सामग्री पर जाएँ

मेरी आत्मकहानी/६ हस्तलिखित हिंदी-पुस्तकों की खोज

विकिस्रोत से
मेरी आत्मकहानी
श्यामसुंदर दास

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ७९ से – १०७ तक

 

(६)

हस्तलिखित हिंदी-पुस्तकों की खोज

सन् १८६८ ई० में भारत-सरकार ने लाहौरनिवासी पंडित राधाकृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकृत कर भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रांतो में हस्तलिखित संस्कृत-पुस्तकों की खोज का काम आरंभ करना निश्चित किया और इस निश्चय के अनुसार अब तक संस्कृतपुस्तकों की खोज का काम सरकार की ओर से बंगाल की रायल एशियाटिक सुसाइटी, बंबई और मदरास की गवर्मेंटो तथा अन्य अनेक संस्थाओं और विद्वानों द्वारा निरंतर होता आ रहा है। इस खोज का जो परिणाम आज तक हुआ है और इससे भारतवर्ष की जिन-जिन साहित्यिक तथा ऐतिहासिक बातों का पता चला है, वे पंडित राधाकृष्ण की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता तथा भारत-गवर्मेंट की कार्यतत्परता और विद्या प्रेम के प्रत्यक्ष और ज्वलंत प्रमाण हैं। संस्कृत-पुस्तको की खोज-संबंधी डाक्टर कीलहाने, बूलर, पीटर्सन, भाडारकर और वर्नेल आदि की रिपोर्टों के आधार पर डाक्टर गई। यह खेद की बात है कि इन पुस्तकों की कोई सूची अब तक प्रकाशित नहीं की गई। सभा ने संयुक्त-प्रदेश की गवर्मेंट से भी खोज का काम कराने की प्रार्थना की थी। प्रांतीय गवर्मेंट ने अपने यहाँ के शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर को लिख दिया कि संस्कृत-पुस्तको की खोज के साथ ही साथ उसी ढंग पर ऐतिहासिक तथा साहित्यिक महत्त्व की हस्तलिखित हिंदी-पुस्तकों की खोज का भी उचित प्रबंध कर दें। इस आज्ञा की अवहेलना की गई और इस संबंध में कोई कार्य नहीं हुआ। तब मार्च सन् १८९९ में सभा ने फिर गवर्मेंट का ध्यान आकर्षित किया। अब की बार गवर्मेंट ने इस कार्य के लिये सभा को ४०० रु० वाषिक सहायता देने की स्वीकृति दी और सभा ने बड़े उत्साह से इस काम को अपने हाथ में लिया। अगले वर्ष यह सहायता ५०० हो गई। कुछ वर्षों के अनंतर १००० रु० वार्षिक सहायता मिलने लगी और अब कई वर्षों से २००० रु० वार्षिक सभा को इस काम के लिये मिलता है।

इस कार्य का सब प्रबंध सोच लेने पर एक निरीक्षक नियत करने की बात उठी। मैं चाहता था कि बाबू राधाकृष्णदास इस काम को करें, पर उन्होंने कहा कि 'मेरी अँगरेजी की योग्यता ऐसी नहीं है कि मैं इसकी रिपोर्ट उस भाषा में लिख सकूँ।' अतएव मैं निरीक्षक चुना गया। इस कार्य की सब शिक्षा मुझे बाबू राधाकृष्णदास से प्राप्त हुई। वे ही इस काम में मेरे गुरु थे। साथ ही उन्होंने इस कार्य में पूरा सहयोग भी दिया। अस्तु, काम प्रारंभ हुआ। पहले वर्ष में हम दोनों व्यक्ति मथुरा और जयपुर में पुस्तकों की खोज में गए। वहाँ जो कुछ मिला वह सब पहली रिपोर्ट में लिखा है। यह तो संभव नहीं है कि इस स्थान पर इस कार्य का सविस्तर वर्णन हो सके, पर संक्षेप में दिग्दर्शन-मात्र कराने का मैं उद्योग करूँगा। आरंभ प्रतिवर्ष रिपोर्ट लिखी जाती थी पर १९०६ से प्रति तीसरे वर्ष रिपोर्ट देने का नियम निश्चित हुआ। मेरी लिखी सात रिपोर्ट हैं जिनमे ६ तो वार्षिक और एक त्रैवार्षिक है।

सन् १९०० में १६९ पुस्तकों के विवरण तैयार किए गए। इनमें १२ ग्रंथों को छोड़कर, जिनके रचयिताओ का पता न चल सका, शेष १५७ ग्रंथ ६० विद्वानों के रचे हुए हैं। इन ग्रंथकारों में से १ बारहवी, २ चौदहवी, १ पंद्रहवी, २२ सोलहवी, १८ सत्रहवीं, १८ अट्ठारहवीं और १६ उन्नीसवी शताब्दी में हुए। इन ग्रंथो मे से अधिकांश सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के लिखे हुए हैं, केवल एक ग्रंथ १६वीं शताब्दी का लिखा हुआ मिला। इस रिपोर्ट में तुलसीकृत रामचरित-मानस, कुतबन की मृगावती, जायसी की पदमावत, चंद के पृथ्वीराजरासो तथा नरपति नाल्ह के बीसलदेव-रासो का विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यह रिपोर्ट सन् १९०३ में प्रकाशित हुई।

