मेरी आत्मकहानी/१ वंश-परिचय और शिक्षा
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वंश-परिचय और शिक्षा
बहुत दिनों से मेरी यह इच्छा थी कि मैं अपनी कहानी स्वयं लिख
हालता तो अच्छा होता, क्योकि मेरे जीवन से संबंध रखनेवाली मुख्य मुख्य घटनाओं का जान लेना तो किसी के लिये भी कठिन न होगा, पर हिंदी और विशेषकर काशी-नागरी-प्रचारिणी समा से संबंध रखनेवाली अनेक घटनाओं का विवरण जिनका उस समय प्रकाशित होना असंभव-सा था परतु जिनका ज्ञान वना रहना परम आवश्यक है, मेरे ही साथ लत हो जायगा और ज्यो ज्यो समय बीतता जायगा मैं भी उन्हें कुछ कुछ भूलता जाऊँगा। इसलिये मेरी यह इच्छा है कि इस समय इन घटनाओं का वृत्तांत तथा अपना भी कुछ कुछ लिख डालूँ, जिससे समय पड़ने पर मैं इन बातो से काम ले सकूँ और मेरे पीछे दूसरे लोग उन, घटनाओं की वास्तविकता जानकर इस समय के ऐतिहासिक तथ्य का यथार्थ निर्णय कर सकें। यद्यपि बहुत दिनों से मेरी इच्छा यह सब लिख डालने की थी और एक प्रकार से सितंबर सन् १९१३ ई० में मैंने लिखना आरम्म भी कर दिया था, पर यह कार्य आगे न बढ़ सका। इसके कई कारण थे। एक तो कार्यों की व्यग्रता, दूसरे समय का अभाव, तीसरे गृहस्थी की चिंता
और सबसे बढकर ग्रंथों के लिखने-लिखाने का उत्साह-इन सबने मुझे यह कार्य न करने दिया। इधर मित्रवर मैथिलीशरण
गुप्त ने जोर दिया कि और कामों से छोड़कर इसे मै पहले कर डालूँ। अस्तु अब विचार है कि नित्य थोड़ा घोड़ा समय निकाल कर इस काम को कर चलूँ तो, यदि ईश्वर की कृपा हुई तो समय पाकर यह पूरा हो जायगा।
मुझे अपने पूर्वजो का विशेष वृत्तांत ज्ञात नहीं है। मैने इसके जानने का उद्योग किया पर मुझे उसमें सफलता न प्राप्त हुई। जहाँ तक मैं पता लगा सका मेरा वश-वृक्ष पृष्ट तीन पर लिखित प्रकार से है---
मेरे दादा लाला मेहरचंद का स्वर्गवास थोड़ी ही अवस्था में अमृतसर में हो गया था। मेरे पिता तया उनके सहोदर लाला आत्माराम और उनकी बहिन का पालन-पोषण मेरे ज्येष्ट पितामह लाला नानकचद ने किया। मुझे इनका पूरा पूरा स्मरण है। इन्हें पूरी भगवद्गीता कंठाग्र थी और वे नित्य इसका पूरा पाठ किया
करते थे। इनका स्वभाव बड़ा निष्कपट, सरल तथा धार्मिक था। ये मुझसे बड़ा स्नेह करते थे। इनकी बड़ी लालसा थी कि मैं शीघ्र ही पढ़ना-लिखना समाप्त करके किसी व्यवसाय में लग जाऊँ और खूब धन कमाकर लक्ष्मी का लाल कहलाऊँ। परंतु उनकी यह कामना पूरी न हो सकी। न तो मेरी शिक्षा उनके जीवन काल में समाप्त हो सकी और न मुझे लक्ष्मी का लाल कहलाने का सौभाग्य ही प्राप्त हो सका। मैंने सरस्वती की सेवा की और कदाचिन् ईश्र्यावश लक्ष्मी सदा मुझसे रूठी रहीं। यह सब होते हुए भी सरस्वती की कृपा
नानकचंद | मेहरचंद | ||||||||||||||||
