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मेरी आत्मकहानी/३ अदालतों में नागरी

विकिस्रोत से
मेरी आत्मकहानी
श्यामसुंदर दास

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३३ से – ४५ तक

 

(३)

अदालतों में नागरी

पाँचवें वर्ष से सभा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुई। सन् १९०० वक पहुँचते पहुँचते उसने कई उपयोगी कार्य आरंम कर दिये और बहुत कुछ प्रतिष्ठा तथा सम्मान प्राप्त किया। सबसे महत्त्व का कार्य अदालतो मे नागरी-अक्षरों के प्रचार का उद्योग था। पंडित मदन-मोहन मालवीय ने Court Character and Primary Education in the N.W Provinces and Oudh घोर परिश्रम तथा प्रशंसनीय लगन के साथ तैयार कर लिया था। इसका संक्षेप मैंने ‘पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध में अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा’ नाम से लिया था जो नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में छपा और जिसकी अलग प्रतियाँ छाप कर बाँटी गई। मालवीय जी ने इस संक्षेप को देखकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी और सुंदर वाक्यो में हम लोगो का उन्माह बढाया था। अब मेमोरियल देने की तैयारी हुई। एक डेपुटेशन बनाया गया जिसमें प्रांत भर के प्रमुम्ब प्रमुख १७ व्यक्ति थे। इस डेपुटेशन के द्वारा २ मार्च सन् १८९८ को इलाहाबाद के गवर्नमेट हाउस में सर ऐटोनी मेकडानल को मेमोरियल दिया गया। मेमोरियल में मुख्यत यह बात की गई थी कि अदालतों में नागरी-अक्षरो का प्रचार न होन से प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा, को बड़ी असुविधा और कष्ट होता है तथा आरभिक शिक्षा के प्रचार में बाधा उपस्थित होती है।

