मेरी आत्मकहानी/१२ कुछ व्यक्तिगत बातें

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मेरी आत्मकहानी  (1941) 
द्वारा श्यामसुंदर दास

[ २३१ ]

( १२ )

कुछ व्यक्तिगत बातें

अब मैं कुछ व्यक्तिगत घटनाओं का उल्लेख करता हूँ जो मुझ पर घटित हुई और जिनके कारण मेरी सांसारिक स्थिति बहुत कुछ परिवर्तित हुई।

(१) सन् १९२५ मे मुझे मृत आत्माओं को बुलाने की [ २३२ ]अभिरुचि हुई। इस कृत्य में एक दिन अचानक मिस्टर सी० आर० दास की आत्मा आई । उसने मुझे स्वदेशी का पक्ष लेने और अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिये किसी पहाड़ पर जाने का उपदेश दिया। उस दिन से स्वदेशी का पक्ष तो मैं यथासाध्य समर्थन करने लगा, पर स्वास्थ्य की चिता न की, जिसका फल मुझे आज तक भोगना पड़ रहा है। आगे चलकर मुझे यह अनुभव हुआ कि इस कृत्य में बहुव कुछ धोखा हो जाता है। महत्ती आत्माएँ प्राय. पृथ्वी पर नही आती। नीच आत्माएं, जिन्होंने इस जन्म मे कुकृत्य किये रहते हैं, गयः भटकती फिरती हैं और आकर दुःख देती हैं। मुक्ते प्रेतलीला का अनुभव एक वेर अपने घर में ही हुआ था। मेरी एक भौजाई को उसके पूर्वजों की एक स्त्री ने आ पकड़ा था। उसने भ्रूणहत्या की थी। अतएव उसकी आत्मा को शाति नहीं मिली थी। वह मटकती फिरती थी और जिस संबंधी ने उसे कुमार्ग में लगाया था उसकी संवति से बदला चुकाना चाहती थी। उसका जब भ्रावेश होता तो वह अपना पूर्व इतिहास सुनाती । मेरा लड़का नंदलाल उस समय बहुत छोटा था। वह खेलते-खेलते अपनी चाची के पास चला जाता सो मेरी माता उसे घट खींच लेती। तब वह प्रेत आत्मा कह उठती-मुझे इन वषों से देष नहीं है। ये मेरे प्यारे हैं। मुझे वो इस लड़की से बदला लेना है। मैं इसे न छोडृंगी। अंत में एक मारवाड़ी प्रामण की कृपा से वह बाधा दूर हुई। कई वर्ष पीछे फिर इसका आक्रमण हुआ और उसी में उसकी मृत्यु हुई। इन सब बातों को सोचकर मैंने इस कृत्य को छोड़ दिया। एक और घटना का स्मरण [ २३३ ]है। एक दिन बाल गंगाधर तिलक की आत्मा आई । उन्होने मुझे आदेश दिया कि भारतीय भाषाओं में से आधुनिक मुख्य-मुख्य भाषाओं और उनके साहित्य का संक्षिप्त इतिहास एक पुस्तक मे संग्रह करो। मैंने कई वेर इसको पूर्ण करने का उद्योग किया पर सफलता न पा सका । यहाँ इसका उल्लेख इसलिये कर दिया कि कोई देशभक्त विद्वान् तिलक महोदय के इस आदेश को पूरा करे। (२)सन् १९२६ के फरवरी मास में मेरे तृतीय पुत्र सोहनलाल का विवाह कलकत्ते के प्रसिद्ध रईस राजा वावू दामोदरदास वर्मन के चतुर्थ पुत्र वाचू मधुसूदनदास वर्मन की ज्येष्ठा कन्या से हुआ। इस अवध के स्थिर करने का समस्त श्रेय मेरे ज्येष्ठ पुत्र कन्हैयालाल को है । उसी ने मुझ पर जोर देकर इस सबंध को स्थिर कराया । समर्था मलें तो मधु बाबू जैसे सजन मिले। इनके स्वभाव, आचार, विचार तथा व्यवहार पर मैं मुग्ध हूँ। मेरे प्रति इनका मी व्यवहार सर्वथा स्लाथ्य है। (३) सन् १९२६ के मार्च मास में मेरे ज्येष्ठ पुत्र कन्हैयालाल का देहांत कलकत्ते में हुआ। उसकी वही पुरानी बीमारी, अॅतड़ियो की कालिक, घातक हुई । डाक्टरों ने यह सम्मति दी कि इसकी एक मात्र औपध शल्य-चिकित्सा है। मेडिकल कालेज मे इस चिकित्सा के लिये मधु बाबू उसे ले गए। पर चिकित्सा होने के पूर्व ही हुद्गगति के रुक जाने से उसका शरीरांत हो गया। यह मेरा सबसे योग्य लड़का था। इस पर मुझे बहुत कुछ भरोसा और आशा थी। इसकी मृत्यु से मुझे घड़ा का लगा, जिसको मैं अब तक न संभाल सका। [ २३६ ]और मैं भी उन्हें अपना पुत्र मानकर उनसे वैसा ही व्यवहार करता रहा । पर कुछ लोगों को हमारी यह घनिष्ठता पसंद न थी। सेठ जी की स्वर्गवासिनी पत्नी बड़ी धर्मशीला और कोमल स्वभाव की थी। उनके आगे इन लोगों को कोई कला नहीं चल पाती थी और वे डाक्टर सेठ को चल-विचल नहीं होने देती थी। उसके देहावमान ने वह स्थिति बदल दी। नित्य के कान फ़ुकने का असर होने लगा। इस प्रकार कुछ दिन बीते । सहमा २३ दिसंबर १९३६ को डाक्टर सेठ मुझसे रुष्ट हो गए और यह रोप यहाँ तक बढ़ा कि समझाने- बुझाने का कोई प्रभाव न पड़ा। उनकी चाहे जैसी भावना हो. और उनके स्वभाव में चाहे जितना परिवर्तन हो जाय, पर मैं उनको उसी पुरानी भावना से देखता रहुंगा और सदा टनकी भलाई की कामना करता रहूँगा। बीमारी ने जब भयकर रूप धारण किया तब सभी लोग बड़े चितित और व्यम हुए। इसी समय ज्योतिर्मूपण पंडित हरिनागयण भट्टाचार्य से मेरा परिचय हुआ। मेरे लड़के, मेरे भाई मोहनलाल के साथ, उनके यहां गए और मेरे स्वास्थ्य के विषय में प्रश्न किया। उन्होंने कहा कि कोई चिता की बात नहीं है अच्छे हो जायेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि अमुक दिन फोड़ा फूटेगा और अमुक दिन सव सवाद् निकल नायगा। ठीक ऐसा ही हुआ। अच्छा होने पर मैं फल आदि लेकर उनसे भेंट करने गया। तब से आज तक उनसे प्रेम बना हुआ है और वे पूर्ववत् सौहार्द का बर्ताव करते हैं। वे अव कलकत्ते में रहते हैं। [ २३७ ]दो अन्य अवसरों पर मुझे भट्टाचार्य जी का चमत्कार देखने का अवसर प्राप्त हुआ । मैने अपने दोनो पौत्रो-माधवलाल और कृष्णलाल के यज्ञोपवीत का आयोजन किया । गणेश-पूजन के एक दिन पहले कृष्णलाल को ज्वर आगया। डाक्टर को बुलाकर दिखाया गया तो उन्होने कहा कि यह सात दिन से पहले नहीं उतरेगा। मैं बड़ी चिंता में पड़ा । अंत मे पंडित हरिनारायण जी के पास गया और उनसे कहा कि या तो यज्ञोपवीत की दूसरी सायत निकाल दीजिए या कोई ऐसा उपाय कीजिए जिसमें कृष्णलाल का ज्वर उतर जाय। उन्होने पत्रा देखकर कहा कि दूसरी सायत तो नहीं बनती। अच्छा, उपाय करता हूँ। उन्होंने मुझे एक यत्र दिया और कहा कि इसे पहना दो। ईश्वर की कृपा हुई तो ज्वर उतर जायगा और यरोपवीत-संस्कार निर्विघ्न हो जायगा। मैंने लाकर यत्र पहना दिया। दूसरे दिन सवेरे ज्वर उतर गया और सव सस्कार यथावत् किया गया। किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं हुई। सन् १९३२ के जुलाई मास के अंत में एक दिन कालेज से लौटने पर मुझे गुर्दे का दर्द आरंभ हुआ। दर्द का वेग क्रमश बढ़ने लगा। डाक्टर बुलाए गए। पहले डाक्टर मुकुंदस्वरूप वर्मा पाए। उन्होने देखकर दवाई का पुर्जा़ लिखा। पीछे से डाक्टर अचलविहारी सेठ भी आए। वे कहीं किसी बीमार को देखने गए हुए थे। वे सुनते ही आए । उन्होंने भी दवाई लिखी। इसी बीच मैंने पंडित हरिनारायण जी को कहलाया। वे तुरन्त चले आए। उन्होने एक यंत्र देकर कहा कि इसे कमर मे बॉध लो। यदि आधे घंटे मे लाभ न [ २३८ ]हो तो यह दूसरा यंत्र. जिससे नीबू के रस में भिगो रखा. बाँध लेना। वे इतना कहकर चले गए और घर पर जाकर कुल मत्रोपचार किया । अभी डाक्टरों की दवा आई भी न थी कि मुझ पेशाब लगा और उसके साथ एक पत्थर का टुकडा. जो अभी बहुत कडा न हुआ था. निकल गया और दर्द दूर हो गया। इन तीन घटनाओं का मुझे अच्छी तरह स्मरण है, इससे उनका उल्लेख कर दिया। यो तो निन्य ही उनका समागम होता रहा। प्राय प्रविसोम और बृहस्पतिवार को वे मेरे यहाँ सध्या-ममय श्राते और देर तक वार्तालाप होता रहता । अब ये कलकत्ते जाकर वहीं बस तब यह पद हो गया। (६)मैं पहले अपने सबसे छोटे महोदर मोहनलाल के संबंध में लिख चुका हूं। इसे मैं अपने साथ कश्मीर ले गया। लाहौर के डी० ए० वी० स्कूल में भरती कराया, पर कुछ लोगो की कृपा तथा दुर्व्यवहार से उसका मन पढ़ने-लिखने में न लगा और कुसंगति में पड़ जाने से वह उच्छृखल हो गया । इधर मेरे भाई रामकृष्ण का देहात सन् १९०८ में हो गया था। इसका विवाह भारतजीवन प्रेस के स्वामी बाबू रामकृष्ण वर्मा की पुत्री से हुआ था। बाबू रामकृष्ण वर्मा की मृत्यु के उपराव मोहनलाल का वहाँ आना-जाना पढ़ने लगा। १९०८ के उपरात वह वहीं जाकर रहा । घायू रामकृष्ण वर्मा लाखो रुपए की सपत्ति छोड़ गए थे और उनका उत्तराधिकारी उनके भतीजे के अतिरिक्त और कोई न था। उससे बाबू रामकृष्ण वर्मा की स्त्री और पुत्री से न बनी। इस अनवन के कारण मोहनलाल भी [ २३९ ]अंशत. थे। उस भतीजे का भी कुछ समय उपरांत देहांत हो गया। अब दोनों हाथों से धन उड़ने लगा। सिर पर किसी प्रकार का अंकुश न होने से खूब मनमानी होने लगी । अत में जाकर सारा धन फुॅक गया, मकान बिक गया और प्रेस का सब सामान भी निकल गया। खोटी आदतें पहले ही से पड़ गई थीं। अव धन न रहने से तरह- तरह के उपायों से उसे प्राप्त करने का उद्योग किया गया। यह भी जब फुॅक गया और सिर पर ऋण का वोफ बढ़ा, तब सब तरफ से हारकर मुझे चूसने का आयोजन किया गया। मैं सदा इनकी सहायता करता रहा, पर मुझ पर ही इनके आक्रमण विशेष रूप से हुए । सन् १९२८ में बाबू रामकृष्ण वर्मा की पुत्री ने मुझ पर तथा मेरे अन्य भाइयों पर भरण-पोषण के लिये दावा किया। इस संबंध में अनेक बातें कही गई हैं जिनके लिये कोई प्रमाण या मूलाधार न था। मेरी पुस्तको की आय का हिस्सा मांगा गया, मेरे भाई के मकान पर दावा किया गया । अंत मे दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। केवल तेजाव के कारखाने पर उसका दावा सिद्ध हुआ और यह समझौता हुआ कि सब भाई तीन-तीन रुपया मासिक उसको दे । इस प्रकार जाकर सन् १९३० मे यह मुक़दमा तय हुआ । पर जहाँ लाखो की सपत्ति न बच सकी वहाँ ९ रु० महीने से क्या