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मेरी आत्मकहानी/९ हिंदी-शब्दसागर

विकिस्रोत से
मेरी आत्मकहानी
श्यामसुंदर दास

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १४० से – १८२ तक

 

(९)

हिदी-शब्दसागर

किसी जाति के जीवन में उसके द्वारा प्रयुक्त शब्दो का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है! आवश्यक्ता तथा स्थिति के अनुसार इन प्रयुक शब्दों मे आगम अथवा लोप, तथा वान्य, लक्ष्य एवं द्योत्य भावो में परिवर्तन, होता रहता है। अत: और सामग्री के अभाव में भी इन शब्दों के द्वारा किसी जाति के जीवन की मिन्न-मित्र स्थितियों का इतिहास उपस्थित किया जा सकता है। इसी आधार पर आर्य- जाति का प्राचीनतम इतिहास मस्तुत किया गया है और ज्या-ज्यों सामग्री उपलब्ध होती जा रही है, त्यों-त्यो यह इतिहास ठीक किया जा रहा है। इस अवस्था में यह बात स्पष्ट समझ में आ सकती है कि जातीय जीवन में शब्दों का स्थान कितने महत्त्व का है। आतीय साहित्य को रक्षित करने वथा उसके भविष्य को सुरुचिर और समुज्यन बनाने के अतिरिक्त यह किसी भाषा की सपन्नता या शब्दबहुलता का सूचक और उस भाषा के साहित्य का अध्ययन करने-वालो का सबसे बड़ा सहायक भी होता है। विशेपत.अन्य भाषा-भापियों और विदेशियो के लिये तो उसका और भी अधिक उपयोग होता है। इन सब दृष्टियों से शब्द-कोश किसी भाषा के साहित्य की मूल्यवान् संपत्ति और उस भाषा के भांडार का सबसे बड़ा निदर्शक होता है।

जब अंँगरेजो का भारतवर्ष के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित होने लगा तब नवागंतुक अंँगरेजो को इस देश की भाषाएँ जानने की विशेष आवश्यकता पड़ने लगी। फलत.वे अपने सुभीते के लिये देशभाषाओं के कोश बनाने लगे। इस प्रकार इस देश मे आधुनिक ढंग के और अकारादि क्रम से बननेवाले शब्द-कोशो की रचना का सूत्रपात हुआ। कदाचित् देश-भाषाओं में सबसे पहले हिंदी (जिसे उस समय अॅगरेज लोग हिंदुस्तानी कहा करते थे) के दो शब्द-कोश श्रीयुत जे० फर्गुसन नामक एक सज्जन ने प्रस्तुत किए थे,जो रोमन अक्षरो मे सन् १७७३ मे लंदन में छपे थे। इनमे से एक हिंदुस्तानी-अंँगरेजी का और दूसरा अंँगरेजी-हिंदुस्तानी का था। इसी प्रकार का एक कोश सन् १७९०मे मदरास में छपा था,जो श्रीयुत हेनरी हेरिस के प्रयत्न का फल था। सन् १८०८में जोसफटेलर और विलियम इंटर के सम्मिलित उद्योग से कलकत्ते में एक हिंदुस्तानी-अंँगरेजी कोश प्रकाशित हुआ था। इसके उपरांत १८१०में एडिनवरा में श्रीयुत जे० वी० गिलक्राइस्ट का और सन १८१७ में लदन में श्रीयुत जे० शेक्सपियर का एक अंँगरेजी-हिंदुस्तानी और एक हिंदुस्तानी-अंँगरेजी कोश निकला था,जिसके पीछे से तीन संस्करण हुए थे। इनमे से अंतिम संस्करण बहुत कुछ परिवर्द्धित था। ये सभी कोश रोमन अक्षरों में थे और इनका व्यवहार अंँगरेज यो अंँगरेजी पढ़े-लिखे लोग ही कर सकते थे। हिंदी-भाषा या देव-नागरी अक्षरों में जो सबसे पहला कोश प्रकाशित हुआ था,वह पादरी एम० टी० एडम ने तैयार किया था। इसका नाम"हिंदीकोश" था और यह सन् १८२९ मे कलकत्ते से प्रकाशित हुआ था। तब से ऐसे शब्द-कोश निरंतर बनने लगे,जिनमें या तो हिंदीशब्दो के अर्थ अंँगरेजी में और या अँगरेजी शब्दो के अर्थ हिंदी में होते थे। इन कोशकारों में श्रीयुत एम० डब्ल्यू फैलन का नाम विशेषरूप से उल्लेख करने योग्य है, क्योकि इन्होंने साधारण बोलचाल के छोटे- बडे कई कोश बनाने के अतिरिक्त,कानून और व्यापार आदि के पारिभाषिक शब्दो के भी कुछ कोश बनाये थे। परंतु इनका जो हिंदुस्तानी-अँगरेजी कोश था उसमें यद्यपि अधिकांश शब्द हिंदी के ही थे, फिर भी अरबी, फारसी के शब्दों की कमी न थी;और कदाचित् अदालती लिपि फारसी होने के कारण ही उसमें शब्द फारसी- लिप में, अर्थ अँगरेजी में और उदाहरण रोमन में दिए गए थे। सन् १८८४ में लंदन में श्रीयुत ने० टी० प्लाट्स का जो कोश छपा था,वह भी बहुत अच्छा था और उसमें भी हिंदी तथा उर्दू-शब्दो के अर्थ अंगरेजी भाषा मे दिए गए थे। सन् १८७३ में मु० राधेलाल जी का शब्द-कोश गया से प्रकाशित हुआ था जिसके लिये उन्हें सरकार से यथेष्ट पुरस्कार भी मिला था। श्रीयुत पादरी जे० डी० बेट ने पहले सन् १८४९ मे काशी से एक हिंदी-कोश प्रकाशित किया था,जिसमे हिंदी के शब्दो के अर्थ अंँगरेजी में दिए गए थे। इसी समय के लगभग काशी से कलकत्ता स्कूल बुक सोसायटी का हिंदी कोश प्रकाशित हुआ था जिसमे हिंदी के शब्दों के अर्थ हिंदी में ही थे। बेट के कोश के पीछे से दो और संशोधित तथा परिवद्धित संस्करण प्रकाशित हुए थे। सन् १८७५ में पेरिस में एक कोश का कुछ अंश प्रकाशित हुआ था, जिसमे हिंदी या हिंदुस्तानी शब्दों के अर्थ फ्रांसीसी भाषा में दिए गए थे। सन् १८८० में लखनऊ से सैयद जामिनाली जलाल का गुलशने फैज नामक एक कोश प्रकाशित हुआ था,जो था तो फारसी-लिपि मे हो; परंतु शब्द उसमे अधिकांश हिंदी के थे। सन् १८८७ मे तीन महत्त्व के कोश प्रकाशित हुए थे, जिनमे सबसे अधिक महत्व का कोश मिरजा शाहजादा कैसर-बख्त का बनाया हुआ था। इसका नाम "कैसर-कोश" था और यह इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। दूसरा कोश श्रीयुत मधुसूदन पंडित का बनाया हुआ था जिसका नाम "मधुसूदननिबंटु" था और जो लाहौर से प्रकाशित हुआ था। तीसरा कोश श्रीयुत मुन्नीलाल का था जो दानापुर मे छपा था और जिसमें अंँगरेजी शब्दों के अर्थ हिंदी में दिए गए थे। सन् १८८१ और १८९५ के बीच मे पादरी टी० क्रेंपन के बनाए हुए कई कोश प्रकाशित हुए थे जो प्रायः स्कूलो के विद्यार्थियों के काम के थे। १८९२ में वॉकीपुर से श्रीयुत बावा बैजूवास का "विवेककोश" निकला था। इसके उपरांत गौरीनागरी-कोश, हिंदीकोश, मंगलकोश, श्रीधरकोश आदि छोटे-छोटे और भी कई कोश निकले थे। जिनमें हिंदीशब्दों के अर्थ हिंदी में ही दिए गए थे। इनके अतिरिक्त कहावतो और मुहावरों आदि के जो कोश निकले थे,वे अलग है।