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लाहौर छोड़कर अमृतसर मे आ बसे। यहाँ वे पुनः अपनी अवस्था के सुधारने मे लगे, पर एक बार की विगड़ी बात के बनाने में बड़ी कठिनता होती है। यदि सब कठिनाइयों दूर भी हो जायँ तो भी प्राय अधिक समय की अपेक्षा रहती है। अस्तु, कई कारणो से मेरे कनिष्ठ पितामह लाला हरजीमल काशी चले आए और यहाँ व्यापार करने लगे। उन्होने एक मारवाड़ी से साझा कर 'हरजीमल हरदत्तराय' के नाम से कपड़े की एक बड़ी कोठी खोली। यह कोठी लक्खी-चौतरे पर थी। ऊपर के हिस्से में मारवाडी महाशय के घर के लोग रहते थे और नीचे कोठी होती थी। इस व्यापार में उन्हे अच्छी सफलता प्राप्त हुई। दिन दिन लाला हरजीमल का वैभव बढ़ने लगा। मकान भी हो गया, नौकर-चाकर भी देख पड़ने लगे। सारांश यह कि लक्ष्मी के आने से जो खेल-तमाशे होते हैं वे सब देख पड़ने लगे। पर यह सब माया लाला हरजीमल के जीवन-काल मे ही बनी रही। उनके आँख बंद करते ही सारा खेल उलट गया। लाला हरजीमल के लड़को मे फूट फैली। पहले बड़ा लड़का, जो उनकी पहली स्त्री से था, अलग होकर अमृतसर चला गया। दूसरी स्त्री से चार लड़के और एक कन्या हुई। इन लड़को की दशा क्रमशः बिगड़ती गई और उनमें से दो का देहांत हो गया, वीसरे का पता नहीं कि कहाँ है। अस्तु, लाला हरजीमल के स्वभाव से मेरे ज्येष्ठ पितामह प्राय असंतुष्ट रहते थे। इसका यह भी एक कारण हो सकता है कि एक धनपात्र था तथा दूसरा धनहीन। परंतु जहाँ तक मेरा अनुभव है, कनिष्ठ के कुटिल और कपटी रहने पर भी दोनो में
प्रेम था। समय पड़ने पर सब लड़ाई-झगड़े शांत हो जाते थे। एक समय की बात है कि बनारस के पंजाबी यात्रियों में से कुछ लोगों ने पंचायत करके लाला जीमत पर अपराध लगाकर उन्हें जातिच्युत करना चाहा। जब पंचायत हुई तो हमारे मन:गिर नया मागे एक हो गए। परिणाम या कि जो जानिन्टा ना माने थे उन्हें अपनी ही ग्ा ग्ना कठिन होगामीफ पटना मेरे साथ भी हुई। मेरे मित्र गानू जुगुलनिगार के प्रभावानू मालिनाममित जापान गए थे। वहाँ मे लाटने पर गजा गांनीचर के यहाँ एक दावत मे म लोग एक मात्र एक टेबुल । नाग प्रार धैठर जलपान कर रहे थे। उनने में पत्रियों के एक प्रनिटिन व्यक्ति ने प्राफर मुझमे पूछा कि 'पुर लोगे ?" मैने फा कि.. घरफ की कुलफी दीजिए। उन्होंने लारर दे दी। दूनर नि पंचायत फरके उन्नाने का कि इन्होंने विलायतियों के मग पाया है. अनाएर. ये जाति से निराले जाय ।' में बुलाया गया। गुममे पूजा गया कि 'क्या तुमने विलायतियों के नग पेठकर गाना गाया है। मैंने कहा कि 'कौन कहता है. वह मामन भावे।' लाला गोवर्धनदान ने कहा, 'हो, मैंने स्वयं परोसा है। इस पर मैंने पूछा कि 'आपने क्या परोमा'. तो उन्होंने कहा कि 'यरफ की कुलफो।' इम पर मैंने कहा कि पंजाब मे मुसलमान गुजरो से दूध लेस लोग पीते हैं और उन्हें कोई जाति-न्युत मग्ने का स्वप्न भी नहीं देखता । उनी पजाबी सत्रियों में यहाँ इसके विपरीत पाचरण क्या होता है? क्या पजाब में क्सिी काम के करने पर हम निरपराध रहते हैं और यहाँ वही काम करने
