मेरी आत्मकहानी/७ कुछ अन्य कार्य

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(७)

कुछ अन्य कार्य

(१) सन् १८९९ में इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चिंतामणि घोष ने सभा से यह प्रार्थना की कि वह उनके लिये रामचरितमानस [ १०८ ]का एक शुद्ध संस्करण तैयार कर दे। सभा ने सोचा कि अब तक जितने संस्करण रामचरित मानस के प्रकाशित हुए हैं उनमें प्रकाशकों या टीकाकारों ने अपनी-अपनी रुचि और बुद्धि के अनुसार पाठ बदल डाले हैं। पाठों के परिवर्तन के साथ ही साथ बहुत-सी क्षेपक-कथाएँ भी इसमें सम्मिलित हो गई हैं। यह बात यहाँ तक बढ़ी है कि सात कांडो के स्थान में आठ कांड हो गए। इसलिये सभा ने इंडियन प्रेस के स्वामी का प्रस्ताव बड़े उत्साह और आनंद के साथ स्वीकार किया और इस कार्य को करने के लिये पांच सभासदों की एक उपसमिति बना दी जिसमे मैं भी था। इस उपसमिति ने नीचे लिखी प्रतियों को आधार मानकर इस कार्य को आरंभ किया।

(क) केवल बालकांड संवत् १६६१ का लिखा हुआ, यह अयोध्या में एक साधु के पास मिला था। इसका पाठ बहुत शुद्ध है। बीच-बीच में हरताल लगाकर पाठ शुद्ध किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि गोसाईं जी ने स्वयं इस प्रति का संशोधन किया था।

(ख) राजापुर का अयोध्याकांड। यह कांड स्वयं तुलसीदास के हाथ का लिखा कहा जाता है। ऐसी कथा है कि पहले यहाँ सातों कांड तुलसीदास जी के हाथ के लिखे हुए थे, परंतु एक समय एक चोर उनको लेकर भागा। जब इस बात का पता लगा और लोगों ने उसका पीछा किया तब उसने समस्त पुस्तक को जमुना जी में फेंक दिया। बहुत उद्योग करने पर केवल एक कांड निकल सका जिस पर अब तक पानी के चिह्न वर्तमान हैं।

अयोध्या और राजापुर की पुस्तकों का बड़ा मान है। पर [ १०९ ]छान-बीन करने पर यह सिद्धांत स्थिर होता है कि अनुमानत: तुलसीदास के साथ में कोई लेखक रहता था जो उनकी पुस्तको की नकल करता था। स्वयं तुलसीदास जी के हाथ का लिखा उनका कोई ग्रंथ नहीं मिला है। उनके अक्षरों की प्रामाणिक नकल दो जगह है। एक तो उस पंचनामे मे जो उन्होंने अपने मित्र टोडर के पुत्र और पौत्रों के बीच बँटवारे में लिखा था और जो महाराजकाशिराज के यहाँ रक्षित कहा जाता है। इसकी फोटो-प्रतिलिपि पहले पहल डाक्टर ग्रियर्सन ने अपने Modern Vernacular Literature of Hindustan मे छापी थी। दूसरी गोसाईं जी के हाथ की लिखी वाल्मीकीय रामायण की प्रति है। इसका एक कांड बनारस के संस्कृतकालेज के सरस्वतीभवन मे रक्षित है। ये दोनो लेख अत्यंत प्रामाणिक हैं, इनके विषय में संदेह का स्थान नहीं है। दोनों कागजों की प्रतिलिपि मैंने "गोस्वामी तुलसीदास" नामक ग्रंथ मे दी है जिसे मैने डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के सहयोग में प्रयाग की हिंदुस्तानी एकाडमी के लिये लिखा है। इसके साथ ही राजापुर और अयोध्या की प्रतियों के फोटो भी दिए है। पंचनामे और वाल्मीकीय रामायण के अक्षर एक दूसरे से मिलते हुए हैं, पर वे रामायण की इन दोनो प्रतियों से नहीं मिलते। पंचनामे और वाल्मीकीय रामायण के अक्षर कुछ गोल हैं और अयोध्या तथा राजापुर की प्रतियों के अक्षर लंबोतरे हैं। इसी से यह अनुमान किया जाता है कि ये दोनो प्रतियाँ किसी लेखक की लिखी हुई हैं जो गोसाईं जी के साथ रहता था। [ ११० ](ग) तीसरी प्रति संवत् १७०४ की लिखी हुई महाराज काशिराज के पुस्तकालय की थी। यह संपूर्ण है।

(घ) चौथी प्रति संवत् १७२१ को लिखी हुई है। इसे भागवतदास ने छपवायाा है।

(ङ) छक्कनलाल की पुस्तक से लिखवाई हुई प्रति।

इनके अतिरिक्त वंदन पाठक तथा महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह की छपवाई प्रतियों से भी सहायता ली गई थी।

हम लोग प्रतिदिन संध्यासमय हरिप्रकाश यंत्रालय में मिलते थे और रामायण का पाठ दुहराकर ठीक करते थे।

