से विलकुल मिला हुआ था---पक्का, हवादार, साफ-सुथरा और ज़रूरी सामान से लेस । ऐसा मकान २०) से कम पर न मिलता, कास केवल दो घण्टे का । लडका था तो लगभग उन्हीं की उम्र का , पर बड़ा कुन्दजेहन, कामचोर । अभी नवे दरजे में पढ़ता था। सबसे बड़ी बात यह कि ठाकुर और ठकुराइन दोनों प्रकाश का बहुत आदर करते थे , बल्कि लड़का ही समझते थे। वह नौकर नहीं, घर का आदमी था और घर के हरएक मामले में उसकी सलाह ली जाती थी । ठाकुर साहव अँगरेजी नहीं जानते थे। उनकी समझ मे अंँग- रेजीदा लौडा भो उनसे ज्यादा बुद्धिमान् , चतुर और तजरबेकार था।

( २ )

सन्ध्या का समय था 1 प्रकाश ने अपने शिष्य वीरेन्द्र को पढ़ाकर छड़ी उठाई, तो ठकुराइन ने आकर कहा--अभी न जाओ बेटा, जरा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ सलाह करना है।

प्रकाश ने मन में सोचा-आज कैसी सलाह है, वीरेन्द्र के सामने क्यो नहीं‌

कहा है उसे भीतर ले जाकर रमा देवी ने कहा- तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू का ब्याह कर दूँ ? एक बहुत अच्छे घर से सन्देसा आया है।

प्रकाश ने मुसकिराकर कहा-यह तो वीरू वाबू ही से पूछिए ।

'नहीं, मैं तुमसे पूछती हूँ।'

प्रकाश ने असमंजस मे पड़कर कहा-मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ। उनका बीसवाँ साल तो है, लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका ।

'तो अभी न करूँ, यही सलाह है ?

'जैसा आप उचित समझे। मैंने तो दोनो बातें कह दीं।'

'तो कर डालूँ ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय ।'

'मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हरज भी नहीं है।'

'सब तैयारिया तुम्हींको करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।'

'तो मैं इनकार कब करता हूँ ?'

रोटी की खैर मनानेवाले शिक्षित युवको मे एक प्रकार की दुविधा होती है, जो उन्हें अप्रिय सत्य कहने से रोकती है । प्रकाश में भी यही कमज़ोरी थी।

बात पक्की हो गई और विवाह का सामान होने लगा। ठाकुर साहब उन मनुष्यों में थे, जिन्हे अपने ऊपर विश्वास नहीं होता। उनकी निगाह में प्रकाश की डिग्री, उनकी ६० साल की अनुभूति से कहीं मूल्यवान् थी। विवाह का सारा आयोजन प्रकाश के हाथों से था। दस-बारह हज़ार रुपये खर्च करने का अधिकार कुछ कम गौरव की बात न थी। देखते-देखते एक फटेहाल युवक जिम्मेदार मैंनेजर बन बैठा। कहीं कपड़े- वाला उसे सलाम करने आया है, कहीं मुहल्ले का बनिया घेरे हुए है, कहीं गैस और शामियानेवाला खुशामद कर रहा है। वह चाहता तो दो-चार सौ रुपये बड़ी आसानी से बना लेता , लेकिन इतना नीच न था। फिर उसके साथ क्या दगा करता, जिसने सब कुछ उसी पर छोड़ दिया ! पर जिस दिन उसने पाँच हजार के जेवर खरीदे, उस दिन उसका मन चंचल हो उठा।

घर आकर चम्पा से बोला-हम तो यहाँ रोटियों के मुहताज हैं और दुनिया मे ऐसे-सेसे आदमी पड़े हुए हैं, जो हजारो-लाखों रुपये के ज़ेवर बनवा डालते हैं। 'ठाकुर साहब ने आज बहू के चढाने के लिए पांच हजार के जेवर खरीदे । ऐसी-ऐसी चीजो को देखकर आँखें ठण्डी हो जाय। सच कहता हूँ, बाज चीजों पर तो आँख नहीं ठहरती थीं।

चम्पा ईष्याजिनित विराग से बोली-उँह, हमें क्या करना है। जिन्हे ईश्वर ने दिया है, वे पहने । यहाँ तो रो-रोकर मरने हो के लिए पैदा हुए हैं।

चन्द्रप्रकाश ---इन्ही लोगो को मौज है। न कमाना, न धमाना । बाप-दादा छोड़ गये हैं, मजे से साते और चैन करते है । इसी से कहता हूं, ईश्वर बड़ा अन्यायी है।