सन् १९०१ की रिपोर्ट में १२९ ग्रंथो की नोटिसें हैं जिनके रचयिता ७३ महाशय हैं। इनमें से एक १२वीं, १ चौदहवीं, १४ सोलहवीं, १२ सत्रहवीं, १९ अट्ठारहवीं और १५ उन्नीसवीं शताब्दी के हैं। १३ ग्रंथकारो के समय और पांच ग्रंथो के कर्ताओं के नाम का पता न लग सका। अधिकांश ग्रंथ १९वीं शताब्दी के लिखे हुए हैं। इस वर्ष में सन १६०४ की लिखी हुई रामायण की एक प्रति का पता लगा। इसका बालकांड इस सन् का लिखा है, शेष कांडों की लिपि आधुनिक है। राजापुर के प्रसिद्ध अयोध्याकांड की भी नोटिस इसी वर्ष में की गई। इस वर्ष में चंद के रासो की दस प्रतियों का पता लगा जिससे यह पता चला कि रासो के नाम से कई नवीन ग्रंथों का निर्माण हुआ है, जिनमें से एक ग्रंथ परमालरासो के नाम से नागरी-प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया है। कृष्णगढ़ के महाराज सावंतसिंह, उपनाम नागरीदास के २० ग्रंथो के नोटिस तैयार किए गए तथा सदल मिश्र के नासिकेतोपाख्यान का भी इसी वर्ष में पहले-पहल पता लगा। जटमल की गोरा-बादल की कथा की भी इसी वर्ष में नोटिस की-गई। कृष्णगढ़ के महाराज राजसिंह की पुत्री सुंदर कुँअरि के १० ग्रंथो का विवरण भी इस वर्ष में तैयार हुआ। यह सुंदर कुँअरि नागरीदास की बहन थीं। विशेष विवरण रिपोर्ट से मिलेगा। यह रिपोर्ट सन् १९०४ में प्रकाशित हुई।

सन् १९०२ में जोधपुर के राजकीय पुस्तकालय में रक्षित ग्रंथों की नोटिसें की गई तथा मिर्जापुर और गोरखपुर में हस्तलिखित ग्रंथों की खोज की गई। सब मिलाकर १२५ पुस्तकों की जांच की गई। इनमे से ११५ ग्रंथो के ७३ रचयिताओं का पता चला जिनमें से १ बारहवीं १ तेरहवीं, १ चौदहवीं, २ पंद्रहवीं, ६ सोलहवीं, १५ सत्रहवीं, १६ अट्ठारहवीं और १३ उन्नीसवीं शताब्दी के हैं। १८ कवियों के समय और १० ग्रंथकर्ताओं के नाम का पता न लग सका। परिशिष्टों में भी २१० ग्रंथों का उल्लेख है। अधिकांश ग्रंथ १८वीं शताब्दी के लिखे हैं। इस वर्ष में गोरखनाथ के ग्रंथों का तथा जायसी के अखरावट का पहले-पहल पता चला। इन सबका विवरण रिपोर्ट में विस्तार से दिया गया है। इनके अतिरिक्त इस रिपोर्ट में महाराज अनीतसिंह, दादूदयाल, ध्रुवदास, हरिराम, महाराज जसवतसिंह, महाराज मानसिंह, सुन्दरदास आदि के अनेक ग्रंथों का विवरण है। यह रिपोर्ट सन् १९०६ में प्रकाशित हुई।

सन् १९०३ में महाराज काशिराज के पुस्तकालय की जाँच की गई। यह कार्य इस वर्ष समाप्त नहीं हो सका, अतएव रिपोर्ट में कोई विशेष विवरण नहीं दिया गया है। केवल इतना ही लिखा है कि १७७ पुस्तकों की इस वर्ष में जाँच हुई। इनमें से १२७ पुस्तको का पूरा विवरण परिशिष्ट में तथा ५९ का संक्षेप में उल्लेख दिया गया हैं। ये १२७ ग्रंथ ७७ ग्रंथकारों के हैं जिनका समय इस प्रकार है-

१४वीं शताब्दी १ १८वीं शताब्दी २६

१६वीं,,३ १९वीं,,२३

१७वीं,,१८ अज्ञात

अधिकांश ग्रंथों का लिपि-काल १८वीं और १९वीं शताब्दी है। यह रिपोर्ट सन् १९०५ मे प्रकाशित हुई।

