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मेरी आत्मकहानी/२ नागरी-प्रचारिणी सभा

विकिस्रोत से
मेरी आत्मकहानी
श्यामसुंदर दास

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १९ से – ३३ तक

 

(२)
नागरी-प्रचारिणी सभा

सन् १८९३ की बात है। मैं उस समय इंटरमीडियेट के सेकेंड इयर में था। उन दिनों हम लोगों के कई डिबेटिंग क्लब थे, पर उनका कालेज से कोई संबंध न था। छोटे दर्जे के विद्याथियों ने भी अपनी अलग डिबेटिंग सुसाइटी बनाई थी। इसका अधिवेशन प्रतिशनिवार को १२ बजे नार्मल स्कूल में होता था। गर्मी की छुट्टियों में यह काम बंद हो गया। ९ जुलाई सन् १८९३ को इस सुसाइटी का एक अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ। इसमें आर्यसमाज के उपदेशक शंकरजाल जी आए और उन्होंने एक व्याख्यान दिया। पीछे से ये दक्षिण अफ्रिका में स्वामी शंकरानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका व्याख्यान बड़ा जोशीला होता था। हम लोग इस व्याख्यान से बड़े उत्साहित हुए। यह निश्चय हुआ कि अगले सप्ताह में १६ जुलाई को फिर सभा हो। उसमें यह निश्चय हुआ कि आज नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना की जाय। मैं मंत्री चुना गया और सभा के साप्ताहिक अधिवेशन होने लगे। उस समय जो लोग उसमें संमिलित हुए उनमें से पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकर शिवकुमारसिंह और मैं अब तक इस सभा के सभासद बने हुए हैं। और लोग धीरे-धीरे अलग हो गए। अतएव उदार जनता ने हम लोगों को सभा का संस्थापक तथा जन्मदाता मान लिया है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का स्वर्गवास हो चुका था। प्रयाग में हिंदी के लिये कुछ उद्योग हुआ था, पर हमारी आरंभ-शूरता के कारण दो ही तीन वर्षों में वह स्थगित हो गया। इस समय हिंदी की बड़ी बुरी अवस्था थी। वह जीवित थी यही बड़ी बात थी राजा शिवप्रसाद के उद्योग तथा भारतेंदु जी के उसके लिये अपना सर्वस्व आहुति दे देने के कारण उसको जीवन-दान मिला था (हिंदी का नाम लेना भी इस समय पाप समझ जाता था। कचहरियों में इसकी बिलकुल पूछ नहीं थी। पढ़ाई में केवल मिडिल क्लास तक इसको स्थान मिला था। पढ़नेवाले विद्यार्थियों में अधिक संख्या उर्दू लेती थी। परीक्षार्थियों में भी उर्दूवालों की संख्या अधिक रहती थी। वही विद्यार्थी अच्छा और योग्य समझा जाता था जो अँगरेजी फर्राटे से बोल सकता था और उसी का मान भी होता था। हिंदी बोलनेवाला तो गँवार कहा जाता था। वह बडी हेय दृष्टि से देखा जाता था। इस अपमान की अवस्था में लडको के खिलवाड़ की तरह नागरी-प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। किसी ने स्वप्न भी न देखा था कि यह हिंदी की उन्नति कर सकेगी और उसकी पूछ होगी। मैं तो इसे ईश्वर की प्रेरणा ही समझता हूँ कि वह इतनी उन्नति कर सकी और देश की प्रमुख संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान पर विराज सकी। प्रारंभ मे तो यह लड़कों का खिलवाड़ ही थी। प्रतिरविवार को लोग इकट्ठे होते और व्याख्यान देते। पहले-पहल भारतजीवन पत्र के सपादक बाबू कार्तिकप्रसाद ने इसे आश्रय दिया और अपना वरद हाय इसके सिर पर रखा। प्रत्येक बात में वे इसके फ्रेंड, फिलासफर और गाइड हुए। पहले ही वर्ष में जिन कार्यों का सूत्रपात हुआ वे समय पाकर पल्लवित और पुष्पित हुए तथा उनमें फल लगे। सभा के इस वात्यकाल का स्मरण कर और सन् १९३९ मे उसकी उन्नति देखकर परम संतोष, उत्साह और आनंद-होता है। हमारी आरंभ-शूरता के पाप को इसने धो बहाया। आरंभ मे तो हिंदी के प्रमुख लोग इसमे समिलित होने में बडी आना-कानी करते थे, यहाँ तक कि बाबू राधाकृष्णदास भी कई महीनो तक इससे सबंध करने में हिचकिचाते रहे। उनका अनुमान था कि यह बहुत दिनो तक न चल सकेगी और व्यर्थ हम लोगो की बदनामी होगी। पर बहुत जोर देने पर वे ६ महीने बाद समिलित हुए और इसके प्रथम सभापति चुने गए। उनके संमिलित होते ही यह उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुई। उन्होने अपने मित्रो तथा हिंदी के प्रमुख व्यक्तियों को एक छपी चिट्ठी भेजी। अब तो बहुत से लोग क्रमश इसके सभासद बनने लगे। बाबू राधाकृष्णदास ने सभा को अमूल्य सेवा की है। पहले ही वर्ष मे सभा ने कोश, व्याकरण, हिंदीभाषा, हिंदीपत्र तथा उपन्यासों का इतिहास, यात्रा, हिंदी के विद्वानो के जीवन-चरित्र तया वैज्ञानिक ग्रंथों के लिखवाने और अन्य अनेक बातों का सूत्रपात किया, जो सब कार्य समय पाकर सफल हुए। इसका पहला वार्षिकोत्सव ३० सितबर १८९४ को कारमाइके्ल लाइब्रेरी में मनाया गया। अब तक सभा के कार्यालय का कोई स्थान न था। उसका कार्यालय मेरे ही घर पर था। यह विचार हुआ कि प्रथम वार्षिकोत्सव का सभापति किसको बनाया जाय। बाबू राधाकृष्णदास तथा बाबू कार्तिकप्रसाद ने मिलकर परामर्श किया। सोचा गया कि राजा शिवप्रसाद ने हिंदी की बड़ी सेवा की है। उन्हीं के द्वारा उसकी रक्षा हो सकी है, नहीं तो हिंदी का कहीं नाम भी न रह जाता। वे ब्रिटिश गवर्नमेंट के बड़े भक्त थे, सिक्ख-युद्ध में उन्होंने जासूसी भी की थी। पीछे वे स्कलो के इसपेक्टर बनाए गए। उन्होने विरोध को कम करने के लिये केवल नागरी अक्षरो के प्रचार के बने रहने पर जोर दिया। भाषा वे मिश्रित चाहते थे। जो हो, उस समय उनकी नीति ने बड़ा काम किया। यह सब स्मरण करके यह निश्चय किया गया कि वे ही सभापति बनाए जायें। बाबू राधाकृष्णदास, बाबू कार्तिकप्रसाद और मैं उनसे मिलने गए। उन्होंने कहा कि मैंने कलम तोड़ दी है, मेरी दावात सूख गई है, मैं अब किसी झंझट में नही पढ़ना चाहता। मुझे भूल जाइए। बाबू राधाकृष्णदास ने बहुत जोर दिया, तब कही जाकर उन्होंने स्वीकृति दी। अस्तु, निमंत्रण-पत्र बाँटे गए और उत्सव का आयोजन किया गया। जब इसकी खबर