चम्पा-अपना अपना पुरुषार्थ है, ईश्वर का क्या दोष । तुम्हारे बाप-दादा छोङ गये होते, तो तुम भी मौज करते। यहाँ तो रोटियाँ चलना मुश्किल है, गहने-कपड़े को कौन रोये । और न इस ज़िन्दगी मे कोई ऐसी आशा ही है। कोई गत की साड़ी भी नहीं रही कि किसी भले आदमी के घर जाऊँ तो पहन लूँ। मैं तो इसी सोच मे हूँ कि ठकुराइन के यहाँ ब्याह मे कैसे जाऊँगी । सोचती हूँ, वीमार पड़ जाती तो जात बचती।

यह कहते-कहते उसको आँखें भर आई।

प्रकाश ने तसल्ली दी-साड़ी तुम्हारे लिए मैं लाऊँगा। अब क्या इतना भी न कर सकूँगा । यह मुसीबत के दिन क्या सदा बने रहेंगे ? जिन्दा रहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक जेवरो से लदी होगी।

चम्पा मुसकिराकर बोली-चला, ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती। निबाह होता जाय, यही बहुत है । गहनों की साध नहीं है।

प्रकाश ने चम्पा की बातें सुनकर लज्जा और दुःख से सिर झुका लिया। चम्पा उसे इतना पुरुषार्थ-हीन समझती है!

( ३ )

रात को दोनो भोजन करके लेटे, तो प्रकाश ने फिर गहनों की बात छेड़ी। गहने उसकी आँखों में बसे हुए थे-'इस शहर में ऐसे बढिया गहने बनते हैं, मुझे इसकी आशा न थी।

चम्पा ने कहा- कोई ओर बात करो। गहनों की बात सुनकर जी जलता है।

'वैसी चीज़ तुम पहनो तो रानी मालूम होने लगो।'

'गहनो से क्या सुन्दरता बढ़ जाती है ? मैंने तो ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, जो गहने पहनकर भद्दी दीखने लगती है।' 'ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। यह न हुआ कि कहते, इसमे से कोई चीज चम्पा के लिए लेते जाओ।'

'तुम भी कैसी बच्चो की-सी बातें करते हो।'

'इसमे बचपन की क्या बात है ? कोई उदार आदमी कभी इतनी कृपणता न करता।'

'मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी न देखा, जो अपनी बहू के गहने किसो गैर को दे दे।'

'मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं, मैं उनके लड़के को पढाता हूँ और शादी का सारा इन्तज़ाम कर रहा हूँ, अपर सौ दो-सौ की कोई चीज दे देते तो वह निष्फल न जाती , मगर धनवानों का हृदय धन के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उसमे उदारता के लिए स्थान ही नहीं रहता।'

रात के बारह बज गये हैं, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आती। बार-बार वही चमकीले गहने आँखों के सामने आ जाते हैं। कुछ बादल हो आये हैं और बार-बार बिजली चमक उठती है।

सहसा प्रकाश चारपाई से उठ खड़ा हुआ। उसे चम्पा का आभूषणहीन अंग देखकर दया आई। यही तो खाने-पहनने की उम्र है और इसी उम्र में इस बेचारी को हरएक चीज़ के लिए तरसना पड़ रहा है। वह दबे-पाँव कमरे से बाहर निकलकर छत पर आया । ठाकुर साहब की छत इस छत से मिली हुई थी। बीच में एक पांच फीट ऊँची दीवार थी। वह दीवार पर चढकर ठाकुर साहब की छत पर आहिस्ता से उतर गया। घर में बिलकुल सन्नाटा था। ।

उसने सोचा, पहले जीने से उतरकर ठाकुर साहब के कमरे मे चलूँ ; अगर वह जाग गये तो जोर से हँसूँगा और कहूँगा, कैसा चरका दिया, या कह दूंँगा, मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखाई दिया ; इसलिए मैं भी पीछे-पीछे आया कि देखू, यह क्या करता है ; अगर सन्दूक की कुजी मिल गई, तो फिर फतह है। किसी का मुझपर सन्देह ही न होगा। सब लोग नौकर पर सन्देह करेंगे। मैं भी कहूँगा, साहब नौकरों की हरकत है। इन्हें छोड़कर और कौन ले जा सकता है। मैं बेदाग बच जाऊँगा। शादी के बाद कोई दूसरा घर ले लूँगा। फिर धीरे-धीरे । एक-एक चीज़ चम्पा को दूंँगा, जिसमें उसे कोई सन्देह न हो।
फिर भी जीने से उतरने लगा, तो उसकी छाती धड़क रही थी।

( ४ )

धूप निकल आई थी। प्रकाश अभी सो रहा था कि चपा ने उसे जगाकर कहा- चढ़ा गज़ब हो गया। रात को ठाकुर साहब के घर में चोरी हो गई। चोर गहने की सदूकची उठा ले गया !

