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मानसरोवर २/५ मोटर के छींटे

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मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ७३ से – ७६ तक

 





मोटर की छीटें

क्या नाम कि कल प्रातःकाल स्नान-पूजा से निबट, तिलक लगा, पीताम्बर पहन, खड़ाऊँ पांव में डाल, बगल में पत्रा दबा, हाथ में मोटा-सा शत्रु-मस्तक-भजन ले एक जजमान के घर चला । विवाह की साइत विचारनी थी। कम-से-कम एक कलदार का डौल था। जलपान ऊपर से । और मेरा जलपान मामूली जलपान नहीं है। वाबुओ को तो मुझे निमन्त्रित करने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उनका महीने भर का नाश्ता मेरा एक दिन का जलपान है। इस विषय मे तो हम अपने सेठों-साहूकारों के कायल हैं। ऐसा खिलाते हैं, ऐसा खिलाते हैं, और इतने खुले मन से कि चोला आनन्दित हो उठता है। जजमान का दिल देखकर ही मै उसका निमन्त्रण स्वीकार करता हूँ। खिलाते समय किसीने रोनी सूरत बनाई और मेरी क्षुधा गायब हुई । रोकर किसीने खिलाया तो क्या ? ऐसा भोजन कम-से-कम मुझे नहीं पचता । जजमान ऐसा चाहिए कि ललकारता जाय-लो शास्त्रीजी, एक बालूशाही और , और मैं कहता जाऊँ- नहीं जज्मान, अब नहीं।

रात खूब वर्षा हुई थी, सड़क पर जगह-जगह पानी जमा था। मैं अपने विचारों में मगन चला जाता था कि एक मोटर छप-छप करती हुई निकल गई । मुंह पर छीटे पड़े। जो देखता है, तो धोती पर मानो किसीने कीचड़ घोलकर डाल दिया हो। कपड़े भ्रष्ट हुए वह अलग, देह भ्रष्ट हुई वह अलग, आर्थिक क्षति जो हुई वह अलग। अगर मोटरवालों को पकड़ पाता, तो ऐसी मरम्मत करता कि वह भी याद करते। मन मसोसकर रह गया। इस वेष में जजमान के घर तो जा नहीं सकता था, अपना घर भी मील-भर से कम न था। फिर आने-जानेवाले सब मेरी ओर देख-देखकर तालियाँ बजा रहे थे। ऐसी दुर्गति मेरी कभी न हुई थी। अब क्या करोगे मन ? घर जाओगे तो पण्डिताइन क्या कहेंगी?

मैंने चटपट अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया इधर-उधर से दस-बारह पत्थर
के टुकड़े वटोर लिये और दूसरे मोटर की राह देखने लगा। ब्रह्मतेज सिर पर चढ़ बैठा। अभी दस मिनट भी न गुज़रे होगे कि एक मोटर आती हुई दिखाई दी। ओहो ! वही मोटर थी। शायद स्वामी को स्टेशन से लेकर लौट रही थी। ज्यों ही समीप आई, मैंने एक पत्थर चलाया, भरपूर जोर लगाकर चलाया। साहब की टोपी उडकर सड़क के उस बाजू पर गिरी । मोटर की चाल धीमी हुई। मैंने दूसरा फैर किया। खिड़की के शीशे चूर-चूर हो गये और एक टुकड़ा साहब बहादुर के गाल में भी लगा। खून बहने लगा। मोटर रुकी और साहब उतरकर मेरी तरफ आये और धूसा तानकर बोले-~-सुअर, हम तुमको पुलिस में देगा। इतना सुनना था कि मैंने पोथी-पत्रा ज़मीन पर फेंका और पकड़कर साहब की कमर अड़गी लगाई, तो कीचड़ मे भद से गिरे। मैंने चट सवारी गाँठो और गरदन पर एक पचीस रद्दे ताबड़तोड़ जमाये कि चौधिया गये। इतने में उनकी पत्नोजी उतर आई। ऊँची ऍडी का जूता, रेशमी साड़ी, गाली पर पाउडर, ओठो पर रग, भोवों पर स्याही, मुझे छाते से गोदने लगीं। मैंने साहब को छोड़ दिया और डण्डा सँभालता हुआ बोला-देवीजी, आप मरदों के बीच में न पड़े, कहीं चोट-चपेट आ जाय, तो मुझे दुख होगा।