उत्तर मे सर ऐटोनी ने विषय की गुरुता का स्वीकार करते हुए कहा कि “आप लोग जिस परिवर्तन के लिए प्रार्थना करते हैं वह वास्तव में उस भाषा का परिवर्तन नहीं है जो हमारी अदालतो और सरकारी कागजो मे वरती जाती है। आप लोग उन अक्षरों के परिवर्त्तन के लिए प्रार्थना करते है जिनमे वह भाषा लिखी जाती है। वह भाषा जो हमारी अदालतो और सरकारी कागजों में लिखी जाती है कठिन और फारसी शब्दो से पूर्ण हो सकती है और उसके सरल करने का उद्योग आवश्यक हो सकता है, पर वास्तव में वह भाषा हिंदी है, जिसे इन प्रातों की प्रजा का बहुत बड़ा अंश बोलता है। परंतु यदि हमारी अदालतो की भाषा हिंदी है तो जिन अक्षरो में वह लिखी जाती है वे फारसी है और आप लोगो का यह प्रस्ताव है कि फारसी के स्थान पर नागरी-अक्षरो का (आप लोग कैथी-अक्षरों को पसंद नहीं करते) जिस में हिंदी साधारणत लिखी जानी चाहिए, प्रचार किया जाय। इसमे कोई संदेह नहीं कि इस प्रस्ताव के पक्ष मे बहुत कुछ कहा जा सकता है। इन प्रांतो मे चार करोड़ सत्तर लाख मनुष्य बसते हैं और जो अनुसधान-प्रसिद्ध भाषातत्त्व-वेत्ता डाक्टर ग्रियर्सन प्रत्येक जिले में भाषाओ की जाँच के संबंध में करक्षरहे हैं, उससे यह प्रकट होता है कि इन चार करोड़ सत्तर लाख मनुष्यों में से चार करोड़ पचास लाख मनुष्य हिंदी या उसकी कोई.बोली बोलते हैं। अब यदि चार करोड पचास लाख मनुष्य उस भाषा को लिख भी सकते जिसे वे बोलते है तो निस्सदेह फारसी के स्थान पर नागरी-अक्षरों का प्रचलित किया जाना अत्यत ही आवश्यक होता, पर इन चार करोड़ पचास लाख मनुष्यो मे से तीस लाख से कुछ कम लोग लिख और पढ़ सकते हैं और इन शिक्षित लोगो मे से, यदि मैं उन्हें ऐसा कह सकूँ, तो एक अच्छा अंश मुसलमानो का है जो उर्दूं बोलते और फारसी-अक्षरो का व्यवहार करना पसंद करते हैं।” इसके पश्चात प्राइमरी शिक्षा के बढ़ाने और उसके साथ ही नागरी या कैथी जाननेवालो की संख्या के बढ़ाने तथा सरकारी कर्मचारियों के नागरी जानने की आवश्यकता का उल्लेख करके श्रीमान् ने कहा, “मेरे इस कहने से आप लोग समझ सकते हैं कि यद्यपि मैं नागरी-अक्षरों के विशेष प्रचार के पक्ष में हूँ, पर मैं इस बात का कह देना उचित समझता हूँ कि जितनी आप लोग समझते हैं उससे अधिक आपत्तियाँ इसके पूर्ण प्रचार की अवरोधक है।” बिहार में कैथी-अक्षरो के प्रचार मे जो कठिनाइयाँ पड़ी थी उनका वर्णन करके उन्होने कहा―“मेरा सिद्धांत यह है कि यद्यपि मै यह समझता हूँ कि हमारे सरकारी कागजो में नागरी-अक्षरो के विशेष प्रचार से लाभ होगा और समय भी इस परिवर्तन के पक्ष में है पर मैं ऐसा कोई आवश्यक या उचित कारण नहीं देखता कि क्यो हम लोग शीघ्रता करें अथवा क्यो न हम लोग विचारपूर्वक और उन लोगों के हित और भावो पर, जो इस परिवर्तन के विरोधी हैं, उचित ध्यान देकर इस कार्य को करें। मुसलमान लोग, जैसा कि आप लोग अनुमान करते हैं, इस परिवर्तन का विरोध करेंगे और अभी तक आप लोगो ने उन लोगों का विरोध दूर करने और उन्हे अपने पक्ष मे लाने के लिए कोई ऐसा कार्य नहीं किया है जिससे यदि वे आपके विचारों से सहमत न हो तो कम से कम वे आपस मे निपटारा तो कर लें। इसमे और उन बातो मे, जिनमे परस्पर विरोध है हम लोगो को दूरदर्शिचा पर ध्यान देकर यह देखना चाहिए कि कोई ऐसा बीच का उपाय हो सकता है या नहीं जिससे दोनों ओर का विरोध दूर हो जाय। इस अवसर पर इस विषय में अपनी नीति को प्रकाशित किये बिना अथवा किसी विशेष शैली के अनुसार कार्य करने की प्रतिज्ञा किये बिना मै यह कहना चाहता हूँ कि हम लोगो का संबंध तीन प्रकार के कागजो से है। एक तो वे कागज हैं जिन्हें प्रजा