मेरी आत्मकहानी/११ काशी-विश्वविद्यालय
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काशी-विश्वविद्यालय
सन् १९०५ मे जब बनारस में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ था, पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने टाउनहाल में व्याख्यान देकर अपने उस प्रस्ताव की विशद रूप से व्याख्या की थी जिसके अंनुसार वे एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे, जो [ २०६ ]भारतीय संस्कृति की रक्षा करता हुआ देश में सब शास्त्रों के अध्ययन- अध्यापन का एक विशिष्ट केन्द्र हो। उस समय तो लोगों ने यही कहा था कि यह मालवीय जी का स्वप्न है जो कभी प्रत्यक्ष भौतिक रूप धारण नहीं कर सकता। कल्पना जब तीव्र होकर मूर्तिवन् प्रतीत होने लगती है तभी ससार मे बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कामो का सूत्रपात होता है। यद्यपि उस समय मालवीय जी की कल्पना स्वपन् ही प्रतीत होती थी, पर १० वर्षों के अनवरत परिश्रम, अदम्य उत्साह और ढृंढ़ विश्वास ने इस स्वप्न को, प्रत्यक्ष कर दिखाया। इन दस वर्षों में उनकी आयोजना में भारतवर्ष और विशेषकर संयुक्त-प्रदेश में उत्साह की एक ऐसी लहर वह चली कि सब विघ्न-बाधाएँ उसके सामने विलीन हो गई और सन् १९१६-मे काशी में हिंद-विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई। मालवीय जी के उद्योग और उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। यद्यपि इसके पहले सेठ जमशेद जो नौशेरवाँ जी ताता ने तीस लाख रुपये का दान देकर बंगलूर मे ताता इंस्टीट्यूट की स्थापना का सूत्रपात किया था पर हिंदू-विश्वविद्यालय की योजना के सामने वह कुछ भी नहीं है। इतना अधिक धन किसी सार्वजनिक संस्था के लिये अब तक इकट्ठा नहीं हुआ था और न भारतवर्ष के किसी और विश्वविद्यालय में शिक्षा के इतने विमागो का आयोजन ही हुआ था जितना इस विश्वविद्यालय में हुआ। विश्वविद्यालय ने जितनी उन्नति की है उस सबका श्रेय मालवीय जी को है, यद्यपि उनके सहायको और सहयोगियों की भी सख्या कम नहीं है। समय-समय पर विश्वविद्यालय को जो ऋण लेकर काम चलाना और बढ़ाना पड़ा [ २०७ ]है उसके लिये भी मालवीय जी का उत्साह ही उत्तरदायी है। कुछ लोगो का कहना है कि सर सुदरलाल यदि कुछ दिन अधिक जीते रहते तो इसको ऋणप्रस्त न होना पड़ता। यह बात ठीक हो सकती है पर साथ ही यह भी संभव है कि उसकी उन्नति भी इतनी अधिक और इतनी शीघ्र न हो सकती। यहाँ पर कदाचित् यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मालवीय जी ने जितने बड़े-बड़े कामो को अपने हाथ में लिया―जैसे अदालतों मे नागरी का प्रचार, हिंदू बोर्डिंगहाउस, मिंटो पार्क आदि―उनमे हिंदू विश्वविद्यालय ही को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ कि वह इनके हाथों पूरा हो सका, बाकी सब अधूरे ही रह गए। मालवीय जी से मेरा पहला परिचय सन् १८९४ में हुआ था जब मै काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के पहले डेपुटेशन में बाबू कार्तिकप्रसाद और बाबू माताप्रसाद के साथ प्रयाग गया था। उस समय तो मैं केवल १९ वर्ष का एक युवा विद्यार्थी था। आगे चलकर उनसे मेरी घनिष्ठता बढ़ती गई और अंत मे मुझे उनके विश्वविद्यालय में सेवा करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन अवस्थाओं में मुझे उनके गुणो तथा त्रुटियों से विशेष-रूप से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। मै इन बातो का कुछ उल्लेख यथास्थान इस प्रकरण में करूंगा।
विश्वविद्यालय की स्थापना के अनंतर यह निश्चय हुआ कि एफ० ए० और बी० ए० की परीक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी के लिये देशी भाषा एक लेख लिखकर पास करना अनिवार्य होगा। इस पर हिंदी के लिये अध्यापको की खोज होने लगी वो मालवीय जी ने पंडित रामचंद्र [ २०८ ]शुक्ल और लाला भगवानदीन को चुना। इन दिनो गर्मी की छुट्टियों में मैं काशी आया हुआ था। शुक्ल मुझसे मिले और कहने लगे कि सर्टिफिकेट दे दीजिए तो हम लोगों की नियुक्ति हो जाय। मैंने कहा सटिफिकेट तो ले लीजिए, पर वेतन का ध्यान रखिए। यदि कम वेतन पर कार्य करना स्वीकार करेंगे तो आगे चलकर हिंदी-विभाग को बडी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। पर उन्हें उस समय यह चिंता व्यग्र कर रही थी कि शब्दसागर का कार्य समाप्त हो जाने पर हम क्या करेंगे। अस्तु, मेरी सम्मति की उन्होने उपेक्षा की और ६०) मासिक पर कार्य करना स्वीकार कर लिया।
जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, जुलाई सन् १९२१ से मैंने कालीचरण स्कूल की हेडमास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और मैं काशी चला आया। यहाँ आने के पहले एक महानुभाव ने मुझे यह वचन दिया था कि तुम घर पर बैठे-बैठे हमारे कार्य का निरीक्षण करना, हम तुम्हें २००) मासिक देंगे। मैंने इसे स्वीकार कर लिया था और जीविका-निर्वाह की व्यवस्था से निश्चिंत हो गया था। पर काशी आ जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र ने, जो उस समय समस्त कार्य की देख-भाल करने लगे थे, यह कहा कि यह नहीं हो सकता। तुम्हें हमारे कार्यालय में नित्य आकर काम करना होगा। इसे मैंने स्वीकार नहीं किया। अब मैं बाबू गोबिंदास से मिला और उन्हें सब बातें कह सुनाई। उन्होंने कहा कि तुम चिंता मत करो, मैं व्यवस्था करता हूँ। उन्होने विश्वविद्यालय में यह प्रस्ताव किया कि हिंदी-साहित्य का अध्ययन युनिवसिटी की उच्चतम परीक्षा के लिये एक स्वतन्त्र विषय माना [ २०९ ]जाय। यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और हिंदी-विभाग खोलने का आयोजन होने लगा। बाबू गोविंददास ने मुझे मालवीय जी के पास भेजा और उपदेश दिया कि वेतन के लिये न अड़ना। हाॅ, पद का ध्यान रखना और युक्ति से काम लेना।
मेरी नियुक्ति आश्विन सन् १९२१ से युनिवर्सिटी में हो गई और हिंदी-विभाग का पूरा-पूरा आयोजन करने का मुझे आदेश हुआ। पीछे से मुझसे पंडित रामचंद्र शुक्ल ने कहा कि मालवीय जी ने मुझे तथा लाला भगवानदीन को बुलाकर पूछा था कि हम श्यामसुंदरदास को हिंदी-विभाग का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, तुम लोगो की क्या सम्मति है। शुक्ल जी ने उत्तर दिया कि हम लोगो को उनके अध्यक्ष होकर आने में कोई आपत्ति नहीं है। जिस दिन मेरी नियुक्ति का निश्चय हुआ उसी दिन संध्या को बाबू ज्ञानेंद्रनाथ बसु ने, जो उस समय युनिवर्सिटी कौसिल के उपमंत्री थे, मुझे पत्र लिखकर इसकी सूचना दी। अब कार्य का आरंभ हुआ। एफ० ए०, बी० ए० और एम० ए० क्लासो में हिंदी की स्वतत्र पढ़ाई का आरंम तो जुलाई सन् १९२२ से ही हो सकता था। इस बीच में इस संबंध का सब कार्य संपन्न किया गया। पाठ्य पुस्तको का चुनाव हुआ और पढ़ाई का क्रम निश्चित हुआ। इस समय इस विभाग में केवल तीन अध्यापक थे। पर अभी तो केवल फर्स्ट ईयर, थर्ड ईयर और फिफ्थ ईयर मे पढ़ाई आरंभ हुई थी, अतएव अधिक अध्यापको की आवश्यकता भी न थी। पर आगे चलकर इसके लिये बड़ा विकट प्रयत्न करना पड़ा।
पहली कठिनाई, जिसका मुझे सामना करना पड़ा, अध्यापन और
फा०१४ [ २१० ]परीक्षा का माध्यम था। युनिवर्सिटी का नियम था कि सब विषयों की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी भाषा के माध्यम-द्वारा हो। मुझे यह नियम सर्वथा अनुचित जान पडना था कि सस्कृत और हिंदी की पढाई और परीक्षा भी अँगरेजी के द्वारा हो। पर यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी कि मैं इसे तोड़ या बदल सकता। मैंने धैर्यपूर्वक इस बात के सुधार का उद्योग आरंभ किया और किसी को इसका आभास न मिलने दिया। पडित रामचंद्र शुक्ल तो अँगरेजी में पढ़ा सकते थे, पर लाला भगवानदीन ऐमा करने में असमर्थ थे। अतएव हम लोगो ने पढाना हिंदी में आरंभ कर दिया। बीच-बीच में अँगरेजी का प्रयोग करते जाते थे। प्रश्नपत्र अभी अँगरजी ही में छपते थे। आगे चलकर कोई-कोई पत्र हिंदी में भी छपने लगा। यह कार्य क्रमश हुआ। एक दिन सेनेट के अधिवेशन में मैंने इस बात को छेड़ा। मैंने कहा कि यह वडी अस्वाभाविक बात है कि हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी में हो। इससे हमारे सस्कृत और हिंदी-साहित्य को जो हानि पहुॅचती है वह तो अत्यधिक है, साथ ही विद्यार्थियों को भी भाव समझने और उसे लिखकर स्पष्ट करने में कठिनता होती है। मालवीय जी कह बैठे कि यह अनुचित है। मैंने एक प्रश्नपत्र जो पंडित केशवप्रसाद मिश्र का बनाया हुधा था, दिखाकर कहा कि देखिए यह हिंदी में कितना सुदर हुआ है और अँगरेजी में यह कितना भद्दा हो जाता। मालवीय जी ने प्रश्नपत्र लेकर देखा और उसकी प्रशसा करते हुए कहा कि नहीं हिंदी और संस्कृत के प्रश्नपत्र जहाँ तक संभव हो उन्ही भाषायो में हों। [ २११ ]मालवीय जी मे भावुकता की मात्रा अधिक थी। भावोन्मेप मे आकर वे आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते थे और चट कार्य कर बैठते थे। इसमें यदि किसी नियम का भंग होता हो तो उसकी उन्हे चिता न थी। कदाचित् उनकी यह धारणा थी कि नियम कार्य की व्यवस्था ठीक करने के लिये हैं, न कि उसमे बाधा डालने के लिये। अब तो हम लोग खुलकर हिंदी के माध्यम से पढ़ाने और परीक्षा लेने लगे। अंत में जाकर यह भी निश्चय हो गया कि डाक्टरी की डिग्री के लिये भी संस्कृत और हिंदी से संबंध रखनेवाले निबंध हिंदी या संस्कृत मे लिखे जा सकते है। इस विषय पर किंचित् विस्तार से लिखने की आवश्यकता इसलिये हुई कि आजकल शिक्षा के माध्यम का प्रश्न बड़े जोरो में उठा हुआ है। कुछ परीक्षाओ मे मातृमाषा माध्यम मान ली गई है, औरो का विषय विचाराधीन है। पर इस माध्यम के प्रश्न में जो हिंदुस्तानी का पुछल्ला जोड़ दिया गया है उससे हिंदी को विशेष हानि की आशंका है तथा उच्च शिक्षा वो हिंदुस्तानी-द्वारा हो ही नहीं सकती। एक संकर भाषा की रचना करने का व्यर्थ उद्योग करके हिंदी की उन्नति के मार्ग मे काँटे बोना बुद्धिमत्ता नही कही जा सकती।
