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मानसिक शक्ति/४–इच्छा अथवा अभिलाषा

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लखनऊ: हिंदी साहित्य भंडार, पृष्ठ १८ से – २१ तक

 

तुम क्या चाहते हो? इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि तुम्हारी क्या अभिलाषा है? जिसकी पूर्ण मनोबल से इच्छा अथवा अभिलाषा होती है हम उसके ऊपर विचार करते हैं और फिर उसकी पूर्ति के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं। हमें मालूम होता है कि इच्छा करते हैं; परन्तु जब हम अपनी इच्छाओं को भलीभांति परीक्षा करते हैं तो प्रायः देखते हैं कि वे हार्दिक नहीं हैं, अथवा हम किसी आदर्श की अभिलाषा करते हैं; परन्तु पूर्णरूप से विचार करने पर हम देखते हैं कि वह केवल बाहरी मन से हैं। हम उनको आसानी से छोड़ देते हैं। यथार्थ में हम यह करते हैं कि किसी वस्तु को चाहते तो बहुत है; परन्तु उस पर पूर्ण विश्वास नहीं रखते कि वह मिलेगी। इस प्रकार की इच्छा उत्पादक नहीं है। यह केवल चलतू भ्रम है जो पैदा होते ही नष्ट हो जाता है। इससे क्षणभर भी मेरा यह अभिप्राय नहीं है कि ऐसी इच्छा या अभिलाषा हानिकारक होती है किन्तु मेरा यह विश्वास है कि चरित्र पर इसका प्रभाव अत्यन्त हानिकारक और बुरा पड़ता है। यदि किसी मनुष्य को विचारशक्ति दृढ़ है, छाया मात्र नहीं और उसकी इच्छा संसार में भलाई करने की है तो उसको चाहिए कि वह अपने क्षणिक आशाओं और व्यर्थों के विचारों को एकदम दूर करदे। अधूरी इच्छा जो भ्रम से संयुक्त हो साल छह महीने तक अपने मनमें रखना और फिर उसको छोड़ दूसरी बात की इच्छा करने लगना शारीरिक बल को खोना है और शक्ति को क्षीण करना है और बराबर ऐसा करने से अन्त में किसी काम पर दृढ़ ध्यान लगाने की शक्ति सर्वथा जाती रहती है। इस प्रकार का मनुष्य कभी अपना अभीष्ट नहीं प्राप्त कर सकता। यह मनुष्य श्रेणी से गिर जाता है।

"जो मनुष्य अस्थिर चित्तवाला है वह समुद्र की तरंग के समान है जो वायु से विताड़ित होती रहती है। ऐसे मनुष्य पर परमेश्वर कभी दयादृष्टि नहीं रखता और न कुछ वह कृपापात्र होता है। द्विचित मनुष्य अपने सब कार्यों में अस्थिर रहता है"। इसलिए जो मन आज एक वस्तु की इच्छा करता है और कल दूसरी वस्तु की वही अस्थिर कहलाता है। ऐसा मन इच्छारूपी झोके के साथ उड़ा करता है। जिस प्रकार जीवनरूपी समुद्र की वायु विताड़ित लहरों के ऊपर पतवार रहित नौका जिसका कि कोई निश्चित बन्दरगाह नहीं होता, डामाडोल होती हुई जिस चाहे ओर चली जाती है वही हाल मनुष्य के चंचल चित्त का है। ऐसा मनुष्य कभी परमेश्वर का कृपापात्र नहीं बन सकता।

एक प्रकार की इच्छा निराशाजनक भी होती है। यद्यपि ऐसी इच्छा अपने आप बलवती और सच्ची भी हो; परंतु साथ ही इसके कभी कभी उसी के साथ निराशा भी होती है। कुछ समय हुआ, मैं एक आदमी से बातचीत कर रहा था। वह पुरुष बड़ा ही गम्भीर और शांत था। अपने जीवन के परिपूर्ण करने के लिए उसने किसी प्राप्ति की इच्छा की, परन्तु उसको विश्वास नहीं था कि ईश्वरीय नियम उसको कुछ प्राप्ति करा देंगे या नहीं। उसकी इच्छा के साथ ऐसी द्विविधा थी कि वह रोरोकर कहता था 'क्या रोने से चन्द्रमा हाथ में आ सकता है'। ऐसी इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो सकती क्योंकि अविश्वास उसकी नास्तिक अवस्था कर देता है और मनुष्य इच्छित वस्तु को प्राप्ति की ओर नहीं जाएगा और न उसको पाने का हार्दिक यत्न करेगा। यहां अब मुझे यह बतलाने दो कि कहीं मनुष्य ऐसा न समझ बैठे कि मैं यह शिक्षा दे रहा हूँ "अपना मुंह खोलो, आँखे बंद करो और फिर देखो ईश्वर तुम्हें क्या भेजता है।" यह बात मेरी सम्मति से विपरीत है। किसी चीज़ की इच्छा करने से मेरा अभिप्राय यह है कि कोई बड़ी सफलता की अभिलाषा हो और किसी उत्तम और उत्कृष्ट जीवन के अवसर और ईश्वर की कृपापात्रता के योग्य हों। मेरा अभिप्राय यह है कि अपने हृदय से बाह्य किसी बड़े उत्तम पदार्थ की प्राप्ति का विचार हो कि हम तन मन से किसी लक्ष्यविन्द तक पहुंचने का यत्न करें। क्या यह सम्भव है कि इस प्रकार की उत्कट अभिलाषा रखते हुए तुम चुपचाप बैठे रहो और कुछ न करो। नहीं, नहीं तुम्हारा सारा जीवन काम करने में लगा ही रहेगा, लाचार तुमको आगे चलना ही पड़ेगा। इस कारण से अपने लक्ष्यबिन्दु तक पहुंचने के लिए हर प्रकार का यत्न करो। इस प्रकार तुम निठल्ले और बेकार न रहकर काम करने के लिए सदैव तत्पर रहोगे और हाथ पर हाथ रक्खे हुए बैठे रहकर अभिलाषा पूर्ण होने को आशा न करोगे। मैं विश्वास के साथ कहता हूँ कि तुम्हारा परिश्रम विफल नहीं होगा। वह विफल हो नहीं सकता अवश्यमेव सफलता होगी।

वस्तु के भले बुरे मालूम करने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि किसी वस्तु को पा करके उसी से ठीक, ठीक अनुभव प्राप्त करो कि उसकी प्राप्ति लाभदायक है या नहीं। जिस वस्तु को तुम हमेशा इच्छा किया करते थे क्या वह तुम को नहीं प्राप्त हुई? और इच्छा दृढ़ता पूर्वक हार्दिक थी तो तुम सदैव यह विचारोगे क्या अच्छा होता यदि मुझको वह वस्तु मिल जाती जिसे कि मैं इच्छा करता था तो मेरा जीवन सफलीभूत और आनन्दमय बन जाता। दृष्टान्त के तौर पर एक आदमी को लो जो बहुत धन की इच्छा किया करता है, जो रुपये की गरज़ से रुपये की ओर ध्यान लगाए रहता है वह इस संसार के सब सुवर्ण की इच्छा इस अभिप्राय से करता है कि मैं अपने भाइयों से धनी हो जाऊँ। जब लखपती हो गया और दुःख तनिक भी कम नहीं हुआ तो अन्त में फिर वह सच्चे धन की ओर लगेगा जो कि शाश्वत और सुखकर है और जिसकी प्राप्ति से आत्मा को सब प्रकार का सुख और शांति मिलेगी।