गवर्नमेंट की सेवा में उपस्थित करती है। दूसरे वे जिन्हें गवर्नमेंट प्रजा के लिये निकालती है और तीसरे वे जिनमे सरकारी कार्रवाइयाँ लिखी जाती हैं और जो सरकारी दफ्तरों में रक्षित रहते हैं। तीसरे प्रकार के कागज अर्थात् वे कार्रवाइयाँ जो सरकारी दफ्तरों मे रक्षित रहती हैं, और पहले दो प्रकार के कागजो से कुछ भिन्न हैं। निस्संदेह प्रजा का संबंध उन अक् से है जिनमे वे कार्रवाइयाँ लिखी जाती हैं, क्योंकि उनको ऐसी कार्रवाइयो की नकल लेनी पड़ती है जो बहुधा स्वत्व और दावों के प्रमाण होते है, परंतु इनका काम वकीलो की सम्मति के साथ विशेष अवसरो पर पड़ता है। प्रतिदिन के कार्यों के अंतर्गत वे नहीं आते। इसलिए इन कागजो के विषय मे निश्चय करना उतना आवश्यक नहीं है जितना दूसरे दो प्रकार के कागजो के विषय मे है। इस अवसर पर इस बात पर मैं अपनी सम्मति् नहीं प्रकाशित करूँगा कि किन अक्षरों में इन कागजो को लिखा जाना चाहिए किंतु मैं यह कह देता हूँ कि मुझे इन कागजो को लिखने के लिए रोमन-अक्षरो के व्यवहार के विरोध करने के लिये कोई उचित कारण नहीं देख पड़ता। दूसरे दो कागजों के विषय में मेरा यह विचार है कि यह उचित नहीं है कि ऐसा पुरुप जो नागरी लिख सकता हो गवर्नमेंट के पास भेजने के लिये अपने आवेदन-पन्न या मेमोरियल को फारसी-अक्षरो मे लिखवाने का कष्ट सहन करे। यह भी अनुचित जान पड़ता है कि एक ऐसी सरकारी आज्ञा जो ऐसे गाँवों के लिये निकाली जाय जहाँ के रहनेवाले हिंदी बोलते हो, फारसी-अक्षरो मे लिखी हो, जिसे उस गाँव में कोई भी न पढ़ सके। ऐसे प्रबंध का करना असंभव न होना चाहिए जिसमे हिंदी या उर्दू बोलनेवालो में से ३८ मेगात्मपहानी सवा अपने आवेदन पत्रों का गानट तक पहुंचाने में मर गान- मेटरी इन्याओं को जानने में मुभाना ही धीर स्मिी प्रमका कट या व्यय न सान सग्ना परं । म प्रार के प्रक्ष में (यति हो सके तो) यपि वे नर पनि प्रान नगी जिन पर नाप लागी का नया इम ममाग्यिल के दम मामांगमध्यनयापि उनसे कुछ बातें प्रात रोगी और गानमष्ट का प्रतापनग निश्चित करने का उपाय सागने का समय मिलंगान यान से समझ लेना चाहिए कि वर्षों में जो गवाना पागाई वह एक दिन में नीट माना। मैं ममता, कि यागार अकवर के पाल भारतवर्ष के उम भाग में मर गजर नया पास कामा में हिंदी भाषा और नागरी-अन्न गन्यतार था।" 'न मे श्रीमान् ने अम्बर के समय में पानी के प्रचार राउन करके (यद्यपि यह मार्च अधिकांश लोगों के मुभीते का पान सके नहीं पिया गया था।) कहा-"हम लोगो का जो पुत्र करना । यह पूरी जांच और विचार करके ही करना चाहिए।" इम मेमोरियल के साथ में लगमग र हताना १६ निस्टो मे बाँध कर दिये गये थे जिन्हें मभा के प्लेंटा ने मिर्जापुर, गाजीपुर, घलिया. गोरखपुर, गोडा बहराइच पत्ती. फैजाबाद. लखनऊ कानपुर, बिजनौर. इटावा मेरठ, नहारनपुर. मुजफ्फरनगर. झांसी, ललितपुर, जालौन, काशी. इलाहाबाद आदि नगरो मे चूम घूम कर प्राप्त किया था। यहाँ पर मैने सर ऐंटोनी के उत्तर का अधिकांश भाग धृत किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि अदालतों में नागरी-प्रचार के लिये बहुत वर्षों से उद्योग हो रहा था। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हंटर कमिशन के समय में इस कार्य के लिये उत्कट प्रयत्न किया था, पर उन्हें सफलता प्राप्त नही हुई थी। इस उद्योग से अब की सफलता का बीजारोपण हो गया। इसलिए इस युग-प्रवर्तक घटना का पूरा उल्लेख हो जाना आवश्यक है। हम उद्योग के संबंध में कुछ और बातें हैं जिनका अभी तक कही उल्लेख नही हुआ है। अतएव, उनको यहाँ संक्षेप में कह देना उचित जान पढता है।