हो सकता था, क्योंकि मैं, रामचंद्र और बालकृष्ण ही देते थे। गौरीशंकर और मोहनलाल तो उस ओर मिले हुए थे। निदान अव मोहनलाल को अपनी भूल जान पड़ी और वे अत्यंत दीन और दुखी अवस्था में हो गए। फिर भी श्रीकृष्ण धर्मशाला से, जिसका मैं इस समय मैनिजिंग स्टीट् [ २४० ]हूँ, उन्हे ३०) मासिक मिलता है जिससे उनकी गृहस्थी का काम कुछ-कुछ चलता है। मोहनलाल सब विद्याथों में बढ़े निपुण हैं। यद्यपि उनका मेरे प्रति ऐसा दुर्व्यवहार रहा है कि मेरे लिये उनका मुख देखना भी पाप है, पर यह समझाकर कि वह मेरा सबसे छोटा सहोदर है जिसे तीन वर्ष का छोड़कर पिता स्वर्गवासी हुए थे और जिसकी ग्यारह वर्ष की अवस्था में माता का देहात हुआ, मुझे उस पर क्रोध पर साथ ही साथ दया भी आती है। जितना दुर्व्यवहार उसने अपने स्वभाव से किया है उससे कही अधिक अन्य लोगो की प्रेरणा से हुआ है। (७) जनवरी १९२७ में गवर्मेंट-द्वारा प्रयाग में हिंदुस्तानी अकाडमी की स्थापना हुई । इस संबंध में गवमेंट ने इस संस्था के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किए थे। (1) The award of prizes (by a system of competition) for the production of best books on particular subjects (2) The translation of books into Urdu and Hindi by paid translators, and the publication of translations by the Academy (8) The encouragement of the production of original works or translations in Hindi and Urdu, whether by grants to Universities and Literary Associations or othertise (4) The election of eminent writers to Fellowships of the Academy [ २४१ ]इस अनुष्ठान का आरंभिक अधिवेशन लखनऊ मे हुआ और उसमे सर विलियम मैरिस और राय राजेश्वरबली ने भाषण देते हुए स्पष्ट शब्दो में कहा कि इस संस्था का मुख्य उद्देश्य साहित्यिक है। राजनीतिक भावना से प्रेरित होकर यह काम नहीं किया गया है। हिंदी और उर्दू दोनो भाषाओं की अंगपुष्टि यह करेगी। पर सन्। १९३० में एक विशेष अधिवेशन में इस बात की घोषणा की गई है कि यह संस्था हिंदी और उर्दू दोनों को मिलाकर एक हिंदुस्तानी भाषा की परिपुष्टि के लिये उद्योगशील होगी। यह उस आंदोलन का आरंभ था जिसने आगे चलकर भयंकर रूप धारण किया। मैं समझता हूँ कि हिंदुस्तानी के प्रचार से हिंदी को बड़ी हानि पहुंचने की आशंका है, क्योंकि हिंदुस्तानी के पक्षपाती विशेषकर वे ही लोग है जो हिंदी से स्थूल रूप से परिचित या सर्वथा अपरिचित हैं और उर्दू से विशेष परिचित है। इसके अतिरिक हिंदुस्तानी मे उच्च कोटि के साहित्य की रचना नहीं हो सकती। समझने की बात है कि हिंदी भारतवर्ष की उन आर्य-भाषाओ मे से है जिनकी उत्पत्ति क्रमिक विकास के सिद्धांत के अनुसार संस्कृत से हुई है। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक सस्कृत-शब्दो का प्रचार है। हमारे सब धर्म-कृत्य इसी भाषा मे संपादित होते है। यदि भारतवर्ष में कोई ऐसी भाषा हो सकती है, जो एकता के सूत्र में यहाॅ की जनता को बॉघ सकती है तो वह वही भाषा होगी जो संस्कृतप्राय होगी। हमारी हिंदी से चुन- चुनकर संस्कृत के साधारण से साधारण तत्सम शब्दो को निकालना और उनके स्थान में उर्दू के शब्दों को भरना मानो हिंदी की जड़ में फा० १६ [ २४२ ]कुठाराघात करना है। यदि हिंदुस्तानी का प्रचार हो गया तो देश के अन्य भागों से-बगाल, महाराष्ट्र, गुजरात आदि से–हमारा मवध विच्छिन्न हो जायगा। मेरी समझ में तो पगेन रूप से गवमेंट भी इस आंदोलन की परिपोषक है। इसको एक प्रमाण लीजिए । जब हिंदुस्तानी अकाडमी द्वारा इस हिंदुस्तानी आंदोलन ने विकट रूप धारण किया और संयुक्त-प्रदेश के शिक्षा-विभाग की रिपोर्ट में यहाँ तक लिख दिया गया कि यह अकाडमी हिंदुस्तानी के प्रचार के अपने उद्देश्य में सफल हुई तव नागरी-प्रचारिणी सभा ने सन् १९३६ में गवमेंट का ध्यान उस ओर दिलाया और पूछा कि क्या इस अकाडमी का उद्देश्य हिंदुस्तानी का प्रचार करना है। इसके उत्तर में शिक्षा-विभाग के डायरेक्टर ने लिखा-the development of a common Hindustan language is not one of the objects of the Hindustani Academy. पर यह आंदोलन शांत न हुआ और गवमेंट ने उसके रोकने का भी कोई उद्योग न किया। अब तो यह अवस्था हो रही है कि "एक तो तितलौकी दूसरे चढ़ी नीम ।' थमी तक यह अकाडमी का आंदोलन था, अब कांग्रेसी गवमेंट भी इस आंदोलन का समर्थन कर रही हैं और हिंदुस्तानी की श्रीवृद्धि में सचेष्ट होरही है। कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम की एकता की मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ रही है और सब कुछ त्याग कर तथा हिंदू-हितों की आहुति देकर भी उसे प्राप्त करना चाहती है। इस भ्रम का फल अच्छा नहीं होगा। हिंदू-संस्कृति पर यह सबसे बड़ा आक्रमण है। जब इसका लोग अनुभव करने लगेंगे. सष इसके [ २४३ ]दुष्परिणाम पर पश्चाताप करने के अतिरिक्त और कुछ बाकी न रह जायगा। अस्तु, इस स्थिति को समझकर मैं अकाडमी से उदासीन हो गया। मैं नौ वर्षों तक इसका सभासद् रहा। मैं १९३३ मे ही इससे अलग हो जाना चाहता था पर उस वर्ष मेरे सभासद् बने रहने के लिये गवमेंट की ओर से बहुत जोर दिया गया । सन् १९३६ के नए चुनाव से मेरे प्राण बचे। यह संस्था १२ वर्षों की हो चुकी और इसे गवमेंट से ३,२५,०००) की सहायता अब तक प्राप्त हुई है। इस धन से इसने ७९ ग्रथों का प्रकाशन किया और १७ ग्रंथ छपने को पड़े हैं। कितना अपव्यय हुआ है यह इसी से अनुमान किया जा सकता है। इतने धन से वो नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्था कई हजार ग्रंथ प्रकाशित करती । मेरा अपना विचार है कि इस संस्था की अंत्येष्टि क्रिया जितनी शीघ्र हो जाय उतना ही हिंदी और उर्दू का हित होगा। यदि गवमेंट वास्तव में हिंदी और उर्दू के साहित्य की श्रीवृद्धि करना चाहती है तो उसे इस २५,०००) वार्षिक मे से २०,०००)उन हिंदी और उर्दू की चुनी हुई साहित्यिक संस्थाओं को उनके अपने व्यय के अनुपात में दान देना चाहिए और ५,०००) अपने हाथ मे रखना चाहिए जिससे हिंदी और उर्दू के उत्तमोत्तम ग्रंथो के रचयिताओ को प्रतिवर्ष पुरस्कृत किया जा सके। इस प्रकार अपव्यय नहीं होने पायगा और कार्य भी अधिक होगा। अकाडमी ने मेरे दो ग्रंथो का प्रकाशन किया, एक 'गोस्वामी तुलसीदास का जीवन-चरित्र' और दूसरा 'सतसई समक' । [ २४४ ]सन् १९३६ मे मुझे आगरा युनिवर्सिटी ने कानपुर में तीन व्याख्यान हिंदी में देने के लिये आमंत्रित किया। मेरे तीन व्याख्यानो का विषय था-देवनागरी लिपि, हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी और हिंदी- साहित्य की रूप-रेखा| पहले दोनो व्याख्यानो का सारांश नागरी- प्रचारिणी पत्रिका में छपा है। उससे देवनागरी लिपि और हिंदुस्तानी भाषा के सबंध मे मेरे विचार स्पष्ट हो जायॅगे| (८) १ जनवरी १९२७ मे भारत-गवमेंट ने मेरी हिंदी सेवा के उपलक्ष में मुझे 'रायसाहब' की उपाधि दी। जून सन् १९३३ में 'रायबहादुर' की उपाधि प्रदान की गई। कई वर्षों के अनंतर यह विदित हुआ कि इन दोनों उपाधियों के दिलानेवाले रायबहादुर डाक्टर हीरालाल थे । सन् १९२६ के लगभग उन्होंने मिस्टर ए० एच० मेकेंजी को लिखा कि तुम्हारे प्रांत में हिंदी-साहित्य-सेवकों मे श्यामसुदरदास है । आश्चर्य है कि गवमेंट ने अब तक इनकी सेवाओं का मूल्य नहीं समझा । इस पर मिस्टर मेकेंजी ने 'रायसाहब की उपाधि देने के लिये गवमेंट को लिखा । मुझे इसकी कोई सूचना न थी। पहली जनवरी को मैं बाबू जगन्नाथदास रमाकर के साथ घूमने गया था। वहां से संध्या को लौटने पर 'लीडर' पत्र मिला, जिससे मुझे पहले-पहल इस उपाधि-प्रदान की सूचना मिली । पर मुझे इससे कुछ आनन्द नहीं हुआ, यहाँ तक कि मैंने अपने कई घनिष्ठ मित्रों, सभा, तथा युनिवर्सिटी से प्रार्थना कर दी कि वे लोग इस उपाधि का उपयोग न करें। इस पर डाक्टर हीरालाल ने फिर मिस्टर मेकेजी को लिखा कि आपने उपाधि दी पर आपको यह ज्ञात [ २४५ ]न होगा। कि इसका उपयोग नहीं हो रहा है। एक दिन प्रयाग में मै मिस्टर मेकेजी से सभा के संबंध में मिलने गया और बाते हो जाने के अनंतर उन्होंने कहा कि तुम्हें 'रायसाहब' की उपाधि से असतोष, हुआ है। तुम्हे इससे बड़ी उपाधि मिलेगी। पर यह धीरे-धीरे ही हो सकता है। मैंने कहा कि मैं इन उपाधियो का भूखा नहीं हूँ। जून सन् १९३३ मे मैं बीमार पड़ा हुआ था। उस समय दोपहर को 'लीडर' पत्र मिला। उसमे मुझे 'रायबहादुर' की उपाधि मिलने की। सूचना थी। इसके कुछ दिनो पीछे बाबू हीरालाल ने अपने पत्र में सब बातें लिख भेजी तब मुझे विदित हुआ कि इन दोनो उपाधियो के दिलाने के कारण वे ही थे। कोई ओछी प्रकृति का मनुष्य होता तो इस बात का ढंका पीट देता, पर डाक्टर साहब-से सौभ्य और सज्जन प्रकृति के व्यक्ति का यह काम था कि ६, ७ वर्षों तक इस बात को अपने मन में दबाए रहे और संयोग से इस घटना का उल्लेख-मात्र कर दिया। सन् १९३८ में हिंदी-साहित्य सम्मेलन ने मेरी हिन्दी-सेवाओ के उपलक्ष में मुझे "साहित्यवाचस्पति" की उपाधि प्रदान की। (९) सन् १९३३ मे राय कृष्णदास ने सभा मे पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के अभिनंदन के लिये प्रस्ताव किया । यह निश्चय हुआ कि उनको एक ग्रंथ, जिसमे विद्वाना के लेख वथा भद्धाजलियाँ रहे. अर्पित किया जाय । मैं इसका संपादक नही होना चाहता था, पर राय कृष्णदास ने जोर दिया कि आप अपना नाम दे दीजिए काम मैं सब कर लूंगा। मैं सहमत हो गया। 