इस बीसवीं शताब्दी के आरम से ही मानो हिंदी के भाग्य ने पलटा खाया और हिंदी का प्रचार धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसमें निक्लनेवाले सामजिक पत्रो क्या पुस्तकों की संख्या भी बढ़ने लगी और पढ़नेवाला की सख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी । तात्पर्य रह कि दिन पर दिन लोग हिंदी-साहित्य की ओर प्रवृत्त होने लगे और हिंदी पुस्तके चाव से पढ़ने लगे। लोगों में प्राचीन काव्यों आदि को पढ़ने की उत्कंठा भी बढ़ने लगी। उस समय हिंदी के हितैपियों को हिंदी भाषा का एक ऐसा वृहत् कोश तैयार करने की आवश्यकता जान पड़ने लगी जिसमे हिंदी के पुराने पद्य और नये गध दोनों में व्यवत होनेवाले समस्त शब्दों का समावेश हो,क्योंकि ऐसे कोश के बिना आगे चलकर हिंदी के प्रचार में कुछ बाधा पहुंचने की आशका थी।

काशी-नागरी प्रचारिणी सभा ने जितने बड़े-बड़े और उपयोगी काम किए हैं, जिस प्रकार प्राय उन सबका सूत्रपात या विचार सभा के जन्म के समय,उसके प्रथम वर्ष में हुआ था, उसी प्रकार हिंदी का वृहत् कोश बनाने का सूत्रपात नहीं तो कम-से-कम विचार भी उसी प्रथम वर्ष में हुआ था। हिंदी में सर्वागपूर्ण और वृहत् कोश का अभाव सभा के सचालकों को १८९३ ई० मे ही खटका था और उन्होंने एक उत्तम कोश बनाने के विचार से आर्थिक महावता के लिये दरभंगा-नरेश महाराज सा लक्ष्मीश्वरसिह जी से प्रार्थना की थी। महागज ने भी शिशु-सभा के उद्देश्य की सराहना करते हुए उसकी महायता के लिये १२५) रुपये भेजे थे और उसके साथ सहानुभूति प्रकट की थी। इसके अतिरिक्त आपने कोश का कार्य प्रारंभ करने के लिये भी सभा से कहा था और यह भी आशा दिलाई थी कि आवश्यकता पड़ने पर वे सभा को और भी आर्थिक सहायता देगे। इस प्रकार सभा ने नौ सज्जनो की एक उपसमिति इस संबंध में विचार करने के लिये नियुक्त की; पर उप-समिति ने निश्चय किया कि इस कार्य के लिये बड़े-बड़े विद्वानो की सहायता की आवश्यकता होगी और इसके लिये कम से कम दो वर्ष तक २५०) मासिक का व्यय होगा। सभा ने इस संबंध में फिर श्रीमान् दरभंगा-नरेश को लिखा था, परंतु अनेक कारणों से उस समय कोश का कार्य प्रारंभ नहीं हो सका। अत. सभा ने निश्चय किया कि जब तक कोश के लिये यथेष्ठ धन एकत्र न हो तथा दूसरे आवश्यक प्रबंध न हो जायँ, तब तक उसके लिये आवश्यक सामग्री ही एकत्र की जाय। तदनुसार उसने सामग्री एकत्र करने का कार्य प्रारंभ कर दिया।

मन् १९०४ मे सभा को पता लगा कि कलकत्ते की हिंदी साहित्य-सभा हिदीं-भाषा का एक बहुत बड़ा कोश बनाना निश्चित किया है और उसने इस संबंध में कुछ कार्य भी आरम कर दिया है। सभा का उद्देश्य केवल यही था कि हिंदी में एक बहुत बडा शब्द-कोश तैयार हो जाय;स्वयं उसका श्रेय प्राप्त करने का उनका कोई विचार