जब इस मेमोरियल के देने की तैयारी हो रही थी तब मैने डाक्टर ग्रियर्सन से पत्र-द्वारा यह प्रार्थना की थी कि वे किसी प्रसिद्ध समाचार-पत्र में नागरी-प्रचार के पक्ष में अपनी सम्मति प्रकाशित कर दे। उन्होंने उस समय तो कोई उत्तर नहीं दिया पर सर ऐटोनी के उत्तर दे लेने पर उन्होंने लिया कि “यद्यपि सामाचार-पत्र में नागरी के पक्ष में कुछ लिखने की तुम्हारी प्रार्थना को मै स्वीकार न कर सका, पर अब तुमको मालूम हो गया होगा कि परोक्ष रूप से मैंने तुम्हारे पक्ष का समर्थन किया है जिनका प्रभाव समाचार-पत्र मे लेख लिखने की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।”

जिस दिन मेमोरियल दिया गया उस दिन बाबू राधाकृष्णदास की तथा मेरा प्रबल इच्छा थी कि गवर्नमेंट हाउस में जाकर इस दृश्य को देखे। मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा की कृपा मे हम लोगों को प्रेस-पास मिल गये और हम लोग जा सके।

वहाँ से लौटने पर बाबू राधाकृष्णदास ने त्रिवेणी मे स्नान करके यह मनौती मानी कि यदि अदालतों में नागरी का प्रचार हो गया तो मै आकर तुम्हें दूध चढ़ाऊँगा। उस मनौती को उन्होने यथा-समय पूरा किया। इससे उनके धार्मिक भाव तथा नागरी और हिंदी के लिये उत्क्ट प्रेम का परिचय मिलता है।

जब डेपुटेशन भेजने की तैयारी हो रही थी तब उसमें सभा के भी एक प्रतिनिधि के सम्मिलित करने का निश्चय हुआ। सभा ने बाबू राधाकृष्णदास को अपना प्रतिनिधि चुना। पर पंडित मदन-मोहन मालवीय को यह स्वीकार न था। सभा के ओर मालवीय जी के विचार में बडा अंतर था। सभा यह चाहती थी कि जिसने काम किया है उसे ही सम्मान देना चाहिए, पर मालवीय जी के हृदय में दूसरे भाव थे। उनका डेपुटेशन राजाओ, रायबहादुरों और प्रसिद्ध रईसों का था। मालवीय जी के जीवन पर एक साधारण दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनके हदय में राजाओं, रईसों आदि के लिये अधिक सम्मान का भाव रहा है। यही कारण है कि उन्हे हिंदू-विश्वविद्यालय की स्थापना में इतनी सहायता मिली कि वे अपने स्वप्न को प्रत्यक्ष रूप दे सके।