'लेख इकठ्ठे होने लगे। यथासमय , साहि [ २४६ ]सब लेखों का संग्रह प्रस्तुत हुआ और इंडियन प्रेस में छपने के लिए भेजा गया। बाबू शिवपूजनसहाय इन लेखों का संपादन कर छपवाने के लिय भेजे गए। अधिकांश काम हो जाने पर ये अपने लड़के की बीमारी के कारण काशी लौट आये, तब बाबू रामचंद्र वर्म्मा ने प्रयाग जाकर इस काम को पूरा किया। इस समय मुझे विदित हुआ कि इस काम में अँधाधुध खर्च हो रहा है। राय कृष्णदास ने जिस प्रकार आयोजन करने का विचार किया था, उसे पूरा करने का काम नागरी प्रचारिणी सभा-सी गरीय संस्था के सामर्थ्य के बाहर था। जिन जिनसे सहायता मिलने की आशा दिलाई गई उनसे नाम-मात्र की सहायता प्राप्त हुई। इस अवस्था में मैं स्वयं प्रयाग गया और ग्रंथ के श्रद्धांजलि-विभाग का कागज तथा जिल्द का कपड़ा बदलवाकर कोई २ हजार रुपये की बचत कराई। इस ग्रंथ की प्रस्तावना मेरे आदेशानुसार पंडित नंद्‌दुलारे वाजपेयी ने लिखी। इसमें जो मत या भाव प्रदर्शित किए गए हैं उन सबके लिये मैं उत्तरदायी हूँ। इसके लिये उत्तरदायी न तो राय कृष्णदास हैं और न पंडित नंद्‌दुलारे वाजपेयी ही। उत्सव के दो-तीन दिन पहले मैं प्रयाग से लौटा तो उसी दिन राय कृष्णदास और बाबू रामचंद्र वर्म्मा ने आकर मुझे सूचना दी कि प्रयाग में कुछ लोग इस उद्योग में हैं कि द्विवेदी जी काशी न आवे और यह उत्सव फीका पड़ जाय। इन दोनों ने आग्रह किया कि मैं और राय कृष्णदास आज ही प्रयाग जायँ और द्विवेदी जी से मिलकर उनके काशी पहुँचने का समय निश्चित कर आवें। लाचार मुझे जाना पड़ा और वहाँ सब बातें निश्चित करके रात के [ २४७ ]हम लोग लौट आये। यथासमय उत्सव मनाया गया और द्विवेदी जी को वह ग्रंथ अर्पित किया गया। हम लोगों की बडी उत्कट इच्छा थी कि इस अवसर पराकाशी-विश्वविद्यालय द्विवेदी जी को डाक्टर की आग्नरेरी उपाधि दे| इसके लिये पडित रामनागयण मिश्र न मालवीय जी में मिलर प्राग्रह किया। मालवीय जी को हम लोग मागर उत्सव में लाए और यह सोचा गया कि मालवीय जी के मुंह से यदि आश्चयजनक वाक्य निकल जाय तो आगे उद्योग में सफलता की आशा की जा सकती है। जो कार्यक्रम बनाया गया था उममें मालवीय जी का भाषण न था। यथासमय द्विवेदी जी अपना उत्तर पढ़ने के लिये खडे हुए तो मैने प्रार्थना की कि मालवीय जी के भाषण करने के अनंतर वे अपना वक्तव्य पढ़ें। द्विवेदी जी ने कुछ बिगड़कर कहा कि प्रोग्राम में यह नहीं है। मैंने ममा मांगी और चुपचाप बैठ गया। उत्सव के अनतर पडित रामनारायण मिश्र से ज्ञात हुआ कि द्विवेदी जी के वक्तव्य का प्रभाव मालवीय जी पर अच्छा नहीं पड़ा, पर हम लोग उद्योग करते गए। इधर द्विवेदी जी ने एक पत्र 'लीडर' में छपवाया जिसमें उन्होंने मुझे डाक्टर की उपाधि देने के लिये प्रस्ताव किया। काशी-विश्वविद्यालय का नियम यह है कि आनरेरी उपाधि के लिये केवल वाइस-चैंसलर ही प्रस्ताव कर सकते हैं। दूसरे किसी को ऐसा प्रस्ताव करने का अधिकार नहीं है। मैंने द्विवेदी जी को एक पत्र लिखा कि यह आपने क्या किया। आपको विश्वविद्यालय के नियम नही ज्ञात हैं। इस पत्र का उत्तर उन्होंने यह दिया[ २४८ ]गैलतपुर, रायबरेली ११-६-३३ प्रियवर बाबू श्यामसुंदरदास, अनेक आशीर्वचन । आप अपने ८ जून के पोस्टकार्ड के उत्तर में मेरा निवेदन सुनने की कृपा कीजिए। लीडर में छपे हुए मेरे पत्र को पढ़कर आपको आश्चर्य ही नहीं दुःख भी हुआ, यह मेरा दुर्भाग्य है। आपको दुखी करने की प्रवृत्ति मुझमें अवशिष्ट नहीं। दु.ख पहुँचा ही हो तो मैंने जान-बूझकर नहीं पहुँचाया। आप मुझ अपराधी को क्षमा कीजिए। उस संबंध में मैंने आपका नाम केवल मनुष्यत्व के नाते घसीटा। आपको यदि औरों के अभिनदन का हक या अधिकार है तो वही अधिकार आप औरो को अपने विषय में क्यों न दें? इतनी कंजूसी क्यों ? आप अभिनंदनग्रंथ की प्रस्तावना में मेरी स्तुति-प्रशसा करें, और लोग मुझे डाक्टर बनाने के लिये लेख लिखें । मैंने क्या अपराध किया है जो आपके विषय के अपने भाव न व्यक कर सकूँ ? भाई मेरे, मैं आपको अपने से बहुत अधिक अभिनंदनीय समझता है। इसी से मैने वैसा लिखा और आपके अनुसार आपका नाम घसीटा। यह भी मेरी ही गलती हो तो मैं फिर आपसे माफी मांगता हूँ। रही अकारण वैमनस्य उत्पन्न करने की बात—सो सरकार, हृदय या मन में जहाँ वैमनस्य रहता है वहाँ उतनी जगह को मैंने वैमनस्य- प्रूफ करा डाला है। अब वहाँ वैमनस्य की पहुँच नही हो सकती। आप भी वैसा ही कीजिए। फिर वैमनस्य का कहीं पता ही न रहेगा। [ २४९ ]एक बात आपने बहुव ठीक कही। वह यह कि मैं डाक्टर की आनरेरी उपाधि मिलने के नियम नहीं जानता। भगवन्, मुझे उन नियमो की जानकारी की मुतलक जरूरत नहीं । जिसे जिस चीज की प्राप्ति की जरूरत ही नहीं, वह उसकी प्राप्ति के नियम जानने की यदि चेष्टा न करे तो आश्चर्य की बात नहीं। जानें वे लोग जो उसकी प्राप्ति की ताक मे हो। मैं यहाँ देहात में कुछ काम करता है। उसके उपलक्ष मे जिले के हाकिम मेरा अभिनदन करना चाहते थे। पर मैंने इनकार कर दिया। जरा आप अपने कोप को शांत कीजिए। किसी को डाक्टर की पदवी दे डालने का अधिकार मुझ नाचीज को नहीं, यह मै बखूबी जानता हूँ। और हो भी तो आप उसे मेरे हाथ से भला क्यों लेने लगे। मेरा मतलब सिर्फ यह था कि अगर किसी ने मुझे डाक्टर की पदवी देने की इच्छा भी प्रकट की तो मैं उसको स्वीकार न करूंगा और कह दूँगा कि इसकी प्राप्ति के अधिकारी बाबू श्यामसुंदरदास मुझसे कई गुना अधिक हैं। देना ही है, तो उन्हें दी जाय । मुझे आप इस इतने अधिकार से तो वंचित न कीजिए। आप मेरे विषय में सब कुछ कहे, पर मैं आपके विषय मे कुछ भी न कह सकूं—यह तो सरासर जुल्म है। खैर, अगर यहां भी मुझसे ही गलती हो गई हो, तो आप पुनर्वार मुझे क्षमा करे। अतिम प्रार्थना यह है कि आप अपने मानदंड से मेरे हृदय की नाप-जोख न करे। प्रार्थी 'मला क्यो म०प्र० द्विवेदी [ २५० ]इस प्रकार यह उद्योग निप्फल गया और मालवीय जी के कार्य- काल में किसी हिंदी के सेवक को कोई आनरेरी उपाधि न मिली। (१०) २१ जून १९३२ को मेरे चालीस वर्ष के पुराने मित्र वायू जगन्नाथदाम 'रत्नाकर' का हरिद्वार में निधन हुआ। वे बहुत दिन से बीमार थे। उनके हत्य में रोग (Dilation of the heart) हो गया था जिसके कारण उनको देह छुटी। मेरा उनका साथ बड़ा दृढ़ और घना था। वे भी मुझ पर बहुत स्नेह पति और निष्कपट भाव से मित्रता निवाहते थे। अपने सब साहित्यिक कामों में वे मेग सहयोग रखते थे। वे ब्रज-भाषा कविता के अतिम श्रेष्ठ कवि थे। उनके निधन के अनंतर मैंने सोचा कि उनकी स्मृति को बनाये रखने का कोई उपाय करना चाहिए। उन्होंने स्वय तीन हजार की निधि देकर अपने नाम से दो पुरस्कार देने का आयोजन नागरीमचारिणी सभा मे किया था। द्विवेदी जी के अमिनदन के उपरांत मेरी भावना इस प्रकार के आयोजन से बदल गई थी। मेरे विचार में इन अभिनंदनों से कोई स्थायी लाभ नहीं था। इससे कही अच्छा होता कि उनमें ग्रथो का एक उत्तम सग्रह प्रकाशित करके उनकी स्मृति को चिरस्थायी किया जाय। इसी विचार से प्रेरित होकर मैने राधाकृष्णग्रथावली को प्रकाशित करने का प्रबंध इडियन प्रेस द्वारा किया था। उसका पहला भाग छप गया है और दूसरा भाग गंगापुस्तकमाला में प्रकाशित होगा। इसी प्रकार पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी के निबधों का सग्रह मैने किया था, पर उसके प्रकाशन का कोई स्वतत्र प्रबध न हो सका तब मैने नागरीप्रचारिणी समा से उसके छापने का भार लेने के लिये प्रार्थना [ २५१ ]की । सभा ने इसे स्वीकार किया। आनद का विषय है कि कोई दो- ढाई वर्ष तक खटाई में पड़कर अब इसका छपना आरंभ हो गया है। इसी भावना से प्रेरित होकर मैने रत्नाकर जी की समस्त कविताओं के संग्रह को प्रकाशित करने का प्रबंध किया और वह सन् १९३३ में उनके प्रथम वार्षिक श्राद्ध की तिथि को प्रकाशित हो गया। इस प्रकार अपने तीन मित्रों में से राधाकृष्णदास के मित्र-ऋण से मैं अशत' मुक्त हो गया हूँ, रत्नाकर जी का भी ऋण चुका दिया है‌‌. आशा है गुलेरी जी के मित्र-ऋण से मैं शीघ्र मुक्त हो जाऊँगा। मेरी आंतरिक कामना है कि जयशंकरप्रसाद जी तथा प्रेमचंद जी के ग्रथो का एक उत्तम सग्रह निकल जाता तो हिंदी के लिये गौरव की बात होती। पर अभी किसी उद्योगशील व्यक्ति का ध्यान इस और नहीं गया है। मित्रवर मैथिलीशरण गुप्त का भी अभिनंदन हुआ है, पर इसका कोई फल नहीं हुआ। मुझे इनके अभिनंदन में सम्मिलित होने के लिये पंडित पद्मनारायण आचार्य ने कहा था। मैंने यही उत्तर दिया कि मैं ऐसे अभिनंदन का पक्षपाती नही हूँ। पर जो काम तुम कर रहे हो करो, मै न तो उसका विरोध करूँगा और न उसमे सम्मिलित ही होऊंगा। "मैथिलीमान" नामक पुस्तक की घोषणा की गई थी, पर उसके अव तक दर्शन न हुए। पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय के लिये एक अभिनंदनग्रंथ प्रस्तुत किया गया। चारो ओर आदमी दौड़ाकर लेखो का संग्रह हुआ था। इस काम पर लोग वेतन