साहब ने अवसर पाया, तो सँभलकर उठे और अपने बूटदार पैरो से मुझे एक ठोकर जमाई । मेरे घुटने में बड़ी चोट लगी। मैंने बौखलाकर डण्डा उठा लिया और साहब के पांव में जमा दिया । कटे पेड़ की तरह गिरे। मेम साहव छतरी तानकर दौड़ी। मैंने धीरे से उनकी छतरी छीनकर फेंक दो । ड्राइवर अभी तक बैठा था, अब वह भी उत्तरा और छड़ी लेकर मुझपर पिल पड़ा। मैंने एक डण्डा उसके भी जमाया, लोट गया। पचासौं आदमो तमाशा देखने जमा हो गये। साहब भूमि पर पड़े-पड़े बोले-रैस्केल, हम तुमको पुलिस मे देगा।

मैंने फिर डण्डा संँभाला और चाहता था, कि खोपड़ी पर जमाऊँ कि साहब ने हाथ जोड़कर कहा-नहीं-नहीं, बावा, हम पुलिस मे नहीं जायगा। माफी दो।

मैंने कहा-हाँ, लिस का नाम न लेना, नहीं तो यहीं खोपड़ी रँग दूंगा। बहुत होगा ६ महीने की सजा हो जायगी, मगर तुम्हारी आदत छुड़ा दूंगा। मोटर चलाते ही, तो छीटें उड़ाते हो, मारे घमण्ड के अन्धे हो जाते हो । सामने या बगल में कौन जा रहा है, इसका ध्यान ही नहीं रखते ।

एक दर्शक ने आलोचना को- अरे महाराज, मोटरवाले जान-बूझकर छीटें‌
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उड़ाते हैं और जब आदमी लथ-पथ हो जाता है, तो सब उसका तमाशा देखते हैं और खूब हँसते हैं। आपने बड़ा अच्छा किया कि एक को ठीक कर दिया।

मैंने साहब को ललकारकर कहा-सुनता है कुछ, जनता क्या कहती है ? साहब ने उस आदमी की ओर लाल-लाल आँखो से देखकर कहा-तुम झूठ बोलता है, विलकुल झूठ बोलता है।

मैंने डाँटा--अभी तुम्हारी हेकडी कम नहीं हुई, आऊँ फिर और दूं एक सोटा कसके ?

साहब ने घिघियाकर कहा-अरे नहीं बाबा, सच बोलता है, सच बोलता है। अब तो खुश हुआ ?

दूसरा दर्शक बोला-अभी जो चाहे कह दें, लेकिन ज्योंही गाड़ी पर बैठे, फिर वही हरकत शुरू कर देंगे। गाड़ी पर बैठते ही सब अपने को नवाब का नाती समझने लगते हैं ?

दूसरे महाशय बोले- इससे कहिए थूककर चाटे।

तीसरे सज्जन ने कहा-नहीं, कान पकड़कर उठाइए-बैठाइए।

चौथा बोला---और ड्राइवर को भी । यह सव और बदमाश होते हैं। मालदार आदमी धमण्ड करे, तो एक बात है, तुम किस बात पर अकड़ते हो ? चक्कर हाथ में लिया और आँखों पर परदा पड़ा ।

मैंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। डाइवर और मालिक दोनों ही को कान पकड़कर उठाना-बैठाना चाहिए और मेम साहब गिनें । सुनो मेम साहब, तुमको गिनना होगा। पूरी सौ बैठकें । एक भी कम नहीं, ज्यादा जितनी चाहे हो जायें ।