पर हम अपराधी ठहरते हैं? अतएव, विलायतियों के साथ बैठकर कुलफी खाना, और वह भी एक खत्री के हाथ से लेकर, कोई अपराध नहीं। यदि बाबू गोवर्धनदास यह समझते थे कि मै एक अनुचित काम कर रहा है तो उन्हे मुझे वहीं रोकना था। उन्होंने तो मुझे अपराधी बनाने में मदद की। अतएव, यदि दंड होना चाहिए तो उनको जिन्होंने जान-बूझकर मुझे गढ़े मे ढकेला और अब मुझ पर दोष लगाते हैं। यह सुनकर तो उनके साथी बडे चिंतित हुए और हो हुल्लड़ मचाकर पचायत समाप्त कर दी गई। इसी संबंध में एक घटना और याद जा रही है। उसे भी यही लिख देता हूँ। हम लोग चार घर खन्ना हैं। हमारा विवाह आदि चार घर मेहरोत्रे, कपूर और सेठो के यहाँ हो सकता है। उस समय हमसे ऊँचे माने जानेवाले ढाई घर खन्ने, कपूर, मेहरे और सेठ होते थे। मेरे छोटे भाई मोहनलाल का विवाह ढाई घर की लड़की से हुआ। इस पर फिर जाति में हल्ला मचा कि यह काम इन्होंने उचित नहीं किया। इन्हे दंड देना चाहिए। यह बात यहाँ तक बढ़ी कि स्वयं हमारे चाचा लाला आत्माराम ने हमारे यहाँ बधाई तक देने के लिये आने का साहस न किया, पर कुछ वर्षों के अनंतर उन्होंने स्वयं अपने पोते का विवाह ढाई घर में किया। वे भीर स्वभाव के थे। अपनी रक्षा की उन्हे बडी चिंता रहती थी। उनके इस स्वार्थमय स्वभाव का एक नमूना और देना चाहता हूँ। मेरे ज्येष्ठ पुत्र कन्हैयालाल का विवाह अमृतमर मे होनेवाला था। मैं उस समय लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल का हेडमास्टर था। कुछ वराती बनारस से आए और मैं
लखनऊ से उनके साथ हो गया। जब हम लोग अमृतसर पहुँचे तो स्टेशनवालों ने असबाब की तौल की बात उठाई। मैंने कहा कि सब माल तौल लो और जो महसूल हो, ले लो। मेरे चाचा साहब इस चिंता में व्यग्र हुए कि हमारा माल अलग कर दिया जाय। इस पर में बिगड गया तब वे शात हुए।
लाला हरजीमल की अवस्था मे ऐसा आशातीत परिवर्तन देखकर
मेरे ज्येष्ठ पितामह लाला नानकचंद अपनी स्त्री क्या होनो भतीजो को साथ लेकर काशी चले आए। मेरे पिता ने कपड़े की छोटी-सी
दुकान खोली। इसमे उन्हें हरजीमल हरदत्तराय की कोठी से माल
मिल जाता था। धीरे धीरे उन्होंने अपने व्यवसाय में अच्छी उन्नति
की। क्रमश व्यापार बढ़ने लगा और धन भी देख पड़ने लगा।
उनकी दुकान पुराने चौक मे थी। मेरे पिता का विवाह लाला प्रभु-
श्याल को ज्येष्ठा कन्या देवकी देवी से हुआ था। मेरे नाना
गुजराँवाला के रहनेवाले एक बड़े जौहरी थे। उनकी दुकान अमृतसर
में थी। ऐसा प्रसिद्ध है कि वे एक लाख रुपये की ढेरी लगाकर और उस पर गुड़गुड़ी रखकर तमाकू पीते थे। उन्हे बड़ा दंभ था।
बिरादरी में जब कही गमी हो जाती तब वे नहीं आते थे। केवल
अपनी दुकान की ताली मेज लेते थे। जाति के लोग उनसे असंतुष्ट
थे। देवदुर्विपाक से उनके लड़के का देहांत हो गया। मुर्दा उठाने
