मानसिक शक्ति/७–अपनी सब प्राप्ति के साथ
जब उस मनुष्य को जोकि सुख और शान्ति की गुप्त शक्तियों को खोजने वाला है यह सीधी परंतु महत्व की बात कि विचार में कितनी शक्ति है, पहले पहल बतलाई जाती है तो एक प्रकार का डर है। यह ऐसी बात है कि हर एक को समझ लेना चाहिए कि कहीं ऐसा न हो कि लाभ के स्थान में हानि उठावे, क्योंकि मनुष्य यदि शक्ति का ठीक ठीक प्रयोग करना नहीं जानता अथवा जानकर भी कुछ नहीं करता, तो फिर वही शक्ति उसके नाश का कारण हो जाती है। उसका चित्त इस शक्ति को स्वार्थ साधन में लगाने की प्रेरणा करता है और ऐसा करने से उसकी अन्त में क्षति होती है।
यह बात निरर्थक नहीं है कि प्रत्येक मनुष्य में जो शक्तियां जन्म से ही मौजूद हैं उनसे बहुत से मनुष्य अनभिज्ञ रक्खे गए हैं। संसार के धुरन्धर गुरुओं ने मनुष्यों की समझ के अनुसार उनको इस शक्ति का उपदेश दिया है। जो अच्छे गुरु हैं वे अपने शिष्यों को इतना ज्ञान देते हैं जितना उनके शिष्य भली भांति प्रयोग में ला सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य उस बुद्धिमान के सदृश उत्तर नहीं दे सकता कि जब उस आदमी पर दिव्य-ज्योति का प्रकाश पड़ा और जब उसे दैववाणी यह कहते हुए सुनाई दी कि तुम क्या चाहते हो। उसने उत्तर दिया, मुझे बुद्धि और ज्ञान दो। और उसने यह स्वार्थ साधन के लिए नहीं मांगा किन्तु जनता की भलाई, शान्ति और सुख के लिए मांगा। आजकल के बहुत से मनुष्य तो अपने गुरु से कोई बेटा, कोई धन और कोई स्त्री मांगते हैं और स्वार्थ साधन में ऐसे लीन हैं कि ज्ञान प्राप्ति तक उनका ध्यान ही नहीं पहुंच सकता।
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि विचार की उत्पादक शक्ति बड़ी ही प्रबल है इसके द्वारा पुरुष अथवा स्त्री अपने को जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं और इसमें भी सन्देह नहीं कि हम अपने को प्रतिदिन कुछ न कुछ बना रहे हैं। यह बात सत्य है कि हमारी परस्थितियों हमारे बाह्य क्षेत्र हमारे अनुभव और हमारे सम्बन्धों का हमारे चहुं ओर के आदमियों और पदार्थों से बहुत सा ऐसा सम्बन्ध है कि इसमें हम चाहते हैं कि एक साथ परिवर्तन हो जावे और जैसे के तैसे न रहें किन्तु हमारी इच्छानुसार बनजावें; ऐसा करना कार्य कारण के नियम को तोड़ना होगा।
प्रत्येक मनुष्य का विचार उसके जीवन का निर्माता और कर्ताधर्ता है। यह बात कुछ विचित्र मालूम होती है परन्तु बिल्कुल सत्य है किन्तु कभी मनुष्य इसका ध्यान नहीं रखते और न इसके बाबत कुछ विशेषकर धर्मायतनों में ही शिक्षा दी जाती है और बहुत कम लिखा भी गया है। कुछ शताब्दियों के बाद अब यह बात फिर हमारे सम्मुख आई है। इसको कुछ मनुष्य नया समझते हैं और कुछ धर्म विरुद्ध बतलाते हैं। बात असल में यह है कि यह बात तनिक भी नई नहीं है। ईसा के पांच सौ वर्ष पहले बुद्ध भगवान ने इस बात का उपदेश दिया था और अन्य धर्म गुरुओं ने भी यह बात बतलाई थी। उनके कथन में तनिक भी आशंका नहीं हो सकती।
जो विचार हमारे मस्तक में है उसी ने हमको बनाया है। विचारों के अनुसार ही हम बनाए गए हैं। यदि मनुष्य के विचार तुच्छ और घृणित है तो उसके पीछे दुख वा क्लेश इस प्रकार लगा हुआ है जिस प्रकार बैल के पीछे पहिया लगा रहता है। परंतु यदि किसी के विचार विशुद्ध और पवित्र हैं तो सुख उसका इस प्रकार साथ देता है जिस प्रकार मनुष्य की छाया मनुष्य का साथ देती है।
जैसा तुम दूसरों से कराने की इच्छा रखते हो वैसा तुम भी उनके साथ करो क्योंकि यह एक प्राकृतिक नियम है।