दूसरी कठिनाई, जिसका हम लोगो को सामना करना पड़ा, उपयुक्त पुस्तको का अभाव था। पद्य-साहित्य की पुस्तके वो अच्छी मात्रा में उपलब्ध थीं पर उनके अच्छे संस्करण दुर्लभ थे। भाषा-विज्ञान आलोचना -शास्त्र, हिंदी भाषा और हिंदी-साहित्य के इतिहास की पुस्तको का सर्वथा अभाव था; साहित्य के दो-एक छोटे-मोटे इतिहास जैसे ग्रियसेन के और ग्रीव्स के उपलब्ध थे, पर उनसे पूरा[ २१२ ]पूरा काम नहीं निकल सस्ता था। उपयुक्त गद्य-ग्रंथों का एक प्रकार से अभाव ही था। शुक्ल जी ने जायमी, भूर, तुलमी आदि के ग्रंथों के सस्करण तैयार किए और विद्वत्तापूर्ण भूमिकाएँ लिखों। मैन भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र नाट्यशास्त्र आदि पर ग्रंथ लिखे तथा अन्य लोगों को गध-ग्रंथो के लिखने के लिये उत्साहित किया और कुछ सग्रह आप भी तैयार किए। अपने रचित ग्रंथों के विषय में मैं ययात्यान विस्तार से लिखूॅगा।
तीसरी कठिनाई अध्यापकों की अल्प संख्या थी। इसके लिये कोई उद्योग सफल होता नहीं दिखाई देता था। संयोग से ओरियंटल विभाग में हिंदी-निबंध की शिक्षा देने का निश्चय हुआ। इसके लिये पडित अयोध्यासिह उपाध्याय चुने गए। उन्हें एक दिन युनिवर्सिटी मे देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने उनसे आग्रह किया कि हमारे विमाग में भी वे कुछ कार्य-भार लें। इसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। उपाध्याय जी हिंदी के उत्कृष्ट कषि और सुलेखक हैं। उन्होंने हिंदी-साहित्य को अनेक रत्नों से विभूषित किया है। मुझे उनसे बड़ी आशा थी कि एक योग्य व्यक्ति के मिल जाने से हमारा काम भली भाँति चल सकेगा। पर मुझे उनके अध्यापन-कार्य से असंतोष ही रहा। वे यह नहीं समझ सकते थे कि स्कूल की पढ़ाई और कालेज की पढ़ाई में क्या अंतर है और उसे कैसे निबाहना चाहिए। कई उलट-फेर किए गए पर कहीं भी सफलता न मिली। निबंध पढ़ाने को दिया गया हो पुस्तक पढ़ाने की अपेक्षा हिंदू-संगठन और हिंदुओं के हास पर उनके व्याख्यान होने लगे। अंत में हारकर उन्हें उन्हीं के [ २१३ ]रचित ग्रंथ पढ़ाने को दिए गए पर उस काम को भी वे पूरा न कर सके। साल भर में चौथाई पुस्तक भी न पढ़ा सके। मेरी ही भूल थी कि मै यह समझता था कि एक विद्वान् लेखक अच्छा अध्यापक भी हो सकता है। मालवीय जी को उचित था कि वे स्वयं आकर देखते, कि पढ़ाई कैसी होती है तो उनकी आँखें खुल जातीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अस्तु किसी प्रकार काम चलता रहा। जब लड़कियों के लिये अलग कालेज बना तब वे वहाँ हिंदी पढ़ाने के लिये भेजे गए पर मेरे समय तक सप्ताह में दो घंटे की पढ़ाई उनकी आर्ट्स कालेज मे चलती रही।
कई वर्षों के अनुभव के अनंतर हम लोगों ने हिदी के पाठ्यक्रम मे परिवर्तन करने की आवश्यकता समझी। यथासमय प्रस्ताव किए गए और वे स्वीकृत हुए। इसमे मुख्य परिवर्तन यह था कि एम० ए० के विद्यार्थी को किसी आकर भाषा (संस्कृत, पाली, प्राकृत या अपभ्रंश) या किसी दूसरी देशी भाषा (बँगला, मराठी, गुजराती,उर्दू) में भी एक प्रश्नपत्र का उत्तर देना पड़ता था। आकर भाषा के पढ़ाने का हमारे विभाग में प्रबंध न था। इसलिये मैंने एक नये व्यक्ति की नियुक्ति का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और मैने पंडित केशवप्रसाद मिश्र के नियुक्त किए जाने की सिफारिश की। पंडित केशवप्रसाद मिश्र हिदू स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। मै इनकी योग्यता पर मुग्ध था। अतएव मैंने इन्हे लेने का भरसक उद्योग किया। अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर अंत मे केशव जी की नियुक्ति हो गई। केशव जी बड़े सजन और सरल चित्त के व्यक्ति हैं, पूरे[ २१४ ]पूरे विद्याव्यसनी हैं, पर इनकी रूचि जितनी पढ़ने में है उतनी लिखने में नहीं। एक इन्हीं के आगे मुझे हार माननी पड़ी है। अनेक बेर इन्हे कुछ लिखने के लिये मैंने उत्साहित किया और कभी-कमी आग्रह भी किया, पर मेरे सब प्रयन्न निष्फल गए। कदाचित् इनमें आत्मविश्वास की कमी है। ये सदा सोचते हैं कि और पढ लें और जान प्राप्त कर ले तब लिखें। इसी कारण केवल मेघदूत के अनुवाद और कुछ लेखों के अतिरिक्त वे कोई साहित्यिक रचना न कर सके। इनमें एक बड़ी त्रुटि है। ये इतने सरल हैं कि कोई भी होशियार आदमी इन्हें धोखा दे सकता है। मनुष्यो की परख इन्हें प्राय बिलकुल नहीं है। यदि साक्षात् प्रमाणो के मिल जाने पर भी ये किसी को निकृष्ट समझ लेते हैं तो भी सहृदयता और सज्जनता के मारे उसमे संबंध नहीं तोडते, वरन् कभी-कभी वो उसके विपरीत भाव का मन से विरोध करते हुए भी साधारणत, उसका साथ देते हैं। उनका यह सिद्धांत जान पड़ता है कि जिसका एक बेर हाथ पकड़ लिया उसे, अनेक दोष रहने पर भी, छोड़ना मनुष्यता नहीं है। पढाने-लिखाने में तो वे पटु हैं पर और कामों में कुछ ढीले-ढाले से हैं। इनके कारण मुझे दो-एक ऐसे व्यक्तियों से काम पड़ गया जिन्होंने मुझे बहुत दु:ख दिया पर यह उनका नहीं उनके मनुष्य को न समम सक्ने का दोष है।