के लिये बिरादरी का कोई नहीं आया। तब उन्हें जाकर लोगों के पैर पड़ना पड़ा और क्षमा माँगनी पड़ी। पुत्र-शोक में वे अपनी स्त्री, छोटे लड़के और तीनों कन्याओं को लेकर काशी चले आए और यहाँ
जौहरी की दुकान करके दिन बिताने लगे। दैवयोग से उन्होंने अनजाने में चोरी का माल खरीद लिया। इसमें वे पकडे गए और दडित हुए। मेरे पिता ने उनके घर की देखभाल की और अपने साले को अपने साथ दुकान के काम में लगाया। जब तक मेरे नाना-नानी जीते रहे, मेरे मामा उन्हीं के साथ रहे। माता-पिता की मृत्यु हो जाने पर वे हमारे घर में आकर रहने लगे। मुझे अपने नाना-नानी का पूरा पूरा स्मरण है। वे प्रायः मुझे अपने यहाँ ले जाया करते और बड़ा लाड़-प्यार करते थे। खाते समय उनको लकवा मार गया और उसी बीमारी से उनकी मृत्यु हुई। मेरे मामा ने प्रारभ मे मेरे पिता के व्यापार में पूर्ण सहयोग दिया और काम को खूब सँभाला। विवाह होने पर उनकी स्त्री भी हमारे ही यहाँ रहती थी। यह विवाह मेरे नाना के जीवन काल में ही हुआ था। विवाह हो जाने और माता-पिता के मर जाने पर उन्हें अपनी स्त्री को गहने देने की धुन समाई। दुकान से चुपचाप रुपया लेकर उन्होंने गहने बनवाए। यह हाल पीछे से खुल गया। इस पर वे अलग होकर अपनी दुकान चलाने और मेरे पिता के गाहको को फोड़ने लगे। मेरे पिता का व्यवसाय दिन दिन घटने लगा और मामा उन्नति करने लगे। पिता ने चौक की दुकान उठा दी और रानीकुएँ पर दुकान कर ली। सारांश यह कि उनकी दुकान का काम दिन दिन घटने लगा और उन्हें अर्थ-संकोच से बड़ा कष्ट होने लगा। इस प्रकार जीवन के अंतिम दिनों में लकवे की बीमारी से प्रसित होकर सितंबर सन् १९०० में उनका देहांत हो गया। १०
मेरी भामकहानी
मेरा जन्म प्रापाट शुरु ११ मंगलवार सवन १५३२ (१५ जुलाई,
मन् १८७५) में हुआ। ज्योतिष की गणना के प्रनुनार
भंग
जन्म कुण्डली इस प्रकार की है। मेरे जन्म का साल :८-१ था।
नक्षत्र विज्ञासा और लन मकर । इम हिमार मे गशि पश्चिम हु।
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यु.शुलपुर
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मेरा वायकाल अत्यंत आनंद से बीता। मैं सबके लाह-प्यार का
पात्र था, विशेषकर इसलिये कि गृहस्थी में और कोई बालक न था।
पहले-पहल मैं गुरु के यहाँ बैठाया गया। यहां जाना मुझे अच्छा
न लगता था। न जाने के लिये निच बहाने खोजता था। मुझे
खूब स्मरण है कि एक दिन न जाने की प्रबल इच्छा होने पर मैंने
एक पड्यंत्र रचा। मैं दो-तीन चार पैखाने गया । यस मेरी दादी ने
कहा कि लड़के की त्यात अच्छी नहीं है, उसे दस्त पाते हैं. वह
गुरु के यहाँ नहीं जायगा । इस प्रकार जान बची। मै कुछ दिनों
पक गुरु के यहां पढ़ता रहा। यहाँ मुझे प्रसरो का ज्ञान और
गिनती भा गई। यज्ञोपवीत होने पर मेरे दीनागुरु हरमगवान जी
हुए। इनसे मैं सस्कृत, व्याकरण तथा कुछ धर्मग्रंथों को पढ़ने
.