फा० १० नहीं था। अंत सभा ने जब देखा कलमे वो साहित्य-सभा कोश बनवाने का प्रयत्न कर ही रही है, तब उसमे बहुत ही प्रसन्नता पूर्वक निश्चय किया कि अपनी मागे संविन सामग्री साहित्य-सभा को दे दी जाय और यथामाण्य सब प्रकार से उसकी महायता की जाय। प्राय तीन वर्ष तक सभा इसी आसरे में थी कि साहित्य-सभा कोश तैयार करें। परंतु कोश तैयार फग्न का जो यश स्वयं प्राप्त करने की उसकी कोई विशेष इच्छा न थी,विधवान यह यश उसी को देना चाहता था। जब सभा ने देखा कि साहित्य-सभा की ओर से कोश की तैयारी का कोई प्रबंध नहीं रहा है. तब उसने उस काम को स्वयं अपने ही हाथ में लेना निश्चित किया। जब सभा के संचालकों ने आपस में इस विषय की सब बाते पष्ठी लो,तब २३ अगस्त, १९०७ का सभा के परम हितैपो और उन्मादो सदस्य श्रीयुव रेवरेंड ई० ग्रीव्स ने सभा की प्रबंधकारिणी समिति में यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि हिंदी के एक बहन् और सर्वागपूर्णा कोश बनाने का भार सभा अपने ऊपर ले और भाव ही यह भी बतलाया कि यह कार्य किस प्रणाली से किया जाय। सभा ने मि०ग्रीव्स के प्रस्ताव पर विचार करके इस विषय में उचित परामर्श देने के लिये अप्रलिखित सज्जनों की एक उपसमिति नियत कर दी--रेवरेंड ई०ग्रीव्स. महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी. पंडित रामनारायण मिश्र वी० ए०, बाबू गोविंददास, बाबू इंद्रनारायणसिंह एम० ए०, लाला छोटेलाल, मुंशी संस्टाप्रसाद, पंडित माधवप्रसाद पाठक और मैं। इस उपसमिति के कई अधिवेशन हुए जिनमें सब बातो पर पूरा-पूरा विचार किया गया। अंत मे ९ नवबर १९०७ को इस उपसमिति ने अपनी रिपोर्ट दी जिसमे सभा को परामर्श दिया गया कि सभा हिंदी भाषा के दो बडे कोश बनवाये जिनमे से एक मे तो हिंदीशब्दो के अर्थ हिंदी में ही रहे और दूसरे में हिंदीशब्दो के अर्थ अंँगरेजी मे हो। आज-कल हिंदी भाषा मे गद्य तथा पद्य मे जितने शब्द प्रचलित हैं, उन सबका इन कोशो मे समावेश हो, उनकी व्युत्पत्ति दी जाय और उनके भिन्न-भिन्न अर्थ यथासाध्य उदाहरणो-सहित दिए जायें। उपसमिति ने हिंदी भाषा के गद्य तथा पद्य के प्राय दो सौ अच्छे-अच्छे ग्रंथो की एक सूची भी तैयार कर दी थी और कहा था कि इनमें से सब शब्दो का अर्थ सहित संग्रह कर लिया जाय; कोश की तैयारी का प्रबंध करने के लिये एक स्थायी समिति बना दी जाय और कोश के संपादन तथा उसकी छपाई आदि का सब प्रबंध करने के लिये एक सपादक नियुक्त कर दिया जाय। समिति ने यह भी निश्चित किया कि कोश के सबंध मे आवश्यक प्रबंध करने के लिये महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी, लाला छोटेलाल, रेवरेंट ई० ग्रीव्स, बाबू इंद्रनारायणसिंह एम० ए०, बाबू गोविन्दास, पंडित माधवप्रसाद पाठक और पंडित रामनारायण मिश्र वी० ए० की प्रवध-कर्त समिति बना दी जाय और उसके मत्रित्व का भार मुझे दिया जाय। समिति का प्रस्ताव था कि उस प्रबंध-कर्तृ समिति को अधिकार दिया जाय कि वह आवश्यकतानुसार अन्य सज्जनों को भी अपने में सम्मिलित कर ले। इस कोश के सबंध में प्रबंध-कर्तृ-समिति को सम्मनित और महायता देने के लिय एक और बडी समिति बनाई जाने की सम्मति भी दी गई जिसमे हिंदी के समस्त बड़े-बड़े विद्वान् और प्रेमी सम्मिलित हो। उस समय यह अनुमान रिया गया था कि इस काम में लगभग ३०,०००) का व्यय होगा जिसके लिये सभा को सरकार तथा गजा- महाराजारों से प्रार्थना करने का परामर्श दिया गया।

सभा को प्रबंधकारिणी समिति ने उपसमिति को ये बात माननी और तदनुसार कार्य भी प्रारभ कर दिया। शब्द संग्रह के लिए उपसमिति ने जो पुस्तकें बतलाई थी उनमे से शब्द-संग्रह का कार्य भी आरंभ हो गया और धन के लिये अपील भी हुई जिससे पहले ही वर्ष २,३३) के वचन मिले, जिनमे से १,९०२) नगढ भी सभा को प्राप्त हो गए। इनमें से सबसे पहले १,०००) स्वर्गीय माननीय सर सुंदरलाल मी० थाई० ई० ने भेजे थे। सत्य सो यह है कि यदि प्रार्थना करते हो उक्त महानुभाव तुरंत १,०००) न भेज देते तो सभा का कमी इतना उत्साह न बढ़ता और बहुत संभव था कि कोश का काम और कुछ समय के लिये टल जाता । परतु सर सुंदरलाल से १,०००) पाते ही सभा का उत्साह बहुत अधिक बढ़ गया और उसने और भी तत्परता से कार्य करना आरंभ किया। उसी समय श्रीमान महाराज वालियर ने मी १,०००) देने का वचन दिया। इसके अतिरिक्त और भी अनेक छोटी-मोटी रकमों के वचन मिले । तात्पर्य यह कि सभा को पूर्ण विश्वास हो गया कि अब कोश तैयार हो जायगा। इस कोश के सहायतार्थ सभा को समय-समय पर निम्नलिखित गवर्नमेंटो, महाराजो तथा अन्य सज्जनो से सहायता प्राप्त हुई—संयुक्त प्रदेश की गवर्नमेंट,भारत-गवर्नमेंट, मध्य-प्रदेश की गवर्नमेंट तथा नेपाल, रीवाँ, छत्रपुर, बीकानेर, बर्दवान, अलवर, ग्वालियर, काशमीर, काशी, भावनगर, इंदौर आदि के महाराजो, सर सुंदरलाल, राजा साहब भिनगा, कुंँअर राजेन्द्रसिंह और सर जार्ज ग्रियर्सन आदि से अच्छी सहायता मिली। लगभग २६-२७ हजार के सहायता प्राप्त हुई।

शब्द-संग्रह करने के लिये जो पुस्तकें चुनी गई थी, उन पुस्तको को सभासदो मे बांँटकर उनसे शब्द-संग्रह करने के लिए सभा का विचार था। बहुत-से उत्साही सभासदो ने पुस्तकें तो मँगवा ली,पर कार्य्य कुछ भी न किया। बहुतो ने तो महीनो पुस्तके अपने पास रखकर अंत में ज्यो की त्यो लौटा दी और कुछ लोगों ने पुस्तकें भी हजम कर ली। थोड़े-से लोगो ने शब्द-सग्रंह का काम किया था, पर उनमे भी संतोषजनक काम इने-गिने सज्जनो का ही था। इसमे व्यर्थ बहुत-सा समय नष्ट हो गया; पर धन की यथेष्ट सहायता सभा को मिलती जाती थी, अतः दूसरे वर्ष सभा ने विवश होकर निश्चित किया कि शब्द-संग्रह का काम वेतन देकर कुछ लोगों से कराया जाय। तदनुसार प्राय १६-१७ आदमी शब्द-संग्रह के काम के लिये नियुक्त कर दिए गए और एक निश्चित प्रणाली पर शब्द-संग्रह का काम होने लगा।