सन् १९०४ में १५८ पुस्तको की १७७ प्रतियों की जाँच हुई। इनमें से ११४ पुस्तकों के पूरे नोटिस तैयार किए गए और ४४ प्रतियों का परिशिष्ट में उल्लेख किया गया। १४४ ग्रंथों के ८१ रचयिताओं के नाम का पता लगा जिनमें ७२ का समय इस प्रकार है- १६वीं शताब्दी के १, १७वीं शताब्दी के १५, १८वीं शताब्दी के १८, और १९वीं शताब्दी के ३८ । सन् १९०३ और १९०५ दोनों वर्षों का विवरण एक साथ लेने से यह ज्ञात होता है कि महाराज काशिराज के पुस्तकालय में २९८ पुस्तकों की ३६८ प्रतियां हैं। इनमें से २६७ ग्रंथों के १७५ रचयिताओं का पता चला, जिनके समय इस प्रकार हैं- १२वीं शताब्दी का १, १४वीं शताब्दी का १, १६वीं शताब्दी के ८, १७वीं शताब्दी के ३०, १८वीं शताब्दी के ५० और १९वीं शताब्दी के ५७। १९वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में साहित्यिक कार्यों के ४ क्षेत्र थे- बनारस, बुदेलखंड, बघेलखंड और अवध। इन दो वर्षों में जो कार्य हुआ उसमें निम्नलिखित कवियों का विशेष रूप से विवरण दिया गया है-

अग्रनारायण, आनंद, भिखारीदास, ब्रह्मदत्त, ब्रजलाल, धनीराम, दीनदयाल गिरि, गजराज, गणेश, गोकुलनाथ, गोपीनाथ, जानकीप्रसाद, काष्ठजिह्वास्वामी, लाल, लालमुकुंद, मणिदेव मनियारसिंह, रघुनाथ बंदीजन, रामसहाय, साहवदीन, सरदार, सुदरदास और ठाकुर। यह रिपोर्ट सन् १९०७ में प्रकाशित हुई।

सन् १९०५ में खोज का काम बुंदेलखंड में हुआ। इस वर्ष में ९८ पुस्तको की नोटिसें रिपोर्ट में सम्मिलित की गई। इनमें से ९७ ग्रंथों के ७७ रचयिताओं का पता लगा जिनका समय इस प्रकार है- १६वीं शताब्दी में ५, १०वीं शताब्दी में १२, १८वीं शताब्दी में ३४ और १९वीं शताब्दी में २१। पाँच ग्रंथकारों के समय का पता नहीं लगा। इस रिपोर्ट में बुदेलखंड का इतिहास संक्षेप मे दिया गया और इन कवियों पर विशेष नोट लिखे गए- स्कंदगिरि, बदन, वंशीधर, भोजराम, विहारीलाल, देवीदत्त, दुर्गाप्रसाद, इंद्रजीत, प्रयागीलाल, गुलालसिंह, खुमान, गुमान, फतहसिंह, हरप्रसाद, हरिसेवक, (केशवदास का प्रपौत्र) मेदिनीमल्ल, हठी, जीवन मस्तने, केशवराज, कुमार मणि, लक्ष्मीप्रसाद, पजनेस, मोहनदास मोहनलाल, पद्माकर, प्राणनाथ, प्रताप, प्रेमरतन, रूपसाहि, सुदर्शन और ठाकुर। यह रिपोर्ट सन् १९०८ में प्रकाशित हुई।

सन् १९०६-०८ की रिपोर्ट तीन वर्षों की हैं। अब तक रिपोर्ट प्रतिवर्ष तैयार की जाती थी, पर इसमें कई अड़चनें होती थीं। यदि कहीं पुस्तकों की जाँच होती रहती थी और वर्ष (३१ दिसंबर) समाप्त हो जाता था तो काम अधूरा रह जाता था। प्रतिवर्ष में नई खोज से पिछली रिपोर्टों में दी हुई बातों के संशोधन की आवश्यकता हो जाती थी। यह सोचा गया कि तीन तीन वर्षों की अवधि रख दी जाय तो यह काम सुगमता से हो सके। गवर्मेंट ने सभा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सन् १९०६ से यह नियम बना कि तीन तीन वर्षों की रिपोर्ट लिखी जाया करे। इसका पालन अब तक हो रहा है। सन् १९०६-०८ में खोज का काम विशेष रूप से बुंदेलखंड में होता रहा। इन तीन वर्षों में १,०८३ पुस्तकों की जांच की गई। इनमें से ८७३ पुस्तकें ४४७ कवियो की हैं। इन ४४७ ग्रंथकारों में से १२० बुंदेलखंड के, और १३१ बाहर के हैं और शेष ऐसे हैं जिनके निवास-स्थान का पता न लग सका। २१० पुस्तकें ऐसी मिली जिनके रचयिताओं का नाम न जाना जा सका। इनका समय इस प्रकार है:—

स्थान
१२वीं शताब्दी
१३वीं शताब्दी
१४वीं शताब्दी
१५वीं शताब्दी
१६वीं शताब्दी
१७वीं शताब्दी
१८वीं शताब्दी
१९वीं शताब्दी
प्रगति
बुंदेलखंड
के कवि
१५ ६८ ९६ ९४ २६
बुदेलखंड के
बाहर के कवि
२२ २९ ५६ ६८ २७ ३७
२८
अनिश्चित
स्थान के कवि
१३ १६ ८९