प्रकाश ने पडे़-पडे़ पूछा---किसीने पकड़ा नहीं चोर को ?

'किसी को खबर भी हो ! वही सदूकची ले गया, जिसमे ब्याह के गहने रखे थे। न-जाने कैसे कुञ्जी उड़ा ली और न जाने कैसे उसे मालूम हुआ कि इस संदूक मे सदृकची रखी है।'

'नौकरों की कार्रवाई होगी। बाहरी चोर का यह काम नहीं है।'

'नौकर तो उनके तीनो पुराने है।'

'नीयत बदलते क्या देर लगती है। आज मौका देखा, उडा़ ले गये।'

'तुम जाकर जरा उन लोगो को तसल्ली तो दो। ठकुराइन बेचारी रो रही थी। तुम्हारा नाम ले-लेकर कहती थीं कि बेचारा महीनों इन गहने के लिए दौड़ा, एक- एक चीज अपने सामने जंँचवाई और चोर दाढीजारो ने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।'

प्रकाश चटपट उठ बैठा और घबड़ाया हुआ-सा जाकर ठकुराइन से बोला-यह तो बड़ा अनर्थ हो गया माताजी, मुझसे तो अभी-अभी चम्पा ने कहा । ठाकुर साहब सिर पर हाथ रखे बैठे हुए थे। बोले---कहीं सेव नहीं, कोई ताला नहीं टूटा, किसी दरवाजे की चूल नहीं उतरी । समझ में नहीं आता, चोर आया किधर से।

ठकुराइन ने रोकर कहा-में तो लुट गई भैया, व्याह सिर पर खटा है, कैसे क्या होगा भगवान् ! तुमने दौड़-धूप की थी, तब कहीं जाके चोजें आई थीं। न- जाने किस मनहूस सायत मे लग्न आई थी।।

प्रकाश ने ठाकुर साहब के कान में कहा- मुझे तो किसी नौकर की शरारत मालूम होती है।

ठकुराइन ने विरोव किया-अरे नहीं भैया, नौकरो में ऐसा कोई नहीं । दस-दस हज़ार रुपये यों ही ऊपर रखे रहते थे, कभी एक पाई भी नहीं गई।

ठाकुर साहब ने नाक सिकोड़कर कहा- तुम क्या जानो, आदमी का मन कितना‌

जल्द बदल जाया करता है । जिसने अब‌ तक चोरी नहीं को, वह कभी चोरी न करेगा, यह कोई नहीं कह सकता । मैं पुलिस मे रिपोर्ट करूंँगा और एक-एक नौकर की तलाशी कराऊँगा। कहीं माल उड़ा दिया होगा। जब पुलिस के जूते पङेगे, तो आप कबूलेंगे।

प्रकाश ने पुलिस का घर में आना खतरनाक समझा। कहीं उन्हीं के घर से तलाशी ले तो अनर्थ ही हो जाय । चोले--पुलिस में रिपोर्ट करना और तहकीकात कराना व्यर्थ है। पुलिस माल तो न बरामद कर सकेगी; हाँ, नौकरो को मार-पीट भले ही लेगी। कुछ नजर भी उसे चाहिए, नहीं तो कोई दूसरा ही स्वांग खड़ा कर देगी। मेरी तो सलाह है कि एक-एक नौकर को एकान्त मे बुलाकर पूछा जाय ।

ठाकुर साहब ने मुँह बनाकर कहा---तुम भी क्या बच्चो-सी बातें करते हो प्रकाश बाबू ! भला चोरी करनेवाला अपने-आप कबूलेगा। तुम मार-पीट भी तो नहीं कर सकते। हाँ, पुलिस में रिपोर्ट करना मुझे भी फिजूल मालूम होता है। माल बरामद होने से रहा, उल्टे महीनो की परेशानी हो जायगी।

प्रकाश---लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा ।

ठाकुर --- कोई लाभ नहीं । हाँ, अगर कोई खुफिया पुलिस हो जो चुपके-चुपके पता लगाये, तो अलबत्ता माल निकल आये , लेकिन यहाँ ऐसी पुलिस कहाँ ।' तकदीर ठोककर बैठ रहो, और क्या ।

प्रकाश-आप बैठ रहिए, लेकिन मैं यो वैठनेवाला नहीं। मैं इन्हीं नौकरो के सामने चोर का नाम निकलवाऊँगा।

ठकुराइन-नौकरों पर मुझे पूरा विश्वास है। किसी का नाम भी निकल आये, तो मुझे सन्देह ही रहेगा। किसी बाहर के आदमी का काम है। चाहे जिधर से आया हो , पर चोर आया बाहर से । तुम्हारे कोठे से भी तो आ सकता है ।

ठाकुर~हाँ, ज़रा अपने कोठे पर तो देखो, शायद कुछ निशान मिले। कल दरवाजा तो खुला नहीं रह गया ?