लाला भगवानदीन के स्वर्गवासी होने पर किसी को नियुक्त करने का प्रश्न उपस्थित हुआ। मैने डाक्टर पीताँवरदत्त बड़ध्वाल के नियुक्त होने का प्रस्ताव किया पर इसका विरोध एक दूसरे प्रभावशाली [ २१५ ]अधिकारी ने किया इस बेर इजीनियरिंग कालेज के प्रिसपल मिस्टर किंग ने सहायता की और बड़थ्वाल की नियुक्ति हुई। पीछे एक और व्यक्ति के बढ़ाने का आयोजन हुआ। दो विद्यार्थियों में से चुनाव होनेवाला था―एक थे नंददुलारे वाजपेयी और दूसरे थे जगन्नाथप्रसाद शर्मा। मैं वाजपेयी जी को हृदय से चाहता था पर मालवीय जी ने यह कहकर जगन्नाथप्रसाद को नियुक्त किया कि वह देश के लिये जेल हो आया है।
आगे चलकर वेतन का प्रश्न उठा। सब अध्यापको को बहुत कम वेतन मिलता था। किसी को १००) मासिक से अधिक नहीं मिलता था। केवल मुझे २५०) मिलते थे। इस अन्याय को हटाने के लिये बहुत दिनो तक प्रयत्न करना पड़ा, तब कहीं जाकर वेतन बढ़ा। सहायक अध्यापको का वेतन १००)-१०)-१५०) हुआ। मेरे साथ वो विशेष कृपा हुई। जब इस वेतन के प्रश्न ने उत्कट प्रयत्न का रूप धारण किया तब मेरा ग्रेड १५०)-१०-३००) हुआ। युनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर को यह वेतन नहीं मिलता है। केवल असिस्टेंट प्रोफेसरो का यह ग्रेड है। मै प्रोफेसर था और मेरे भली भाँति कार्य चलाने का उपहार यह मिला कि पद प्रोफेसर का रखकर प्रेष्ठ असिस्टेंट प्रोफेसर का दिया गया। मैंने इसे स्वीकार नहीं किया। अंत में जाकर ४००) वेतन मुझे दिया जाने लगा और इसके लिये मैं ध्रुव जी का अनुगृहीत हूँ कि उन्होने बडे जोरो से मेरे पक्ष का समर्थन किया था। मुझे यह सब अनुभव करके कमी-कमी यह संदेह हो जाता था मालवीय जी में हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम है या नहीं। जहाँ [ २१६ ]कहीं विद्यालय के विषय में वे व्याख्यान देते वहाँ हिंदी और संस्कृत- विभागो की जी खोलकर प्रशंसा करते पर स्वयं हिंदी-विभाग के प्रति उपेक्षा का भाव रखते। उनके एक अतरंग पारिपाश्विंक ने एक बेर मुझे सलाह दी कि समाचारपत्रों में मैं इसका आंदोलन करूँ। मैं इनकी चाल समझ गया। मैने उत्तर दिया कि जब समय आवेगा तब देखा जायगा। मैं अब तक मालवीय जी के इस उपेक्षाभाव को नही समझ सका हूँ। कदाचित् ‘अतिपरिचयादवज्ञा’ ही इसका कारण हो।
जब तक मैं विद्यालय में काम करता रहा, मुझे निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। दो-एक घटनाओं का मैं उल्लेख करता हूॅ।
एक समय पंडित रामचंद्र शुक्ल ने अलवर में नौकरी करने के लिये एक वर्ष की छुट्टी ली। उनके स्थान पर किसी की नियुक्ति आवश्यक थी। मैंने कहा कि एक वर्ष के लिये किसी को चुन लीजिए। मुझे आदेश मिला कि तुम अपने किसी अच्छे विद्यार्थी से काम लो। मालवीय जी के आने पर उसकी नियुक्ति हो जायगी। इस पर मैने सत्यजीवन बर्म्मा को कार्य का भार दिया। कुछ महीनों तक उसने काम भी किया, पर मालवीय जी ने आकर यह निश्चय किया कि नहीं, कोई नई नियुक्ति न होगी। विभाग के लोग आपस मे काम बाँट लें। बेचारे सत्यजीवन को अलग होना पड़ा।
एक बेर मैंने यह सोचा कि एम० ए० के विद्याथियो को भाषाविज्ञान पढ़ाने के लिये एक ऐसा नकशा बनवाया जाय जिसमे [ २१७ ]भिन्न-भिन्न भारतीय देश-भाषाओं की भौगोलिक सीमाएँ भिन्न-भिन्न रंगों में दिखलाई जाये। नक्शा तो मैने उस धन में से मँगवा लिया जो मुझे पुस्तके खरीदने के लिये स्वीकृत था, पर रँगवाने के लिये मैंने १५) माँगे। वे मुझे न मिले।
युनिवर्सिंटी के मित्रों ने मेरे सबसे अधिक प्रिय, अंतरंग और विश्वासपात्र पंडित इंद्रदेव तिवाड़ी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वे मेरी कठिनाइयों को सुलझाने में सदा सहायता देते थे। ऐसे मित्रो का मिलना कठिन है। मेरे सौभाग्य से मेरे जीवन में एक यही ऐसे मित्र मिले थे जो सब प्रवस्थाओं में अपने धर्म का पूर्णतया पालन करने थे। लू लग जाने से इनका देहांत हो गया। इनकी स्मृति अभी तक मुझे कभी-कभी विद्गल कर देती है। जब ये रजिस्ट्रार हुए तो उसी दिन रात को आकर मुझे सूचना दी और अपने सपक्ष तथा विपक्षों की बातें सुनाई। वे अपनी गुप्त से गुप्त बात मुझसे कह देते थे। इनकी रजिस्ट्रारी में मैं तीन बेर युनिवर्सिटी-परीक्षाओं का परिणाम तैयार (Tabulator) करने के लिये नियुक्त हुआ। एक बेर मैंने सिंडिकेट में यह बात कही कि इसके लिये जो पुरस्कार मिलता है वह बहुत थोडा है। इस पर कहा गया कि आदमी दूने कर दो। वैसा ही हुआ और २००J वार्षिक का खर्च बढ गया। कैसी विचित्र बात है कि उसी काम के लिये पहले धन की कमी थी, पर तुरत ही उसी काम के लिये दो और व्यक्तियों का पुरस्कार देने को धन मिल गया। उस वर्ष की बात स्मरण आती है जिस वर्ष पीताँवरदत्त को डाक्टर की उपाधि मिलनेवाली थी। इस अवसर पर कई