इस रिपोर्ट में १५ व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है, जो कवियों के आश्रयदाता तथा संरक्षक थे। उनके नाम ये हैं— राजा मधुकरशाह, कुँअर इंद्रजीत (ओड़छा), राजा सुजानसिंह (ओड़छा) राजा छत्रसाल (पन्ना), राजा उदोतसिंह (ओड़छा), राजा पृथ्वीसिंह (ओड़छा), कुँअर पृथ्वीराज (दतिया), राजा अमानसिंह (पन्ना) राजा हिंदूपत (पन्ना), राजा विक्रमाजीत (ओड़छा), विजय विक्रमाजीत बहादुर (चरखारी), राजा लक्ष्मणसिंह (विजावर), राजा रतनसिंह (चरखारी), राजा परीछत (दतिया) और राजा हिंदूपत (समथर)। इनका समय १५५० से लेकर १८९० तक होता है। बुंदेलखंड़ के कवियों मे केशवदास, व्यास, मेघराज, अक्षर अनन्य, गोरेलाल, मनचित, हरिकेश, हंसराज, रूपसाहि, रामकृष्ण, मान या खुमान, प्रतापसाहि, पद्माकर, नवलसिंह, भोज और हरिदास का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। बाहर के कवियों में से निम्नलिखित कवि मुसलमान बादशाहों के आश्रित थे-

सुंदर, श्रीपत भट्ट, शिरोमणि मिश्र, पुहकर और वान कवि। यह रिपोर्ट सन् १९१२ मे प्रकाशित हुई।

इस प्रकार हिंदी-पुस्तकों की खोज का काम आरंभ करके मैंने ९ वर्षों तक उसे चलाया और उस कार्य की सात रिपोर्टे लिखी। सन् १९०८ के बाद पं० श्यामविहारी मिश्र इस कार्य के निरीक्षक हुए, उनके छोड़ने पर पंडित शुकदेवविहारी ने कुछ काल तक इसका निरीक्षण किया। तब डॉक्टर हीरालाल ने इस काम का भार लिया। अब डॉक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल इसकी देख-रेख करते हैं। मेरा सदा से यह ध्येय रहा है कि काम को चलाकर उसे दूसरों को सौंप देना, जिसमे कार्य करनेवालों की संख्या बढ़ती जाय और कभी किसी दुर्घटना के कारण रुक न जाय।

इस खोज के काम से हिंदी-साहित्य को कितना लाभ पहुँचा है और कवियों के समय आदि के निर्णय में कितना महत्त्वपूर्ण अनुसंधान हुआ है इसके दो-एक उदाहरण मैं देना चाहता हूँ।

(२) भूपतिकृत दशमस्कंध भागवत का निर्माणकाल सन् १९०२ की रिपोर्ट में संवत् १३४४ दिया गया था, परंतु अग्रलिखित कारणों से १७४४ मानना ठीक जान पड़ता है। (क) इस ग्रंथ की अट्ठारहवीं शताब्दी से पूर्व की बोर्ड प्रति अभी तक नहीं मिली।

(ख) इसकी भाषा परिमार्जित और आधुनिक ब्रजभाषा के ही समान है।

(ग) इसमें 'ब्रजभाषा' और 'गुसाई' शब्दों का प्रयोग हुआ है जो कि सोलहवीं शताब्दी से पूर्व व्यवहार में नहीं आते थे।

(घ) पंचांग बनाकर देखने से संवत् १३४४ का बुधवार अशुद्ध और संवत् १८४४ का चंद्रवार शुद्ध निकलता है।

(७) उर्दू-प्रतियाँ हिंदी-प्रतियों की अपेक्षा पुरानी मिलती हैं जिनमें निर्माण काल संवत् १७४४ दिया हुआ है। हिंदी और उर्दू-प्रतियों में निर्माण काल इस प्रकार है-

हिंदी-प्रति में-

संवत तेरह सौ भये चारि अधिक चालीस।
मरगेसर सुध एकादसी, बुधवार रजनीस।।

उर्दू-प्रति में-

संवत सत्रह सै भये, चार अधिक चालीस।
मृगसिर की एकादसी, सुद्धवार रजनीस॥

(च) उर्दू से हिंदी-लिपि में लिखने और लिपिकर्ता के काशीनिवासी होने के कारण बहुत-से शब्दों को बिगाड़कर अवधी रुप दे दिया गया है; अवीधी, थवइ, बहीनी और चारी इत्यादि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उक्त भागवत में आदि से अंत तक ऐसे प्रयोग भरे पड़े हैं। दीर्घ ऊकार का प्रयोग इस प्रति में कहीं नहीं किया गया; अत: भाषा प्राचीन-सी मालूम होती है। परंतु यथार्थ में परिष्कृत है। (१९०६-०८-१३८) में वर्णित रामचरित्र रामायण भी उक्त भूपति-कृत ही बताई गई है। उसमे संवत् आदि कुछ नहीं है और न वह इन भूपति की बनाई हुई ही प्रतीत होती है। उपर्युक्त कारणों से भूपति का कविता-काल संवत् १७४४ के लगभग ही माना गया है।