कांग्रेस-भक्त नवयुवको को लगी तो वे कहने लगे कि यदि राजा साहय सभा में आवेंगे तो हम लोग उनकी बेइज्जती करेंगे और उन्हे सभापति न होने देंगे। बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई। कुछ समझ में न आता था कि क्या किया जाय। अंत में यह निश्चय हुआ कि राजा साहब को सभा में आने से रोका जाय और किसी दूसरे सभापति की खोज की जाय। ऐसा ही किया गया। चंद्रप्रभा प्रेस के मैनेजर पंडित जगन्नाथ मेहता ने इस समय बडी सहायता की। वे गए और रायबहादुर प० लश्मीशकर मिश्र को सभा में ले आए। पंडित लक्ष्मीशकर मिश्र, पंडित रामजसन मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र थे। इन पडित रामजसन ने पहले पहल जायसी की पद्मावत छपाई थी। इनके चार पुत्र पंडित लक्ष्मीशकर मिश्र, पंडित रमाशंकर मिश्र, पंडित उमाशंकर मिश्र और पंडित ब्रह्मशंकर मिश्र थे। सभी एम० ए० पास थे और अच्छे अच्छे ओहदो पर थे। पं० लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘काशीपत्रिका’ निकालते थे। वे पहले कीस कालेज में गणित के प्रोफेसर थे। इस समय स्कूलो के Assistant Inspector थे। ई० ह्वाइट साहब इन दिनो इस प्रांत के डाइरेक्टर आव पब्लिक इंस्ट्रक्शन थे। वे मिश्रजी को बहुत मानते थे। यह सयोग सभा के लिये शुभ फलप्रद हुआ। उत्सव पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र के सभापतित्व मे आनंदपूर्वक मनाया गया और उक्त पंडित जी अगले वर्ष के लिये सभापति चुने गए। इन दिनों में सभा कुछ विशेष उद्योग न कर सकी। मन के लड्डू खाती और आकाश-पुष्प की कामना करती थी। दरभगा के महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह को सभा ने लिखा था कि यदि आप सहायता करें तो सभा एक हिंदी का कोश तैयार करे। महाराज ने १२५) सहायतार्य भेजकर लिया कि इस समय मैं क्यडिस्ट्रल सर्वे में फँसा हुआ हूँ। सभा काम करे, मैं फिर और सहायता देने पर विचार करूँगा। इसके पहले काँकरौली के महाराज गोस्वामी बालकृष्णलाल के यहाँ, जो उन दिनों काशी में आए हुए थे और गोपालमंदिर में ठहरे थे, हिंदी-कवियों का दरवार लगता था। एक दिन बाबू जगन्नायदास स्वाकर मुझे अपने साथ ले गए और महाराज से सहायता देने की प्रार्थना की। कई दफे दौड़ने पर १००) मिला। यह पहला दान था जो सभा को प्राप्त हुआ। उन दिनों डुमराँव के मुंशी जयप्रकाशलाल की बड़ी धूम थी। उनको बराबर एड्रेस मिलते थे और वे सबकी सहायता करते थे। बाद मे रामकृष्ण वर्मा ने संमति दी कि सभा उन्हें एड्रेस दे तो कुछ सहायता मिल सकती है। सभा तैयार हो गई। बाबू रामकृष्ण वर्म्मा, एड्रेस की पांडुलिपि तैचार की। पीछे चह विदित हुआ कि बाद मे रामकृष्ण ने मुंशी जी से ठहराव कर लिया है कि हमको इतना रुपया (कदाचिन् ५००) दो सो हम एड्रेस दिलवावें। हम लोगों को हुआ कि कहीं हम लोग कोरे ही न रह जायें इसलिये निश्चय कि गया कि एड्रेस न लिया जाय।