महानुभावो [ २१८ ]को आनरेरी द्दिथी देने का उपक्रम किया गया था। युनिवर्सिटी का यह नियम है कि किसी विभाग का कोई विद्यार्थी जो उपाधि पाने के योन्य समझा जाय उसे कानवोकेशन में उपस्थित करने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जो उस विभाग का अध्यन तथा सेनेट का सदस्य होगा। इस नियम के अनुसार मुझे पीतांवरदत्त को उपस्थित करने का अधिकार था, पर उस वर्ष में आचार्य ध्रुव जी के लिये उपस्थित करने को कोई विद्यार्थी न था। अतएव वाइसचैंसलर महोदय ने निश्चय किया कि पीतांबरदत्त को ध्रुव जी ही उपस्थित करे। यह बात मुझे बहुत बुरी लगी पर मैं चुप रह गया। एक समय मैने सेनेट में कुछ प्रस्ताव फैकल्टी के नियमों में संशोधन करने के लिये किए। इन नियमों का संबंध कोट से भी था। अतएव मैंने सूचना दी कि मैं इन प्रस्तावों को कोर्ट में भी उपस्थित करूँगा। मैं उस समय कोर्ट का भी सदस्य था। असिस्टेंट सेक्रेटरी साहब ने जो बहुत दिनों तक संयुक्त-प्रदेश की दीवानी कचहरी के एक उच्च पद पर रह चुके थे, फतवा निकाला कि मेरी अवधि अब पूरी होनी चाहती थी अतएव मैं कोई प्रस्ताव नहीं उपस्थित कर सकता। मैंने पूछा कि आपको यह कैसे ज्ञात हुआ कि मैं फिर कोर्ट का सदस्य न चुना जाऊँगा। इसका कोई उत्तर न था, पर एक बेर जो जज साहब का फैसला हो गया तो उसकी अपील कहाँ हो सकती थी? जब सेनेट में मैंने प्रस्ताव उपस्थित किया तब मालवीय जी ने कहा कि इसका संबंध कोर्ट से भी है, अतएव यह वहाँ भी उपस्थित होना चाहिए। मैंने जज साहब के फैसले की बात कह सुनाई तब उन्होंने [ २१९ ]कहा कि यह उनकी गलती थी। परिणाम यह हुआ कि काम एक वर्ष के लिये रुक गया। इस प्रकार की धाँधली प्राय युनिवर्सिटी मे हुआ करती थी।
युनिवर्सिटी में काम करते हुए मुझे अनेक प्रकार के विद्यार्थियों से काम पडा। कुछ विद्यार्थी तो बड़े सात्त्विक स्वभाव के अत्यंत श्रद्धालु तथा विद्याव्यसनी थे। इनमे मुख्यत चार नाम मेरे सामने आते हैं-एक पीतांवरदत्त बड़थ्वाल दूसरे नन्ददुलारे वाजपेयी, तीसरे हरिहरनाथ टडन और चौथे श्रीधरसिंह। इन चारो के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। वे अब तक मुझे उसी दृष्टि से देखते हैं जिस दृष्टि से वे अपने पठनकाल मे देखते थे। इन चारो की मेरे प्रति अत्यंत श्रद्धा और भक्ति है। इनमें से दो ने मेरे सहयोग में कई काम किए हैं, जिनका उल्लेख यथास्थान किया जायगा। मैं इसना और कह देना चाहता हूँ कि इनके प्रति मेरे भाव भी अत्यंत स्नेहमय हैं और मैं यथाशक्ति इनकी सहायता करने से कमी पराङ्मुख भी नहीं हुआ।
अधिकांश विद्यार्थी मुझे ऐसे मिले हैं जो अपने स्वार्थसाधन में कोई बात उठा नहीं रखते थे। इनमें से किसी-किसी को वो मैंने महीनों २०) मासिक अपने पास से दिया और अपने मित्रों से दिलाया, पर इनमे से ऐसे नरपिशाचो से भी मुझे काम पड़ा है जो अपने स्वार्थसाधन करने में मेरा अनिष्ट करने से भी नहीं हिचके। हिंदू-विश्वविद्यालय में ही ऐसे विद्यार्थी हो ऐसी बात नहीं है। मुझे कई बेर मौखिक परीक्षा लेने के लिये आगरा जाना पड़ा है। वहाँ [ २२० ]परीक्षा के बाद प्रायः विद्यार्थी मुझसे मिलने आते। कोई कहता मैं तो गा या कविता कर सकता हूँ, और कुछ नहीं जानता। ऐसे विद्यार्थियो से भी मुझे काम पडा है जो ऊपर से तो मुझ पर बड़ी श्रद्धाभक्ति दिखाते पर भीतर से उनका उद्देश्य स्वार्थसाधन-मात्र रहता। एक विद्यार्थी का मुझे स्मरण पाता है जो मौखिक परीक्षा देकर बाहर ठहरा रहा। मेरे कार्य समाप्त होने पर डेरे पर चलने के समय वह मेरे साथ हो लिया और कहने लगा कि मुझे आपसे कुछ निवेदन करना है, आज्ञा हो तो कहूँ। उसने कहा कि मैं आपका जीवनचरित लिखना चाहता हूँ। यदि आप सहायता करें तो छुट्टियो मे आपके पास काशी आऊँ। मैंने उससे कहा कि मेरे पास जीवनचरित की कोई सामग्री नहीं है जो मैं तुम्हें दिखा या बता सकूँ। मैंने उसकी और परीक्षा करनी चाही। कई वर्षों बाद वह मुझसे काशी में मिला और मेरी जीवनी के नोट्स माँगने लगा। मैंने उसे नोट्स दे दिए। कुछ दिनो के पीछे उसने उन्हें लौटा दिया, पर आज तक वह जीवनी देखने मे न आई। वास्तव में बात यह थी कि वह मेरी जीवनी नहीं लिखना चाहता था, उद्देश्य केवल यही था कि मैं अन्य कामो मे उसकी सहायता करता रहूँ। यह मैंने किया भी। पर उसके कथनानुसार अस्ताचल में गए हुए सूर्य की कोई पूजा नहीं करता। अतएव अब मुझसे किसी कार्य के निकलने की आशा उसने छोड दी और उसके दर्शन भी दुर्लभ हो गए। एक और विद्यार्थी की करनी मुझे स्मरण आ रही है। वह हिंदी और अँगरेजी मे एम० ए० पास तथा मेरे एक अत्यंत प्राचीन मित्र के आश्रय में उनके यहाँ रहता था। जय [ २२१ ]जगन्नाथप्रसाद शम्मी की नियुक्ति का प्रश्न उठा हुआ था तब उसने भी उसके लिये उद्योग किया। उसके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि यदि वह मेरा विरोध करे और जगह-जगह मेरी निंदा करता फिरे तो मेरे विरोध करने पर भी उसकी नियुक्ति