  • खेट है कि कोई २५० पृष्ठ छप जाने पर भागे उसका छपना

रुका है। [ २५२ ]पर नियुक्त भी किए गए थे। साराश यह कि मेरी सम्मति में 'श्रमि- नंदन' की कामना उन्हीं में प्रचल है जिन्हें कदाचित् यह विश्वास नही कि उनके पीछे उनकी कृतियां उनकी स्मृति को चिरस्वायी बनाये रहेगी। प्रेमी यशोलिप्मा आदरणीय नही है। हमे तो उपंजा के भाव मे सदा देखने में ही कन्याण है। (११) थोडे वर्ष हुए जब काशी की म्युनिसिपैलिटी नोड दी गई थी और उसके कार्यों का परिचालन एक विशेष सरकारी नौकर के हाथ बनारस के कमिश्नर की देख-रेख में दिया गया था। उस समय के कमिश्नर हास्टर पन्नालाल से मेरा परिचय था। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि बनारस की सड़कों के नाम यहाँ के विशिष्ट लोगों के नाम पर रखे जाये तो अच्छा हो। उन्होंने मुझसे पूछा कि किन किन लोगों के नामो पर किस किस सड़क का नामकरण किया जाय । मैने कहा कि तुलसीदास, भारतेंदु हरिश्चंद्र तया कबीर आदि के नामो से सड़कें अकित कर दी जायॅ। यह कार्य हो गया है। पर मुझे खेद है कि गोस्वामी तुलसीदास का उचित आदर नहीं किया गया। उनका नाम एक छोटी-सी गली पर लगाया गया है जो सवथा ‌ उपहास्य है। तुलसीदास-सा दूसरा कवि नहीं हुआ। इसके लिये वो गोदौलिया की चौमुद्दानी से लेकर अस्सीघाट तक लंबी सड़क का नाम तुलसी रोड होना चाहिए।

  • पंडित श्यामविहारी मिश्र का अभी वक अभिनदन नहीं हुआ है,

पर क्या आधुनिक हिंदी-साहित्य के इतिहास में उनकी कृतियों की उपेक्षा की जा सकती है या उनका विस्मरण हो सकता है ? [ २५३ ](१२) सन् १९३७ के जुलाई मास से, ६२ वर्ष की आयु होने पर वर्ष से अधिक काशी-विश्वविद्यालय की सेवा करके, मैंने अवसर ग्रहण किया। उसी वर्ष हिंदी-विभाग-द्वारा मेरी सांगोपांग बिदाई की गई | उस अवसर पर मुझे जो अभिनंदनपत्र दिया गया उसको मैं यहाँ इसलिये उद्धृत करता हूँ कि उसमे मेरी सेवाओ का संक्षेप में उल्लेख है और वह श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा में लिखा गया है- "आज इस विश्वविद्यालय के छात्रगण तथा हिंदी-विभाग के अध्यापक श्रद्धा और सत्कार, स्नेह और सौमनस्य, संभ्रम और सद्भाव के दो-चार कुसुम लेकर आपकी अर्चना करने के लिये आपके सम्मुख उपस्थित हैं । इस समय हमारे हृदय जिन भावो से आदोलित हो उठे हैं, उन्हे व्यजित करने मे शब्दशक्ति कुठित सी दिखाई देती है। ऐसी अवस्था में आपके उन गुणो की चर्चा, जो समय-समय पर हमें पुलकित और प्रमोदित, उद्यत और उत्साहित करते रहे हैं, यदि हमसे पूर्ण रूप से न हो सके तो कोई आश्चर्य नहीं। "हिंदी-भाषा और साहित्य के वर्तमान विकास की इस परितोषक अवस्था के साथ आपकी तपस्या, आपकी साधना, आपकी विद्वत्ता,आपकी दक्षता और आपकी तत्परता का ऐसा अखंड संबंध स्थापित हो गया है कि इस युग की उत्कृष्ट साहित्यरचना का इतिहास आपकी उद्यमशीलता का इतिहास है। आपने ग्रंथो की ही नहीं ग्रंथकारो की रचना की है। आपने धूल मे लोटते और चकी मे पिसते यथार्थ रत्नों को राजमुकुट मे स्थान दिलाया है। आपके [ २५४ ]उद्देश्य, आपकी योजना क्या आपके आदर्श सदा उत्कर्पोन्मुख ही होते हैं। इससे चाहे आपका ययार्थ गुणानुवाद न बन पड़े, पर हमारे हृदय सर्वदा आपके प्रति कृतज्ञता के भाव से परिपूर्ण रहेंगे इसमे संदेह नहीं।

‘आप ऐसे पुरुषरन्न को इतने दिनों तक अपने बीच प्रधान आचार्य और कार्य-प्रवर्तक के रूप में देख-देख हम कितना गौरव समझते आ रहे थे, कितने गर्व का अनुमान करते आ रहे थे। अत:इस विशेष कार्यक्षेत्र से आपके अलग होने पर जो दुख हमे हो रहा है वह एक दो दिन का नहीं, अपनी जो गौरव-हानि हम समझ रहे हैं वह कमी पूरी होनेवाली नहीं। आप हमे छोड़कर जा रहे हैं, पर जो उज्जवल स्मृति छोड़े जा रहे हैं वह निरंतर हमारा पथप्रदर्शन करती रहेगी, हममें शक्ति और साहस का संचार करती रहेगी। इस विश्वविद्यालय के भीतर तथा अन्यत्र भी हिंदी के मान और प्रतिष्ठा के लिये आपने जो कुछ किया है वह चिरस्मरणीय रहेगा।

“इस अवसर पर रह-रहकर यह भी मन में उठता है कि आप हमसे अलग कहाँ हो रहे हैं। आपका हमारा संबंध इस विद्यालय तक ही परिमित नहीं है। वह कहीं अधिक विस्तृत और चिरस्थायी है। अंत में हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते है कि आप शतायु होकर इसी प्रकार हिंदी के अम्युदय का प्रयत्न करते रहें और हम आपकी सौम्य मूर्ति को अपने मनोमंदिर में सा प्रेमासन पर प्रतिष्ठित रखें।