आरंभ मे कोश के सहायक संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित गमचंद्र शुष्ठ. लाला भगवानदीन और वायु अमीरमिह के अतिरिक्त बाबू जगन्मोन वर्मा, बाबू गमचद्र वमा, पंडित वासुदेव मिश्र, पंडित वचनेश मिश्र, पंडित व्रजभूपणा ओफा, श्रीयुत वेरणी कवि आदि अनेक भजन भी इस शब्द-संग्रह के काम में सम्मिलित थे। शब्द-संग्रह के लिये सभा केवल पुस्तको पर ही निभर नहीं रही। कोश में पुस्तको के शब्दों के अतिरिक्त और भी अनेक ऐसे शब्दों की आवश्यकता थी जो नित्य की बोलचाल के. पारि- भाषिक अथवा ऐसे विषयों के थे जिन पर हिंदी में पुस्तके नहीं थी। अंत सभा ने मुंशी रामलगनलाल नामक एक सज्जन को शहर में घूम-घूमकर अहोरी, कहारो, लोहारो, सोनारो, चमारो, तमोलिया, तेलिया, जोलाहो, भालू और बदर नचानेवाले मदारियो, कूचेवंदा, धुनियों, गाडीवानो, कुश्तीवाजो, कसेगे, गजगीयें, छापेखानेवालो , महाजनों, बजाजो, दलालो, जुआरियो, महावतों पसारियो, साईसों आदि के पारिभाषिक शब्द तथा गहनो. कपडो, अनाजो, पेड़ों बरतनो, देवताओ, गृहस्थी की चीजो, पकवानो, मिठाइयो. विवाह आदि की रस्मों, तरकारियो, सागो, फलो, घासों, खेलो और उनके माधनो,आदि-आदि के नाम एकत्र करने के लिये नियुक्त किया। पुस्तकों के शब्द-संग्रह के साथ-साथ यह काम भी प्राय दो वर्ष तक चलता रहा। इस संबंध में यह कह देना आवश्यक जान पडता है कि मुंशी राम-लगनलाल का इस सबंध का शब्द-संग्रह बहुत संतोष-जनक था। इसके अतिरिक्त सभा ने बाबू रामचंद्र वर्मा को समस्त भारत के पशुओ, पक्षियों, मछलियो, फूलों और पेड़ो आदि के नाम एकत्र करने के लिये कलकत्ते भेजा था जिन्होंने प्राय ढाई मास तक वहाँ रहकर इपीरियल लाइब्रेरी से फ्लोरा और फॉना आफ ब्रिटिश इडिया सिरीज की समस्त पुस्तको में से नाम और विवरण आदि एकत्र किए थे। हिंदी भाषा मे व्यवहृत होनेवाले अंँगरेजी, फारसी, अरबी तथा तुर्की आदि भाषाओं के शब्दो, पौराणिक तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों की जीवनियो, प्राचीन स्थानो तथा कहावतो आदि के संग्रह का भी बहुत अच्छा प्रबंध किया गया था। पुरानी हिंदी तथा डिंगल और बुंदेलखंडी आदि भाषाओ के शब्दो का भी अच्छा संग्रह किया गया था। इसमे सभा का मुख्य उद्देश्य यह था कि जहाँ तक हो सके, कोश मे हिंदी-भाषा में व्यवहत होने या हो सकनेवाले अधिक-से-अधिक शब्द आ जाय और यथासाध्य कोई आवश्यक बात या शब्द छूटने न पावे। इसी विचार से सभा ने अंँगरेजी, फारसी, अरबी और तुर्की आदि शब्दो, पौराणिक तथा ऐतिहासिक व्यक्तियो और स्थानों के नामों आदि की एक बड़ी सूची भी प्रकाशित कराके घटाने-बढ़ाने के लिये हिंदी के बड़े-बड़े विद्वानों के पास भेजी थी।

दो ही वर्ष में सभा को अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजाओ तथा प्रांतीय और भारतीय सरकारो से कोश के सहायतार्थ बड़ी-बड़ी रकमे भी मिली,जिससे सभा तथा हिंदी-प्रेमियो को कोश के तैयार होने मे किसी प्रकार का संदेह नही रह गया और सभा बड़े उत्साह से कोश का काम कराने लगी। आरंभ मे सभा ने यह निश्चित नहीं किया था कि कोश का संपादक कौन बनाया जाय, पर दूसरे वर्ष सभा ने मुझे कोश का प्रधान सपादक बनाना निश्चित किया। मैंने भी सभा की आजा शिगेधाय्यो करके यह भार अपने ऊपर ले लिया।


सन् १९९० के आरंभ मे शब्द संग्रह का कार्य समाप्त हो गया। जिन स्लिपो पर शब्द लिखे गए थे, उन सस्या अनुमानन.१० लाख थी.जिनमे से आशा की गई थी कि प्राय १ लाख शब्द निकलेगे, और यही बात अंत में हुई भी। जब शब्द-संग्रह का काम हो चुका तब स्लिप- अक्षकम से लगाई जाने लगी। पहले वे स्वर और व्यजनों के विचार से अलग-अलग की गई और तब स्वरो के प्रत्येक अक्षर तथा व्यंजनों के प्रत्येक वर्ग की स्लिप अलग-अलग की गई। जब स्वरों की स्लिपें अक्षर-क्रम से लग गई; तब व्यजनो के वर्गों के अक्षर अलग-अलग किए गए और प्रत्येक अक्षर की स्लिये क्रम से लगाई गई। यह कार्य प्राय एक वर्ष तक चलता रहा।


जिस समय कोश के संपादन का भार मुझे दिया गया था, उसी समय सभा ने यह निश्चित कर दिया था कि पंडित बालकृष्ण भट्ट, पडित रामचंद्र शुक्ल. लाला भगवानदीन क्या बाबू अमोरसिंह कोश के सहायक संपादक बनाए जाय, और ये लोग कोश के संपादन मै मेरी सहायता करें। अक्टूबर १९०९ मे मेरी नियुक्ति काश्मीरराज्य में हो गई जिसके कारण मुझे काशी छोड़कर काश्मीर जाना आवश्यक हुआ। उस समय मैने सभा से प्रार्थना की कि इतनी दूर से कोश का संपादन सुचारु रूप से न हो सकेगा। अत तब 2 सभा मेरे स्थान पर किमी और सज्जन को कोश का सपादक नियुक्त करें। परंतु सभा ने यही निश्चय किया कि कोश का कार्यालय भी मेरे माथ आगे चलकर काश्मीर भेज दिया जाय और वहीं कोश का सपादन हो। उस समय तक स्लिपे अक्षर-क्रम से लग चुकी थी और सपादन का कार्य अच्छी तरह आरभ हो सकता था। अत १५ मार्च १९१० को काशी में कोश का कार्यालय बंद कर दिया गया और निश्चय हुआ कि चारो सहायक संपादक जंबू पहुँचकर १ अप्रैल १९१० से वहीं कोश के सपादन का कार्य आरंभ करें। तदनुमार पंडित रामचंद्र शुक्ल और वावू अमीरसिंह तो यथा-समय जंबू पहुँच गए. पर पडित बालकृष्ण भट्ट तथा लाला भगवान- दीन ने एक-एक मास का समय मांँगा। दुर्भान्यवश बाबू अमीरसिंह के जंबू पहुंचन के चार-पांच दिन बाद ही काशी में उनकी स्त्री का देहांत हो गया जिससे उन्हे थोड़े दिनों के लिये फिर काशी लौट आना पड़ा। उस बीच में अकेले पडित रामचंद्र शुक्ल ही संपादन-कार्य करते रहे। मई के आरंभ में पंडित बालकृष्ण भट्ट और बाबू अमीर-सिंह जंबू पहुँचे और सपादन-कार्य करने लगे। पर लाला भगवानदीन कई बार प्रतिज्ञा करके भी जबू न पहुँच सके अत सहायक संपादक के पद से उनका संबंध टूट गया। शेष तीनो सहायक संपादक उत्तमतापूर्वक संपादन-कार्य करते रहे। कोश के विषय में सम्मति लेने के लिये आरभ मे जो कोश-कमेटी बनी थी, वह १ मई १९१० को अनावश्यक समझकर तोड़ दी गई। कोश का संपादन प्रारंभ हो चुका था और शीघ्र ही उसकी छपाई का प्रबध करना आवश्यक था; अब सभा ने कई बड़े-बड़े प्रेसो से कोश की छपाई के नमून मँगा। अत में प्रयाग के सुप्रसिद्ध इंडियन प्रेस को कोश की छपाई का भार दिया गया। इस कार्य का आरभिक प्रबंध करने के लिये उक्त प्रेम का २,०००) पेशगी के दिए गए और लिखा-पढ़ी करके छपाई के सबंध की सब बाते तय कर ली गई