इसी पहले वर्ष में सभा ने हिंदी पुस्तकों की खोज का सूत्रपात किया। उसने भारत-गवर्नमेंट, संयुक्त-प्रदेश की गवर्नमेंट, पंजाब गवर्नमेंट तथा बंगाल की एशियाटिक सुमाइटी से प्रार्थना की कि संस्कृत-हस्तलिखित पुस्तकों के साथ हिंदी-पुस्तको की भी खोज की जाय। संयुक्त-प्रदेश की गवर्नमेंट ने बनारस के संस्कृत-कालेज में रक्षित हस्तलिखित हिंदी-पुस्तको की एक सूची बनवाकर भेजी। भारत और पंजाब गवर्नमेंटो ने कुछ नहीं किया। बंगाल की एशियाटिक सुसाइटी ने दो वर्ष तक यह काम कराया। पीछे से उसे बंद कर दिया।

दुसरे वर्ष (१८९४-९५) के प्रारंभ में कायस्थ कांफ्रेंस का वार्षिक अधिवेशन काशी में हुआ था। सभा ने यह समझा कि कायस्थ जाति के लोग अधिकतर दफ्तरों में काम करते हैं। वे यदि हिंदी को अपना लें तो उसके प्रचार में विशेष सहायता पहुँच सकती है। लखनऊ के बाबू श्रीराम इस अधिवेशन के सभापति हुए थे। वे संस्कृत के ज्ञाता थे। इससे और भी अधिक आशा हुई। एक डेपुटेशन भेजा गया और हिंदी को अपनाने की प्रार्थना की गई। कांफ्रेंस ने निश्चय भी इस प्रार्थना के समर्थन में किया पर परिणाम कुछ भी न निकला। यदि कायस्थ और काश्मीरी लोग हिंदी के पक्ष में हो जायँ, तो हिंदी के प्रचार में बहुत कुछ सहायता पहुॅच सकती है। पर जहाॅ काश्मीरी पडितो मे ऐसे व्यक्ति भी हैं जो उर्दू को अपनी ‘मादरी जवान’ मानने में अपना अहोभाग्य समझते हैं, वहाँ क्या आशा की जा सकती है। वहाँ, यदि आशा है तो कायस्थो और काश्मीरियों के स्त्री-समाज से है जो हिंदी को आग्रह से ग्रहण कर रहा है और उसके पठन-पाठन में दत्त-चित्त है। इसी वर्ष तीन महत्त्वपूर्ण कार्यों का भी आरम्भ हुआ। सभा ने प्रांतिक बोर्ड आब रेवेन्यू से निवेदन किया कि सन् १८८१ और १८७५ के एक्ट न० १२ और १९ के अनुसार सम्मन आदि नागरी और फारसी दोनों अक्षरों में भरे जाने चाहिएँ, पर ऐसा नहीं होता है। इस नियम का पालन होना चाहिए। जब बोर्ड से कोई उत्तर न मिला तब सभा ने गवर्नमेंट को लिखा। इसका परिणाम यह हुआ कि बोर्ड ने आज्ञा दी कि आगे से दोनो फार्म भरे जायँ, पर इस आज्ञा का भी कोई परिणाम नहीं हुआ।

इसी वर्ष सभा के पुस्तकालय की नींव पडी। खड्गविलास प्रेस तथा भारत-जीवन आदि से कुछ पुस्तकें प्राप्त हुई। इसी से नागरी-भंडार का आरंभ हुआ।

हिंदी-हस्तलिपि पर पुरस्कार देने का सभा ने पहले ही वर्ष में निश्चय किया था, पर शिक्षा विभाग से लिखापढ़ी करने में देर हुई,.इसलिये दूसरे वर्ष में इसका आरंभ हुआ।

सन् १८९४ मे मैंने पहले पहल हिंदी में एक लेख लिखा। मेरी पाठ्य पुस्तको में उस समय एक पुस्तक IIelp's Essaya written in the intervals of business थी। इसमें एक निबंध था Aids to contentment। मैंने इसके आधार पर एक लेख “संतोष” नाम से लिखा जो वाँकीपुर के एक मासिक पत्र में छपा। अब उस लेख की प्रति मेरे पास नही है और बहुत उद्योग करने पर वह अब तक प्राप्त न हो सकी।

इसी वर्ष पहले-पहल बाबू कार्तिकप्रसाद, बाबू माताप्रसाद और मै सभा के सभासद बनाने के लिये प्रयाग तथा लखनऊ गए। अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति सभासद बने। इसी यात्रा में मैं पहले-पहल पं० मदनमोहन मालवीय, पंडित बालकृष्ण भट्ट, बाबू कृष्णवलदेव वर्मा, मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा आदि से परिचित हुआ। यह यात्रा बड़ी सफल रही।