(२) सन् १९०३ और १९०४ की रिपोर्टों मे रसदीप काव्य के कवींद्र और राजा गुरुदत्तसिंह अलग-अलग रचयिता माने गए हैं, परंतु यथार्थ में कवींद्र ने उक्त ग्रंथ संवत् १७९९ में रचा था और अमेठी के राजा गुरुदत्तसिंह (उप० भूपति) को समर्पित किया था, जो कि कवींद्र कवि के आश्रयदाता थे। वे रसदीप-काव्य के रचयिता नहीं थे। कवींद्र कवि का उपनाम प्रतीत होता है।

(३) सन् १९०० में आदित्य कथा बड़ी का रचयिता गौरी कवि माना गया है; परंतु गौरी, भाऊ कवि की मा का नाम था। ग्रंथकार ने स्वयं अपने ग्रंथ में लिखा है-

अगरवाल यह कियो बखाण।
गौरी जननी तिहु वणगिरि थान।।
गर्ग हो गोत मलूकौ पूत।
भावु कवि जन भगत सजूत॥

इससे विदित होता है कि इस ग्रंथ के रचयिता गर्ग गोत्री, अग्रवाल वैश्य, भाऊ कवि त्रिभुवन गिरि निवासी थे; उनकी मा का नाम गौरी और पिता का नाम मलूका था।

(४) सन् १९०६-०८ की रिपोर्टों में 'अनवर-चद्रिका' अनवरखाँकृत लिखी गई है, जो कि अशुद्ध है। यह ग्रंथ अनवरखाँ के आश्रित शुभकरण कवि ने अपने आश्रयदाता के नाम से लिखा था। (१९०९-११-३१) मे ग्रंथकर्ता का नाम शुभकरण ठीक क्यिा गया है, जैसा कि ग्रंथ में कवि ने स्वयं भी वर्णन किया है।

(५) सन् १९०६-०८ मे वर्णित जन अनाथ तथा अनाथदास भिन्न माने गए हैं, पर उनका ग्रंथ 'विचार माला' एक ही है, अत: दोनों एक ही हैं। इस ग्रंथ का निर्माण काल संवत् १८०३ के स्थान में १७२६ चाहिए था। (१९०९-११-७) में कथित अनाथदास भी यही हैं। अत: तीनों को एक मान कर ही लिखा गया है।

(६) सन् १९०६-०८ मे 'प्रेमरत्नाकर' रतनपाल भैया-कृत बतलाया गया है, परंतु यथार्थ में यह ग्रंथ देवीदास-कृत है जो कि रतनपाल भैया के आश्रित थे। राजनीति के कवित्त के रचयिता (१९१६-०८-२७, १९०२-१ और १९०२-८२) में वर्णित देवीदास और ये देवीदास एक ही थे, अत: चारो को एक ही माना गया है।

यह दिखाने का उद्देश्य इतना ही है कि जितनी अधिक खोज होती जायगी, उतनी ही नई बातों का पता लगता जायगा। सन् १९०० से लेकर १९११ तक की रिपोर्टों के आधार पर मैंने कैटोलोगस कैलोलोगरम के ढंग पर एक संक्षिप्त सूची तैयार की थी, जिसे संवत १९८० में काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया।

सन् १९२० में सभा ने विद्वानो की एक उपसमिति इसलिये बनाई थी कि खोज का जो काम अब तक हुआ है उस पर विचार करके वह सभा को सम्मति दे कि पुरानी पुस्तकों के अनुसंधान, संरक्षणता और प्रकाशन के संबंध मे किन सिद्धांतों को ध्यान में रखकर काम करे। इस उपसमिति ने एक बडी ही उपयोगी रिपोर्ट तैयार की। अनुसंधान का काम तो इस समिति द्वारा निर्धारित नीति के अनुसार हो रहा है, पर संरक्षण और प्रकाशन का कार्य व्ययसाध्य है और जब तक इसके लिये पर्याप्त धन न मिले तब तक यह काम सुचारु रूप से नहीं चल सकता।

२२ सितंबर सन् १९१४ में सर जार्ज ग्रियर्सन ने एक पत्र में संयुक्त-प्रदेश की गवर्मेट को लिखा था- "I am unable to agree with those who consider that the reports in their present form are valueless. On the contrary I think that they have very considerable value as works of reference, and I have often used them myself and derived assistance from them.

ऐसा जान पड़ता है कि किसी महोदय ने गवर्मेंट को लिखा था कि ये रिपोर्टें किसी काम की नहीं है, इस काम को बन्द कर देना चाहिए। यद्यपि उस समय अनुमान किया गया था कि यह किस महोदय की कृपा का फल है, तथापि निश्चित बात के जाने बिना किसी का नाम लेना अनुचित है। उनके लिखने पर सर जार्ज ग्रियर्सन से सम्मति ली गई थी तब उन्होने उत्तर देते हुए ऊपर उद्धृत वाक्य लिखे थे।

इस खोज के काम तथा रिपोर्टों की अनेक विद्वानों ने प्रशंसा की है। उनमे से कुछ सम्मतियाँ मैं आगे उद्धत करता हूँ।

(१) डाक्टर रुडाल्फ हार्नली ने १० दिसंबर, १९०३ के पत्र में मुझे लिखा था-

"The last mail brought me a copy of your annual report, on the search of Hindi manuscripts for the year 1900, and I may write to congratulate you heartily on its successful and scholarly production.