अस्तु, समस्या सामने उपस्थित थी, उसके हल करने का एकमात्र उपाय यही था कि स्वय मालवीय जी को सभा का प्रतिनिधि बनाया जाय। ऐसा ही किया गया और इसका परिणाम यह हुआ कि मालवीय जी ने नागरी-प्रचार के लिये जो अथक परिश्रम और प्रशसनीय उद्योग किया था उसका बहुत कुछ श्रेय काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को उनके प्रतिनिधित्व स्वीकार करने से प्राप्त हो गया। ४१ नांबरी सामान गारपणाम और मैं मनगंगा पर्ग प्रयाग गए थे। यानाही याग में मार मिनी मैरानन म प्रांत के पतिमा मिना लगा है फि गगन TEST AIR मम्गति जानने कन्छ। को प्रादमी इन हिनंगी नाग-नार. 4-1 में जनता का यहमन स्त्र ने बत तिचार के 'जनतर या निश्चय पुष्पा कि मैं लगाना पर पाबा पीर लग्पनऊ से चालू मानधनांनी या प्राण्यलोन यो नार ग्यिा गया और मर्ग गाता गंगन लगी। ग गधारपणास ने अपना नौर maiगुनको चौर भारतीभवन के मस्थापक घावू अजमोहनमान में १०) धार लेकर गाना-न्यय के लिये मुगं दिया गया। मैं लन्ना लिये धन पणा मंगन पर पा० कृष्ण- अलय या नितं. पर न जाना बांगर न किया। उस रात को लगनादर गया श्री धर्मा जी से समझाता और उत्माहित रगना गान में वे मयार हो गए और दूसरे दिन हम लोग शाजापुर के लिंग चल पडे। वहाँ म घग्ली, मुरादाबाद, सहारन- पुर. मेरठ, मुजफफरनगर, अलीगढ़, श्रागग, मथुग होते हुप कोई एक महीने में घर लौटे। मन न्यानो में हम लोग प्रमुख प्रमुख व्यनियों में मिने अपना उदृश्य घताया और नागरी के प्रचार और मान के लिये एक मंटन स्थापित किया। यह यात्रा में . ४२ मेरी बालनहानी घड़ी सफल हुई। जिस उद्देश्य से हम लोग गए थे वह पूरा हुधा। इन म्यान पर मै पहित न्दाग्नाव पान की सेवाओं का संप में उल्लेख करना चाहता हूँ। ये हिंदी के बड़े पुराने भक्तो और सेवकों ने थे। उन्होंने नमा के पुलकालय ग कार्य अनेक वर्षों तक बड़ी लगन के माय ग्गि था। सच्चे इय से मना की शुम कामना करते थे। नागरी के प्रांगेशन के ननर इन्होंने अनेक नगरों में घूमन मेनोरिल सम्बन में सर्वसाधारण जनता के हत्वावर प्राम किए थे और उस कार्य में इन्हें पुलिस की हिरासत में भी रहना पड़ा था। भान जी का परिचय बहुत-से हिंदी-लेखकों से था। यदि वे अपने संस्मरण लिख जाने तो वे बड़े ननोरंजक होते। यह ढिीलन दो वपों तक चलता रहा। अंत ने गवनमट ने यह निश्चय क्यिा मि(१) सब मनुष्य प्रार्थनापत्रादि अपनी इन्छा के अनुसार नागरी ग फारती-अन्त में लगते हैं. (२) नव ननन, सूचना-पत्र और खून प्रकार के पत्रादि जो नरमार्ग न्यायालयों या प्रवान मचारियों की ओर से देश-भाषा में प्रचारित किए जाते हैं फारसी और नागरी-अरी में जारी होंगे और इन पत्रों में उत भाग की लानापूरी मी नागरी में उतनी ही होगी जितनी हारसी-मजरो में जाय और (B) ग्ने मुकरों को हांडार सहाँ मेल गरेकी में कान होता है कोई मनुष्य इस मामा के पीह न नियुक्त किया सायगा यदि वह हिंदी और उर्दू दोनों न जानना होगा और जो इस ममय के बीच में नियुक्त किया जायगा और इन दोनों मापात्रों में से केवल एक को जानता होगा दूसरी को नहीं, उसे नियुक्त होने की तारीख के एक वर्ष मे दूसरी भाषा को जिसे वह न जानता होगा भली भांति सीख लेना होगा।

इस प्रकार उद्योग में सफलता प्राप्त हुई। गवर्नमेट ने तो अपना कर्त्तव्य पूरा कर दिया पर हम लोगो मे जो शिथिलता और स्वार्थपरता भरी हुई है उसके कारण हम इस आज्ञा से यथेप्ट लाम अभी तक नहीं उठा सके हैं। इसमे सदेह नहीं कि कुछ वकीलो, रईसों, जमीदारो तथा अन्य लोगों ने अपना सब काम नागरी में करने की अपूर्व दृढ़ता दिखाई है, और कुछ राजो ने अपने राज्य के दफ्तरो और कचहरियो मे नागरी का पूर्ण प्रचार करके प्रशंसनीय कार्य किया है, पर अभी बहुत कुछ करने को बाकी है। इस समय तो हम अपने घर की सुध भूल कर मद्रास और आसाम तक दौड़ लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं पर जब तक चिराग तले अँधेरा बना रहेगा तब तक स्थिति के पूर्णतया सुधरने की बहुत कम आशा है।