तीसरे वर्ष (सन् १८९५-९६) मे सभा ने कई महत्वपूर्ण कार्यों का आरंभ किया। अब हरिप्रकाश प्रेस में एक कमरा ४) रु० महीने पर किराये पर लिया गया और कुछ टेवल, कुर्सी, बैंच आदि का प्रबंध किया गया। जिस दिन सभा का कोई अधिवेशन होता उस दिन मुझे ही सब काम करना पड़ता था, यहाँ तक कि कभी कभी झाड़ू भी अपने हाथ से देना पड़ता था। पर इसके करने में न मुझे हिचकिचाहट होती थी और न लज्जा ही पाती थी। मैं नहीं कह सकता कि क्यो सब कामो के करने में मुझे इतना उत्साह था।

इसी वर्ष नागरी-प्रचारिणी पत्रिका निकालने का प्रबंध किया गया। सभा की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट में इस संबंध में यह लिखा है―

“सभा की कोई सामयिक पत्रिका न होने के कारण उसकी निर्णीत बहुत-सी बातें सर्व-साधारण में प्रचारित होने से रह जाती थी और सभा के वहुतेरे उद्योग सरोवर मे खिलकर मुरझानेवाले कमलों के समान हो जाते थे। दूसरे बहुतेरे भावपूर्ण उपयोगी लेख सभा मे आकर पुस्तकालय की आलमारियो को ही अलकृत करते थे जिससे उसके सुयोग्य लेखक इतोत्साह हो जाते थे और सुरसिक उत्साही पाठक जन प्यासे चातक की भाँति बाट जोहते ही रह जाते थे। इन्ही बातो का विचार कर और हिंदी में भापातत्त्व, भूतत्व, विज्ञान, इतिहास आदि विद्याविषयक लेखों और ग्रंथों का पूर्ण अभाव देख सभा ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका निकालना प्रारंभ किया है।”

आरंभ मे यह पत्रिका त्रैमासिक निकलने लगी और मैं उसका प्रथम सपादक नियत हुआ।

चौथे वर्ष (१८९५-९६) में कई काम हुए। इस वर्ष में यह बात प्रचलित हुई कि गवर्नमेट अदालतों मे फारसी अक्षरों के स्थान पर रोमन अक्षरों का प्रचार करना चाहती है। इस सूचना से बड़ी खलबली मची। अतएव विचार किया गया कि इस अवसर पर चुप रहना ठीक न होगा। यदि एक बार रोमन अक्षरो का प्रचार हो गया तो फिर देवनागरी अक्षरों के प्रचार की आशा करना व्यर्थ होगा। आंदोलन करने के लिये सभा के पास धन नही था। अतएव, यह निश्चय हुआ कि मैं मुजफ्फरपुर जाऊँ और वहाँ से कुछ धन प्राप्त करने का उद्योग करूँ। मैंने सभा की आज्ञा शिरोधार्य की। वहाँ मै बाबू देवीप्रसाद खजांची के यहाँ ठहरा और उनके साथ वायू परमेश्वरनारायण मेहता तथा बाबू विश्वनाथप्रसाद मेहता से मिला और उन्हें सब बातें बताई। वे दोनों महाशय अत्यत विद्यारसिक और उदार थे। वे १२५), १२५) रु० देकर सभा के स्थायी सभासद, बने और रोमन के विरुद्ध आदोलन करने के लिये दोनो महाशयो ने मिलकर ५०) दान दिया। यह धन लेकर मै काशी लौटा तो उत्साह से भग हुआ था। निश्चच हुआ कि इस सबंध में एक पैम्पलेट छपवाया जाय। बाबू राधाकृष्णदास ने उसके नोट तैयार किये। मैंने पैम्पलेट अँगरेजी में लिखा और पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र ने उसका संशोधन और परिमार्जन किया। यह पैम्फलेट The Nagari Character नाम से सन् १८९६ में प्रकाशित किया गया और इसकी प्रतियाँ चागें और बाँटी गई। आनंद की है कि २७ जुलाई सन् १८९६ की गवर्नमेंट की आज्ञा नं० सी० में कहा गया कि गवर्नमेट ने रोमन अक्षरो के प्रचार का प्रस्ताव प्रस्वीकृत कर दिया है।