(१३) सन् १९२० में राय कृष्णदास ने भारत-कला परिषद् की [ २५५ ]स्थापना की। इसके लिये उन्होंने कई वर्षों तक निरंतर उद्योग कर और अपना बहुत-मा रुपया खर्च करके तथा मित्रों से मँगनी लेकर अनेक चित्रों तथा अन्य कलात्मक वस्तुओं का संग्रह प्रस्तुत कर लिया। उनकी इच्छा थी कि इन सब वस्तुओं का प्रदर्शन सर्वसाधारण के लिये सुगम हो । इसके लिये पहले उन्होंने गुदौलिया (काशी) की चौमुहानी पर एक मकान भी १००) रुपये महीने किराये पर लिया था और उसमें सव वस्तुओं को सजाया था। राय कृष्णदास के पिता राय प्रह्लाददास का देहांत राय कृष्णदास की छोटी अवस्था में हो गया था। मैंने अनेक वेर इनके पिता के साथ इन्हें बाबू राधाकृष्णदास के स्थान पर देखा था। उसी समय मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुई थी कि इनकी प्रकृति कुछ अक्खड़ है। अस्तु, इनके पिता के देहावसान पर इनकी समस्त जिमीदारी कोर्ट आफ वार्ड स के नियंत्रण में आगई । जब कृष्णदास पालिग हुए तो यह सब जिमीदारी तथा कई लाख रुपया नकद इनको मिला । सिर पर अंकुश न होने से इस अवस्था में इनका कला-प्रेम इन्हें कलात्मक वस्तुओं के संग्रह में उत्तेजित करता रहा। इसमें भी इन्होंने बहुत रुपया व्यय किया। गुदौलिया पर जब इन्होंने कलाभवन खोला, वब वह बहुत दिनों तक वहाँ न रह सका । अंत में वह स्थान छोड़ना पड़ा। चित्रों को तो ये अपने घर पर उठा ले गये और पत्थर की भूतियाँ आदिहिंदू स्कूल के एक कमरे में बंद कर दी गई । सन् १९२५ में भारत कला- परिषद की रजिस्टरी कराई गई, पर कार्य व्यवस्थापूर्वक न चल सका। सन् १९२८ के अंत में अथवा सन् [ २५६ ]१९२९ के प्रारंभ मे मैंने इनके परम मित्र पंडित केशवप्रसाद मिश्र से कहा कि ये सब कलात्मक वस्तुएँ वद पड़ी हैं, क्यों नहीं इन्हें गय कृष्णदास सभा-भवन में सजा देते। मिश्र जी के समझाने पर यह "वात इनके मन में भी आगई। मुझे मिश्र जी इनसे मिलने के लिये एक दिन इनके स्थान पर ले गए। वात-चीत करने के अनंतर इन्होंने १३ मार्च सन् १९२९ को एक पत्र सभा को लिखा जिसमें यह कहा गया कि भारत-कला-परिषद् और नागरीप्रचारिणी सभा में संबंध स्थापना के लिये आपका बहुत दिनों से जो मदुद्योग है तदथ में भी सहमत है। इस सबंध के लिये इन्होंने कई शर्तें लिख भेजी जिन पर सभा की प्रबंध समिति के २० मार्च, 3 अप्रैल और २५ मई के अधिवेशनों में, विचार हुआ और निम्नलिखित शर्ते स्वीकृत हुई।

१-इस संग्रहालय का नाम भारत-कला भवन होगा।

२ उस भवन में भारत-कला परिषद् का समस्त समूह जिसे

उसने क्रय, भेंट और मंगनी-द्वारा एकत्र किया है और पुस्तकालय तथा काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की हस्तलिखित पुस्तकें और वह सब सामग्री रहेगी जिसका संबंध मारतवर्ष के कला-कौशल, प्रपत्र तथा हिंदी के इतिहास से होगा और जो समय-समय पर प्राप्त या क्रय को जायगी।

३-काशी नागरीप्रचारिणी सभा इस भवन की उन्नति और प्रबंध के लिये कम से कम ६००) वार्षिक न्यय करेगी और आवस्यकता तथा सामर्थ्य के अनुसार इस धन को बढ़ाती रहेगी।

४- इस संग्रहालय का समस्त प्रबंध एक समिति के अधीन रहेगा [ २५७ ]

जिसके आठ सदस्य होगे। इनमें से तीन भारत-कला-परिषद् की कमिटी तीन वर्षों के लिये चुना करेगी और तीन को काशी- सागरीप्रचारिणी सभा की प्रबंध समिति प्रति तीन वर्षों के लिये चुना करेगी, सातवें सदस्य सभा के प्रधान मंत्री होंगे और राय कृष्णदास आठवें आजीवन सदस्य होगे। उनके न रहने पर षाठवाॅ सदस्य भारत-कला-परिषद् का मंत्री हुआ करेगा। इस समिति को किसी वशेष कार्य के लिये उपसमिति बनाने का अधिकार होगा, जिसमें से उस विषय के जाननेवाले तीन योग्य सदस्यो तक को नियत करने का अधिकार होगा। इस प्रकार सम्मिलित किये हुए सदस्यों की कार्य-अवधि कलाभवन समिति नियत करेंगी। ५-यदि समिति के किसी सदस्य का स्थान किसी कारण से वाली होगा वो उसके लिये अन्य व्यक्ति को वही संस्था चुनेगी जिसने पहले व्यक्ति को चुना होगा । पर किसी अवस्था में एक ही कुटुंव का एक से अधिक व्यक्ति इस समिति का सदस्य न रह सकेगा और यदि किसी सदस्य का स्थान खाली होने पर उसके स्थान की पूर्ति करनेवाली संस्था उस रिक्त स्थान की पूर्ति एक वर्ष के भीतर न करेगी तो दूसरी संस्था को उस स्थान की पूर्ति का अधिकार होगा।

६-कला-भवन की रक्षा और प्रबंध के लिये समिति को कला- परिषद् और काशी-नागरीप्रचारिणी समा से अविरुद्ध नियम, उपनियम आदि वनाने का और उनमें परिवर्तन श्रादि का पूर्ण अधिकार रहेगा।

७-समिति अपने कार्य की एक वार्षिक रिपोर्ट काशी-नागरी- फा १७ [ २५८ ] प्रचारिणी सभा तथा भारत-कला-परिषद् को देगी जो उनके वार्षिक विवरणों में सम्मिलित की जायगी।

-कला-मवन के आय-व्यय का समस्त लेखा सभा के बही- खातों में निरतर लिखा जाएगा और उसके आडिटरो-द्वारा यथानियम उसकी जाँच हुआ करेगी। इस बचे हुए हिसाव का एक प्रमाणित चिट्ठा समा प्रतिवर्ष भारत-कला-परिषद् को दिया करेगी।

९-इस भवन के निशुद्ध संग्रहाध्यक्ष (आनरेरी क्यूरेटर) राय कृष्णदास हागे और जब तक वे उस पद को स्वय न छोड़ दें तब तक उस पर बने रहेंगे।

१०-सग्रहाध्यक्ष का पद खाली होने पर समिति दूसरा संग्रहाध्यक किसी नियत काल के लिये चुनेगी और जब-जब आवश्यकता होगी ऐसी नियुक्ति करती रहेगी। एक ही व्यक्ति को एक से अधिक काल के लिये नियुक्ति समिति की इच्छा से हो सकेगी।

११-परिषद् के संग्रह की उन वस्तुओं पर जो मंगनी की हैं यदि मंगनी की कोई शर्त है तो यह नया प्रबध भी उससे सदैव बंधा रहेगा।

१२-परिषद को अपनी प्रकाशित पुस्तको, चित्राधारों वा अन्य प्रकाशनों में संग्रहालय के चित्र आदि प्रकाशित करने का अधिकार रहेगा परंतु सभा को छोडकर किसी भी अन्य व्यक्ति अथवा संस्था को इस बात की अनुमति विना उक्तसमिति की विशेष आज्ञा के न दी जायगी। [ २५९ ]१३—समिति की विशेषा आज्ञा के विना संग्रहालय की कोई भी वस्तु सभा के अहात के बाहर न जा सकेगी।

१४—यदि समा इन श॔तों सर को पूरा न करे तो अथवा यदि किसी समय इस कला-भवन के संग्रहालय की इतनी उन्नति हो कि उसके लिये सभा-भवन का वह भाग जो उसके लिये अलग किया जाय पर्याप्त न हो तथा काशी-नागरीप्रचारिणी सभा अधिक स्थान अथवा नये भवन का उपयुक्त प्रबंध करने में असमर्थ हो और भारत-कला- परिषद् उपयुक्त स्थान का प्रबंध कर सके तो जो सामग्री उक्त परिषद्-द्वारा इस संग्रहालय में संगृहीत होगी वह उसे वापस मिल सकेगी। स्तुि २५ वर्ष तक इस प्रबंध के सुचारु रूप से चलने पर यह समूह इस्तांतरित न किया जा सकेगा।

इस निश्चय के अनुसार कला-भवन सभा मे आया और उसका मान सामान सजाया गया। यद्यपि समा ने ६००) वार्षिक देने का वचन दिया था पर खर्च इस प्रकार हुआ- सवत् आय व्यय १९८६ १३७१ ९०६ १९८७ ७२८ १९८८ १९८८ ७३ २६५३ १९८९ ७९४ २४०७ १९९० ४१२ १०५३ १९९१ २३० ९२७ १९९२ ४५७ ११९१ [ २६० ]

सवत् प्राय व्यय १५९३ १३३८०) १७७८ १९९४ ३६९ ४३३ १९९५ ३२५० ११५३

          ८४९६11-       १५४२०॥

ये आंकडे सभा की रिपोर्ट से लिए गए हैं। प्रारंभ में अवश्य सजाने का सय सामान इकट्ठा करने में बहुत व्यय हुआ। इस ममय सभा के प्रधान मनो वायू माघोप्रसाद जी थे। इनका मेग स्नेह बहुत पुराना है। वे स्वभाव के दृढ़ व्यक्ति हैं। नियम के प्रतिकूल कोई काम हो जाना इनके रहते असंभव है। परंतु,मंवत् १९८८ में राय कृष्णदास यह समझकर प्रधानमंत्री चुने गए कि कला-भवन और सभा का सब काम एक आदमी के हाथ में रहने से मर्प की आशंका कम हो जायगी और काम सुचारु रूप से चलेगा। सवत् १९८९ में भी वे प्रधान मंत्री चुने गए।

सबत् १९८६ की सभा की रिपोर्ट में लिखा है- इसकी (कला-मवन की) एक सचित्र सूची वैयार हो रही है जो शीघ्र ही प्रकाशित की आयगी।"

इस बात को आज ग्यारह वर्ष हो गए पर अभी तक यह सूची नहीं तैयार हुई। इन ग्यारह वर्षों में कई बार यह प्रश्न समा में उठा और सूची बनाने के लिये व्यय भी स्वीकार हुआ, पर सूची न बनी। इस रहस्य का वात्पर्य समझना कठिन है और अनुमान से काम लेना निरापद नहीं है । एक पत्र (१५-७-३६) में राय कृष्णदास ने सभा को लिखाया था[ २६१ ]

"यह घात अनेक वार कही जा चुकी है कि कलाभवन की सूची अमी तक तैयार नहीं हुई। किसी विशाल संग्रह की सूची बनाना साधारण काम नहीं है। अब तक जो काम इस विषय में किया गया है यह इतने समय के लिये यथेष्ट है। डाक्टर मोतीचंद ने, जिनके ऊपर इस काम का भार है, मुझसे कहा है कि उन्होंने सूची का कार्य केवल कलाभवन के स्नेहवश किया है। इससे उनका और कोई लाम नहीं। इसलिये वे इस बात को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि वे कलाभवन की सूची को किसी निर्दिष्ट समय में बनाने के लिये बाध्य नहीं हैं। यदि सभा का व्यवहार शिष्ट रहा तो न्यो न्यो उन्हे फुर्सत होगो वे इस काम को पूरा कर सकेंगे, अन्यथा नहीं ।"