लगा। दस ही वर्ष की अवस्था में मेरा विवाह हो गया। इसके अनंतर अँगरेजी की पढ़ाई आरंभ हुई। मेरे पिता के मित्र हनुमानप्रसाद थे, जो लँगड़े मास्टर के नाम से प्रसिद्ध थे। वे वेसलियन मिशन स्कूल में, जो नीचीबाग में था, पढ़ाते थे। वहाँ मेरी अँगरजी की शिक्षा आरंभ हुई। थोड़े दिनों के अनंतर इन मास्टर साहब की मिश्नरी इंसपेक्टर से बिगड़ गई। उन्होंने स्कूल की नौकरी छोड़ दी और ब्रह्मनाल में शिवनाथसिंह की चौरी के पास अपना स्कूल खोला। इर्द-गिर्द के लड़के पढ़ने आने लगे और स्कूल चल निकला। कुछ काल के उपरांत यहाँ से हटकर स्कूल गनीकुआँ पर गया और वहां पर उसका नाम हनुमान-सेमिनरी पड़ा। मास्टर हनुमानप्रसाद कुछ विशेष पढ़े-लिखे न थे, पर छोटे लड़कों को पढ़ाने का उनका ढंग बहुत अच्छा था। यहाँ से मैंने मन् १८९० में एँग्लोवर्नाक्यूलर मिडिल परीक्षा पास की।
बाबू गदाधरसिंह मिर्जापुर में सिरिश्तेदार थे। उन्हें हिंदी से प्रेम था। कई बँगला पुस्तकों का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया था। उन्होंने हिंदी-पुस्तकों का एक पुस्तकालय 'आर्य-भाषा-पुस्तकालय' के नाम से खोल रखा था। केवल दो आलमारियाँ पुस्तकों की थी, पर नई पुस्तकों के खरीदने आदि का सब व्यय बाबू गदाधरसिंह अपनी जेब से देते थे। यह पुस्तकालय हनुमान-सेमिनरी में आया और इसी संबंध में बाबू गदाधरसिंह से मेरा परिचय हुआ। इस स्कूल में रामायण का नित्य पाठ होता था। यहीं मानो मेरे हिंदी-प्रेम की नींव रखी गई। बीच में लगभग एक महीने तक लंडन मिशन हाई स्कूल में भी मैंने पढ़ा। वहाँ मेरे पिता के एक मित्र के पुत्र बाबू दामोदरदास प्रोफेसर थे। उन्हीं की प्रेरणा से मैं वहाँ भेजा गया था। पर स्कूल बहुत दूर पड़ता था और मैं क्लास के कमजोर लड़कों में से था। इसलिये महीने-डेढ़ महीने के बाद मैं फिर हनुमान-सेमिनरी में आ गया। यहाँ से मिडिल पास करने पर क्वींस कलिजियेट स्कूल के नवें दर्जे में भरती हुआ। अब तक मेरी पढ़ाई की सब कमजोरी दूर हो गई थी और मैं क्लास के अच्छे लड़कों में गिना जाता था। स्कूल के सेकेड मास्टर बाबू राममोहन बैनर्जी थे। वे चोगा पहन कर स्कूल में आते थे। इसी नवें दर्जे में पहले-पहल बाबू सीताराम शाह से मेरा परिचय हुआ और ६ वर्षों तक पढ़ाई में साथ रहा। इस प्रकार ये मेरे पहले मित्रों में से हैं। इनके द्वारा बाबू गोविंददास तथा उनके छोटे भाई डाक्टर भगवानदास से भी मेरा परिचय हुआ। बाबू गोविंददास ने मुझे सदा उत्साहित किया और सत्परामर्श से मुझे सुपथ पर लगाया। जब मैं दसवे दर्जे में पहुँचा तब मेरा परिचय बाबू जितेंद्रनाथ बसु से हुआ। ये बाबू उपेंद्रनाथ बसु तथा बाबू ज्ञानेंद्रनाथ बसु के छोटे भाई और बाबू शिवेंद्रनाथ बसु के बड़े भाई थे। इनके पिता बाबू हारानचद्र बसु को ससुराल की संपत्ति मिली थी। ये लोग पहले बंगाल के कोन नगर में रहते थे, फिर ननिहाल में आकर रहने लगे। काशी में प्रतिष्ठित बंगाली रईस बाबू राजेंद्रनाथ मित्र थे जिनका प्रसिद्ध मकान चौखंभा में है। इनकी अतुल संपत्ति के ३ भाग हुए। एक भाग के स्वामी बाबू उपेंद्रनाथ बसु तथा उनके भाई हुए। हारान बाबू पहले बंगाल के इंजीनियरिंग विभाग में काम करते थे। वहाँ से पेंशन लेकर वे काशी में आ बसे। मुझे