इस संबंध की एक घटना का मुझे स्मरण है। पंडित किशोरीलाल गोस्वामी उन दिनों सभा के उपमंत्री तथा रामायण उपसमिति के सदस्य थे। वे मासिक रूप में अपने लिखे उपन्यास छापते थे। उन्होंने सभा के छपे कागजों पर एक प्रार्थनापत्र महाराज रीवाँ के पास सहायतार्थ भेजा। हम लोगों में से किसी को इसका पता न था। महाराज रीवाँ ने वह पत्र सभा में भेजकर पूछा कि क्या इसका संबंध सभा से है। उनको तो उत्तर लिख दिया गया कि सभा से इसका कोई सबंध नहीं है पर पंडित किशोरीलाल से कहा गया कि आप उपमंत्री के पद तथा रामायण उपसमिति की सदस्यता से अलग हो जाइए। उनके स्थान पर उपसमिति में पंडित सुधाकर द्विवेदी चुने गए जिन्हें प्रूफ देखने का भार दिया गया, क्योंकि संपादन का कार्य प्राय समाप्त हो चुका था। इस प्रकार संपादित होकर यह ग्रंथ सन् १९०३ में प्रकाशित हुआ। [ १११ ]महाराज काशिराज के यहाँ एक अत्यत सुंदर सचित्र रामायण है जिसके चित्रों के बनवाने में एक लाख साठ हजार रुपया खर्च हुआ था। सभा के सभासद् रेवरेंड ई० ग्रीव्स और काशी के कमिश्नर मिस्टर पोर्टर के उद्योग और सहायता से इन चित्रों में से कुछ के फोटो लेने की सभा को आज्ञा मिली। सब चित्र पाँच सौ से ऊपर थे जिनमे से ८८ चित्रों के फोटो लिए गए। इनमे से चुने चुने चित्रो के ब्लाक इस पहले संस्करण में दिए गए। इस ग्रंथ का दूसरा संस्करण सन् १९१५ मे प्रकाशित हुआ। फिर सन् १९१८ मे मेरी टीकां के साथ तीसरा संस्करण निकला। इस संकरण की कई आवृत्तियां छपी। अब सन् १९३९ में इसकी त्रुटियो का सुधार कर तथा टीका को पूर्णतया दुहराकर और उसकी अशुद्धियो को दूर कर इसका नया संस्करण छप रहा है★। रामायण के इन संस्करणों का बड़ा मान हुआ। इस अंतिम संस्करण के साथ तुलसीदास जी की जीवनी भी विस्तार से लिखी गई है। इसका मूलाधार बाबा वेणीमाधवदास-लिखित मूल गोसाईंचरित्र है। इस चरित्र में तेरह स्थानों पर संवत् दिए हैं जो इस प्रकार हैं-

(१) जन्म–

पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरेउ शरीर।


★यह अब प्रकाशित हो गया। [ ११२ ](२)यज्ञोपवीत-

पंद्रह सै एकसठ माघ सुदी।
तिथि पंचमी औ भृगुवार उदी।
सरयू तट विप्रन यज्ञ किए।
द्विज बालक कहँ उपवीत दिए।।


(३)विवाह-

पंद्रह सै पार तिरासि विषै।
शुभ जेठ सुदी गुरु तेरस पै।
अधराति लगै जु फिरि भँवरी।
दुलहा दुलही की पड़ी पँवरी॥


(४)स्त्री-वियोग-

सत पंद्रह युक्त नवासि सरै।
सु अषाढ़ बदी दसमीहुँ परै।
बुधवासर धन्य सो धन्य घरी।
उपदेसि सती तनु त्याग करी॥


(५)राम-दर्शन-

सुखद अमावस मौनिया,बुध सोरह सै सात।


(६)सूरदास से भेंट-

सोरह सै सौरह लगे,कामद गिरि ढिग वास।
शुभ एकांत प्रदेश महँ,आये सूर सुदास।।

[ ११३ ](७) रामगीतावली और कृष्णगीतावली की रचना-

जब सोरह सै वसु बीस चढ्यो।
पदजोरि सबै शुचि ग्रंथ गढ्यो।
तिसु रामगितावली नाम धरयो।
अरु कृष्णगीतावलि राँधि सरयो।।

(८) रामचरितमानस की रचना-

तस इकतीसा महँ जुरे, जोग लगन ग्रह रास।
नौमी मगलवार बुध......
यहि विधि भा आरंभ,रामचरितमानस विमल

(९) दोहावली की रचना-

... ... चालिस संवत लाग।
दोहावलि संग्रह किए......

(१०) वाल्मीकीय रामायण की प्रतिलिपि-

लिखे वाल्मीकी बहुरि, इकतालिस के माँह।
मगसुर सुदि सतिमी रवौ, पाठ करन हित ताहि।।

(११) तुलसीसतसई की रचना-

माधवसित सियजन्म तिथि, बयालिस संवत बीच।
सतसैया वरनै लगे, प्रेम वारि तें सीच॥

(१२) टोडर की मृत्यु-

सोरह सै उनहत्तरौ माधवसित तिथि धीर।
पूरन आयु पाइकै, टोडर तजै शरीर॥

फा०८ [ ११४ ]

(१३) मृत्यु—

संवत् सोरह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण श्यामा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर॥

इन सब तिथियों की गणना ज्योतिष के अनुसार की गई और सब ठीक उतरीं। पंडित रामचंद्र शुक्ल इस ग्रंथ एक भारी जाल मानते हैं और उनका अनुमान है कि यह जाल अयोध्या मे रचा गया। पर अपने इस अनुमान के लिये वे कोई प्रमाण नहीं देते। इस चरित्र की रचना संवत् १६८७ में हुई और इसकी सबसे प्राचीन प्रति संवत् १८४८ को लिखी मौजा मरुव, पोस्ट आवरा जिला गया के पंडित रामाधारी पांडेय के पास है। उनसे इसकी नकल महात्मा बालकराम विनायक जी को प्राप्त हुई। उन्होंने इसकी प्रति उन्नाव के पंडित रामकिशोर शुक्ल को दी,जिन्होंने इसे पहले-पहल प्रकाशित किया।