दो आदमियों ने साहब का हाथ पकड़कर उठाया, दो ने ड्राइवर महोदय का। डाइवर बेचारे को टॉग में चोट थी, फिर भी वह बैठक्के लगाने लगा। साहब की अकड़ अभी काफी थी । आप लेट गये और ऊल-जलूल बकने लगे । मैं उस समय रुद्र बना हुआ था। दिल मे ठान लिया कि इससे विना सौ बैठके लगवाये न छोङूँगा। चार आदमियों को हुक्म दिया कि गाड़ी को ढकेलकर सड़क के नीचे गिरा दो।

हुक्म को देर थी। चार की जगह पचास आदमी लिपट गये और गाड़ी को ढके- लने लगे। वह सड़क बहुत ऊँची थी। दोनो तरफ की जमीन नीची। गाड़ी नीचे गिरी और टूट-टाटकर ढेर हो जायगी। गाड़ी सड़क के किनारे तक पहुंच चुकी थी कि साहब काँखकर उठ खड़े हुए और बोले-बावा, गाड़ी को मत तोड़ो, हम उठे-बैठेगा। मैंने आदमियो को अलग हट जाने का हुक्म दिया , मगर सभी को एक दिल्लगी मिल गई थी। किसी ने मेरी और ध्यान न दिया , लेकिन जब मैं डण्डा लेकर उनकी और दौड़ा, तब सब गाड़ी छोड़कर भागे और साहब ने आंखें बन्द करके बैठकें लगानी शुरू की।

मैंने दस बैठको के बाद मेम साहब से पूछा-कितनो बैठकें हुई?

मेम साहब ने रोष से जवाब दिया-हम नहीं गिनता।

'तो इस तरह साहब दिन-भर काँखते रहेगे और मैं न छोड़ूगा। अगर उनको कुशल से घर ले जाना चाहती हो, तो बैठकें गिन दो । मैं उनको रिहा कर दूंगा।'

साहब ने देखा कि धिना दण्ड भोगे जान न वचेगी, तो वैठकें लगाने लगे । 'एक, दो, तीन, चार, पांच ..।' .

सहसा एक दूसरी मोटर आती दिखाई दो । साहब ने देखा और नाक रगड़कर बोले-~-पण्डितजी, आप मेरा बाप है । मुझ पर दया करो, अब हम कभी मोटर पर न बैठेगे। मुझे भी दया आ गई। बोला-नही, मोटर पर बैठने से मैं नहीं रोकता, इतना ही कहता हूँ कि मोटर पर बैठकर भी आदमियो को आदमी समझो ।

दूसरी गाड़ी तेज चली आती थी। मैंने इशारा किया । सब आदमियों ने दो-दो पत्थर उठा लिये । उस गाड़ी का मालिक स्वय ड्राइव कर रहा था। गाड़ी धीमी करके , धीरे से सरक जाना चाहता था कि मैंने बढ़कर उसके दोनों कान पकड़े और खूब जोर से हिलाकर और दोनो गालों पर एक-एक पड़ाका देकर बोला---गाड़ी से छींटा न उङाया करो, समझे ? चुपके से चले जाओ।

यह महोदय वक-झक तो करते रहे , मगर एक सौ आदमियो को पत्थर लिये खड़ा देखा, तो विना कान-पूछ डुलाये चलते हुए।

उनके जाने के एक ही मिनट बाद दूसरी गाड़ी आई। मैंने ५० आदमियों को राह रोक लेने का हुक्म दिया। गाड़ी रुक गई , मैंने उन्हें भी चार पड़ाके देकर विदा क्यिा , मगर यह वेचारे भले आदमी थे। मज़े से चोटें खाकर चलते हुए।

सहसा एक आदमी ने कहा-पुलिस आ रही है।

और सब-के-सब हुर हो गये। मैं भी सड़क के नीचे उतर गया और एक गली मे धुमकर गायब हो गया।