हो जायगी। यह भावना उसके मन में कैसे उत्पन्न हुई अथवा किसके उपदेश से उसने इस मार्ग का अवलंबन किया यह मुझे आज तक ज्ञात नहीं हुआ। मेरे मित्र ने कई बेर मुझसे कहा कि मैंने उसे बहुत डाँटा। पर उनकी डाँट-फटकार का कोई परिणाम न देख पड़ा। मेर इन मित्र की यशालिप्सा इतनी बढ़ी हुई है और इसके लिये वे इसना चिंतित रहते हैं कि किसी प्रकार से भी अपनी यशरूपी चादर पर कलंक का एक छींटा भी नहीं लगने देना चाहते। यदि उन्हे कभी कोई आशंका भी हो जाती है तो साम, दाम, दंड, भेद में से जिस नीति को उपयुक्त समझते उसका अनुसरण कर वे अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं। उन्हें कदाचित् यह आशका थी कि यदि मैं उसको अपने आश्रय से निकाल देता हूँ तो कहीं वह विद्यार्थी मेरे ही पीछे न पड़ जाय और तब स्थिति सँभालना कठिन हो जायगा।
पंडित रामनारायण मिश्र मेरे बहुत पुराने मित्रो मे हैं। अनेक अवसरों पर उन्होंने मेरी बड़ी सहायता की है। मैंने भी यथासाध्य उनका हाथ बटाने का उद्योग किया है। सन् १९०५ में जब काशी मे सोशल कान्फरेंस हुई थी तब उन्होंने मुझे शिखडी-रूप में आगे खड़ा करके उस कान्फरेंस का काम चलाया था। गालियाँ [ २२२ ]मैंने खाई थीं और सब कार्य-संचालन परोनरूप से पंडित जी करते थे। मुझे इस बात का आंतरिक खेद है कि एक बेर मैंने अपने पुत्र के संबंध में उनसे भिक्षा माँगी थी। वे नही तो न कर सके, पर एक अन्य व्यक्ति की आड़ में उन्होंने उस प्रस्ताव का विरोध कराया, यद्यपि वहाँ विरोध की आवश्यकता ही न थी। वहाँ पर वे चाहते तो भी मुझे मिक्षा देने में असमर्थ थे। इस स्थिति का उनको पता न था, नही तो एक बडे पुराने मित्र की उपेक्षा करने के दोष से यो ही बच जाते।
अपने जिन शिष्यो से मेरी अधिक घनिष्ठता भी उनमे हरिहर नाथ टंडन, श्रीधरसिंह, सत्यजीवन वर्म्मा ग्मापति शुक्ल रमेशदत्त पाठक कृष्णशंकर शुक्ल, वलराम उपाध्याय, पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव आदि भी थे। उनकी भक्ति और श्रद्वा पूर्ववत् बनी हुई है। उनसे मेरा परम स्नेह है और वे भूलकर भी आक्षेपयोय आचरण नहीं करते।
युनिवर्सिटी की सेवा करते मुझे कई अर्थो की रचना करनी पड़ी है जिनका वर्णन इस प्रकार है―
(१) साहित्यालोचन―यह ग्रंथ हिंदू-विश्वविद्यालय के एम० ए० क्लास के विद्याथियों को पढ़ाने के लिये लिखा गया। एम० ए० क्लास के पाठ्यक्रम में तीन विषय ऐसे रखे गये थे जिनके लिये उपयुक्त पुस्तकें नहीं थीं। ये विषय थे―भारतवर्ष का भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास वथा साहित्यिक आलोचना। इन तीनों विषयों के लिये अनेक पुस्तकों के नामो का निर्देश कर दिया [ २२३ ]गया था, परंतु आधार-स्वरूप कोई मुख्य ग्रंथ न बताया जा सका। सबसे पहले मैंने साहित्यिक आलोचना का विषय चुना और उसके लिये जिन पुस्तको का निर्देश किया गया था, उन्हे देखना आरंभ किया। मुझे शीघ्र ही अनुभव हो गया कि इस विषय का भली भाँति अध्ययन करने के लिये यह आवश्यक है कि विद्यार्थियो को पहले आलोचना के तत्वो का आरंभिक ज्ञान करा दिया जाय। इसके लिये मैंने सामग्री एकत्र करना आरभ किया। इधर मैं लिखता जाता था और उधर उसको पढ़ाता जाता था। इससे लाभ यह था कि मुझे साथ ही साथ इस बात का अनुभव होता जाता था कि विद्यार्थियों को विषय के हृदयंगम करने में कहाँ कठिनता होती है और कहाँ अधिक विस्तार या सकोच की अपेक्षा है। इस अनुभव के अनुसार मैं लिखे हुए अंश को सुधारने में भी समर्थ होता था। इस प्रकार यह ग्रंथ क्रमश प्रस्तुत हो गया। आरभ मे मैं नित्य लिखी हुई कापी पंडित रामचंद्र शुक्ल को देता जाता था कि वे उसे पढ़कर उसके सुधार के लिये आवश्यक परामर्श दें। एक दिन ऐसी घटना हुई कि लिखी हुई समस्त प्रति मुझे न मिली। बीच के कुछ पन्ने गायब थे। मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को शुक्ल जी के यहाँ इसलिये भेजा कि जाकर देखो वे पन्ने कहीं छूट तो नहीं गए। बहुत खोजने पर कुछ पन्ने तथा कुछ फटे हुए टुकड़े उस चौकी के नीचे से निकले जिस पर बैठकर शुक्ल जी लिखते थे। इस अंश के पूरा करने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई। मैंने आगे से उनके पास लिखित पन्ने न भेजे। जब चार अध्याय समाप्त हो गए तब मैंने उन्हे पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के पास [ २२४ ]परामर्श लिये भेजा। उन्होंने उन्हें देखकर लौटा दिया। उनके परामर्शो से मैंने पूरा लाभ उठाया और उनकी इस कृपा के लिये मैं कृतज्ञ हुआ।
विद्यार्थियों का आग्रह था कि यह ग्रंध शीघ्र छपवा दिया जाय। एक दिन बाबू रामचंद्र वर्म्मा ने इस ग्रंथ के लिये हुए अंश को देखा और उसे अपनी ओर से प्रकाशित करने का आग्रह किया। मैंने इस आग्रह को मान लिया और लिखी हुई प्रति उन्हें छापने के लिये दे दी। आगे चलकर इस ग्रंथ को पूरा करने में भी उन्होंने पूरा सहयोग किया। यह ग्रंथ संवन् १९७९ में प्रकाशित हुआ और इसका अच्छा प्रचार भी हुआ। संवत् १९८४ में इसकी दूसरी आवृत्ति छपी। सन् १९२९ में इस ग्रंथ के संबंध में बाबू रामचंद्र वर्म्मा से मेरा मत न मिला। जो शर्तें मैं लगाना चाहता था उनके मानने में उन्होंने आगा-पीछा किया और निश्चित शर्तों का पालन भी बहुत न किया।