जो तुम दोगे वह तुम्हें भी मिल जाएगा। यदि तुम दूसरों के साथ उपकार करोगे तो वै तुम्हारे साथ भी उपकार करेंगे।
देह के साथ मोह मृत्यु समान है और आत्मिक विचार सुख शान्ति की जड़ है। जेम्स एलन का कथन है कि विचार का फल तो कार्य है; परंतु सुख दुख उसके फल हैं। अतः अपने ही खेत के सुख दुख रूपी भले और बुरे फलों को मनुष्य बटोरता है।
विचार क्षेत्र में कारण और कार्य का नियम ऐसे ही अटल है जैसे कि बाह्य क्षेत्र के संसार में। जिस प्रकार संसार में प्रत्येक वस्तु के साथ कार्य कारण भाव लगा हुआ है उसी प्रकार हमारे विचारों के साथ भी लगा हुआ है।
मनुष्य अपना निर्माता है। उसका विचार उन यन्त्रों को अपने शस्त्रालय में गढ़ता है जो उसका नाश करते हैं। उसी कार्यालय में वह ऐसे यन्त्र बना सकता है जिससे स्वर्गीय सुख शान्ति तथा अन्य शक्तियां प्राप्त हों।
आत्मा के विषय में जो अच्छी अच्छी बातें इस समय में प्रगट हुई हैं उनमें से सब से उत्तम सुख को देनेवाली इसके सिवाए कोई नहीं है कि मनुष्य अपने विचारों का स्वामी है, अपने चरित्र का निर्माता है, और अपनी स्थिति, अपने बाह्य क्षेत्र और अपने भाग्य का कर्त्ता है।
तब यह बात बहुत ही आवश्यक है कि हमको अपनी विचार शक्ति का ज्ञान होना चाहिए हमें धिक्कार है यदि हम अपनी विचार शक्ति को स्वार्थसाधन में लगाएँ। इसमें सन्देह नहीं यदि हम अपनी विचार-शक्ति को पूर्णरूप से स्वार्थ सिद्धि में लगा देंगे तो उससे हमारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायगी परंतु इस बात का हमें बहुत ध्यान रखना चाहिये कि हमारी इच्छित वस्तु जब मिले तो हमें लाभदायक हो तथा आगामी हामि का डर न रहे। हमको अपना उद्धार अपने आप करना चाहिये और उसी में सन्तोष कर लेना चाहिए। सारांश यह है कि यदि हमको यह मालूम हो जाए कि यह बात हम में पूर्व-कर्म और पूर्वविचार के कारण हुई है तो हमें उसका रत्ती रत्ती भर बदला चुका देना चाहिए परन्तु बदला चुकाते समय अपने मन को शुभ विचारों की ओर लगाना चाहिए जिससे भविष्य में हर्ष और आनन्द मिले। यदि हमारे हाथ में आज कांटा चुभे और यदि हम उसके कारण को मालूम करें तो हमें ज्ञात हो जाएगा कि हमारे इस दुख का बीज हमीं ने बोया है। चाहे इसे थोड़े दिन हुए हों या बहुत दिन; परंतु बोया हमीं ने है। कार्य कारण के नियम पर विचार करते हुए भी हमें यही समझ में आता है कि हमारे दुख का बीज अवश्य ही अतीत काल में बोया गया होगा। यदि तुम विशुद्ध-निर्मल प्रेम, प्रीति और प्रसन्नता के विचार को मन रूपी भूमि में बोओगे तो उससे तुम्हें अच्छे फल मिलेंगे और हर्ष तथा आनन्द के कारण तुम उन दुखों को भी सहन कर लोगे जिनका बदला अभी तुम्हें ्चु चुकाना बाकी है और वे दुख शनैः शनैः जाते रहेंगे।
क्या तुम अपने जीवन को सारयुक्त और सुख मय बनाने के लिए भलाई, सुन्दरता और प्रसन्नता को चाहते हो? क्या तुम ऐसे शान और शक्ति को प्राप्त करना चाहते हो जिससे तुम्हारे साथी तुम्हें विश्वासपात्र समझे और तुमसे बहुत लाभ उठा सकें? इसका तुम रात-दिन चिन्तवन करो, पवित्र और विशुद्ध विचारों की ज्योति निरन्तर तुमको घेरे रहे, उसी के अनुसार जीवन व्यतीत करो, अपने अभीष्ट को सदैव सामने रक्खो और बड़े भारी धैर्य और सन्तोष के साथ वैसा ही जीवन बनाने के लिए अपने विचारों पर डटे रहो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि तुम एक अच्छे प्रभात के दर्शन करोगे और तुम्हारी अभिलाषा पूरी होगी। केवल अपने को उसके योग्य बनाओ।