इस ग्रंथ के अनुसार सरवार के रहनेवाले पराशर गोत्र के प्रतिष्ठित ब्राह्मणों के कुल मे,जो कुछ काल के अनंतर राजापुर मे बस गया था,तुलसीदास का जन्म संवत् १५५४ को श्रावणशुक्ला सप्तमी को हुआ। लड़का उत्पन्न होते ही रोया नहीं,उसके मुख से "राम" निकला और जन्म के समय उसके बत्तीसों दाँत थे। यह देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ। तुलसीदास के पिता को बड़ा परिताप हुआ। बंधु-बांधवो से सलाह करके यह निश्चय किया गया कि यदि बालक तीन दिन तक जीता रहे तो सोचा जायगा कि क्या करना चाहिए। एकादशी को तुलसी की माता हुलसी की अवस्था बिगड़ [ ११५ ]गई। उसे ऐसा भास होने लगा कि अब मैं नही बचूंगी। उसने अपनी दासी को बुलाकर कहा कि अब मेरे प्राणपखेरू उड़ा चाहते हैं। तू इस बालक को और मेरे सब आभूषणो को लेकर रातोरात अपनी सास के पास चली जा, नहीं तो मेरे मरते ही लोग इस बालक को फेंक देंगे। दासी बालक को लेकर चल पड़ी और इधर उसी दिन ब्रह्म मुहूर्त मे हुलसी ने शरीर छोड़ा। चुनियाँ धासी ने ५ वर्ष और ५ मास तक बालक को पाला-पोसा,पर एक साँप के काटने से उसकी मृत्यु हो गई। तब लोगो ने तुलसीदास के पिता को सँदेसा भेजा। उन्होने कहा कि हम ऐसे अभागे बालक को लेकर क्या करेंगे जो अपने पालक का नाश करता है। अस्तु, दैवी कृपा से बालक जीता रहा। इधर अनंतानंद के शिष्य नरहरियानंद को स्वपन में आदेश हुआ कि तुम इस बालक की रक्षा करो और उसे रामचरित्र का उपदेश दो। नरहरियानंद ने जाकर उस बालक को गांँववालों की अनुमति से अपने साथ लिया और उसका यज्ञोपवीत संस्कार कर विद्यारंभ कराया। दस महीने तक अयोध्या मे हनुमान टीले पर रहकर नरहरियानंद उसे पढ़ाते रहे। हेमंत ऋतु के लगने पर वे बालक को लेकर सरयू और घाघरा के संगम पर स्थित शूकरक्षेत्र में आए और यहाँ ५ वर्ष तक रहे। वहीं पर उन्होंने बालक को रामचरित्र का उपदेश दिया। वहाँ से घूमते-फिरते वे काशी पहुंचे और पंचगंगा घाट पर ठहरे। यहाँ शेषसनातन नामक एक विद्वान् रहते थे। उन्होने नरहरियानंद से उस बालक को मांग लिया और उसे सब शास्त्रो का भली भाँति अध्ययन कराया। १५ वर्ष तुलसीदास यहाँ [ ११६ ]रहे। गुरु की मृत्यु हो जाने पर उनकी इच्छा अपनी जन्मभूमि को देखने की हुई । वहाँ जाने पर उन्हें विदित हुआ कि उनका वंश नष्ट हो गया है। लोगों ने उनके रहने के लिये घर बनवा दिया और वे वहाँ रहकर राम-कथा कहने लगे। एक ब्राह्मण ने बड़े आग्रह से अपनी कन्या का विवाह उनसे कर दिया। इस स्त्री से उनका इतना अधिक प्रेम हो गया कि उसे वे पल भर भी नहीं छोड़ सकते थे। अचानक एक दिन उनकी स्त्री अपने भाई के साथ अपने मायके चली गई। तुलसीदास दौडे़ हुए उसके पीछे गए। यहाँ पर स्त्री के उपदेश के कारण उन्हें वैराग्य हो गया और वे राम की खोज में निकल पड़े। अनेक तीर्थों की यात्रा करते करते वे काशी में आ बसे। यहाँ तथा अन्य स्थानों में उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जो अब तक प्रसिद्ध चले आते हैं। अंत में संवत् १६८० की श्रावण-कृष्ण तीज शनिवार को उन्होंने काशी में शरीर छोड़ा।

इन सारांश से स्पष्ट विदित होगा कि उनकी जीवनी कैसी सुघटित रूप से लिखी गई है और यदि यह जाल है तो बड़ा महत्वपूर्ण जाल है कि १५५० से लेकर १६८० तक का पंचांग बनाकर मुख्य-मुख्य घटनाओं का तिथि, वार और संवत् ठीक ठीक दिया जा सका। कदाचित् ऐसे महत्वपूर्ण जाल का दूसरा उदाहरण कहीं खोजने पर भी न मिलेगा।

इस नवीन संस्करण के संबंध में एक विचित्र घटना हुई। ज्यों-ज्यों रामायणा दुहराकर ठीक की जाती थी त्यों-त्यों संशोधित प्रति प्रेस में भेज दी जाती थी। अब संशोधन का कार्य समाप्त हुआ तब [ ११७ ]पता चला कि अरण्य कांड से लेकर लंका के पूर्वार्ध तक की प्रति कहीं गायब हो गई। बहुत खोज की गई, पर कहीं पता न चला। यह भी ज्ञात न हुआ कि किसकी असावधानी या कृपा से ये पन्ने गायब हो गए। अंत में यह काम फिर से करना पड़ा। ऐसी ही एक घटना साहित्यालोचन के निर्माण के समय में भी हुई थी, जिसका उल्लेख यथा-स्थान होगा।