“Your discussion of the case of the Prithviraj Raso interested me particularly, also the documents in the appendix. I do hope it may soon be possible to publish a complete edition of the epic. Of course the real desideratum would be a critical edition; but even & mere reprint of the old manuscript (No. 68 of Samrat 1640) would be of much use provided an exhaustive list of all the various readings from all the other existing manuscripts were added. It would then be possible to form a more decided and definite opinion of the genuineness of the work. That it must be genuine substantially, your remarks sufficiently show. But one would like to know two points, (1) how much there is of interpolation and comparatively (unhistorical) addition and (2) how far the language has retained its original character or has been modernised. (२) पेरिस से आगस्टस वार्थ महाशय ने अपने २२ फरवरी, १९०४ के पत्र में लिखा था-

I have received indeed from the Government of the United Provinces your annual report on the search for, Hindi manuscripts for the year 1900 and I have read it through with the greatest interest. It is a quite new field and a most promising one, you are here opening by this able performance of yours. It is indeed the best direction that could be given for applying the critical methods to the study of your vernacular literature, and this most useful inquiry can only be done by your country-men They alone can give us reliable text and work out thoroughly the intricacies of your later and local history and it is to be hoped that they will follow in this the intimation you are here giving them

The many Jain works in your list are quite new to me. Such works are known to be very numerous in Gujrati and Marathi, but in Hindi they could only be surmised.

But the most interesting parts of your report are the historical poems and the very able and suggestive way you are dealing with them. Your vindication of the Prithviraj Raso that it is not the wholesale forgery which Pandit Syamal Das pretended it to be your explanation of the Anand Vikram Samrat and your whole discussion on the chronology of the poem are very tempting. My own acquaintance with Hindi is too faint, to allow me to decide that manysided question-for it is not only a chronological one-but it seems to me, to say the least, that the question has been put by you on a new basis. The first point perhaps to be settled would be the perfect authenticity of the new documents of which you have given facsimiles. On the other hand there is methinks little room, if any to doubt that the Visala and Vigraha of the Delhi pillar are one and the same king and that this Vigraha, son of Avalla, is the same as the Vigraharaja, son of Arnoraja of the Ajmere inscription. But was there a former Visala amongst the Maharajas of Ajmere That is another question which must remain over

(३) वर्लिन से प्रोफेसर आर० पीशल अपने २७ मार्च, १९०४ के पत्र में यह लिखते हैं-

The annual report sent to me by Gorernment has reached me in due time but I could not go through it but not during the Easter vacations. I am glad to say that I have learned much from your report which is done very well and in a thoroughly scientific way. Unfortunately the knowledge of the modern languages of India is in Europe not great. When writing my Prakit Grammar I often have felt the want of a sufficient knowledge of the vernaculars. But the material available in Germany is very small and without the help of a native-teacher it is almost impossible to master the vernacular. I have no doubt that works like your report will contribute much to a better knowledge of the vernacular literature of India

मार्च, सन् १९०६ में लंदन की रायल एशियाटिक सुसाइटी की त्रैमासिक पत्रिका में १९००, १९०१, १९०२ और १९०३ की रिपोर्टो की समालोचना डाक्टर रुडाल्फ हार्नली ने प्रकाशित की थी। यह समालोचना एक प्रसिद्ध विद्वान-द्वारा लिखी हुई होने के कारण बड़े महत्व की है। अतएव मैं उसे यहाँ उध्दृत करने का साहस करता हूँ।

"As is well-known, an active search for Sanskrit manuscripts under the authority and at the cost of the Government of India has been carried on for very many years throughout the various Provinces of India It has led to most valuable results and has shed a flood of light on the still-existing manuscript treasures of the vast Sanskrit literature of India. A similar search was instituted, at least

फा. ७ in the province of Bengal, for Arabic and Persian manuscripts But it lacked the needful enterprise, and never came to much. It may be hoped that now under the direcion of Dr. Denison Ross, the present energetic Principal of the Calcutta Madrasah, it may begin to rival in usefulnese the Sanskrit branch of the Search