अप्रैल १९१० मे सितबंर १९१० तक तो जंबू में कोश के संपादन का कार्य बहुत उत्तमतापूर्वक और निविध्र होता रहा;पर पीछे इसमे विग्न पडा। पंडित बालकृष्ण भट्ट जंबू में दुर्घटनावश सीढी पर से गिर पड़े और उनकी एक टांग टूट गई, जिसके कारण अक्टूबर १९१० में उन्हें छुट्टी लेकर प्रयाग चला आना पड़ा। नवम्बर मे बाबू अमीरसिंह भी बीमार हो जाने के कारण छुट्टी लेकर काशी चले आए और दो मास तक यहीं बीमार पड़े रहे। संपादन-कार्य करने के लिये जंबू में फिर अकेले पंडित रामचंद्र शुक्ल बच रहे । जब अनेक प्रयत्न करने पर भी जंबू में सहायक संपादको की सख्या पूरी न हो सकी, तब विवश होकर १५ दिसंबर १९१० को कोश का कार्यालय जंबू से काशी मेज दिया गया। कोश-विभाग के काशी आ जाने पर जनवरी १९११ से बाबू अमीरसिंह भी स्वस्थ होकर उसमे सम्मिलित हो गए और बाबू जगन्मोहन वर्मा भी सहायक संपादक के पद पर नियुक्त कर दिए गए। दूसरे मास फरवरी मे बाबू गंगाप्रसाद गुप्त भी कोश के सहायक संपादक बनाए गए। जंबू मे तो पहले सब सहायक सपादक अलग-अलग शब्दों का सपादन करते थे और तब सब लोग एक साथ मिलकर संपादित शब्दो को दोहराते थे। परंतु बाबू गंगाप्रसाद गुप्त के आ जाने पर दो-दो सहायक सपादक अलग-अलग मिलकर संपादन करने लगे। नवम्बर १९११ मे जब बाबू गंगाप्रमाद गुप्त ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, तब पडित बालकृष्ण भट्ट पुन. प्रयाग से बुला लिए गए और जनवरी १९१२ मे लाला भगवानदीन भी पुन:इस विभाग में सम्मिलित कर लिए गए तथा मार्च १९१२ से सब सहायक संपादक सपादन के कार्य के लिये तीन भागों में विभक्त कर दिए गए। इस प्रकार कार्य की गति पहले की अपेक्षा बढ़ तो गई, पर फिर भी उसमें उतनी वृद्धि नहीं हुई जितनी वाछित थी। जब मई सन् १९१० में 'अ', 'आ', 'इ' और 'ई' का संपादन हो चुका, तब उसकी कापी प्रेस में भेज दी गई और उसकी छपाई मे हाथ लगा दिया गया। उस समय तक मैं भी काश्मीर से लौटकर काशी आगया था जिससे कार्य निरीक्षण और व्यवस्था का अधिक सुभीता हो गया।

१९१३ मे सपादन-शैली में कुछ और परिवर्तन किया गया। पडित बालकृष्ण भट्ट, बाबू जगन्मोइन वर्मा, लाला भगवानदीन तथा बाबू अमीरसिंह अलग-अलग सपादन-कार्य्य पर नियुक्त कर दिए गए। सब सपादको की लेख-शैली आदि एक ही प्रकार की नहीं हो सकती थी,अत: सबको सपादित स्लिपो को दोहरा कर एकत्रित करने के कार्य पर पडित रामचंद्र शुक्ल नियुक्त किए गए और उनकी सहायता के लिये बाबू रामचंद्र वर्मा रक्खे गए। उस समय यह व्यवस्था थी कि दिन भर तो सत्र सहायक सपादक अलग-अलग संपादन-कार्य किया करते थे और पड़ित रामचंद्र शुक्ल पहले की संपादित की हुई स्लिपों को दोहराया करते थे, और संध्या को ४ वजे से ५ बजे तक सब संपादक मिल कर एक साथ बैठते और पड़ित रामचंद्र शुक्ल की दोहराई हुई स्लिपों को सुनते तथा आवश्यकता पड़ने पर उसमे परिवर्तन आदि करते थे। इस प्रकार कार्य भी अधिक होता था और प्रत्येक शब्द के संबंध में प्रत्येक सहायक सपादक की सम्मति भी मिल जाती थी।

मई १९१२ मे छपाई का कार्य प्रारंभ हुआ था और एक हो वर्ष के अंदर ९६-९६ पृष्ठो को चार संरयायें छपाकर प्रकशित हो गई, जिनमे ८,६६६ शब्द थे। सर्वसाधारण में इन प्रकाशित संख्याओं का बहुत आदर हुआ। सर जार्ज प्रियर्सन, डाक्टर कहाल्फ हानेली, प्रोफेसर सिलवान लेबी. रेवरेंड ई० ग्रीव्स, पड़ित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ फा, पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी, मिस्टर रमेशचंद्र दत्त, पडित श्याम- बिहारी मिश्र आदि अनेक बडे-बड़े विद्वानो पंडितो तथा हिंदी-प्रेमियों ने प्रकाशित अंको की बहुत प्रशंसा की और अंँगरेजी दैनिक लोडर तथा हिंदी साप्ताहिक हिंदी वंगवासी आदि समाचार-पत्रों ने भी समय-समय पर उन अंको की प्रशमात्मक आलोचना की। ग्राहक-संख्या भी दिन पर दिन संतोपजनक रूप में बढ़ने लगी।