(२)सन् १८९९ मे इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चिंतामणि घोष ने नागरी-प्रचारिणी सभा से प्रस्ताव किया कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका के संपादन का भार ले और उसे वे प्रकाशित करें। सभा ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया पर संपादन का भार लेने में अपनी असमर्थता प्रकट की। अंत में यह निश्चय हुआ कि सभा एक संपादकमंडल बना दे। सभा ने इसे स्वीकार किया और बाबू राधा-कृष्णदास,बाबू कार्तिकप्रसाद,बाबू जगन्नाथदास, पंडित किशोरीलाल गोस्वामी को तथा मुझे इस काम के लिये चुना। पहले वर्ष में इन पांचो व्यक्तियों के संपादकत्व में यह पत्रिका निकली,पर वास्तव में इसका सारा बोझ मेरे ऊपर था। लेखों का संग्रह करना,उन्हें दुहराकर ठीक करना तथा आवश्यकता होने पर उनकी नकल करवाना और अंत में प्रूफ देखना यह सब मेरा काम था। इसके लिये प्रेस से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिलती थी। इस अवस्था से अवगत होकर बाबू चिंतामणि ने यह निश्चय किया कि मैं ही इसका संपादक रहूँ। एक क्लर्क तथा डाक व्यय आदि के लिए प्रेस २०) रुपया मासिक देता था और उसका हिसाब प्रतिमास प्रेस को भेज [ ११८ ]दिया जाता था। इस प्रकार १९०१ और १९०२ में सरस्वती निकलती रही और एक प्रकार से चल भी निकली। अंत में मेरे प्रस्ताव पर यह निश्चय हुआ कि सरस्वती के संपादन का स्वतंत्र प्रबंध होना चाहिए। मेरे अलग होने का मुख्य कारण समय का अभाव तथा मेरी आर्थिक कृच्छता थी। इसके संपादक पंडित महावीरप्रसाद चुने गए। इंडियन प्रेस की प्रशंसा करनी चाहिए कि उसने प्रारंभ से ही द्विवेदी जी को उनके कार्य के लिये मासिक वेतन दिया। जब उन्होंने इस काम को छोड़ा तब से प्रेस उन्हें पेंशन देने लगा और यावज्जीवन देता रहा। साथ ही यह बात भी है कि द्विवेदी जी ने बड़ी लगन के साथ संपादन-कार्य किया और सरस्वती की अच्छी उन्नति हुई। जब १९०३ के जनवरी मास से मैं इसके संपादनकार्य से अलग हुआ तब द्विवेदी जी ने मेरे संबंध में सरस्वती में यह नोट दिया। "जिन्होंने बाल्यकाल ही से अपनी मातृभाषा हिंदी में अनुराग प्रकट किया, जिनके उत्साह और अशांत श्रम से नागरी प्रचारिणी सभा की इतनी उन्नति हुई, हिंदी की दशा को सुधारने के लिये जिनके उद्योग को देखकर सहस्त्रश: साधुवाद दिए बिना नहीं रहा जाता, जिन्होंने विगत दो वर्षों में इस पत्रिका के संपादन-कार्य को बड़ी योग्यता से निवाहा, उन विद्वान् बाबू श्यामसुदरदास के चित्र को इस वर्ष के आदि में प्रकाशित करके सरस्वती अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती है।"

चित्र के नीचे छपा था–

"मातृभाषा के प्रचारक, बिमल बी० ए० पास।
सौम्य शीलनिधान, बाबू श्यामसुदरदास।।"

[ ११९ ]

सरस्वती में विविध वार्ताओं के अतिरिक्त मेरे ये लेख छपे–

(१९००)

(१) जंतुओं की सृष्टि

(२) शमशुलउल्‌मा मौलवी सैयदअली बिलग्रामी

(३) पंडितवर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर

(४) दानी जमशेद जी नौशेरवांँ जी ताता

(५) भारतवर्ष की शिल्प-विद्या

(६) फोटोग्राफी

(१९०१)

(१) वीसलदेवरासो

(२) भारतेश्वरी महारानी विक्टोरिया

(३) शिक्षा

(४) फतेहपुर सिकरी

(१९०२)

(१) रासो शब्द

(२) युनिवर्सिटी कमीशन

(३) स्वर्गवासी लाला व्रजमोहनलाल

(४)नागरी अक्षर और हिंदी भाषा

(१९०३)

दिल्ली-दरबार

(३) सन् १९०० के पहले ही नागरी प्रचारिणी सभा ने मिस्टर रमेशचंद्र दत्त से उनके प्राचीन भारतवर्ष की सभ्यता के इतिहास का [ १२० ]हिंदी-अनुवाद करने की आज्ञा प्राप्त कर ली थी और उसके प्रकाशित करने का भार इंडियन प्रेस ने ले लिया था। पहले तो इस ग्रंथ के अनुवाद होने में ही बहुत विलंब हुआ। जब अनुवाद प्रस्तुत हो गया तब इंडियन प्रेस में वह पड़ा रहा। अंत मे सभा ने इस अनुवाद की हस्तलिखित प्रति इंडियन प्रेस से लौटा ली और उसे स्वयं प्रकाशित करने का विचार किया। इस बीच में हिंदी-समाचार-पत्रों में इस ग्रंथ के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हुआ कि सभा-द्वारा इस का प्रकाशित होना सर्वथा अनुचित है। यह समय ऐसा था जब प्रत्येक कार्य में धार्मिक भावना घुस पड़ती थी और असहनशीलता तथा दूसरों के मत को जानने की अनिच्छा प्रबल थी। अस्तु, इस झगड़े को शांत करने के लिये मैने सभा से प्रार्थना की कि अनुवाद मुझे दे दिया जाय मैं उसे स्वयं छपवाऊँगा। सभा ने इस प्रार्थना को स्वीकार किया और कुछ मित्रों तथा परिचितों से २५)-२५) रु० लेकर इस पुस्तक के छापने का प्रबंध किया गया। इस प्रकार इसका प्रथम भाग सन् १९०४ के दिसंबर मास में प्रकाशित हुआ और क्रमश: इसके बाकी तीन भाग भी निकले। इसी द्रव्य से मैगास्थनीज की भारत-यात्रा का अनुवाद भी पंडित रामचंद्र शुक्ल से कराके प्रकाशित किया गया। इनकी बिक्री से आय होने पर जिन मित्रों ने रुपये दिए थे वे उन्हें लौटा दिए गए।