"All this time the vernaculars of India were left out in the cold Probably it was thought that in respect of them there was little or nothing to search for The conviction that this was a great error has gradually forced itself on all who have sympathised with the newly-awakened interest in the Indian Vernaculars In Bengal, a commendable effort has begun to be made in connection with the search for Sanskrit manuscript, by its present able Director, Mahamahopadhyaya Hara Prasad Shastri, the learned Principal of the Sanskrit College in Calcutta who is devoting a portion of his attention to the collection of Bengali manuscripts But it is the Hindi Vernacular which has been the first to secure for itself the advantage of a distinct organisation for the search of its manuscripts. The credit of this achievement, as we learn from the introduction to the first annual report (1900), is due to an entirely native Indian agency, the NagariPracharini Sabha of Benares After an abortive attempt to interest the Asiatic Society of Bengal and the Government of India in its scheme of collecting Hindi manuscripts, it met with welldeserved success in its appeal to the Government of the United Provinces of the North-West and Ondh. That Government sanctioned an annual subsidy of Rs. 100 to the Sabha, and also undertook to publish the annual reports of its search This was in 1899, and since then four reports have been published by Mr. Shyam Sundar Das, the able Secretary of the Sabha The choice of this scholar for the direction of the search is a very happy one Mr. Shyam Sundar Das is an excellent Hindi scholar, who has already made himself favourably known by several welcome editions of important Hindi works Among these may be mentioned Lal Kavi's Chhatra Prakash, a Bundelkhand historical poem, dealing with the life of Chhatrasal Bundela. This edition, Mr Shyam Sundar Das has provided with an excellent introduction, in connection with which as well as with the "Hindi Notes" in the reports, the only regret one cannot help feeling is that its author should not have seen his way to discard the artificial Hindı loaded with Sanskrit Tatsamas which is still so dear to the literature of India, and which, in No 34 of the report for 1901. Lalluji Lala is said to have 'invented' in 1800 The Sabha and its able Secretary might add to their laurels by taking the initiative, for which they are so nel fitted. in raising up a true literary Hindı, presenting in a polished form the living language of the people, such a language as would be both intelligible and enjoyable by the people at large and not be merely the jargon of a literary class. The literary Hindi which we should like to see created would be on the pattern of the language of what Mr. Shyam Sundar Das calls the Augustan period of Hindi literature. and of which the famous Ramayan of Tulsidas is one of the best representatives.

"The case of this beautiful poem well illustrates the usefulness of a search for Hindi manuscripts. That search has brought to light several extremely old manuscripts of the poem, among them one (No. 22 of 1901) was discovered in Ajodhya the first Canto of which was written in 1604 AD. ie. 19 years prior to the death of Tulsidas. The poet lived for many years in Ajodhya where he began the composition of his epic in 1574 A.D, it is therefore, quite possible that this canto may be in the actual hand Writing of Tulsidas himself It is said that Tulsidas made two copies of his Ramayan one of which he took to Rajapur in Banda Rajapur manuscript in described as No 26 in the Report for 1901. It does not appear to bear any date and contains no more than the second canto (Ajodhya Kand) But for some water-marks, it is in fairly good condition. There is a story that it was once stolen, but the thief, when pursued, threw the entire bundle into the Jumuna, hence only one book, the Ajodhya Kand could be ressued (Report 1000, page 8)- a story which the conditon of the manuscript fragment would seem to corroborate. Mr. Shyam Sundar Das, who has compared the two very old manuscripts, considers that they are both in the same handwriting, and were written by Tulsi Das himself But by adding two reduced facsimile pages of each of the two manuscripts to his Report for 1901, he has made it possible for any one to judge for himself. If his opinion should prove to be correct, we should be in possession of portions of both the traditional autographs of Tulsi Das and it would follow that the Malihabad copy which is also claimed by its owner to be in his handwriting cannot be genuine. And this, indeed, would seem to be the truth, if the Report that it contains many Kshepakas or interpolations, should be true (see Report 1900 page 3, 1901, page 2) In this connection, however, one point may be worth noting In the Rajapur manuscripts व and य, when they signify va and ya (as distinguished from ba and ja) are invariably marked by subscribed dot, thus on the upper page second line नय़न Nayana, fifth line भय़ेउ Bhayeu and second line अव़धि Avadhi, on the lower page, first and the third lines प्रिय़ Priya and seventh line अवऩि Avani In the Ajodhya munuscripts, it is only va which is so marked; e.g, upper page, third line जीव़न jivana, sixth line गाव़ह gavaha, ninth line, संव़त samvat, but second line भयेउ bhayau without a dot. It would be desirable to have larger portions of the two manuscripts in facsimile to compare.