इस वर्ष के नवंबर मास में सर एंटोनी मैकडानेल साहब जो इस प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, काशी पधारे। सभा ने उनको एक अभिनंदन-पत्र देने का विचार कर उसके लिये आज्ञा माँगी। कोई उत्तर न मिला। जब सर एंटोनी साहब काशी पहुँच गए तो मैं नदेसर की कोठी में जहाँ वे ठहरे थे, बुलाया गया। वनारस के कमिश्नर के सिरिश्तेदार ने मुझसे कहा कि यदि तुम्हारी सभा अभिनंदन-पत्र देना चाहती है तो जाओ डेपुटेशन लेकर अभी आओ। मैंने कहा कि संध्या हो चली है। लोगों को इकट्ठा करने में समय लगेगा। यदि कल या परसों इसका प्रबंध हो सके तो हम लोग सहर्ष आकर अभिनंदन-पत्र दे सकते हैं। उन्होने कहा, यह नहीं हो सकता। मैं लौट आया और मुख्य मुख्य सभासदो से सब बातें कहीं। निश्चय हुआ कि अभिनदन-पत्र डाक से भेज दिया जाय और सब बातें लिख दी जायें। ऐसा ही किया गया। उसके उत्तर नें लाट साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी ने निन्नलिखित पत्र भेजा।

His hononr has read the address with interest. The substantial question referred to, i e the substitution of Hindi for Crdu as the official lanuage of the court is one on which His Honour cannot now express an opinion He admits. However that your representation deserves careful attention and this he will be prepared to give to it at some future suitable time.

इनके अनंतर प्रयाग में भान्तीझन के वार्षिकोत्सब पर जस्टिस नाक्स ने जो उस उन्नव के सभापति थे कहा कि यह अवसर है कि तुम लोगों को अदालतों में नागरी-प्रचार के लिये उद्दोग करना चाहिए। उन्हें सफलता प्राप्त होने में पूरी आशा है। गवर्नर के ऊपर दिए उत्तर तथा जस्टिस नाक्स के क्यन का प्रभाव पड़ा और पंडित मदनमोहन मालवीय ने इस काम को अपने हाथ में लिया। कई वर्षों के परिश्रम के अनंतर उन्होंने Court Character and Primary Education नाम से एक पुस्तिका लिखकर तैयार की और वे एक डेपुटेशन भेजने का विचार करने लगे। इस पुस्तिका के तैयार करने में उनके मुख्य सहायक पंडित श्रीकृष्ण जोशी थे, जो बोर्ड आफ रेवेन्यू में नौकर थे। इस आंदोलन का विवरण आगे चलकर दूँगा। इसी वर्ष महाराज रौवा ने निज गज्याभिषेक के समय अपने राज्य में नागरी-प्रचार की आज्ञा दी और १०० रु० सभा को दान दिया।

चौथे वर्ष नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में मेरे दो लेख प्रकाशित हुए। वे दोनो लेख ये थे।

(१) भारतवर्षीय आर्य-देश-भाषाओ का प्रादेशिक विभाग और परम्पर संबंध। यह डाक्टर प्रियर्स-लिखित एक लेख का अनुवाद है जो Caleutta Review में छपा था।

(२) नागर जाति और नागरी-लिपि की उत्पत्ति। यह Asiatic Society के जरनल में छपे हुए एक लेख का अनुवाद है।