(४) सन् १९०१ की मनुष्यगणना के समय एक आंदोलन खड़ा हुआ जिसमें मैने प्रमुख भाग लिया। इस गणना के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर रिजले ने यह सर्क्यूलर निकाला कि खत्रियों की गणना वैश्यो [ १२१ ]में की जाय। काशी में इसके विरुद्ध आंदोलन करने के लिये एक कमेटी बनी और रिजले साहब के कथन के विरुद्ध प्रमाण इकट्ठे किए जाने लगे। इस निमित्त बाबू जुगुलकिशोर, पंडित रामनारायण मिश्र और मैं तीनों कलकत्ते गए। डाक्टर श्रीकृष्ण वर्मन ने बड़े आदर और सद्भाव से हम लोगों को अपने यहाँ ठहराया। एशियाटिक सुसाइटी के पुस्तकालय की छान-बीन होने लगी और पंडित रामनारायण मिश्र सब सामग्री का संकलन तथा संपादन करने लगे। उसी सामग्री के आधार पर उन्होंने अंँगरेजी में एक लेख भी प्रस्तुत किया जो छापकर वितरित किया गया। यह विचार था कि किसी प्रधान नगर में एक खत्री-कांफ्रेंस करके इस आंदोलन को ऐसा रूप दिया जाय जिसमें रिजले साहब को बाध्य हो हठधर्मी छोड़कर न्याय का पक्ष ग्रहण करना पड़े। बरेली के बैरिस्टर मि० नंदकिशोर कक्कड़ ने अपने नगर मे इस कांफ्रेंस के करने का प्रबंध किया और जुलाई सन् १९०१ के आरंभ मे यह कांफ्रेंस वहाँ हुई। जब हम लोग कलकत्ते में काम कर रहे थे तभी हम लोगों को इस कांफ्रेंस के लिये सभापति चुनने की चिंता ने ग्रसित किया था। हम लोग चाहते थे कि ऐसा व्यक्ति सभापति चुना जाय जो सबसे अधिक प्रभावशाली हो। हम लोगो का ध्यान बर्दवान के खत्री-राजवंश पर गया। यह खत्रीवंश अत्यत संपन्न, प्रतिष्ठित और प्रभावशाली है। इस वंश के आदिपुरूष आबूराय हुए जो जाति के कपूर और लाहौर के रहनेवाले थे। सन् १६५७ में ये बंगाल में आकर रेकाबी बाजार (बर्दवान) के चौधरी और कोतवाल हुए। इनके लड़के बाबूराय बर्दवान परगने तथा अन्य [ १२२ ]तीन स्थानों के मालिक हुए। इनके पीछ घनश्याम राय और उनके पीछे कृष्णराम राय हुए। कृष्णराम राय को औरंगजेब ने सन् १६९४ में एक फरमान भेजा और इन्हें बर्दवान आदि स्थानों का चौधरी और जमींदार माना। इनके पीछे जगत राय गद्दी पर बैठे और इन्हें भी सन् १६९७ में औरंगजेब ने एक फरमान भेजा। इस समय इनके अधीन पचास महाल थे। जगत राय के अनंतर कीर्तिचंद्र और चित्रसेन राय क्रमशः उत्तराधिकारी हुए। चित्रसेन राय को सन् १७४० में राजा की पदवी मिली। सन् १७४४ मे राजा तिलकचंद बर्दवान की गद्दी पर बैठे। इन्हें दिल्ली में राजा बहादुर की पदवी और चारहजारी का मनसब मिला। आगे चलकर इन्हें महाराजाधिराज की पदवी और पंचहजारी का मनसब मिला। सन् १७७१ मे महाराजाधिराज तेजचंद ६ वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे और सन् १८३२ तक राज्य करते रहे। इनके पीछे महाराजाधिराज महताबचंद गद्दी पर बैठे। सन् १८६४ में ये वाइसराय की कौंसिल के सदस्य नियत हुए। बंगाल के ये पहले रईस थे जो इस कौंसिल के सदस्य बने। सन् १८७७ में इन्हे १२ तोपों को सलामी दी गई। सन् १८७९ मे महाराजाधिराज आफताबचंद महताब गद्दी पर बैठे, पर निस्संतान होने के कारण उन्होंने राजा बनबिहारी कपूर के ज्येष्ठ पुत्र को गोद लिया जो महाराजाधिराज विजयचंद महताब बहादुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् १९०० में ये नाबलिग थे और राजा बनविहारी कपूर राज्य का सब प्रबंध करते थे। हम लोगों ने सोचा कि इन्हें सभापति बनाने का उद्योग करना चाहिए। अतएव [ १२३ ]हम लोग इनसे मिलने बर्दवान गए। सब तथ्य निवेदन किया गया और सभापति के लिये प्रार्थना की गई। उन्होंने उस समय तो कोई उत्तर नहीं दिया,पर सोचकर अपना निश्चय बताने का वचन दिया। कुछ दिनों बाद हम लोग फिर उनसे मिलने गए। वे आगा-पीछा कर रहे थे। महाराज आफताबचंद के समय से खत्रियों में इस राजवंश को लेकर अनेक झगड़े उठ खड़े हुए थे। कोई इन्हें जातिच्युत रखना चाहते थे और कोई इनका साथ देते थे। जहाँ तक मुझे पता चला है, यह ज्ञात होता है कि कुछ लोगो को यहाँ से पुष्कल धन मिलता था। जिनको नहीं मिलता