प्रकाश का दिल धड़कने लगा। बोला--मैं तो दस बजे द्वार बंद कर लेता हूँ। हाँ, कोई पहले से ही मौका पाकर कोठे पर चला गया हो और वहाँ छिपा बैठा रहा हो, तो बात दूसरी है।

तीनो आदमी छत पर गये तो बीच की मुंडेर पर किसी के पाँव की रगड़ के‌

निशान दिखाई दिये। जहाँ प्रकाश का पांव पड़ा था, वहाँ का चूना लग जाने के कारण छत पर पांच का निशान पड़ गया था। प्रकाश की छत पर जाकर मुंडेर को दूसरी तरफ देखा तो वैसे ही निशान वहाँ भी दिखाई दिये । ठाकुर साहब सिर झुकाये खड़े थे, संकोच के मारे कुछ कह न सकते थे। प्रकाश ने उनके मन की बात खोल दो-~-- इससे तो स्पष्ट होता है कि चोर मेरे ही घर मे से आया । अव तो कोई सदेह हो नही रहा।

ठाकुर साहब ने कहा-हाँ, मैं भी यही समझता हूँ, लेकिन इतना पता लग जाने से ही क्या हुआ। माल तो जाना था, सो गया। अब चलो आराम से बैठे। आज रुपये की कोई फिक्र करनी होगी।

प्रकाश-मैं आज ही यह घर छोड़ दूंगा।

ठाकुर -क्यों, इसमे तुम्हारा कोई दोष नहीं।

प्रकाश-आप कहे , लेकिन मैं तो समझता हूँ, मेरे सिर बड़ा भारी अपराध लग गया । मेरा दरवाजा नौ-दस बजे तक खुला ही रहता है । चोर ने रास्ता देख लिया । संभव है, दो-चार दिन में फिर आ घुसे। घर में अकेली एक औरत सारे घर का निगरानी नहीं कर सकती। उधर वह तो रसोई मे बैठी है, उधर कोई आदमी चुपके से ऊपर चढ़ जाय तो जरा भी आहट नहीं मिल सकती। मैं धूम-घामकर कभी नौ बजे आया, कभी दस बजे । और शादी के दिनों में तो देर होती ही रहेगी। उधर का रास्ता बन्द ही हो जाना चाहिए । मैं तो समझता हूँ, इस चोरी की सारी जिम्मे- दारी मेरे सिर है।

ठकुराइन डरी-तुम चले जाओगे भैया, तब तो धर और फाड़े खायगा ।

प्रकाश-कुछ भी हो माताजी, मुझे बहुत जल्द घर छोड़ना ही पड़ेगा। मेरी राफलत से चोरी हुई, उसका मुझे प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा।

प्रकाश चला गया, तो ठाकुर ने स्त्री से कहा-बड़ा लायक आदमी है।

ठकुराइन—क्या बात है। चोर उपर से आया, यही बात उसे लग गई।

'कहीं यह चोर को पकड़ पाये, तो कच्चा खा जाय ।'

'मार ही डाले।'

'देख लेना, कभी-न-कभी माल बरामद करेगा।

'अब इस घर मे कदापि न रहेगा, कितना ही समझाओ।' 'किराये के २०) और दे दूँगा।'

'हम किराया क्यों दें। वह आप ही घर छोड़ रहे हैं। हम तो कुछ कहते नहीं।'

'किराया तो देना ही पड़ेगा। ऐसे आदमी के साथ कुछ बल भी खाना पड़े तो बुरा नहीं लगता।'

'मैं तो समझती हूँ, वह किराया लेंगे ही नहीं।'

'तीस रुपये में गुजर भी तो न होता होगा।'

(५)

प्रकाश ने उसी दिन वह घर छोड़ दिया । उस घर में रहने से जोखिम था, लेकिन जब तक शादो की धूमधाम रही, प्राय सारे दिन यहीं रहते थे। चम्पा से कहा, एक सेठजी के यहाँ ५०) महीने का काम और मिल गया है ; मगर यह रुपये मैं उन्हीं के पास जमा करता जाऊँगा। वह आमदनी केवल जेवरों में खर्च होगी। उसमें से एक पाई घर के खर्च मे न आने दूंगा । चम्पा फड़क उठी । पति-प्रेम का यह परिचय पाकर उसने अपने भाग्य को सराहा, देवताओं में उसकी श्रद्धा और बढ़ गई।