यहाँ पर कुछ विशेष घटनाओं का उल्लेख कालक्रम के अनुसार उचित जान पड़ता है।

सभा की उन्नति और विशेष कर मेरी ख्याति से चंद्रकांता उपन्यास के लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री को विशेष ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे पंडित रामनारायण मिश्र को शिखंडी बनाकर भॉति भाॅति के आक्रमण तथा दोषारोपण मुझ पर करने लगे। इससे मैं बहुत खिन्न हुआ। चौध वर्ष के आरंभ में जो कार्यकत्ताओ का चुनाव हुआ, उसके लिये बाबू देवकीनंदन ने बहुत उद्योग किया और मैं उदासीन था। अतएव, वे मंत्री चुने गए। पर उनके मंत्रित्वकाल में सभा की प्रगति स्थगित रही। बाहरी सभासदो की संख्या गत वर्ष की अपेक्षा अवश्य बढ़ी पर आय में बहुत कमी हुई। विशेष चंदा तो कहीं से प्राप्त ही न हुआ। सभासदो के बढ़ने पर भी उनके चंदे की आय ३३९) से घटकर २२७)हो गई। कोई नया कार्य इस वर्ष नहीं हुआ, यहाँ तक कि सभा के अधिवेशन भी बहुत कम हुए। सच बात तो यह है कि मत्रित्व पाने का उद्योग सभा की शुभ-कामना से प्रेरित नहीं था। वह तो ईर्ष्या-द्वेष के भावो से प्रभावित था। कुछ महीनों तक यह क्रम चला। पर जब सभा के टूट जाने की आशंका हुई तो वाबू राधाकृष्णदास, बाबू कार्तिकप्रसाद, पंडित अगन्नाथ मेहता आदि ने मिलकर बाबू देवकीनदन से कहलाया कि या तो आप मंत्रित्वपद से त्याग-पत्र दे दीजिए या हम लोग सभा करके दूसरा मत्री चुनेंगे। बाबू देवकीनंदन खत्री ने त्याग-पत्र देने में ही अपनी प्रतिष्ठा समझी। अस्तु, अब बाबू राधाकृष्णदास मंत्री चुने गए। मंत्रित्व से मेरा कोई साक्षात् संबध न रहने पर भी मैं बाबू राधाकृष्णदास की निरतर सहायता करता रहा।

एक काम जो इस वर्ष में हुआ वह उल्लेख योग्य है। मेरे उद्योग से बाबू गदाधरसिंह ने, जो अब पेंशन लेकर काशी आ गए थे, अपना आर्यमापापुस्तकालय सभा के नागरी-भंडार मे संमिलित कर देने का निश्चय किया। इसके लिये एक उपसमिति बनाई गई जिसके स्थायी मत्री बाबू गदाधरसिंह चुने गए। अब सभा का कार्यालय नेपाली खपरे से उठकर बुलानाले पर आया और पुस्तकालय नित्य निश्चित समय पर खुलने लगा।

इस वर्ष मेरा पहला मौलिक लेख शाक्यवशीय गौतम वुद्ध के नाम से नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। अब तक जो लेख छपे थे वे अनुवाद थे।

इस वर्ष के अंत और पााँचवें वर्ष के आरंभ में २८ जुलाई १८९७ को सभा का वार्षिकोत्सव मनाया गया। इसके सभापति काशी के कलक्टर मि॰ काब थे। इन्होंने अपने अतिम भाषण में नागरी-अक्षरों की बड़ी निंदा की। यह मुझसे न सहा गया। मैने उन्हें धन्यवाद देते उनके कथन का खंडन किया। किसी ने यह समाचार जाकर मेरे चाचा साहब को दिया। वे बहुत घबराए। सभा में आने का तो उनका साहस न हुआ पर घर पर जाकर वें बहुत बिगड़े। कहने लगे कि यह लड़का अपने मन का हुआ जाता है। किसी दिन यह आप तो जेल जायगा ही हम लोगों को भी हथकड़ी-वेड़ी पहना देगा। उस समय की स्थिति कुछ ऐसी ही थी। लोग अँगरेजो से बड़े भयभीत रहते थे। उनकी बात का खंडन करना तो असंभव बात थी। पर अब स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो गया है।