पहले मेरा विचार था कि “आलोचना-रहस्य” नामक एक नवीन ग्रंथ लिखूँ, पर मुझे अपना विचार बदलना पड़ा और सन् १९३७ में साहित्यालोचन का नवीन परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण इडियन प्रेस-द्वारा प्रकाशित हुआ। इसकी बहुत कुछ सामग्री आलोचना रहस्य के लिखने के समय से ही संगृहीत कर ली गई थी।
(२) भाषाविज्ञान―इसकी रचना तथा प्रकाशन उन्ही परिस्थितियों में हुआ जिनमें साहित्यालोचन का। मेरा विचार था कि इस ग्रंथ को ज्यों का त्यो रहने दिया जाय और एक नवीन ग्रंथ “भाषारहस्य" के नाम से निकले। इसी उद्देश्य से भाषारहत्य का पहला भाग [ २२५ ]पंडित पद्मनारायण आचार्य के सहयोग और सहकारिता मे सन् १९३५ मे इंडियन प्रेस-द्वारा प्रकाशित हुआ। पर फिर यह विचार बदलना पड़ा और सन् १९३८ में “भाषाविज्ञान” का परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ।
इस संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। भाषा-विज्ञान के उस अंश का अँगरेजी अनुवाद, जहाँ खड़ी बोली का विकास दिया गया है, डाक्टर ग्रियर्सन की प्रेरणा से Bulletin of the School of Oriental Studies मे छपा। यह पहला ही अवसर था जब आधुनिक काल की किसी हिंदी-रचना का अंशानुवाद भी अँगरेजी के एक प्रतिष्ठित पत्र मे छपे।
(३) हिंदी-भाषा का विकास―यह भाषाविज्ञान के पहले संस्करण के अतिम अध्याय का अलग पुस्तकाकार रूप था।
(४) गद्यकुसुमावली (सन् १९२५)―इस पुस्तक में मेरे चुने हुए लेखो का संग्रह-मात्र है। इसकी प्रस्तावना रायबहादुर डाक्टर हीरालाल की लिखी है। उसमें ये वाक्य मेरे संबंध मे लिखे हैं।
“व्यक्तित्व भी कोई वस्तु है, जिसकी मोहर लगने से साख चलने लगती है। हिंदी-साहित्य क्षेत्र मे बाबू श्यामसुंदरदास की छाप लगने से प्रामाणिकता का आभास आपसे आप उपस्थित हो जाता है।”
(५) भारतेंदु हरिचन्द्र (सन् १९२७)―भारतेंदु जी के ग्रंथों के अन्त साक्ष्य पर उनकी जीवन-संबंधी घटनाओं का विवेचन इस ग्रंथ मे किया गया है। पहले यह भारतेंदुनाटकावली की प्रस्तावना के रूप मे छपा। पीछे इसके कई संशोधित संस्करण निकले।
फा १५ [ २२६ ](दिनापा भीर माहिल्य-गागा मंYA FAN नरोन Ham में प्राका हुमागम प्रथम ममगन far डिसी में या मुंगामा। म मुंदना नाममा मामा माउन्टे गिनि प्रान निशानियों व शानिमा मुगीतमा (७) परहस्य - मन में मैन भामांप नापार पर एक श्रग लेबनानगंगारिणी पनिामे पाया माइनरोगी सामग्री भी एम toमरे रिपाधि विमान सेम: थी। पर पूरा नगन लिया जामरा। अत में पानीपग्दा यावाद ने या प्रस्ताव दिया कि मित्र माममा में जन्मेंदू और पना परामर्श देतामो बम विपर को पुनारूप में प्रस्तुत पर मा ही हुआ और मन् १९३१ ने या प्रशाशन हुआ। इसके स्थल मे मुझे बहुत पठिनाई पड़ी थी। प्रामन रोया गडे में मैं ऐसा उलझ गया कि उनसे निपटग पनि गया। कई संस्कृतन पंडितों से मैने परामर्श दिया. पर फोमो मेरा सतापनस समा। कई दिनों चक्र माथा-पनी करता रहा, वर जार में निर्णय पर पहुँचा. जिसमा उल्लेस पुस्तक में इस प्रकार दिया गया.
दशरूपक में भारती सृत्ति का यह लक्षण लिया है[ २२७ ]भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नटाश्रयः।
भेदः प्ररोचना युक्तैर्वीथीप्रहसनामुखै.॥
श्रयान् भारती वृत्ति वह है जिसमे वाग्व्यापार या बातचीत संस्कृत मे हो,जो नट के आश्रित हो तथा जिसके प्ररोचना के अतिरिक्त वीथी, प्रहसन और आमुख भेद रहते हैं।
साहित्यदर्पण में इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है―
भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नराश्रय.।
तस्या परोचना वीथी तथा प्रहसनामुखे,
अंगान्यत्रोन्मुखीकारः प्रशंमातः प्ररोचना॥
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में भारती वृत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है―
या वाक्प्रधाना पुरुषप्रयोल्या,
स्रोवर्जिता संस्कृतवान्ययुक्ता।
स्वनामधेयै: भरतैः प्रयुक्ता
सा भारती नाम भवेत्तु वृत्तिः॥