इस पत्र से यह स्पष्ट है कि समा में कलाभवन आने के बाद चक यही परिस्थिति थी। इसी अवस्था में कलाभवन में तीन बार चोरी हुई। बड़े बड़े अनुमान लगाए गए, पर चोरी का पता न चला और सूची के अभाव में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सका कि कोन कौन वस्तु चोरी की गई। केवल अनुमान से एक सूची बनाकर पुलिस में दी गई। चोरी का पूरा पूरा पता न लगा। हाँ, एक बात अवश्य हुई। अनेक प्रकार के अपवाद चारो ओर फैल गए और मिन्न-भिन्न व्यक्तियो पर दोषारोपण किया गया। इन अपवादो स्था दोपारोपा में कोई प्रामाणिक बात न होने से उनका उल्लेख करना व्यर्थ है । पर इन दुर्घटनाओ से मेरी आत्मा को बड़ा कष्ट पहुंचा। यह सब होते हुए भी कलाभवन का कोई संतोपजनक प्रबंध न हो सका। राय कृष्णदास यह चाहते थे कि कलाभवन की एक समिति [ २६२ ]या उपसमिति बने जो सभा से स्वतंत्र ही और उसके कार्य में कोई हस्तक्षेप न कर सके, सभा केवल ६००) वार्षिक देती जाय। एक पत्र मे उन्होंने स्पष्ट लिखा था―“यह बात प्रबध-समिति स्पष्ट रूप एवं स्पष्ट हृदय से मान ले कि कलाभवन-समिति प्रबंध-समिति के अंतर्गत स्वायत्त सस्था है।” मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता था क्योंकि प्रब प्रबंध-समिति को नियमानुसार ‘उपसमिति’ स्थापित करने का अधिकार था। समिति तो केवल साधारण सभा बना सकती थी। उनके कार्यों से यह स्पष्ट था कि वे सभा को गोण और क्लाभवन को प्रधान बनाना चाहते थे। सभा से उसका संबध उतना ही चाहते थे जितना अत्यंत आवश्यक हो। जब कभी कोई सभा में आता या बुलाया जाता तो उसकी सूचना में नागरीप्रचारिणी सभा का उल्लेख गौण रूप से होता या होता ही नहीं। मेरा उद्देश्य क्लाभवन को सभा का एक प्रधान अंग बनाना था। इस प्रकार ध्येयों में विभिन्नता होने के कारण सवर्प चलता रहा। एक समय तो यह भी विचारा गया कि कलाभवन लौटा दिया जाय और झगड़ा शांत किया जाय। तब इस बात की जाँच होने लगी कि यदि कलाभवन लौटाया जाय तो किसको सौंपा जाय। क्या भारत-कला-परिषद् का कहीं अस्तित्व है कि उसकी वस्तु उसको दे दी जाय! कला-परिषद् को जीवित सिद्ध करने की राय कृष्णदास ने चेष्टा भी की। सन् १९२५ में छपी सूची के अनुसार उसके १०६ सदस्य थे। पर जनवरी १९३६ ने उसके ८ सदस्य रह गए थे जो आनरेरी या स्थायी थे। सन् १९२७ से रजिस्ट्रार, ज्वाइंट स्टाक कपनी के पास कला-परिषद् के कार्यकर्ताओ, [ २६३ ]


और प्रबंध-ममिति के ममानदो की कोई वार्षिक सूची नहीं भेजी गई थी और न कोई नया चुनाव ही हुआ था । २९ नववर सन् १९३५ को ८ प्रेमी सूचियाँ बनाकर रजिस्ट्रार के पास भेजी गई जो १९२७-२८. १९२८ २९, १९२५-३०, १९३०-३१, १९३१-३२, १९३२-३३, १९३३-३५. १९३५-३५ की थीं। इन सव सूचियो में एक ही नाम थे. अधिकारियों में से दो की मृत्यु हो चुकी श्री. बाकी सब सभासदी के अधिकार से शून्य थे, केवल दो महाशय अधिकारी थे। बाबू गौरीशंकरप्रमाद ने इन सूचियो को देखकर to forcat 37"how can dead persons function as officc-bemers? It is unthinkable जब यह बात सभी कि इन सूचियों का परिणाम केसा भयानक हो सकता है, तब यह मामला शांत हुआ। एक बात अच्छी हुई कि रजिस्ट्रार ने इन सूचियों को यह कहकर लौटा दिया कि इन उस संस्था का नाम होना चाहिए जिसके कार्यकर्ताओं आदि की ये सूचियाँ है। इस प्रकार यह आधार भी नष्ट हो गया कि कला-परिपद् अव जीवित है। अबतक उसके ८ सभासद जो बचे थे उनको पत्र लिखकर पूछा गया कि क्या आप लोगों को यह स्वीकार है कि कलाभवन नागरीप्रचारिणी सभा में बना रहे। इनमें से पांच महाशयो ने अपनी स्वीकृति दी और ६ जून १९३८ के प्रबंध समिति के अधिवेशन में यह निश्चय हुआ कि "कलाभवन का समस्त प्रबंध एक उपसमिति के अधीन होगा जो प्रति तीसरे वर्ष काशी नागरीप्रचारिणी सभा की प्रवध-समिति- द्वारा अपने सदस्यों में से चुनी जाया करेगी।" [ २६४ ]इस निश्चय के अनुमार कार्य करने के लिये कुछ नियम भी बनाए गए पर वे कलाभवन के अध्यक्ष को स्वीकृत न हुए और उन्होंने नए प्रस्ताव दिए। इस बीच में मैंने एक नोट (१-७-३६) में अर्थ-मंत्री को इस प्रकार आदेश दिया―

I think the Financial Secretary should excrcise rict supersision in all financial matters. He Should not allow any bungling in any department Of Sabha

इस “धगलिग” शब्द पर गय कृष्णदास तथा डाक्टर मोतीचंद को विशेष आपत्ति हुई। Bungle शब्द का अर्थ आक्सफोर्ड एनसाइज डिक्शनरी में इस प्रभार दिया है―“(make) clumry Work, confusion, blunder over, frul to accomplish task)” राय कृष्णदास ने अपने प्रस्तावों को भेजते अपने १५ जुलाई १९३७ के पत्र में यह लिखा था―

“यदि मेरे प्रति आपके मन में अविश्वास है तो मैं सहर्ष कलाभवन के कामो से अलग होता हूँ। मेरी सारी सद्भावना उसके साथ है और रहेगी; दूर से। मैं इसका इच्छुक नहीं कि आप अपनी इसी मनोवृत्ति के लिये ‘मार्जन’ तो कर लें किन्तु आपके अत करण में वह चुभती रहे। ऐसी दशा में तटस्थ होकर मैं ईश्वर से यह प्रार्थना करना उचित समझता हूँ कि वह आपको मुझे पहिचानने की सुबुद्धि दे।”

डाक्टर मोतीचद ने एक लंबे पत्र में मेरे इस कथन पर आपत्ति करते हुए लिखा था― [ २६५ ]“If you think that there is a defalcation in the accounts of the Kala Bhavan please do bring & deflnite charge and those connected should be brought to book, otherwise it will not be possible for me to continue any longer in such an atmosphere” मैं इस संबंध में यहाँ कुछ न कहकर उन लोगो को जो अधिक जानने के इच्छुक हो सभा का हिसाब निरीक्षण करने के लिये कहूंगा।

इस प्रकार झगड़ा बढ़ते देखकर प्रबंध समिति ने पंडित रामनारायण मिश्र, रायसाहब ठाकुर शिवकुमारसिंह, तथा रायबहादुर पंडया वैजनाथ से प्रार्थना की कि व लोग दोनों पक्षो की बाते सुनकर और सब कागज-पत्र देखकर शांति का मार्ग निकाले। इन महाशयो ने २१-७-३६ को सभा को लिखा―“प्रबंधकारिणी समिति के आज्ञानुसार हम लोगों ने कला-भवन-सबंधी पत्र व्यवहार पढ़ा और सभापति जी और अध्यक्ष जी (कला-भवन) का वक्तव्य सुना। हमे बडा हर्ष है कि दोनों सज्जना में समझौता हो गया और भविष्य मे दोनो मिलकर नियमादि बना लेगे।”

पर यह हर्ष और रायसाहब का त्याग क्षणिक रहा क्योकि दो दिन पीछे २३ जुलाई १९३६ को राय कृष्णदास के वकील बाबू ठाकुरदास ने सभा को यह नोटिस दी।

“अपने मुवक्किल राय कृष्णदास के आदेशानुसार आपको सूचित करता हूँ कि भारत-कला-परिषद् ने अपनी संपूर्ण संपत्ति [ २६६ ]भारत-कला-भवन को विशेष शर्तों पर देना निश्चय किया। उनमें कुछ ऐसी चीजें हैं जो मेरे मुश्किल जब चाहें वापस ले सकते हैं, न वो उसी शर्त पर भवन के भी सुपुर्द हैं; परंतु अभी तक उसकी संपूर्ण शर्तें कार्यान्वित नहीं की गई हैं। जब तक वे साधारण सभा में स्वीकृत न हो जायें उस समय तक मेरे मुवक्किल को भी उन शर्तों को रद्द कराने का पूरा अधिकार बाकी है। मेरे मुसकिल क्ला-भवन के आजन्म संग्रहाष्यक्ष हैं, अतएव कला-भवन की संपूर्ण वस्तु उनके अधिकार में है और उनकी अनुमति या आज्ञा के बिना कोई वस्तु वहाँ से घट-बढ़ नहीं सकती और न क्लाभवन खुल सकता है। उनको पता चला है कि उनकी आज्ञा व अनुमति के बिना उसने कुछ चल-विचल होनेवाला है और क्ला-भवन खोला जानेवाला भी है। ऐसा होना बड़ा अनुचित तया अनियमित है। आप कृपाकर ऐसा न होने दीजिए। नहीं तो उनको खेद के साथ हुक्म इन्तिनाई निकलवाना पड़ेगा।’

इस संबंध में यहाँ यह सूचित करना आवश्यक है कि तारीख १७ अगस्त १९३६ को सभा-भवन में सर हैरी हेग पधारनेवाले थे। अतएव यह नोटिस बहुत ही सामयिक थी। सारांश यह कि यह झगड़ा चलता रहा और कार्य को नियमित रूप से चलाने का कोई मार्ग निकलता दिखाई न पड़ने से सभा ने निश्चय लिया कि कला-भवन की वे सब वस्तुएँ जो कला-परिषद्-द्वारा प्राप्त हुई हैं लौटा दी जायें। इस पर यह कानूनी आपत्ति हुई कि कला-परिषद् वो अब जीवित नहीं है फिर ये वस्तुएँ लोटाई नहीं जा सकती। इस बीच [ २६७ ] मे एक घटना और हो गई। राय कृष्णदास ने सभा को लिखा कि मैने ८० वस्तुएं कला परिषद् को मॅगनी दी थी वे सब मुझे लौटा दी जायें । मैंने पूछा कि कला-परिषद् एक रजिस्टर्ड संस्था है। उसका कार्य विवरण अवश्य होगा और उसमे यह लिखा होगा कि कब और किन शतै पर ये वस्तुएँ कला-भवन मे आई । उन्होने यह उत्तर दिया कि इस संबंध में मेरा वचन ही प्रमाण है। यह इतना बड़ा प्रमाण था कि इसके आगे सबको सिर झुकाना पडा। वस्तु लौदा देने का निश्चय हुआ।