इस अवसर पर एक बात और कह टेना आवश्यक जान पड़ता है। जिस समय मैं पहले काश्मीर जाने लगा था, उस समय यही निश्चय हुआ था कि कोश-विभाग काशी में हो रहे और मेरी अनुपस्थिति में स्वर्गवासी पंडित केशवदेव शास्त्री कोश-विभाग का निरीक्षण करें। परंतु मेरी अनुपस्थिति में पंडित केशवदेव शास्त्री तथा कोश के सहायक संपादको मे कुछ अनबन हो गई, जिसने आगे चलकर और भी विलक्षण रूप धारण किया। उस समय संपादक लोग प्रबंधकारिणी समिति के अनेक सदस्यों तथा कर्मचारियों से बहुत रुष्ट और असंतुष्ट हो गए थे। कई मास तक यह झागड़ा भीषण रूप से चलता रहा और अनेक समाचार-पत्रो मे उसके संबंध मे कही टिप्पणियाँ निकलती रहीं। सभा के कुछ सदस्य तथा बाहरी सज्जन कोश की व्यवस्था तथा कार्य-प्रणाली आदि पर भी अनेक प्रकार के आक्षेप करने लगे, और कुछ सज्जनो ने तो छिपे-छिपे ही यहाँ तक उद्योग किया कि अब तक कोश के कार्य में जो कुछ व्यय हुआ है, वह सब सभा को देकर कोश की सारी सामग्री उनसे ले ली जाय और स्वतंत्र रूप से उसके सपादन तथा प्रकाशन आदि की व्यवस्था की जाय। यह विचार यहाँ तक पक्का हो गया था कि एक स्वनामधन्य हिंदी विद्वान् से संपादक होने के लिये पत्र-व्यवहार तक किया गया था। साथ ही मुझे उस काम से विरत करने के लिये मुझ पर प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रीति से अनेक प्रकार के अनुचित आक्षेप तथा दोपारोपण किए गए थे। इस आंदोलन में व्यक्तिगत भाव अधिक था। पर थोडे ही दिनों में यह अप्रिय और हानिकारक आंदोलन ठंडा पड़ गया और फिर सब कार्य सुचारुरूप से पूर्ववत् चलने लगा। 'श्रेयांसि बहुविआनि' के अनुसार इस बड़े काम में भी समय-समय पर अनेक विन्न उपस्थित हुए. पर ईश्वर की कृपा से उनके कारण इस कार्य में कुछ हानि नहीं पहुंँची।

सन् १९१३ में कोश का काम अच्छी तरह चल निकला। वह बराबर नियमित रूप से संपादित होने लगा और संख्याएँ बराबर छपकर प्रकाशित होने लगी। बीच-बीच में आवश्यक्ताअनुसार संपादन-कार्य मे कुछ परिवर्तन भी होता रहा। इसी बीच पंडित बालकृष्ण भट्ट, जो इस वृद्धावस्था मे भी बड़े उत्साह के साथ कोश-संपादन के कार्य में लगे हुए थे, अपनी दिन पर दिन बढ़ती हुई अशक्तता के कारण अभाग्यवश नवंबर १९१३ में कोश के कार्य से अलग होकर प्रयाग चले गए और वहीं थोड़े दिनों बाद उनका देहांत हो गया। उस समय बाबू रामचंद्र वर्मा उनके स्थान पर कोश के सहायक सपादक बना दिए गए और कार्यक्रम में फिर कुछ परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी। निश्चित हुआ कि बाबू जगन्मोहन वार्म. लाला भगवानदीन तथा बाबू अमीरसिंह आगे के शब्दों का अलग-अलग संपादिन करें और पडित रामचंद्र शुक्ल तथा बाबू रामचंद्र वर्मा संपादित किए हुए शब्दों को अलग-अलग दोहरा-कर एक मेल करें। इस क्रम में यह सुमीता हुआ कि आगे का संपादन भी अच्छी तरह होने लगा और संपादित शब्द भी ठीक तरह से दोहराए जाने लगे, और दोनों ही कार्यों की गति में भी यथेष्ट वृद्धि हो गई। इस प्रकार १९१७ तक बराबर काम चलता रहा और कोश की १५ संख्याएँ छपकर पर प्रकाशित हो गईं तथा ग्राहक संख्या में बहुत वृद्धि हो गई। इस बीच मे और कोई विशेष उल्लेख योग्य बात नहीं हुई।

१९१८ के आरंभ में तीन सहायक संपादको ने "ला" तक संपादन कर डाला और दो सहायक संपादको ने "वि" तक के शब्द दोहरा डाले। उस समय कई महीनों से कोश की बहुत कापी तैयार रहने पर भी अनेक कारणे से उसका कोई अंक छपकर प्रकाशित न हो सका जिसके कारण आय रूकी हुई थी। कोश-विभाग का व्यय बहुत अधिक था और कोश के संपादन का कार्य प्रायः समाप्ति पर था, अत कोश-विभाग का व्यय कम करने की इच्छा से विचार हुआ कि अप्रैल १९१८ कोश का व्यय कुछ घटा दिया जाय। तदनुसार बाबू जगन्मोहन वर्मा, लाला भगवानदीन और बाबू अमीरसिंह त्यागपत्र देकर अपने-अपने पद से अलग हो गए। कोश-विभाग में केवल दो सहायक सपादक पडित रामचंद्र शुक्ल और बाबू रामचंद्र वर्मा तथा स्लिपा का क्रम लगानेवाले और साफ कापी लिखनेवाले एक लेखक पडित ब्रजभूपण ओफा रह गए । इस समय आगे के शब्दो का सपादन रोक दिया गया और केवल पुराने सपादित शब्द ही दोहराए जाने लगे। पर जब आगे चलकर दोहराने योग्य स्लिपें प्राय समाप्त हो चली, और आगे नये शब्दों के संपादन की आवश्यकता प्रतीत हुई, तब सपादन-कार्य के लिये बाबू कालिकाप्रसाद नियुक्त किए गए जो कई वर्षों तक अच्छा काम करके और अत मे त्यागपत्र देकर अन्यत्र चले गए। परतु स्लिपो को दोहराने का पूर्ववत् प्रचलित रहा। सन् १९२४ मे कोश के संबंध में एक हानिकारक दुर्घटना हो गई थी। आरंभ में शब्द-संग्रह के लिये जो स्लिपें तैयार हुई थी. उनके २२ मंडल कोश कार्यालय से चोरी चले गए। उनमे" विवो्क' से "शं" की और "शय से "सही". तक की स्लिपें थी। इसमे कुछ दोहराई हुई पुरानी स्लिपें भी थी जो छप चुकी थी। इन स्लिपो के निकल जाने से वो कोई विशेष हानि नहीं हुई, क्योंकि सब छप चुकी थी। परंतु शब्द-संग्रहवाली लिपो के चोरी हो जाने से अवश्य ही बहुत बड़ी हानि हुई । इनके स्थान पर फिर से कोशो आदि से शब्द एकत्र करने पड़े। यह शब्द-संग्रह अपेक्षाकृत थोड़ा और अधूरा हुआ और इसमें स्वभावत. ठेठ हिंदी या कविता आदि के उतने शब्द नहीं पा सके जितने आने चाहिए थे, और न प्राचीन काव्य-ग्रंथों आदि के उदाहरण ही सम्मिलित हुए। फिर भी जहाँ तक हो सका इस त्रुटि की पूर्ति करने का उद्योग किया गया और परिशिष्ट में बहुत-से छूटे हुए शब्द आ भी गए हैं।