था वे द्वेषाग्नि से जलकर उनका विरोध करते थे। जिस समय हम लोग इनमे मिलने गए उस समय भी इस वंश को लेकर खत्रियों में मतभेद था और कभी-कभी तो यह मतभेद लट्ठबाजी तथा मुकदमेबाजी तक में परिणत हो जाता था। काशी में इस विवाद को लेकर बहुत टंटा खड़ा हुआ था। खूब लट्ठबाजी हुई थी और मुकदमे भी चले थे। निदान इन सब बातों को सोचकर राजा बनविहारी कपूर इस सोच-विचार में पड़े कि यह काशीवासी त्रिमूर्ति हमे कांफ्रेंस में ले जाकर अप्रतिष्ठित न करें और इस प्रकार कुछ विरोधियों का बदला चुकावें। मैंने राजा साहब को आश्वासन दिया कि आप किसी बात की आशंका न करें। इस समय खत्री-जाति की सहायता करने से आपका यश बढ़ेगा और संभव है कि बहुत कुछ मनमुटाव दूर हो जाय। अंत में राजा साहब ने अपनी स्वीकृति दे दी और हम लोग प्रसन्नचित्त लौट गए। कलकत्ते में कार्य समाप्त [ १२४ ]कर हम लोग काशी आए और बरेली-कांफ्रेंस की तैयारी होने लगी। यथासमय इसका अधिवेशन हुआ। राजा साहब ने अपना भाषण अँगरेजी में लिखा था। मुझे इसका अनुवाद करने के लिये कहा गया। उस समय कुछ ऐसा उत्साह, साहस और अभ्यास बढ़ा हुआ था कि मैं चट खड़ा हो गया और मन में अँगरेजी पढ़ता और हिंदी में उसका अनुवाद कहता जाता था। इस पर मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने मेरी प्रशंसा करके मुझे उत्साहित किया। अस्तु, कांफ्रेंस सफलतापूर्वक हो गई और उसमे निश्चित प्रस्तावों के अनुसार राजा साहब से प्रार्थना की गई कि वे एक आवेदन-पत्र तैयार करके रिजले साहब को दें। यथासमय यह पत्र तैयार हुआ। इसमें अकाट्य प्रमाणो से यह सिद्ध किया गया कि खत्री वैदिक काल के क्षत्रियों की संतान हैं। यथासमय रिजजे साहब ने इसे स्वीकार किया और खत्रियों की गिनती क्षत्रियों में हुई। यह कांफ्रेंस बड़ी सफलतापूर्वक हुई। कहीं कोई आपत्ति न खड़ी हुई और जाति से किसी के छेकने का प्रश्न भी न उठा। साथ ही बर्दवानराज्यवंश, जो वर्षों से जातिच्युत होने के झगड़े में पड़ा रहा, इस कांफ्रेंस के कारण मान्य खत्रियों में गिना जाने लगा। इस पर राजा साहब बड़े संतुष्ट और प्रसन्न हुए। उनके एक विश्वासपात्र प्राइवेट सेक्रेटरी थे। वे एक भीमकाय बंगाली महाशय थे! उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि राजा साहब तुमसे बड़े प्रसन्न हैं। वे तुम्हें तीस हजार रुपया देना चाहते हैं। मैंने उत्तर दिया कि यह उनकी कृपा है, पर उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार के रुपये देने से जाति [ १२५ ]में बर्दवान-वंश के विरुद्ध आंदोलन रहा; अब वह शांत हो गया है अब उसको फिर न उभाड़ना चाहिए। यदि राजा साहब रुपया देना ही चाहते हैं तो वे कोई ऐसा काम करें जो खत्रियों के लिये हितकारी हो। अंत मे सेंट्रल खत्री एजुकेशन कमेटी की स्थापना काशी में हुई और उसके सहायतार्थ बर्दवान राज्य से १००) मासिक मिलने लगा। यह रकम आगे चलकर १२५) या १५०) हो गई और अनेक वर्षों तक निरंतर मिलती रही। कई वर्ष हुए जब कुप्रबंध के कारण बर्दवान-राज्य कोर्ट आफ वार्ड्स के सुपुर्द हुआ तब यह सहायता बंद हो गई। इसका मुझे बहुत दुःख हुआ पर मैं कर ही क्या सकता था। खत्री एजुकेशन कमेटी ने कितने ही छात्रों को सहायता दी और अब तक वह यह कार्य करती जाती है। कई को उसने विलायत जाकर पढ़ने में सहायता दी। मुझे एक घटना का स्मरण है। प्रतापगढ़ के एक खत्री-युवक को एडिनबरा में डाक्टरी पढ़ने के लिये भेजा गया। वे यथा-समय परीक्षा में उत्तीर्ण होकर घर लौटे। मैं उस समय लखनऊ में था। उन्होंने मुझे कहला भेजा कि मैं आगया हूँ, आप मुझसे मिलने पाइए। उनकी धृष्टता और साहस पर मुझे बड़ा दुःख हुआ। जिसकी कृपा से वे विलायत से डाक्टर होकर आए उसी को अपने यहाँ मिलने के लिये बुलाना उनकी धृष्टता थी! खत्री जाति प्रायः अकृतज्ञ पाई गई है। विरले रत्नों को छोड़कर उसमे अधिकांश लोग ऐसे मिलेंगे जो स्वार्थपरायण और कृतज्ञ हैं। खत्री एजुकेशन कमेटी ने सैकड़ों