जैसा कि मै पहले लिख चुका हूॅ, मार्च सन् १८९८ मे मेरी नियुक्ति सेट्रल हिंदू स्कूल में हुई। पहले मैं असिस्टेंट मास्टर हुआ। कुछ दिनों पीछे असिस्टेंट हेड मास्टर बनाया गया। मुझे भली भाँति स्मरण है कि एक दिन प्रातःकाल बाबू सीताराम शाह अपने बड़े भाई बाबू गोविदास का यह सदेशा लेकर आए कि यदि हिंदू स्कूल में काम करना चाहते हो तो आरभ मे ४०) रु० मासिक वेतन मिलेगा और आज तुम इस काम को आरभ कर सकते हो। मैने इस प्रस्ताव को धन्यवाद के साथ स्वीकार किया और उस दिन मरीनालाहानी जार कार्यभार ले लिया। मसलपलटमान्टर मिस्टर नवरी हुए। वे दक्षिण-अकिरा में भारतवर्ष में श्रम । वे अपने कार्य में दन पर उन शिष्टना चार मंशनि प्रमिस एच बुनगे-मी थी और इससे वे लोगों का नानी नमान श्रजनन पर सके। धीरे धीरे यह यान प्रबरनटी पर भी प्रस्ट हो गई और उसने उद्योग करके उन्हें लपनऊ के गर्नमेंट जुबिनी स्कूल की हेड मास्टरी दिला दी। इसके अननर मिस्टर जीन भाग्नडेल हेड माटर निरत न। वे एक मंञान मार एल के मपन्न व्यक्ति थे। शिटता और सदाचार तथा नति के विचार में वे पादर्श कई जा मरने है। अाजकल वे मगम में गगन में धीर चियानोफिल लोनाइटी के प्रेमिडेंट है। इनके सर्व-कान में स्कूल ने बड़ी उन्नति की और उमस यश चारों ओर फैल गया। मिस्टर पारनडेल ने नुमते स्पष्ट कर दिया था कि मेरा काम पढाना-लिम्पाना नहीं है और न स्कूल का प्रतिदिन का कार्य करना है। यह मत्र तुमको करना होगा और में केवल इस उद्योग में लगा एंगा कि भारतीयों के हृदय में मेरे तया ब्रिटिश जाति के लिये स्नेह और संमान हो। ऐसा ही हुआ। वे भारतीयों के अपमान को नः सह सक्ने ये और सदा उना समयन करने को उद्यत रहते थे। इस कार्य में गवर्नमेंट के अधिकारियों से उनसे मुठभेड़ भी हो गई। अस्तु. कूल का सव काम मेरे अधिसर में रहा। इसमें कई कठिनाइयाँ भी हुई पर वे सुलमती गई । इस प्रकार कई वर्षों तक राम चलवा रहा। सन् १८९८ ९९ और १९०० में समा ने में महत्वपूर्ण कार्यों का श्रीगणेश किया जिनका वर्णन मैं यहाँ करना चाहता हूॅ। इनमें मुख्य मुख्य बाते ये है―हिंदी-लेख और लिपि-प्रणाली पर विचार वैज्ञानिक कोष, रामचरितमानस सरस्वती और हस्तलिखित हिंदी-पुस्तको की खोज। इन सब कामो का श्रीगणेश १९०० से पहले ही हो चुका था और इनका स्पष्ट रूप सन् १९०० मे प्रकट हुआ। अब मैं पुनः सभा का मंत्री हो गया था। सन् १९०० के पहले सभा ने इंडियन प्रेस के लिये भाषा-पत्रबोध, भाषा-सार-संग्रह भाग १ और २ तथा खेती-विद्या की पहली पुस्तक तैयार की। यहाँ एक बात का उल्लेख कर देना कदाचित् अनुचित न होगा। जब भाषा-सार-संग्रह तैयार हुआ तब मेरी बड़ी उत्कट कामना थी कि इस पुस्तक पर और लोगों के साथ मेरा भी नाम रहे। पर इंडियन प्रेस के स्वामी ने इसे स्वीकार न किया। पुस्तक पर किसी का नाम न दिया गया। लेखक के स्थान पर केवल ‘सभा’ के पाँच सभासदों-द्वारा-रचित’ लिखा गया। इसके बहुत वर्षों पीछे वह समय भी आया जब प्रकाशकों ने केवल मेरा नाम छापने की अनुमति देने के लिये मुझे बहुत कुछ लालच दिया। यह समय का प्रभाव है कि जब किसी वस्तु के प्राप्त करने की लालसा होती है तब वह नहीं प्राप्त होती, पर जब लालसा नष्ट हो जाती है तब वह सहसा प्राप्त हो जाती है।