सन् १९२स में कार्य शीघ्र समाप्त करने के लिये कोश-विभाग में दो नए महायक अस्थायी रूप से नियुक्त किए गए एक तो कोश के भूतपूर्व संपादक बाबू जगन्मोहन वर्मा के सुपुत्र बाबू सत्यजीवन वर्मा. एम० ए० और दूसरे पंडित अयोध्यानाथ शर्मा एम० ए०। यद्यपि ये सज्जन कोश-विमाग में प्राय एक ही वर्ष रहे थे. परंतु फिर भी इनसे कोश का कार्य शीघ्र गोत्र समाप्त करने में और विशेषत. व, श.प तथा म के शब्दों के सपादन में अच्छी सहायता मिली। जय ये दोनो सज्जन सभा से सबंध त्यागकर चले गए तब संपादन-कार्य के लिये श्रीयुत पडित वासुदेव मिश्र, जो आरंभ में भी कोश-विभाग में शब्द-संग्रह का काम कर चुके थे और जो इधर बहुत दिनो तक कलकत्ते के दैनिक भारतमित्र तथा साप्तहिक श्रीकृष्ण- सदेश के सहायक संपादक रह चुके थे, कोश-विभाग में सहायक संपादक के पद पर नियुक्त कर लिए गए। इनकी नियुक्ति से संपादन-कार्य बहुत ही सुगम हो गया और वह बहुत शीघ्रता से अग्रसर होने लगा। अंत में इस प्रकार सन् १९२७ ई० मे कोश का संपादन आदि समाप्त हुआ।

इतने बड़े शब्द-कोश में बहुत-से शब्दों का अनेक कारणों से छूट जाना बहुत ही स्वाभाविक था। एक तो यो हो सब शब्दों का संग्रह करना बड़ा कठिन काम है, जिस पर एक जीवित भाषा में नए शब्दों का आगम निरंतर होता रहता है। यदि किसी समय समस्त शब्दों का संग्रह किसी उपाय से कर भी लिया जाय और उनके अर्थ आदि भी लिख लिए जायँ, पर जब तक यह संग्रह छपकर प्रकाशित हो सकेगा तब तक और नए शब्द भाषा मे सम्मिलित हो जायँगे। इस विचार से तो किसी जीवित भाषा का शब्द-कोश कभी पूर्ण नहीं माना जा सकता । इन कठिनाइयो के अतिरिक्त यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि हिंदी भाषा के इतने बड़े कोश को तैयार करने का इतना बड़ा आयोजन यह पहला ही हुआ है । अतएव इसमे अनेक त्रुटियो का रह जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर.सी इस कोश की समाप्ति में प्रायः २० वर्ष लगे। इस बीच में समय-समय पर बहुत-से ऐसे नए शब्दो का पता लगता था जो शब्द-सागर में नहीं मिलते थे। इसके अतिरिक्त देश की राजनीतिक प्रगति

फा० ११ आदि के कारण बहुत-से नये शब्द भी प्रचलित हो गए थे जो पहले किसी प्रकार संगृहीत ही नहीं हो सकते थे। साथ ही कुछ शब्द ऐसे भी थे जो शब्द-सागर में छप तो गए थे, परंतु उनके कुछ कार्य पीछे से मालूम हुए थे। अत यह आवशयक समझा गया कि इन छूटे हुए या नव प्रचलित शब्दो और छूटे हुए अर्थों का अलग संग्रह करके परिशिष्ट रूप में दे दिया जाय । तदनुमार प्राय एक वर्ष के परिश्रम में ये शब्द और सर्व भी प्रस्तुत कर परिशिष्ट रूप में दे दिए गए हैं। आज-कल समाचार-पत्रो आदि या बोलचाल में जो बहुत-से राजनीतिक शब्द प्रचलित हो गए हैं.वे भी इसमे दे दिए गए हैं। सारांश यह कि इसके सपादको ने अपनी ओर से कोई बात इस कोश को सर्वागपूर्ण बनाने में उठा नहीं रखी है। इनमें जो दोष, अभाव चा त्रुटियाँ हैं उनका ज्ञान जितना इसके संपादको को है उतना क्दाचित् दूसरे को होना कठिन है, पर ये बाते अभाव-घानी से अथवा जान बूझकर नहीं होने पाई हैं। अनुभव भी मनुष्य को बहुत कुछ सिखाता है। इसके सपादकों ने भी इस कार्य को करके बहुत कुछ सीखा है और वे अपनी कृति के प्रभावों से पूर्णतया अभिऋ हैं।

यहाँ पर यह कहना क्दाचित् अनुचित न होगा कि भारतवर्ष। की किसी वर्तमान देश-भाषा में उसके एक बृहत् कोश के तैयार कराने का इतना बड़ा और व्यवस्थित आयोजन इस समय इस तक दूसरा अब तक नहीं हुआ था। जिस ढंग पर यह कोश प्रस्तुत करने का विचार किया गया था, उसके लिये बहुत अधिक परिश्रम तथा विचारपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता थी। साथ ही इस बात की भी बहुत बड़ी आवश्यकता थी कि जो सामग्री एकत्र की गई है, उसका किस ढंग से उपयोग किया जाय और भिन्न-भिन्न भावो के सूचक अर्थ आदि किस प्रकार किए जायें, क्योकि अभी तक हिंदी, उर्दू, बंँगला, मराठी या गुजराती आदि किसी देशी भाषा मे आधुनिक वैज्ञानिक ढंग पर कोई शब्द-कोश प्रस्तुत नहीं हुआ था। अब तक नितने कोश बने थे, उन सबमें वह पुराना ढग काम में लाया गया थे और एक शब्द के अनेक पर्याय एकत्र करके रख दिए गए थे। किसी शब्द का ठीक-ठीक भाव बतलाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया था। परंतु विचारवान् लोग समझ सकते है कि केवल पर्याय से ही किसी शब्द का ठीक-ठीक भाव या अभिप्राय समझ में नहीं आ सकता, और कभी-कमी तो कोई पर्याय अर्थ के संबंध में जिज्ञासु को और भी भ्रम मे डाल देता है। इसी लिए शब्द-सागर के संपादको को एक ऐसे नए क्षेत्र में काम करना पड़ा था, जिसमे अभी तक कोई काम हुआ ही नहीं था। वे प्रत्येक शब्द को लेते थे, उसकी व्युत्पत्ति ढूंढ़ते थे, और तब एक या दो वाक्यो में उसका भाव स्पष्ट करते थे, और यदि यह शब्द वस्तु-वाचक होता था, वो वस्तु का यथासाध्य पूरा-पूरा विवरण देते थे; और तब उसके कुछ उपयुक्त पर्याय देते थे। इसके उपरांत उस शब्द से प्रकट होनेवाले अन्यान्य भाव या अर्थ, उत्तरोचर विकास के क्रम से, देते थे। उन्हें इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता था कि एक अर्थ का सूचक पर्याय दूसरे अर्थ के अंतर्गत न चला जाय । जहाँ आवश्यकता होती थी, वहाँ एक ही तरह के अर्थ देनेवाले दो शब्दों का अंतर भी भली भांति स्पष्ट कर दिया जाता था। उदाहरण के लिए "टँगना" और "लटकना" इन दोनो शब्दो को लीजिए। शब्द-सागर मे इन दोनो के अर्थों का अंतर इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-'टंगना' और 'लटकना' इन दोनो के मूल भाव में अंतर है। 'टंगना' शब्द में ऊँचे आधार पर टिकने या बढ़ने का भाव प्रधान है और 'लटकना' शब्द मे ऊपर से नीचे तक फैले रहने या हिलने-डोलने का।