इनके दर्शनों का सौभाग्य बराबर कई वर्षों तक होता रहा। अस्तु, जब जितेंद्रनाथ बसु (उपनाम मोटरू बाबू) से मेरा परिचय हुआ तब परस्पर स्नेह बढ़ता ही गया। हम लोग क्लास में प्रायः एक ही बेंच पर बैठते थे। क्रमशः गाढ़ी मित्रता हो गई। जब सन् १८९२ में मैंने इंट्रेस पास कर लिया और साथ ही बाबू सीताराम शाह और बाबू जितेंद्रनाथ बसु भी उत्तीर्ण हुए, तब बाबू जितेन्द्रनाथ वसु ने एक दिन यह प्रस्ताव किया कि यदि तुम हमारे घर पर आ जाया करो तो हम लोग साथ ही साथ पढ़ें। मैंने पिता की आज्ञा लेकर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। पढ़ाई का यह क्रम चार वर्षों तक चलता रहा। जो अँगरेजी की पुस्तक आगे पढ़ाई जानेवाली होती थी उसे हम लोग पहले से बड़ी छुट्टियों (जैसे दुर्गापूजा, क्रिसमस आदि) में पढ़ लेते थे। जितेंद्रनाथ बसु के दो अध्यापक थे—एक लाजिक पढ़ाते थे और दूसरे संस्कृत। संस्कृत के अध्यापक स्वनामधन्य पंडित रामावतार पांडेय थे। ये, संस्कृत के साहित्याचार्य थे। पीछे से इन्होंने अँगरेजी में एम॰ ए॰ तक पास किया था। मैं भी इन अध्यापकों से पढ़ता था। सन् १८९४ में मैंने अपने मित्रों के साथ इंटरमिडियेट परीक्षा पास की। सन् १८९६ में बी॰ ए॰ की परीक्षा के लिये हम लोग एक साथ जाकर प्रयाग में ठहरे थे। परीक्षा आरंभ होने के एक दिन पहले मुझ पर 'रेनल कालिक' का आक्रमण हुआ। जब तक इसका आक्रमण रहता, मैं छटपटाया करता और जमीन पर इधर से उधर लुढ़का करता। डाक्टर ओहदेदार बुलाए गए और उनकी दवाई से मुझे लाभ हुआ। फिर भी परीक्षा देने में एक प्रकार से असमर्थ रहा। दवाई लेकर परीक्षा देने जाता था। परिणाम यह हुआ कि उस वर्ष परीक्षा में मैं फेल हो गया। मित्रों का साथ छूट गया। अब पुराने साथियों में पंडित रमेशदत्त पांडेय और पंडित काशीराम का साथ हुआ। इसी वर्ष सर एंटोनी मैकडानेल इन प्रांतों के लेफ्टेनेंट गवर्नर होकर आए। उनकी ऐसी इच्छा हुई कि प्रयाग के म्योर सेंट्रल कालेज में विज्ञान की शिक्षा का विशेष प्रबंध हो और क्वींस कालेज में आर्ट विषयों की पढ़ाई विशेष रूप से हो। इस पर मिस्टर आर्थर वेनिस ने, जो फिलासफी के अध्यापक तथा संस्कृत कालेज के प्रिंसपल थे, बी॰ ए॰ क्लास को संस्कृत पढ़ाना प्रारंभ किया। उस समय भवभूति का उत्तररामचरित हम लोगों की पाठ्य-पुस्तक थी। वेनिस साहब ने उसका पढ़ाना प्रारंभ किया। वे अँगरेजी में अनुवाद कराते और प्राकृत शब्दों की व्युत्पत्ति आदि बताते थे। हमारे क्लास में तीन विद्यार्थी ऐसे थे जिनके बिना क्लास का काम नहीं चलता था—एक प॰ काशीराम, दूसरे पं॰ साधोराम दीक्षित और तीसरा मैं। प॰ काशीराम व्याकरण में व्युत्पन्न थे, पं॰ साधोराम साहित्यशास्त्र में और मेरी विशेष रुचि भाषा-विज्ञान की ओर थी। जब इन तीनों विषयों के प्रश्न लिए जाते तब हम लोगों की सम्मति मांगी जाती। यह बात यहाँ तक बढ़ी कि जिस दिन हम तीनों में से कोई उपस्थित न होता उस दिन संस्कृत की पढ़ाई बंद रहती। अस्तु, सन् १८९७ में मैंने बी॰ ए॰ पास किया। सन् ९५ और ९६ में मैंने लॉ-लेक्चर्स भी सुने। यह पढ़ाई न थी, केवल हाजिरी ली जाती थी। दस मिनिट में क्लास समाप्त हो जाता था। बाबू जोगेंद्रचंद्र घोष लॉ-प्रोफेसर थे। इस प्रकार कालेज की पढाई समाप्त हुई। इस विद्यार्थी जीवन की दो-एक घटनाएँ मुझे याद हैं जिनको मै लिख देना चाहता हूँ।