अब तक प्रकाश और चम्पा के बीच में कोई परदा न था । प्रकाश के पास जो कुछ था, वह चम्पा का था। चम्पा ही के पास उसके वक्स, संदूक, आलमारी की कुञ्जियाँ रहती थीं , सगर अब प्रकाश का एक संदूक हमेशा बन्द रहता। उसकी कुञ्जी कहाँ है, इसका चम्पा को पता नहीं। वह पूछती है, इस सन्दूक में क्या है, तो वह कह देते हैं कुछ नहीं, पुरानी किताचे मारी-मारी फिरती थीं, उठाके सन्दुक में बन्द कर दी है। चम्पा को सदेह का कोई कारण न था।

एक दिन चम्पा पति को पान देने गई तो देखा, वह उस सन्दूक को खोले हुए देख रहे हैं। उसे देखते ही उन्होंने सन्दूक जल्दी से बन्द कर दिया। उनका चेहरा जैसे फक हो गया । सन्देह का अकुर जमा , मगर पानी न पाकर सूख गया । चम्पा किसी ऐसे कारण की कल्पना ही न कर सकी, जिससे सन्देह को आश्रय मिलता!

लेकिन पाँच हजार की सम्पत्ति को इस तरह छोड़ देना कि उसका ध्यान ही न आये, प्रकाश के लिए असम्भव था । वह कहीं बाहर से आता, तो एक वार सन्दूक अवश्य खोलता।

एक दिन पड़ोस में चोरी हो गई। उस दिन से प्रकाश अपने कमरे ही में सोने‌

लगा। असाढ के दिन थे। ऊमस के मारे दम घुटता था। ऊपर एक साफ-सुथरा बरामदा था, जो बरसात में सोने के लिए ही शायद बनाया गया था। चम्पा ने कई बार ऊपर सोने के लिए कहा, पर प्रकाश न माना । अकेला घर कैसे छोड़ दे।

चम्पा ने कहा---चोरी ऐसो के यहां नहीं होती। चोर घर में कुछ देखकर ही जान खतरे मे डालता है। यहाँ क्या रखा है।

प्रकाश ने कुद्ध होकर कहा-~-कुछ नहीं है, तो बरतन-भाड़े तो हैं ही। गरीब के लिए अपनी हाँडी ही बहुत है। ।

एक दिन चापा ने कमर में झाड़ू लगाई, तो सन्दूक को खिराकाकर दूसरी तरफ रख दिया । प्रकाश ने सन्दुक का स्थान बदला हुआ पाया, तो सशक होकर बोला- सन्दुक तुमने हटाया ?

यह पूछने की कोई बात न थी। भाङू लगाते वक्त प्रायः चीजें इधर-उधर खिसक जाती ही हैं । बोली-~-मैं क्यों हटाने लगी।

'फिर किसने हटाया ?

'मैं नहीं जानती।'

'घर मे तुम रहती हो, जानेगा कौन ?'

'अच्छा, अगर मैंने ही हटा दिया तो इसमे पूछने की क्या बात है ?'

'कुछ नहीं, यों ही पूछता था।'

मगर जब तक सन्दूक खोलकर सब चीजें देख न ले, प्रकाश को चैन कहा। चम्पा ज्योही भोजन पकाने लगी, उसने सन्दूक खोला और आभूषणो को देखने लगा । आज चम्पा ने पकौड़ियां वनाई थीं। पकौड़ियां गरम-गरम ही मजा देती हैं। प्रकाश को पकौड़ियाँ पसन्द भी थीं। उसने थोङी-सी पकौड़ियाँ एक तश्तरी में रखी और प्रकाश को देने गई। प्रकाश ने उसको देखते ही सन्दूक धमाके से बन्द कर दिया और ताला लगाकर उसे बहलाने के इरादे से बोला-तस्तरी मे क्या लाई ! अच्छा ! पकौड़ियाँ हैं।

आज चम्पा को सन्देह हो गया। सन्दूक में क्या है, यह देखने को उत्सुकता हुई। प्रकाश उसकी कुझी कहीं छिपाकर रखता था। चम्पा किसी तरह वह कुञ्जी उड़ा लेने की चाल सोचने लगी। एक दिन एक विसाती कुञ्जियों का गुच्छा बेचने आ निकला । चम्पा ने उस ताले की कुञ्जी ले ली और और सन्दूक खोल डाला। अरे ।
यह तो आभूषण हैं । उसने एक-एक आभूषण को निकालकर देखा । यह गहने कहाँ से आये ! मुझसे कभी इनकी चर्चा नहीं की । सहसा उसके मन में भाव उठा-कहीं यह ठाकुर साहब के गहने तो नहीं हैं। चीज़ वही थीं, जिनका वह बखान करते रहते थे। उसे अब कोई सन्देह न रहा , लेकिन इतना घोर पतन ! लज्जा और खेद से उसका सिर झुक गया।