क्या हजारों विद्यार्थियों की आर्थिक सहायता की पर इने-गिने लोगों ने ही जीविकोपार्जन के व्यवसाय [ १२६ ]१२६ मेरी पालकहानी मे लग जाने पर उसकी आर्थिक महायता की। इससे बढ़कर उनकी अकृतलता और स्वार्थपरता का क्या प्रमाण हो सकता है । मुझे मोष है कि प्रत्यक्ष रीति से नहीं, पर परोन रीति से मैं इस विद्यादान के शुभ काम में सहायक हुआ। महाराज बर्दवान से समय-समय पर उद्योग करके मैने नागरी-प्रचारिणी सभा के लिये २,०००) की सहा- यता प्राप्त की। (५) इधर सभा का काम बढ़ जाने से उसके लिये अपने निज के मवन की चिंता उसके कार्यवाओं को बहुत हुई। बहुत धान-यीन के अनंतर मैदागिन के कंपनीवाग का पूर्वी कोना हम लोगों ने चुना। यहाँ उस समय पानी क्या मैले के नल धनते समय जो मिट्टी निकली थी उसका ढेर लगा हुआ था। वायू गोविंददास क्या मिस्टर प्रीज के उद्योग क्या काशी के फ्लेक्टर ई० एच० रडीचे माहब की कृपा से यह जमीन ३,५०० रु. में समा को मिली और नववर सन् १९०२ में इसके चयनामे की रजिस्टग हुई। भवन बनवाने के लिये धन इकट्ठा करने का उद्याग आरम हुआ। धन के लिये पहला डेपुटेशन वायू राधाकृष्णशस, पं० माधवराव सप्रे, पं० रामराव चिंचोलकर, वायू माधोप्रसाद व्या पं० विश्वनाथ शर्मा का बाहर गया। वाबू राधाकृष्णदास चो अयोध्या होकर काशी लौट आए और शेष लोगों ने अनेक स्थानों की यात्रा करके भवन के लिये अच्छा चंदा इकट्ठा किया। मैंने भी इस काम के लिये कई घेर मिर्जापुर की यात्रा को क्या फल- कता, लाहौर और वंधई वर्क एक-दो मित्रों के साथ धावालगाया और वन वटोरा। [ १२७ ]मेरी नामकहानी सन् १९.२ में भारतजीवन पत्र में काशिनरेश महाराज सर प्रभुनारायणसिंह के चरित्र पर कुछ आक्षेप छपे । उस पर बड़ा आंदो- लन मचा। टाउनहाल में एक बड़ी मभा में इम आप का विरोध किया गया। मन इस सभा में भाग लिया और शांति स्थापित करने का उद्योग पिया। मंग उद्योग सफल हुआ और बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपनी टिप्पणी पर संढ प्रकट करते हुए क्षमा मांगी। इसके दो-एक दिन पीछे वायू इंद्रनारायणसिंह ने मुझ युलवा भेजा और कहा कि काशिगज की नेटिव स्टेट्म के अधिकार देने की बात चल रही है। इधर भारतजीवन पत्र ने अपने लेस से उसमें व्यायात पहुंचाया है, पर वह मामला खत्तम हो गया। अब कोई ऐसा प्रायो- अन करना चाहिए जिसमे गवमेंट की यह दिखाया जा सके कि काशी के निवामियों में महाराज के प्रति श्रद्धा और भक्ति है। मैंने कहा कि मेरे हाथ में कुछ है नहीं। समा-भवन के लिये भूमि ले ली गई है। यदि महारान उसकी नींव रखना चाहे तो मै उसका प्रबध कर सकता है। उन्होंने कहा कि महाराज को पत्र लिखो, मैं स्वीकार करा लूंगा और ममा को अच्छी महायता दिलवाऊँगा। अस्तु, सव प्रवध किया गया और २१ दिसवर १९०२ को बड़ी धूम-धाम के साथ महा- सन ने नीव रखी। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि मैं समा की पूरी सहायता करूँगा। उस समय काशी में यह धात प्रसिद्ध हो गई थी कि महाराज समा का भवन अने पास से धनवा दे रहे हैं। पर महाराज से कुछ काल के अनंतर दो बेर करके २,०००) की सहायता प्राप्त हुई। जव समा-भवन बन गया और उसको २८ फर्वरी, सन् [ १२८ ]१२८ मेरी प्रात्मकहानी १९०४ को इस प्रदेश के लेफ्टनेंट गवर्नर सर जेम्स लाश ने खोला सब सब हिसाब लगाने पर यह प्रकट हुआ कि सभा को इस मद में ६,०००) का देना है। इस निमिच मैं कई वेर घादू इंद्रनारायणसिंह के यहां गया और मैंने उनसे कहा कि अपनी प्रतिक्षा के अनुसार सभा को सहायता दिलवाइए क्योकि इस पर ६०००) का शूण चढ़ गया है। उन्होने कहा कि मैं अमुक दिन जाऊंगा और सब प्रबंध कर दूंगा। कभी वो वे कहते कि आन महाराज के सिर में दर्द था, इसलिये मैं कुछ न कह सका, कमी क्हते कि महाराज चकिया चले गए हैं, लौटने पर मैं मिलूंगा। कभी कहते कि आज महाराज के पास बहुत से आगमी बैठे थे इसलिये मैं कुछ न कह सका। सारांश यह कि उन्होंने मुझ महीनो दौड़ाया, पर एक पैसा भी