इन तीनों लक्षणों के मिलाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारती वृत्ति उस रूपक-रचना-शैली या भाषा-प्रयोग की विशेषता का नाम है जिसे भरत अर्थात् नट लोग प्रयोग मे लाते हैं,नटियाँ नही,और जिसमे संस्कृत भाषा के वाक्यों की अधिकता रहती है। धनंजय और साहित्य-दर्पणकार विश्वनाथ की परिभाषा तो प्राय मिलती-जुलती है,केवल धनंजय का ‘नटाश्रय’ विश्वनाथ मे आकर ‘नराश्रय’ हो गया है। इसके कारण का भी अनुमान किया जा सकता है। ऐसा [ २२८ ]प्रतीत होता है कि आरभ में नट लोग सभासदों दो प्रसन्न करने तथा उनके मन को मुग्ध करके नाटक की ओर आकृष्ट करने के लिये मुख्य वस्तु के पूर्व ही इसका प्रयोग करते थे। पीछे से नाटक के और और अशो में भी इसके प्रयोग का विधान होने लगा जिसमे ‘नटाश्रय’, के स्थान पर ‘नराश्रय', हो गया। भारती वृत्ति के चार अंगों में से प्ररोचना और आमुख का सबंध स्पष्ट पूर्वरंग से है। प्ररोचना प्रस्तुत विषय की प्रशमा के लोगों की उत्कंठा बढाने के कृत्य को रहते हैं। पर भारती वृत्ति के सबंध में वीधी और प्रहसन की व्याख्या आचार्यों ने सष्ट रूप से नहीं की है। हाँ, वीधी के तेरह अंग अवश्य बताएँ हैं जिनका सबंध उतना पूर्वरंग में नहीं जितना कि स्वयं रूपक के कथानक से है। प्रहसन और वीथी रूपक के भेदो मे भी आए हैं। प्रहसन में एक ही अंक होता है जिसमे हास्यरस प्रधान रहता है। वीथी में भी एक ही अक होता है, पर प्रधानता श्रृंगाररस की होती है। दोनो का इतिवृत्त कवि-कल्पित होता है। अनुमान से ऐसा जान पड़ता है कि आरंभ में प्रहसन और वीथी भी प्रस्तावना के अंगमात्र थे। हँसी या मसखरेपन की बातें कहकर अथवा उनके विशेष प्रयोग से युक्त किसी छोटे से कथानक को लेकर तथा श्रृंगाररस-युक्त और विचित्र उक्ति-प्रत्युक्ति से पूर्ण किसी कल्पित पात्र को लेकर दर्शकों का चित्त प्रसन्न किया जाता था। ऐसा जान पड़ता है कि प्रस्तावना के समय अनेक उपायों से सामाजिकों के चित्त को प्रसन्न करके नाटक दखने की ओर उनकी रुचि को उम्मुख और उत्कंठित करना नटों का विशेष कर्त्तव्य समझा [ २२९ ]जाता था। पीछे से प्रहसन और वीथी ने स्वतंत्र रूप धारण कर लिया और वे रूपक के भेद-विशेष माने जाने लगे। अथवा यह भी हो सकता है कि आमुख और प्ररोचना तो नाटक के प्रति आकृष्ट करने के लिये और वीथी तथा प्रहसन मध्य या अंत में सामाजिकों की रुचि को सजीव बनाए रखने के लिये प्रयोग मे आते रहे हों। आजकल भी किसी अन्य रस के नाटक के आरंभ, मध्य अथवा अंत में दर्शकों के मनोविनोद के लिये फार्स (जिसके लिये प्रहसन उपयुक्त शब्द है) खेला जाता है। पर धनंजय का यह कथन कि वीथ्यंगो के द्वारा सूत्रधार अर्थ और पात्र का प्रस्ताव करके प्रस्तावना के अंत में चला जाय और तब वस्तु का प्रपंचन आरंभ करे, इस अनुमान के विरुद्ध पड़ता है। इससे तो यही ज्ञात होता है कि संपूर्ण भारतीय वृत्ति का प्रयोग वस्तुमप्रपंचन के पूर्व ही होता था। फिर भी वीथी और प्रहसन को अन्य रूपको के अंश एवं स्वतंत्र रूपक दोनो मानने में कोई आपत्ति नहीं देख पड़ती।
एक मित्र ने इस पुस्तक को समालोचना अपने एक मित्र से करते हुए कहा था कि यह कृति इतनी निकृष्ट नहीं है। इन शब्दो को मैंने अपने कानों से सुना था, पर उन वेचारे को यह पता न था कि उनके पीछे मैं आड़ में खड़ा किसी से बात कर रहा हूँ। अस्तु, उन्होंने इस पुस्तक को औरो की अपेक्षा अच्छा माना यही बड़ी बात है।
इन्ही दिनो नीचे लिखी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई―
(१) हस्तलिखित हिंदी पुस्तको का संक्षिप्त विवरण (ना० प्र० सभा १९२३) [ २३० ](२) अशोक की धर्मलिपियाँ―पहला खड (ना० प्र० सभा १९२३)। यह पुस्तक पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा और पंडित द्रधर गुलेरी के साथ में तैयार हुई थी। पादु लिपि मैंने तैयार की थी, उसका सशोधन तथा टिप्पणियाँ इन दोनो महाशयो की लखी हैं।
(३) रानी केतकी की कहानी (ना० प्र० सभा १९२५)
(४) भारतेंदुनाटकावली (इडियन प्रेस १९२७)
(५) कबीरग्रंथावली (ना० प्र० सभा १९२८)
(६) राधाकृष्णग्रंथावली भाग १ (इडियन प्रेस १९३०)। इसका दूसरा भाग अब गगापुस्तकमाला मे छप रहा है।
(७) सतसई-सप्तक (हिंदुस्तानी अकाडमी १९३१)
(८) गोस्वामी तुलसीदास (हिंदुस्तानी अकाडमी १९३१)
(९) बालशब्दसागर (इंडियन प्रेस १९३५)
(१०) हिदीनिबंधमाला भाग १ और २ (ना० प्र० सभा १९२२)। इसकी कई आवृत्तियाँ छप चुकी हैं और लेखो मे उलट-फेर भी हुआ है।
(११) संक्षिप्त पद्मावत (इडियन प्रेस १९२७)
इन पुस्तको के अतिरिक स्कूलोपयोगी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनके नाम ये हैं―
(१) नई हिंदी रोडर भाग ६ और ७ (मैकमिलन कंपनी १९२३),
(२) हिदीसग्रह भाग १ और २ (इडियन प्रेस १९२५),
(३) हिंदीकुसुमसंग्रह भाग १ और २ (इंडियन प्रेस १९२५), [ २३१ ](४) हिंदी कुसुमावली भाग १ और २ (इंडियन प्रेस १९२७),
(५) Hindi Prose Selections (इंडियन प्रेस १९२७),
(६) साहित्यसुमन ४भाग (इंडियन प्रेस १९२८),
(७) गद्यरबावली (इंडियन प्रेस १९३१),
(८) साहित्यप्रदीप (इंडियन प्रेस १९३२)
इस काल में मेरे ये लेख भी छपे―
(१) रामावतसंप्रदाय (ना० प्र० पत्रिका १९२४)
(२) आधुनिक हिंदी के आदि आचार्य (ना० प्र० पत्रिका १९२६)
(३) भारतीय नाट्यशास्त्र (ना० प्र० पत्रिका १९२६)
(४) गोस्वामी तुलसीदास (ना० प्र० पत्रिका १९२७, १९२८)
(५) हिंदीसाहित्य का वीरगाथाकाल (ना०प्र० पत्रिका १९२९)
(६) बालकांड का नया जन्म (आलोचना) (ना० प्र० पत्रिका १९३२)
(७) चंद्रगुप्त (आलोचना) (ना० प्र० पत्रिका १९३२)
(८) देवनागरी और हिंदुस्तानी (ना० प्र० पत्रिका १९३७)