उसने तुरन्त सन्दूक बन्द कर दिया और चारपाई पर लेटकर सोचने लगी। इनकी इतनी हिम्मत पड़ी कसे ? यह दुर्भावना इनके मन से आई ही क्यों ? मैंने तो कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं किया। अगर आग्रह भी करती, तो क्या उसका आशय यह होता कि वह चोरी करके लाये ? चोरी-आभूषणों के लिए । इनका मन क्यों इतना दुर्बल हो गया ?

उसके जी मे आया, इन गहनो को उठा ले और ठकुराइन के चरणों पर डाल दे, उनसे कहे-यह मत पूछिए, यह गहने मेरे पास कैसे आये। आपकी चीज आपके पास आ गई। इसी से सन्तोष कर लीजिए ।

लेकिन परिणाम कितना भयंकर होगा ।

( ६ )

उस दिन से चम्पा कुछ उदास रहने लगी। प्रकाश से उसे वह प्रेम न रहा, न वह सम्मान-साव । बात-बात पर तकरार होती। अभाव में जो पररपर सदभाव था, वह गायब हो गया था। तब एक दूसरे से दिल की बात कहता था, भविष्य के मसूबे बांधे जाते थे, आपस मे सहानुभूति थी । अब दोनो ही दिलगीर रहते । कई-कई दिनों तक आपस मे एक बात भी न होती।

कई महीने गुज़र गये। शहर के एक बैंक मे असिस्टेंट मैनेजर की जगह खाली हुई। प्रकाश ने अर्थशास्त्र पढा था, लेकिन शर्त यह थी कि नक़द दस हजार की जमानत दाखिल की जाय । इतनी बड़ी रकम कहाँ से आये। प्रकाश तड़प-तड़पकर रह जाता था।

एक दिन ठाकुर साहब से इस विषय मे बात चल पड़ी।

ठाकुर साहव ने कहा-तुम क्यों नहीं दरख्वास्त भेजते ?

प्रकाश ने सिर झुकाकर कहा-दस हजार को नकद जमानत मांगते हैं। मेरे पास रुपये कहाँ रखे है! अजी, तुम दरख्वास्त तो दो; अगर सारी बातें तय हो जायँ, तो जमानत भी दे दी जायगी । इसको चिन्ता न करो।'

प्रकाश ने स्तम्भित होकर कहा-आप जमानत दे देंगे ?

'हा-हा, यह कौन-सी बड़ी बात है।'

प्रकास घर चला तो बहुत रजोदा था। उसको यह जगह अब अवश्य मिलेगी , लेकिन फिर भी वह प्रसन्न नहीं है । ठाकुर माहव की सरलता- उनका उस पर इतना अटल विश्वास-उसे आहत कर रहा है। उनकी शराफत उसके कसीनेपन को कुचले डालती है।

उसने घर आकर चरा को खुशखबरी सुनाई। चम्पा ने सुनकर मुंह फेर लिया । एक क्षण के बाद बोली-ठाकुर साहब से तुमने क्यो जमानत दिलवाई। प्रकाश ने चिढकर कहा -- फिर और किससे दिलवाता ?

'यही न होता. जगह न मिलती। रोटियाँ तो मिल ही जातीं । रुपये-पैसे की बात है । वहीं भूल-चूक हो जाय, तो तुम्हारे साथ उनके रुपये भी जायँ।'

'यह तुम कसे समझती हो कि भूल-चूक होगी ? क्या में ऐसा अनाङी हूँ?'

चम्पा ने विरक्त मन से कहा--आदमी की नीयत भी तो हमेशा एक-सी नहीं रहती।

प्रकाश ठक-से रह गया। उसने चम्स को चुभतो हुई आंखों से देखा , पर चम्पा ने मुंह फेर लिया था। वह उसके भावों के विषय मे कुछ निश्चय न कर सका , लेकिन ऐसी खुशखबरी सुनकर भी चम्पा का उदासीन रहना उसे विकल करने लगा। उसके मन में प्रश्न उठा-एस वाक्य में नहीं आक्षेप तो नहीं छिपा हुआ है। चम्पा ने सन्दूक खोलकर देख तो नहीं लिया ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए इस समय यह अपनी एक आँख भी भेंट कर सकता था।

भोजन करते समय प्रकाश ने चम्पा से पूछा---तुमने क्या सोचकर कहा था कि आदमी को नीयत तो हमेशा एक-सी नहीं रहती ? जैसे यह उसके जीवन या मृत्यु का प्रश्न हो।