"With reference to another celebrated Hindi work, the search has proved of much usefulness. This is the Prithviraj Rasou, the so-called epic or ballad chronical of Prithviraj Chauhan by Chand Baradai, composed towards the end of the 12th century, the oldest work written in Hindi or indeed in any of the modern North Indian vernaculars The search brought to light in Mathura a very old manuscript dated 1590 A D. (No. 68 of 1900), and on the basis of it as well as three others already known good manuscripts, the Nagari Pracharini Sabha has commenced to publish a trustworthy edition of the hitherto much disputed text, the preparation of which as in the experienced hands of Mr. Shyam Sundar Das, Pt Mohanlal Vishnulal Pandya and Babu Radha Krishna Das This much needed work, which, in spite of its lengthiness, it may be hoped will be carried to a successful conclusion The genuineness of the chronical, once unhesitatingly accepted, was first denied by Kaviraj Shyamal Das in 1886 in an article contributed to the journal of the Asiatic Society of Bengal and has since remained greatly suspect on the ground mainly of the incorrectness of its dates In his report for 1900, Mr. Shyam Sundar Das made an attempt, As it appears, successfully, to rehabilitate the ancient chronicle. The clue to it discovered by Pt. Mohanlal Vishnulal Pandya, is furnished by the chronicle itself In his first canto, Chand Bardai explains that his dates are not stated in the ordinary Vikram era, but in a modification of it adopted by Prithiviraj and called the Anand Vikram era. Several explanations are suggested of this name, none of which is quite satisfactory; but what appears to be certainly true is that as Mr Shyam Sundar Das shows all the dates given in the Rasau work out correctly if the Anand Vikram era is taken to commence 90-91 years later than the ordinary Vikram era, called by way of distinction the Sanand Vikram (eg, in No. 41 of 1900, page 40) It follows, therefore, that any years in the former era may be converted into the corresponding years of the Christian era by adding 33. At the same time, it is not denied that the text has suffered by occasional interpolations of incidents as well as by modernisation of the language. The object of the edition which the Sabha has undertaken is precisely to furnish scholars with the means of settling the exact literary and historical value of the epic

"The term Hindi, as employed in the name of the search for Hindi manuscripts, is used in its old sense, in which it embraces the languages of the whole of the central portion of Northern India. The search, therefore, includes manuscripts written in Bihari, Rajputani, and Marwari, and it is apparently intended to include even Punjabi. From the point of view of practical utility, seeing that it secures a vide sweep of the search, one cannot help condoning the abuse of the term

"Altogether 761 separate works or books, appear to be noticed in the four annual Reports The numeration, however, is not quite clearly stated The number of separate "Notices" is certainly smaller Moreover, the search has produced a considerable number of manuscripts which have not been "noticed" at all, as being "of no historical or literary value." "The search has already produced some very valuable results, both from the literary and antiquarian point of view. Some great literary finds have been already mentioned Manuscripts of Tulsi Das's Ramayan and Chand's Prithviraj Rasau. To these may be added two old and important manuscripts of the Padmavati by Malik Mohammad (c 1540 AD) and of the Satsai by Bihari Lal Chaube (c 1650 AD), dated respectively 1690 and 1718 AD

“The oldest manuscripts brought to light by the search is a manuscript of the Prithviraj Rasau (NO 68 of 1900) which is dated in 1590 AD It appears to be the only manuscript of the 16th century as yet discovered by the search The next oldest is dated in 1604 AD, and is a manuscript of Tulsi Das's Ramayan (No 22 of 1900) There appear to be 32 other manuscripts of the 17th. century. They belong to the years 1612 (7 manuscripts), 1614, 1635, 1637, 1649 (14 manuscripts), 1651, 1673, 1683 (3 manuscripts). 1686, 1688, 1690

"...On the whole the reports reflect great credit on their compiler and on the Nagari Pracharini Sabha to those public-spirited enterprize we owe them

सन् १९१२ में इस बात की आशंका हुई कि कही गवर्मेंट कुचालियों के फेर में पड़कर वार्षिक सहायता बंद न कर दे। अतएव मैने डाक्टर ग्रियर्सन और डाक्टर हार्नली को पत्र लिखकर पूछा कि अब तक जो खोज का काम हुआ है वह कैसा है और भविष्य में इसे कैसे चलाना चाहिए। इन दोनो महानुभावों ने मेरे पत्र का उत्तर दिया। डाक्टर ग्रियर्सन ने लिखा- "I am very sorry indeed to learn from your letter that it is proposed to cease the Government subvention towards the search for Hindi manuscripts The report hitherto issued have been most valuable and it would be a serious loss to scholarship if they were to cease" एक दूसरे पत्र में उन्होंने लिखा- You are quite at liberty to quote me as saying that the discontinuance would in my opinion be a great loss to oriental studies

डाक्टर हार्नली ने यह लिखा- "Your society is doing most valuable work and it could be a great pity if for lack of funds it should come to end at this stage. What you have done for Bundelkhand should be done for the whole Hindi area From the scientific point of view Hindi is the most important North Indian vernacular and has the longest history, it has not only the largest literature but one which reaches furthest back to the very time when the modern , vernaculars emerged from the older Prakrit. ......I am glad to hear that your society is going to submit an appeal to the Government to continue the grant I wish it every success The search instituted by your society is a noble work, the first example. I believe, of scientific work of this kind being undertaken by Indian gentlemen on their own initiative and under their own direction It deserves all the sympathy and encouragement that can be given to it

इन सम्मतियों को उन सम्मतियों से मिलाना चाहिए जो समय समय पर सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई हैं। उनसे हमारे भारतीय दृष्टिकोण और विदेशीय दृष्टिकोण का अंतर स्पष्ट हो जायगा। अस्तु, सभा का उद्योग सफल हुआ और गवर्मेंट से सहायता मिलती रही।