जो इच्छा करिहो मन माहीं, राम कृपा कुछ दुर्लभ नाहीं उसके लिए यत्न करो, उस पर विचार करो, उसके लिए तैयार रहो, काम करो, तत्पर रहो और आशा रक्खो और कृतज्ञ बनो। तुम्हारी इच्छा की पूर्ति रास्ते पर है और शीघ्रता के साथ तुम्हारे पास आ रही है जैसी शीघ्रता से तुम्हारा मन उसको ला रहा है उतनी ही जल्दी वह तुम्हारे पास आ जाएगी।
जो कुछ भी तुम चाहते हो, जब तुम प्रार्थना करोगे, विश्वास रक्खो तब वह तुम्हें मिल जाएगा और तुम उसके मालिक बन जाओगे।
जो वरदान तुम्हें पहले से मिले हैं उनके लिए तुम्हे कृतज्ञ होना चाहिए, आत्मा समय से परिमित नहीं है, आत्मा के लिए सब कुछ वर्तमान में है। जो कुछ अब करता है उसका प्रभाव सदैव के लिए है। जितनी अच्छी बातें तुम्हें मिल सकती हैं वे इस समय तुम्हारे हाथ में हैं। जितना दृढ़ तुम्हारा विश्वास इस बात पर होगा कि हमारा वर्तमान भावी का कर्ता है और जितना अपने कार्य में आनन्द मानोगे और धन्यवाद के गीत गाओगे उतनी ही जल्दी तुम उसे दिन प्रति दिन के अनुभव में मालूम करोगे। जो कुछ मैं लिख रहा हूँ उसकी सत्यता का मुझे ज्ञान है कारण कि मैं ने उसको अपने जीवन में कई बार अनुभव किया है। बहुत इच्छित वरदान जिनको कि हम जानते थे कि उनका मिल जाना अच्छी बात है वे स्वतः प्राप्त हो गए। मैंने बार बार उनका चिन्तवन किया, उनके लिए बहुत प्रयास किया, तथा योग्यता के लिए यत्न किया तो फिर एक दिन जब मैं प्रातःकाल सोकर उठा तो मैंने उनको अपनी बगल में पाया। कभी कभी उन तक पहुँचने के लिए मार्ग बड़ा कंटकाकीर्ण जान पड़ता था और कभी कभी तो यह भूल भी गए कि मेरी आत्मा का इच्छित पदार्थ क्या है। परंतु प्रकृति के नियम में कभी भूल नहीं होती। नियमित समय पर सब पदार्थ अपना अपना फल देते हैं।
इच्छा भी अपने समय पर सफलीभूत होगी हमारा काम साच विचार कर करने का है उसका फल कब मिलेगा इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
फलासा की चिन्ता में पड़ने से कार्यविधि में विघ्न होगा जिससे सम्भव है कि तुम्हारी पूर्ण इच्छा पूर्ण न हो कर्म विपाक के अनुसार कर्मों का जो फल है वह अवश्य होगा फलाशा से न्यूनाधिकता नहीं हो सकती। हमारा कर्तव्य केवल इतना है कि हम अपने मन को जाँचे अपनी इच्छा को हर एक पहलू से टटोलें और भली भांति निश्चय कर लेवें कि हमारी इच्छा क्या है और वह ऐसी है कि नहीं कि जब इच्छा पूर्ण होने से अधिक शक्ति और लाभ पहुंचाने के सम्भावना के अवसर हाथ लगेंगे तो हम संसार का सुख और शान्ति पहुँचाने में उनको काम में लावैंगे और अपने जीवन को उत्कृष्ट और उत्तम बनाने में और ईश्वर की स्तुति में लगावेंगे।
संसार में ऐसा कोई अवसर नहीं है, न भाग्य है और न कोई दैव ही है जो दृढ़ प्रतिज्ञ मनुष्य के इरादे को रोक सके मांगना कुछ नहीं केवल दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिये ऐसी प्रतिक्षा के सामने सब प्रकार की विघ्न बाधायें समय पर हट जाती हैं। कौन से बड़े बड़े रोड़े समुद्र में गिरनेवाली नदी की शक्ति को रोक सकते हैं? दिन के चक्र को कौन रोकने में समर्थ है? इसी प्रकार अच्छी अत्मायें अपनी आशाओं में अवश्य सफलीभूत होती हैं दृढ़ प्रतिज्ञ मनुष्य की इच्छा को कोई भी वस्तु नहीं रोक सकती। वह जो कुछ चाहता है अवश्य प्राप्त कर लेता है परन्तु मूर्ख मनुष्य भाग्य का दोष दिया करते हैं। वही मनुष्य बड़ा भाग्यवान है जिसकी सदृ इच्छा कभी रुकती नहीं, जिसका छोटे से छोटा काम अभीष्ट के साथ में लगा रहता है। दृढ़ प्रतिज्ञ के सामने यम को भी थोड़ी देर ठहरना पड़ता है।