हमारे अँगरेजी के प्रोफेसर मिस्टर जे॰ जी॰ जेनिंग्स थे। वे बड़े विचित्र स्वभाव के थे। मानो वे नौकरशाही शासनप्रणाली के साक्षात् प्रतिनिधि थे। न किसी से मिलना और न कुछ बात करना उनका सहज स्वभाव था। लड़कों ने भी उन्हें दिक्क करना प्रारंभ किया। जब उनका मुँह दूसरी तरफ होता या नीचे होता तो दो-एक शैतान लड़के रबर के फंदे से उन पर कागज के टुकड़े फेंकते। इससे उनका चेहरा लाल हो जाता था। एक दिन बी॰ ए॰ क्लास में उन्होंने अँगरेजी-शिक्षा पर निबंध लिखने के लिये विद्यार्थियों को आदेश दिया। मैंने भी लिखा। वे विद्यार्थियों को बुलाकर अपनी चौकी पर, जिस पर उनकी कुर्सी और टेबुल रहता, खड़ा करके निबंध पढ़ाते थे। मैं भी यथासमय बुलाया गया। मैंने निबंध अँगरेजी शिक्षा के विरोध में लिखा था। एक वाक्य मुझे अब तक याद है It damps the spirit of the Educated इस पर प्रोफेसर साहब बहुत लाल-पीले हुए। मेरे लेख का संशोधन नहीं किया गया और न वह लौटाकर ही मुझे मिला। प्रिंसपल साहब से मेरे विरुद्ध रिपोर्ट की गई और मैं उनके सामने बुलाया गया। उन्होंने मुझे समझा-बुझा कर मामला शांत किया, पर मिस्टर जेनिंग्स कभी प्रसन्न न हुए और मेरी और उनका रुख टेढ़ा ही रहा। थोड़े दिनों के बाद उनकी बदली इलाहाबाद को हो गई और हमारे अँगरेजी के प्रोफेसर मिस्टर सी॰ एफ॰ डी॰ लॉ फास आए। ये सज्जन शिष्ट स्वभाव के थे, पर मिलनसार न थे।
एक दूसरी घटना सुनिए। मेरा साथ कुछ उच्छृंखल लड़कों से हो गया था। शनिवार को जाड़े के दिनों में १२ बजे कालेज बंद हो जाता था और क्रिकेट का खेल होता था। क्वींस कालेज की अमरूद की बाडी प्रसिद्ध थी। अब वह उजड़ गई है और खेल के मैदान का विस्तार घटा दिया गया है इसमें जाकर हम लोग अमरूद खाते थे और आनंद मनाते थे। एक शनिवार को कालेज के पास एक बगीचे में जो वरुणा नदी के किनारे पर है हम लोग गए। यहाँ भाँग छनी। घर आते आते मुझे खूब नशा चढ़ा। अब तो यह डर लगने लगा कि यदि पिता जी को यह बात मालूम हो गई तो क्या कुंदी होगी। डर के मारे माँ से बहाना किया कि सिर में दर्द है। माँ ने गोदी में सिर रख कर तेल लगाना आरंभ किया, मुझे नींद आ गई। इस प्रकार मेरी जान बची। तब से अब तक फिर मैंने कभी भाँग पीने का नाम नहीं लिया।
इंटरमीडियेट की परीक्षा का एक विषय इतिहास था जिसमें रोम, यूनान और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ाया जाता था। मैंने इन पुस्तकों को ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ा था, केवल साधारण बातें याद थीं। इतिहास की परीक्षा के दिन एक मित्र (प्रमधनाथ विश्वास) मुझसे प्रश्न करने लगे। उन्हें यह विषय खूब याद था। सब २३४ मेरो भालकहानी (४) इसी वर्ष के जून मास में में नैनीताल गया। बाबू गौरीशकरप्रमाद और पडित रामनारायण मिश्र पहले से गए हुए थे, मैं पीछे से गया। वहां हम लोग राजा बालाप्रसाद के वासस्थान से ठहरे। हम लोग मिस्टर ए० एच० मैकेंजी से मिल और उनसे समामवन को बढ़ाने के लिये गवर्मेट की सहायता मांगी। दो-तीन वर मिलना पड़ा। मिस्टर मैकेंजी ने बड़े ध्यान से हम लोगों की बातें मुनी और उदारतापूर्वक सहायता