सहायता में न मिला। मैं नहीं कह सकता कि इस कार्य में कहाँ तक उन्होंने बहाने करके मुझे टाला, अथवा उनको सफलता ही न मिली। अस्तु, यह श्रण पड़ा रहा। पीछे से बाबू गौरीशंकरप्रसाद के मंत्रित्व में उन्हीं के ब्योग से यह चुका। इस ऋण चुकाने का पूर्ण श्रेय वायू गौरीशंकरप्रसाद को है। (सन् १८९९ से लेकर १९०९ तक मेरे नीचे लिखे निर्वध और पुस्तकें प्रकाशित हुई। पिछले प्रकरणों में भाषासारसंग्रह, हिंदी वैज्ञानिक कोश, दत्त के इतिहास और रामायण का उल्लेख हो चुका है। मनको छोड़कर शेप मंथों का ब्योरा नीचे दिया जाता है। इसी समय हिंदी-कोविदरखमाला के प्रथम भाग का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक का नामकरण पंडित श्रीधर पाठक का किया हुआ [ १२९ ]मेरी भामकहानी १२९ है। इसमें हिंदी के चालीस लेखको और सहायका के सचित्र जीवन- चरित दिए हुए हैं। मेरी बहुत इच्छा थी कि इसमें पंडित महावीर- प्रसाद द्विवेदी का चित्र और चरित्र भी रहे पर यह इच्छा इस समय पूरी न हो सकी। इस समय तो द्विवेदी जी मुझसे रुष्ट थे और युद्ध-पथ पर आपढ़ थे। संपादित पुस्तके चंद्रावती अथवा नासिकेतोपाख्यान--सदल मिश्रलिखित जव कलकत्ते में मैं एशियाटिक सुसाइटी की हस्तलिखित पुस्तकों की नोटिस कर रहा था तब मुझे इस पुस्तक की प्रति वहां मिली थी। वहाँ से मैंने इसे मॅगनी मॅगाया। यह मेरे पाम रक्खी हुई थी कि एक दिन पंडित केदारनाथ पाठक पडित रामचंद्र शुक्ल को मेरे पास मिलाने लाए। उन्होंने कहा कि शुक्ल नी से कुछ काम लीजिए। उस समय शुक्ल जी मिर्जापुर के लंडनमिशन स्कूल मे ड्राइंगमास्टर थे। मैंने उन्हें चद्रावती को हस्तलिखित प्रति देकर कहा कि इसकी शुद्धतापूर्वक साफ-साफ नकल कर लाइए । कुछ दिनों के उपरांत वे उसकी नकल कर लाए। असल प्रति में घीच का एक पन्ना गायव था। इसको उन्होने वैसे ही छोड़ दिया था। मैंने इसकी पूर्ति संस्कृत प्रय से की और यह अंश छपी प्रति में कोष्ठकों में दिया गया है। इस मंथ के संबंध से पहले पहल मेरा परिचय पंडित रामचंद्र शुक्ल से हुआ। फा.९ [ १३० ]१३० मेरी आमकहानी छत्रप्रकाश-पहला संस्करण मैने संपादित किया। दूसरा संस्करण धाबू कृष्णवलदेव वर्मा के सहयोग में निकला। पृथ्वीराजरासो-पहले इसका संपादन पंडित मोहनलाल विष्णु- लाल पंख्या, वायू राधाकृष्णदास तया मेरे सहयोग में आरंम हुआ। फिर इन दोनों महाशया के स्वर्गवासी हो जाने पर मैं अकेले ही इसका संपादन करता रहा। मेरी सहायता के लिये कुंधर कन्हैया जू नियत किए गए। इन्होंने इस प्रय का सार हिंदीगर में लिखा था। इसकी भूमिका अब तक न लिखी जा सकी पर सन् १९११ की नागरी-मचारिणी पत्रिका में चंदबरदाई पर मेरा लेख छपा है जो एक प्रकार से भूमिका का काम दे सकता है। वनिताविनोद-राजा साहव मिनगा की इच्छा तया सहायता से यह संग्रह प्रस्तुत किया गया था। इसका संपादन मैंने किया था और इसके लिये एक लेख लिखा था। इंद्रावती भाग १-इसका दूसरा भाग अमी छपनेही को पड़ा है। इम्मीररासो-इसकी प्रति मुझे पंडित सूर्यनारायण दीक्षित से माप्त हुई थी। शकुंतला नाटक-राजा लक्ष्मणसिंह-लिखित अनुवाद का संपादन इस सस्करण में किया गया। यह पहने संस्करण के आधार पर किया गया है। इसे इंडियन प्रेस ने प्रकाशित किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की इंट्रेस परीक्षा में यह कई वर्ष वक पाठ्य पुस्तक के रूप में चलवा रहा। [ १३१ ] पाठ्य पुस्तकें! मापा-पत्र लेखन प्राचीन लेख-मणि-माला इन तीनों पुस्तको पर पंडित महा- हिंदी-पत्र लेखन वीरप्रसाद द्विवेदी की विशेष कृपा हुई। हिंदी प्राइमर इनके छिद्रान्वेषरए किए और इनके प्रच- हिंदी की पहली पुस्तक लित होने में बाधाएँ डाली। हिंदी-ग्रामर हिंदीसंग्रह बालक-विनोद यह साक्टर एनीवेसेंट की लिखी एक पुस्तक का अनुवाद है जिसे हिंदू कालेज कमेटी ने प्रकाशित किया था। इनमें दूसरी पुस्तक नागरी प्रचारिणी पत्रिका में छपी। शेष इंडियन प्रेस और मेडिकल हाल प्रेस ने प्रकाशित की।