इसी समय के लगभग और दो-एक घटनायें ऐसी घटित हुई कि उन्होंने मुझे बहुत क्षुब्ध कर दिया और मैं चिंताग्रस्त रहने लगा। १० अप्रैल १९३३ को जब सभा के वार्षिक प्रायव्यय तथा अगले वर्ष का अनुमान-पत्र उपस्थित किया गया तव यह विदित हुआ कि १८१३||-J10 अमानत मे लेना है। मैंने उस हिसाव की जाँच की तो यह विदित हुआ कि इसमे से १४३३१) एक कार्यकर्ता महाशय न समय-समय पर लेकर अपने निजी खर्च मे व्यय किया है। मैंने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं सभा को अपनी समझता हूँ। इसलिये मैंने यह रुपया लिया है। मै इसे शुद-सहित लौटा दूंगा। मैंने कहा कि सभा कोई महाजनी का व्यापार नहीं करती जो तुम्हे रुपया उधार छ । मैने उचित समझा कि यह व्यवस्था प्रबंध समिति को बता दी जाय, क्योकि सार्वजनिक संस्था होने से इस प्रकार की गड़बड अगोपनीय है और प्रकट होने पर सब पर लांछन लग सकता है। सभा के हित आगे मुझे [ २६८ ]अपने बड़े से बड़े मित्र की भी उपेक्षा करनी पड़े तो मैं सदा उसके लिये प्रस्तुत रहता हूँ। मैंने सव व्यवस्था प्रबंध समिति के समुख उपस्थित की। वहां से निश्चय हुआ कि यह रकम एक सप्ताह के अंदर वसूल कर ली जाय । भविष्य में ऐसी अन्यवस्था से बचने के लिये निम्नलिखित सिद्धांत उसी अधिवेशन में स्थिर किए गए-

(७) निश्चय हुआ कि बैंक से रुपया मंगाने के लिये चेक पर प्रधान मंत्री और अर्थ-मंत्री के संयुक्त हस्ताक्षर हुआ करें।

"(८) निश्चय हुआ कि जो रुपया सभा में आवे वह सब सीधे बैंक मे भेज दिया जाय। उसमें से कुत्र व्यय न किया जाय । व्यय के लिये जितने धन की आवश्यकता हो उसना चेक द्वारा बैंक से मंगाया जाय।

"(९) निश्चय हुआ कि बंधे हुए मासिक वेवन तथा साधारण फुटकर व्यय को छोड़कर और कोई रकम प्रबंध-समिति की स्वीकृति के बिना नही जाय और न उक्त समिति की स्वीकृति के बिना किसी प्रकार के व्यय का कार्य ही किया जाय। साधारण फुटकर व्यय के लिये अमानव को मौवि सहायक मंत्री के पास ५०) रक्षा करे।"

एक और घटना का हाल संक्षेप कहता हूँ। बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर' ने कई हजार रुपया अपने पास से व्यय करके सूरसागर की अनेक प्राचीन इस्वलिखित प्रतियां इकट्ठी की थी और अपना सिद्धात स्थिर करके उसके सम्पादन-कार्य को प्रारम किया था। पर 'उनका देहांत हो जाने के कारण वे उस काम को पूरा न कर सके। [ २६९ ]उनके सुपुत्र वावू राधेकृष्णदास ने वह सब सामान सभा को दे दिया जिसमें वह उपयुक्त प्रबंध करके सूरसागर का प्रकाशन कर सके। सभा ने इस कार्य का आयोजन किया और मुशी अजमेरी जी को, राय कृष्णदास के परामर्श पर, इस कार्य का भार सौंपा। अजमेरी जी चाहते थे कि उन्हें वर्ष में चार महीने विना वेतन के छुट्टी मिला करे । वे नित्य केवल चार घंटे काम करने के लिये उद्यत थे। काम को उन्होंने प्रारंभ कर दिया, पर उनकी शर्ते मुझे अनुचित जान पड़ी। इमलिये मैंने इनका विरोध किया। कई महीनों तक विवाद चलने के अनंतर अजमेरी जी ने त्यागपत्र दे दिया और पंडित नंदुलारे वाजपेजी सम्पादक चुने गए। इस विवाद के कारण वैमनस्य की मात्रा बढ़ी और कला भवन को लेकर उसने और मी विषम रूप धारण किया । पंडित नंददुलारे वाजपेयी ने समस्त सूर- सागर का संपादन किया और उसके छापने का प्रबंध हुआ। इस काम मे सभा का बहुत रुपया लग गया था। इस कारण सभा उसको छपवाने में असमर्थ हो चली। मैंने प्रस्ताव किया कि मूल सूरसागर "सूर्यकुमारी पुस्तक-माला" में प्रकाशित किया जाय । मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि साधारण-सी साधारण पुस्तको के लिये दो हजार से अधिक रुपया खर्च किया जा सकता था, सूरदास की कीर्ति के लिये किसी ने ध्यान भी न दिया। इसका कारण कदाचित् इस कार्य से मेरी अधिक रुचि हो, अथवा प्रबंध समिति साहित्य के रत्नों की रक्षा से उदासीन हो। कारण छ भी हो, वह संपादित ग्रंथों बसतै मे बंद पड़ा है। पर [ २७० ] सभा की इस परिस्थिति और आर्थिक अवस्था को देखकर बाबू गोपालदास ने, जो सभा के प्रारंभ से ही, ३५ वर्ष तक, सहायक मंत्री थे, अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। बाबू गोपालदास ने सभा की अमूल्य सेवा की है। उनकी उपस्थिति में हम लोगों को कभी इस बात की चिंता नहीं हुई कि सभा का एक पैसा भी कहीं चला जायगा, पर किसी-किमी कार्यकर्ता का अपने निजी खर्च के लिये अमानत में लिखाकर रुपया ले लेना उन्हें अरुचिकर या। वे इनको रोक भी नहीं सकते थे, क्योंकि आज्ञा के अनुसार कार्य करना उनका कर्तव्य था। उन्होंने मुझसे स्पष्ट कहा था कि यह स्थिति मेरे संभाले न संभालेगी और इसके लिये मुझे कदाचित् जेल तक जाना पड़े। कम से कम मेरी पिछली सव सेवाएँ भूलकर मुझे घोर लाछन लगेगा।' इन विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और वह १६ सितंबर १९३३ के अधिवेशन में स्वीकृत भी हो गया। ३५ वर्ष सभा की सेवा करके वाबू गोपालदास सभा से अलग हुए। सभा को कोरे धन्यवादों के अतिरिक्त उनके सम्मान के लिये कुछ करना चाहिए था।

(१४) उन सब घटनाओं का प्रभाव मेरे मन और शरीर पर बहुत बुरा पड़ा। साथ ही एक और चिंवा मन को व्याकुल करती रहती थी। ममा पर इन समय कई इजार का ऋण हो गया था। यह शृण कहीं बाहर से नहीं लिया गया था। सभा को ही मिन्न-मिन्न निधियों के रुपए दूसरे कामों में खर्च हो गए थे। कला भवन, द्विवेदी-अभिनंदन, सूनागर आदि कार्यों में अनुमान से बहुत खर्च [ २७१ ]हो गया था, जो सभा की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए एक प्रकार से अनिवार्य था। मैंने बहुत चाहा कि यह ऋण क्रमश कम होता चले तो दस-पांच वर्ष में वह चुक जायगा पर एक ऋण के चुकाने का आयोजन होता था कि दूसारा खर्च अचानक सिर पर आ पडता था। मैंने बहुत उद्योग किया पर मुझे सफलता न मिली । आज तक सभा के जितने काम मैंने हाथ में लिए थे उनमें बहुत सोच से काम लिया था और मुझे पूरी सफलता प्राप्त हुई थी। पर अब ऐसा नहीं हो रहा, इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिए। मैंने अपने सब कामो मे ईश्वर की प्रेरणा का स्पष्ट अनुभव किया है। अब यदि मैं अपने उद्योगा मे सफल नहीं हो रहा हूँ तो यही मानना पड़ा कि ईश्वर की यही इच्छा है कि मैं इस काम से विरत हो जाऊँ और दूसरो को उसे करने दूं। यह सोचकर मैंने सभापति से त्यागपत्र दे दिया, क्योकि मिरी तीन वर्ष की अवधि पूरी होनेवाली थी । त्यागपत्र स्वीकृत हुआ, और वाषिक अधिवेशन में मैं पुन. सभापति चुना गया। यह कुछ लोगो को रुचिकर न हुआ और एक Petation of Rights तैयार की गई कि यह चुनाव विधान-विरुद्ध है । इन लोगो का उद्देश्य केवल यह था कि हमारे मार्ग का काँटा दूर हो जाय । इन बातो को खूब विचारकर कि मैंने इस समय के कर्तव्य का निश्चय किया कि सभा के विधान की रक्षा करना मेरा सबसे बड़ा कर्तव्य है। इस निश्चय के अनुसार मैंने १५ जुलाई सन् १९३७ को निम्नलिखित त्यागपत्र दे दिया-

"मैने नियम ३६ पर विचार किया । यद्यपि तिन वर्ष का [ २७२ ]अर्थ सदिग्ध है और उस पर मतभेद हो सकता है, पर सभा के विधान की रक्षा करना प्रत्येक समासद् का कर्तव्य है। वार्षिक अधिवेशन में सभापति ने अपनी सम्मति दी थी, पर उस पर न तो कोई विवाद हुआ और न उन शब्दों का अर्थ निश्चित किया गया। फिर भी इतना निश्चित है कि तीसरे वर्ष के अंश को भी पूरा तीसरा वर्ष मान लेने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। अत. मैं सभापति के पद से त्यागपत्र देता हूँ। प्रार्थना है कि सभा इसे स्वीकार करने की कृपा करे।"