चम्पा संकट में पड़कर कहा-कुछ नहीं, मैंने दुनिया की बात कही थी। प्रकाश को संतोष न हुआ। 'क्या जितने आदमी बैंकों मे नौकर है, उनको नीयत बदलती रहती है ?" वह बोला।

चम्पा ने गला छुड़ाना चाहा--तुम जबान पकड़ते हो। ठाकुर साहब के यहां इस शादी मे हो तुम अपनी नीयत ठीक नहीं रख सके। सौ-दो-सौ रुपये की चीजें घर में रख हो लीं।

प्रकाश के दिल से बोझ उतर गया । मुसकिराकर बोला-अच्छा, तुम्हारा संकेत उस तरफ था, लेकिन मैंने कमीशन के सिवा उनकी एक पाई भी नहीं छुई। और कमीशन लेना तो कोई पाप नहीं। बड़े-बड़े हुक्काम खुलेखजाने कमीशन लिया करते हैं ।

चम्पा ने तिरस्कार के भाव से कहा--जो आदमी अपने ऊपर इतमा विश्वास रखे, उसकी आँख बचाकर एक पाई लेना भी मैं पाप समझती हूँ। तुम्हारी सज्जनता तो मैं जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते। इन छः महीनो मे उन्होने तुम्हारे साथ क्या-क्या सलूक किये, कुछ याद है ? मकान तुमने खुद छोड़ा, लेकिन वह २०) महीना देने जाते हैं। इलाके से कोई सौगात आतो, तुम्हारे यहाँ जरूर भेजते हैं। तुम्हारे पास घड़ी न थी, अपनी घड़ी तुम्हें दे दी। तुम्हारी महरी जब नागा करती है, खबर पाते ही अपना नौकर भेज देते हैं। , मेरी बीमारी ही में डाक्टर साहब की फीस उन्होने दी, और दिन में दो बार हाल-चाल पूछने आया करते थे। यह जमानत ही क्या छोटी बात है ? अपने सम्बन्धियो तक की जमानत तो जल्दी कोई करता ही नहीं। तुम्हारी जमानत के लिए दस हजार रुपये नकद निकालकर दे दिये। इसे तुम छोटो बात समझते हो ? आज तुमसे कोई भूल- चक हो जाय, तो उनके रुपये तो जब्त हो जायँगे। जो आदमी अपने ऊपर इतनी दया रखे, उसके लिए हमें भी प्राण देने को तैयार रहना चाहिए।

प्रकाश भोजन करके लेटा, तो उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी। दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा हुआ है, यह उस वक्त मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। मन का विकार उस वक्त मालूम होता है, जब कोई उसे हमारे सामने खोलकर रख देता है। किसी सामाजिक या राजनीतिक अन्याय का व्यंग्यचित्र देखकर क्यों हमारे मन को चोट लगती है , इसी लिए कि वह चित्र हमारी पशुता को खोल- कर हमारे सामने रख देता है। वह जो मन सागर में विखरा हुआ पड़ा था, जैसे‌
केंद्रीभूत तहोकर व्हदाकार हो जाता है । तब हमारे मुंह से निकल पड़ता है --उपफोह ! चम्पा के इन तिरस्कार-भरे शब्दों ने प्रकाश के मन मे ग्लानि उत्पन्न कर दी। वह सन्दुक कई-गुना भारी होकर शिला की भाँति उसे दबाने लगा। मन में फैला हुआ विकार एक बिंदु पर एकत्र होकर टीसने लगा।

( ७ )

कई दिन बीत गये । प्रकाश को बैंक मे जगह मिल गई । इसी उत्सव में उसके यहाँ मेहमानों की दावत है । ठाकुर साहब, उनकी स्त्री, बीरू और उसकी नवेली बहू, सभी आये हुए हैं। चम्पा सेवा-सत्कार में लगी हुई है। बाहर दो चार मित्र गा-बजा रहे है। भोजन करने के बाद ठाकुर साहब चलने को तैयार हुए।।

प्रकाश ने कहा-आज आपको यहीं रहना होगा दादा ! मैं इस वक्त न जाने दूंगा।

चम्पा को उसका यह आग्रह बुरा लगा। चारपाइयाँ नहीं हैं, बिछावन नहीं है और न काफी जगह ही है । रात-भर उन्हें तकलीफ देने और आप तकलीफ उठाने की कोई जरूरत उसकी समझ मे न आई , लेकिन प्रकाश आग्रह करता ही रहा, यहाँ तक कि ठाकुर साहब राजी हो गये।