देने के प्रश्न पर विचार किया। आगे जाकर सभा को २२,००० की सहायता गमेंट से प्राप्त हुई। (५) सिवबर मास मे मुझे घर आया। तीन-चार दिन तक वर का बड़ा वेग रहा । पौडेसे मेरे अंडकोश की वृधि एक नारियल के बराबर हो गई। कई डाक्टर बुलाए गए। सवने परीक्षा करके यह निदान किया कि इसमें मवाद आ गया है। इसे चीरने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। केवल मेरे पुराने मित्र डाक्टर अमरनाथ वैनर्जी ने चीर-फाड़ करने की सम्मति नहीं दी। उन्होंने कहा कि ये इतने कमजोर हो गए हैं कि नश्तर लगते ही इनके देहांत की आशका है। उपचार-द्वारा इसका मवाद निकाला जाय । डाक्टर अचलबिहारी सेठ ने, जो मेरे प्राचीन मित्र वाचू कृष्णवलदेव वर्मा के भाजे हैं और उस समय के थोड़े दिन पहले डाक्टरी पास करके काशी में वस गए थे, इस भार को अपने ऊपर लिया। वे नित्य दोनों समय पाकर मेरी देख-भाल करने लगे। कोइ एक महीने के अनंतर यह व्याधि क्टी और घाव भर गया। साक्टर सेठ ने जिस प्रेम से मेरी चिकित्सा की उसके लिये मैं उनका चिर ऋणी हूँ। वे जूतों को फेंक आया। उस दिन हम लोग कुछ देर तक यह देखने के लिये ठहरे रहे कि देखें घर जाते समय ये क्या करते हैं। जब कालेज बंद हुआ और ये घर चलने लगे तो देखते हैं कि जूते गायब। वे दौड़े हुए हेड क्लर्क साहब के पास पहुँच कर अपना रोना सुनाने लगे, पर वे क्या कर सकते थे। हम लोग हँसते हँसते घर आए। इस वर्ष टूर्नामेंट हुई। उसके प्रधान प्रबंधक थे अनिहोत्री महाशय धने। कुछ लड़कों ने, जो क्रिकेट के खेल में निपुण थे, इन्हें तंग करने की ठानी। जब वे हुक्म देते तो एक लड़का छिपकर उनके गाल का निशाना एक अंडे से लगाता, बेचारे गाल पोंछते हुए दूसरी तरफ देखते तो दूसरे गाल पर अंडा पट से पड़ जाता। बड़ा होहल्ला मचा और खेल बंद होगया।
इस प्रकार खेल-कूद और पढ़ाई-लिखाई में कालेज का काम समाप्त हुआ। यहाँ इतना और कह देना चाहता हूँ कि इसी विद्यार्थीजीवन में मेरा लेह महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी के ज्येष्ठ पुत्र पंडित अच्युतप्रसाद द्विवेदी क्या बाबू इंद्रनारायणसिंह के भतीजे बाबू गुरुनारायणसिंह से हो गया। हम लोग प्रायः मिला करते और टेनिस आदि का खेल खेलते।
इस तरह पढ़ाई समाप्त हुई। वैनिस साहब बहुत चाहते थे कि मैं संस्कृत में एम॰ ए॰ पास करूं, पर मेरी रुचि उस ओर न थी। इसी वर्ष लखनऊ में टीचर्स ट्रेनिंग कालेज खुला था। मैंने उसमें भरती होने की अर्जी दी और मुझे एक स्कालरशिप भी मिली। मैं लखनऊ गया और सेठ रघुवरदयाल के मकान पर बाबू कृष्णवलदेव वर्म्मा के साथ ठहरा। ट्रेनिंग कालेज के प्रिंसपल मिस्टर केम्स्टर थे। उनके दाहिने हाथ, पंजाब के एक महाशय, मुंशी प्यारेलाल थे। बोर्डिंग का सब प्रबंध इन्हीं के हाथ में था। मैं चाहता था कि अलग बाबू कृष्णवलदेव के साथ रहूँ पर लाख उद्योग करने पर भी मेरी बात न मानी गई और एक महीना वहाँ रहकर मैं काशी लौट आया। अब चंद्रप्रभा प्रेस में मुझे ४०) रुपया मासिक पर लिटरेरी असिस्टेंट का काम मिला। कई महीने तक मैंने वह काम किया पर वह मुझे अच्छा न लगता था। उसे भी मैंने छोड़ दिया। फिर २० मार्च सन् १८९९ को हिंदू स्कूल में मुझे मास्टरी मिली। मैंने यहाँ १० वर्षों तक काम किया।