यह पत्र १४ अगस्त की साधारण सभा मे ४ मतो के पक्ष और २ मतो के विरोष से स्वीकृत हुआ । कुछ लोग तटस्य रहे और उनमें वे लोग थे जो समय को समझकर चलनेवाले थे। अस्तु, इस प्रकार मैं सभा के कार्यभार से मुक्त हुआ। इसके अनंतर पंडित रामनारायण मिश्रि सभापति चुने गए और उन्होने अपने अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न करके समा का कार्य चलाया। यहाँ यह कह देना आवश्यक और उचित है कि यद्यपि अनेक वर्षो में मेरा उनका मत नहीं मिलता और मैं उनकी कार्य-प्रणाली से सर्वथा सहमत नहीं था, फिर भी यह अवश्य है कि उन्होंने सभा की आर्थिक स्थिति सुधारने का सफलवापूर्वक बड़ा स्तुत्य उद्योग किया और इसके लिये उनका जितना श्रेय माना जाय थोड़ा है। मैंने अब सभा के सब कामों से हाय खींच लिया और १८ अगस्त १९३७ के अनंतर में उसके किसी अधिवेशन या उत्सव में सम्मिलित नहीं हुआ। १५ अक्तूबर से समा-भवन में हिंदी-माहित्य सम्मेलन का २८वौ वार्षिक अधिवेशन । [ २७३ ]हुआ। उस अवसर पर यह सोचकर कि मेरे न जाने से व्यर्थ भ्रम फैलेगा, मैं तीन दिन सम्मेलन में सम्मिलित होने गया। ईश्वर की प्रेरणा से मैंने ४५ वर्षों तक निरंतर सभा की सेवा की और मैं सदा उसको हित-कामना में रत रहा। पर अब उससे मैं विरत सा हो रहा हूँ। इसमें भी ईश्वर की इच्छा ही प्रबल है।

(१५) विश्वविद्यालय से अवसर ग्रहण करने तथा सभा से अलग होने पर, (यद्यपि मैं उसका सभासद् बना हुआ है) मैंने अपने ग्रंथ साहित्यालोचन, हिंदी-भाषा और साहित्य, और भाषा-विज्ञान के नए परिवर्धित और संशोधित संस्करण प्रस्तुत किए तथा रामायण की टीका को दुहराकर ठीक किया और उसकी नई प्रस्तावना लिखी । इन ४५ वर्षों में मेरे घनिष्ठ मित्रों में अनेक लोग रहे जिनका उल्लेख मैं पिछले प्रकरणों में कहीं-कहीं कर चुका हूँ, इन निम्नलिखित मित्रों से विशेष घनिष्ठता रही--

बाबू राधाचणदास-सा सज्जन और सदय मित्र मिलना तो कठिन है। उनकी कृपा का मैं कहाँ तक उल्लेख करूं। उन्हीं ने मुझे हस्तलिखित पुस्तकों की खोज का काम सिखाया और हिंदी के संवध में अनुसंधान करने की रीति सिखाई। बाबू कार्तिकप्रसाद तो सदा हिंदी के प्रभावो का उल्लेख कर उनको दूर करने के लिये मुझे उत्साहित करते थे। इन दोनों को यदि मैं अपना गुरु मानें तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

बाबू जगनाथदास रत्नाकर' से मेरा परिचय सभा के ही संबंध मे हुआ था। दिनों-दिन प्रेम बढ़ता गया और अत्यंत घनिष्ठता हो फा. १८ [ २७४ ]गाई। वे मुझे अपनी अत्यंत गोपनीय बात भी बताने में कभी संकोच न करते थे। पंडित श्यामबिहारी मिस्र और पंडित शुम्हयविहारी मिस्र से लखनऊ जाने पर विशेष घनिष्ठता हुई। पंडित माधवराव सप्रे तो मेरे अनन्य प्रेमियों में मास्टर काशी प्रसाद जायसवाल से मेरा बहुत पुराना परिचय था। उन सा मित्र मिलना कठिन है। पंडित गौरीशकर हीराचद श्रोमा, डॉक्टर हीरालाल, डाक्टर हीरानद शास्त्री, पडित चद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे विद्वानों की मुझ पर सदा कृपा रही। ईश्वर की अत्यंत कृपा है कि श्रोमा जी तथा शास्त्री जी का व्यवहार अभी तक पूर्ववत् चला जाता है। इनकी सज्जनता,सहृदयता और सौहार्द की जहाँ तक प्रशंसा की जाय थोडी है। पड़े सौभाग्य से ऐसे सज्जनो से प्रेम होता और यावत् जीवन बना रहता है। कलक्चे के पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र से भी मेरा अत्यंत स्नेह था। वे प्राय काशी आते थे। उन्हीं ने मुझे काश्मीर ले जाने का उद्योग किया, पर दुर्भाग्य से मुझे वहाँ सफलता न मिली । बाबू माधोप्रसाद, षाबू वेणीप्रसाद, बाबू जुगुलकिशोर और बाबू कृष्णवलदेव वर्मा वो मेरे बडे पुराने मित्र और एक प्रकार से भाई-समान रहे और हैं। अनेक कामों में हम लोगो का साथ रखा और हम लोगों ने सदा निष्कपट सौहाई बरता। पिछले दिनो बाबू जयशंकरप्रसाद तथा बाबू मैथिलीशरण गुप्त से स्नेह बढा । "प्रसाद जी से विशेष घनिष्ठता हो गई थी। मेरी अधिकाश पुस्तकों के प्रकाशक इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चितामरि घोष और उनके पुत्र बाबू हरिकेशव घोष का मेरे प्रती वर्ताब सदा सौजन्यपूर्ण, उदार और सुधा रहा जिसके लिये मैं [ २७५ ]उनका कृतज्ञ हूँ। अब अनेक मित्रों में से कितने ही स्वर्गवासी हो चुके हैं। कुछ थोड़े-से अभी तक इस संसार में वर्तमान हैं और मिल जाने पर पुराने संस्कारो तथा कार्यों की स्मृति को जागरित कर देते हैं। इन सब मित्रा से, जिनका मैं ऊपर उल्लेख कर चुका हूँ, सदा एकरस भाव बना रहा।

(१६) मेरे जीवन में दो बातें मुख्यतया विशेषता रखती हैं । एक तो मेरा जीवन सदा संघर्ष में बीता। विरोध का सामना करने मे,मुझे प्रयत्नशील रहना पड़ा। विरोध तथा कटु आलोचना में भी जो वात प्राह होती थी उसे मै सहर्प ग्रहण कर लेता था, पर अपने ध्येय से कभी चल-विचल न होता था। यही कारण है कि मैंने जितने काम हाथ मे लिए उनमें आशातीत सफलता प्राप्त हुई, पर साथ ही यह वात भी हुई कि व्यक्तिगत उद्योगों में जिनके द्वारा मैं अपनी निजी स्थिति सुधारने मे दत्तचित्त रहा--मुझ प्राय असफलता ही हुई। दूसरी विशेष बात मेरे जीवन मे यह हुई कि वैयक्तिक रूप से मैने जिन जिन की सहायता की उनमें से अधिकांश प्रायः कृतन्त्र सिद्ध हुए और अपने स्वार्थ के आगे मुझका हानि पहुंचाने में उन्हें तनिक भी. संकोच न हुआ। गृहस्त जीवन में भी मुझे प्राय असूख और यशांति ही मिली, पर मैं अपने कर्तव्य-पालन से कभी विचलित न हुआ । फिर भी सब बातो पर एक साधारण दृष्टि डालने से मै अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता हूँ। यह कम लोगो के भाग्य में रहता, है कि जिस बीज को वे बोते हैं उसे पेड़ वृक्ष के रूप मे उगते,,पल्लवित, पुष्पित तथा फलान्वित होते देख सकें । मुझे ऐसा सौभाग्य [ २७६ ]प्राप्त हुआ। मैंने नागरीप्रचारिणी सभा तथा हिंदी-भाषा और साहित्य की उन्नति में भरसक उद्योग किया और अपनी तथा अपने कुटुंब की चिंता छोड़कर इनकी सेवा में अपना शरीर अर्पण कर दिया। भारतेंदु हरिश्चंद्र के गोलोकवास के उपरांत हिंदी बड़ी शोचनीय अवस्था में थी। उसे कोई पूछनेवाला न था। नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना, 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन तथा हिंदी साहित्य- सम्मेलन की आयोजना से हिंदी इतनी दृढ़ता से उन्नति करने लगी कि आन दिन वह प्रमुख भाषाओं में उस सिंहासन पर विराजमान है और राष्ट्रभाषा के गौरवान्वित पद को प्राप्त कर रही है। उसके साहित्य में नित्य नए-नए रत्न निकलने लगे हैं। जयशंकरप्रसाद से नाटककार, प्रेमचंद से उपन्यास-लेखक, रलाकर और श्रीधर पाठक से कवि, वालमुकुंद गुप्त और महावीरप्रसाद द्विवेदी से पत्रकार, बालकृष्ण भट्ट और पूर्णसिंह से निबंध-लेखक, तथा पार्वतीनंदन से कहानी-लेखक उसकी सेवा कर चुके हैं और बर्तमान काल में अनेक कवि, नाटककार, उपन्यास-लेखक, कहानी-लेखक, समालोचक, निबंध लेखक तथा आकर-ग्रंथ के रचयिता उसकी सेवा में तत्पर हैं। यह क्या कम सतोप और आनंद की बात है ? सच तो यह है कि हिंदी का वर्तमान रूप बड़ा चमत्कार-पूर्ण है। इसमें भावी उन्नति के बीज वर्तमान है जो समय पाकर अवश्य पल्लवित और पुष्पिद होंगे । परिवर्तन काल में जिन गुणों का सब बातो में होना स्वाभाविक है वे सभी हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में स्पष्ट देख पढते हैं और काल का धर्म भी पूर्णतया प्रतिविदित हो रहा है। इस [ २७७ ]अवस्था में जीवन है, प्राण है, उत्साह है, उमंग है और सबसे बढ़कर, बात यह है कि भविष्योन्नति के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होने की शक्ति और कामना है। जिनमें ये गुण वर्तमान हैं वे अवश्य उन्नति करते हैं। हिंदी में ये गुण हैं और उसकी उन्नति अवश्यमावी है। हिंदी भाषा और उसके साहित्य का भविष्य बड़ा ही उज्वल और सुंदर देख पड़ता है। आदर तथा सम्मान के पात्र वे महानुभाव हैं जो अपनी कृतियों से इसके मार्ग के कंटकों और झाड़-झंखाडों को दूर कर उसे सुगम्य, प्रशस्त और सुरम्य बना रहे हैं। कुछ लोग हिंदी के विरोध से घबरा उठते हैं। किंतु मैं इस विरोध को ईश्वर की देन समझता हूँ। इससे अपने ध्येय पर आगे बढ़ने की शक्ति हममें आती है। अब तक हिंदी भाषा और साहित्य की जो उन्नति हुई है वह विरोध की अवस्था में हुई।

इस आत्म-कहानी को मैंने १५ अगस्त १९३९ को लिखना आरंभ किया और आज २५ अक्टूबर १९४० को यहाँ पर समाप्त किया। आगे की परमात्मा जाने।

(१७) ऊपर जीन घटनाओं का उल्लेख हो चुका है उनके अनंतर एक विशेष घटना हुई जिसका उल्लेख कर देना आवश्यक है। काशीनागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना १६ जुलाई सन् १८९३ को हुई। उसके जीवन के ४७ वर्ष बीत चुके हैं। अब यह अपने ४८ वें वर्ष में है। इस १७ वर्षों के दीर्घ काल में अनेक स्वनामधन्य महानुभावों ने सभा के सभापति तथा मंत्री के पद को ग्रहण करके यथासाध्य उसके उद्देश्यों को पूर्ण करने तथा उसके कार्यों को सुचारू