बारह बज गये थे। ठाकुर साहब ऊपर सो रहे थे। बीरू और प्रकाश बाहर बरा- मदे में थे। तीनो स्त्रियाँ अन्दर कमरे मे थीं। प्रकाश जाग रहा था। वीरू के सिरहाने उसकी कुंजियों का गुच्छा पड़ा हुआ था। प्रकाश ने गुच्छा उठा लिया। फिर कमरा खोलकर उसमें से गहनों का सन्दूकचा निकाला और ठाकुर साहब के घर की तरफ चला । कई महीने पहले वह इसी भांति कपित हृदय के साथ ठाकुर साहब के घर में घुसा था । उसके पाँव तब भी इसी तरह थरथरा रहे थे, लेकिन तब काँटा चुभने की वेदना थी, आज काँटा निकलने की। तब ज्वर का चढाव था, उन्माद, ताप और विकलता से भरा हुआ। अव ज्वर का उतार था, शान्त और शीतल। तब कदम पीछे हटता था, आज आगे बढ़ रहा था।

ठाकुर साहब के घर पहुंचकर उसने धीरे से बीरू का कमरा खोला और अन्दर जाकर ठाकुर साहब की खाट के नीचे सन्दूकचा रख दिया। फिर तुरन्त बाहर आकर धीरे से द्वार वन्द किया और घर को लौट पड़ा। हनुमान संजीवनी बूटीवाला धवलागिर उठाये जिस गर्वीले आनन्द का अनुभव कर रहे थे, कुछ वैसा ही आनन्द प्रकाश को भी हो रहा था । गहनो को अपने घर ले जाते समय उसके प्राण सूखे हुए थे, मानो‌
किसी गहरी अथाह खाई में गिरा जा रहा हो। आज सन्दूकचे को लौटाकर उसे मालूम हो रहा था, जैसे वह किसी विमान पर बैठा हुआ आकाश की और उड़ा जा रहा है-ऊपर, ऊपर और ऊपर।

वह घर पहुंचा तो बीरू सोया हुआ था । कुञ्जी उसने सिरहाने रख दी ।

(८)

ठाकुर साहब प्रात: काल चले गये।

प्रकाश सन्ध्या-समय पढाने जाया करता था। आज वह अधीर होकर तीसरे ही पहर जा पहुंचा। देखना चाहता था, वहां आज क्या गुल खिल रहे हैं।

वीरेन्द्र ने उसे देखते ही खुश होकर कहा-बाबूजी, कल आपके यहाँ की दावत बड़ी मुबारक थी। जो गहने चोरी गये थे, सब मिल गये ।

ठाकुर साहब भी आ गये और बोले-बड़ी मुबारक दावत थी तुम्हारी। पूरा सन्दूक-का-सन्दूक मिल गया । एक चीज भी नहीं छुई । जेसे केवल रखने ही के लिए ले गया हो ।

प्रकाश को इन बातो पर कैसे विश्वास आये, जब तक वह अपनी आँखों से सन्दूक देख न ले। कहीं ऐसा भी हो सकता है कि चोरी गया हुआ माल छः महीने बाद मिल जाय, और ज्यो-का-त्यो ।

सन्दूक को देखकर उसने गम्भीर भाव से कहा-बड़े आश्चर्य की बात है ! मेरी बुद्धि तो कुछ काम नहीं करती।

ठाकुर-~किसी को बुद्धि कुछ काम नहीं करती भई, तुम्हारी ही क्यो ! वीरू की माँ कहती है, कोई दैवी घटना है। आज से मुझे भी देवताओं में श्रद्धा हो गई।

प्रकाश--अगर आँख देखी बात न होती, तो मुझे कभी विश्वास न आता।

ठाकुर-आज इसी खुशो से हमारे यहाँ दावत होगी।

प्रकाश---आपने कोई अनुष्ठान तो नहीं कराया था?

ठाकुर-अनुष्टान तो बीसों ही कराये।

प्रकाश-बस, तो यह अनुष्ठानों ही की करामात है।

घर लौटकर प्रकाश ने चम्पा को यह खबर सुनाई, तो वह दौड़कर उनके गले से चिमट गई और न जाने क्यों रोने लगी, जैसे उसका विछुड़ा हुआ पति बहुत दिनों के बाद घर आ गया हो। प्रकाश ने कहा-आज उनके यहाँ हमारी दावत है।

'मै कल एक हजार कॅगलों को भोजन कराऊँगी।'

'तुम तो सैकड़ों का खर्च बतला रही हो ।

'मुझे इतना आनन्द हो रहा है कि लाखौ खर्च करने पर भी अरमान पुरा न होगा।'

प्रकाश की आँखों से भी आँसू निकल आये।



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