इसी प्रकार दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, वास्तुविद्या आदि अनेक विषयों के पारिभाषिक शब्दों के भी पूरे-पूरे विवरण दिए गए हैं। प्राचीन हिदी-काव्यों में मिलने वाले ऐसे बहुत-से शब्द इसमे आए.जो पहले कभी किसी कोश में नहीं आए थे। यही कारण है कि हिंदी-प्रेमियों तथा पाठकों ने आरभ में ही इसे एक बहुमूल्य रम की भाँति अपनाया और इसका आदर किया। प्राचीन हिंदी काव्यो का पढ़ना और पढ़ाना एक ऐसे कोश के अभाव में, प्राय. असंभव था। इस कोश ने इसकी पूर्ति करके वह अभाव बिलकुल दूर कर दिया। पर यहांँ यह भी कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि अब भी इसमे कुछ शब्द अवश्य इसलिये छूटे हुए होंगे कि हिंदी के अधिकांश छपे हुए काव्यो में न तो पाठ ही शुद्ध मिलता है और न शब्दों के रूप ही शुद्ध मिलते हैं। इन सब बातों से यह भली भांति स्पष्ट है कि इस कोश में जो कुछ प्रयत्न किया गया है, बिलकुल नए ढंग का है। कदाचित् यहाँ पर यह कह देना अनुपयुक्त न होगा कि कुछ लोगों ने किसी-किसी' जाति अथवा व्यक्ति-विषयक विवरण पर आपत्तियाँ की हैं। मुझे इस संबंध में इतना ही कहना है कि हमारा उद्देश्य किसी जाति को ऊँची या नीची बनाना न रहा है और न हो सकता है। इस संबंध में न हम शास्त्रीय व्यवस्था देना चाहते थे और न उसके अधिकारी थे। जो सामग्री हमको मिल सकी उसके आधार पर हमने विवरण लिखे। उसमें भूल होना या कुछ छूट जाना कोई असंभव बात नहीं है। इसी प्रकार जीवनी के सबंध मे मतभेद या मूल हो सकती है।

इस प्रकार यह बृहत् आयोजन २० वर्ष के निरंतर उद्योग, परिश्रम और अभ्यवसाय के अनंतर समाप्त हुआ है। इसमे सब मिलाकर ९३,११५ शब्दों के अर्थ तथा विवरण दिए गए है और आरंभ मे हिंदी-भाषा और साहित्य के विकास का इतिहास भी दे दिया गया है। इस समस्त कार्य मे सभा का १,०२,०५०) व्यय हुआ है, जिसमें छपाई आदि का भी व्यय सम्मिलित है। इस कोश की सर्वप्रियता और उपयोगिता का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण (यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता है) हो सकता है कि कोश समाप्त भी नहीं हुआ और इसके पहले ही इसके खंडो को दो-दो और तीन-तीन बेर छापना पड़ा है और कुछ काल तक इसके समस्त खंड प्राप्य नहीं थे। इसकी उपयोगिता का दूसरा बडा भार प्रमाण यह है कि अभी यह ग्रंथ समाप्त भी नहीं हुआ था वरन् यों कहना चाहिए कि अभी इसका थोड़ा ही अंश छपा था जब कि इससे चोरी करना प्रारंभ हो गया था और यह काम अब तक चला जा रहा है। पर असल और नकल में जो भेद संसार में होता है वही यहाँ भी दीख पड़ता है। यदि इस संबंध में कुछ कहा जा सकता है वो इतना ही कि इन महाशयो ने चोरी पकड़े जाने के भय से इस कोश के नाम का उल्लेख करना भी अनुचित समझा है।

जो कुछ ऊपर लिखा जा चुका है, उससे स्पष्ट है कि इस कोश के कार्य में आरंभ से लेकर अंत तक पड़ित रामचंद्र शुक्ल का सबंध रहा है, और उन्होंने इसके लिये जो कुछ किया है, वह विशेष रूप से उल्लिखित होने योग्य है। यदि यह कहा जाय कि शब्द-सागर. की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय पडित रामचंद्र शुक्ल को प्राप्त है, तो इसमे कोई अत्युक्ति न होगी। एक प्रकार से यह उन्हीं के परिश्रम, विद्वत्ता और विचार शीलता का फल है। इतिहास, दर्शन, भाषा-विज्ञान, व्याकरण, साहित्य आदि के सभी विषयों का समीचीन विवेचन प्राय उन्हीं का किया हुआ है। यदि 'शुक्ल जी सरीखे विद्वान् की सहायता न प्राप्त होती तो केवल एक या दो सहायक संपादकों की सहायता से यह कोश प्रस्तुत करना असंभव ही होता। शब्बों को दोहराकर छापने के योग्य ठीक करने का भार पहले उन्हीं पर था। कटाचित् यहाँ पर यह कह देना अत्युक्ति न होगी कि कोश ने शुक्ल जी को बनाया और कोश को शुक्ल जी ने, जिस प्रकार सभा को मैने बनाया और सभा ने मुझे, फिर आगे चलकर थोड़े दिनों बाद उनके सुयोग्य साथी बाबू रामचंद्र वर्मा ने भी इस काम मे उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया और इसी लिये इस कोश को प्रस्तुत करनेवालो में दूसरा मुख्य स्थान बाबू रामचंद्र वर्मा को प्राप्त है। कोश के साथ उनका सबंध भी प्राय. आदि से अंत तक रहा है और उनके सहयोग तथा महायता से कार्य के समाप्त करने मे बहुत अधिक सुगमता हुई है। इनके अतिरिक्त स्वर्गीय पडित बालकृष्ण भट्ट, स्वर्गीय वावू जगन्मोहन वर्मा, स्वर्गीय बाबू अमीर सिंह तथा स्वर्गीय लाला भगवानदीन ने इस कोश के संपादन में बहुत-कुछ काम किया है और उनके उद्योग तथा परिश्रम मे इस कोश के प्रस्तुत करने में बहुत सहायता मिली है।

इनके अतिरिक्त अन्य विद्वानो, सहायको तथा दानी महानुभावो के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिन्होंने किसी न किसी रूप में इस कार्य को अग्रसर तथा सुमपन्न करने में सहायता की है,यहाँ तक कि जिन्होने इसकी त्रुटियाँ दिखाई हैं उनका भी मै कृतज्ञ हूं क्योंकि उनकी कृपा से हमे अधिक सचेत और सावधान होकर काम करना पड़ा है। ईश्वर की परम कृपा है कि अनेक विघ्न-बाधाओ के समय-समय पर उपस्थित होते हुए भी यह कार्य सन् १९२९ मे समाप्त हो गया। कदाचित् यह कहना कुछ अत्युक्ति न समझा जायेगा कि इसकी समाप्ति पर जितना आनंद और संतोष मुझको हुआ है उतना दूसरे किसी को होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। काशी-नागरी प्रचारिणी सभा अपने इस उद्योग की सफलता पर अपने को कृतकृत्य मानकर अभिमान कर सकती है। इस कोश की समाप्ति पर सभा ने बड़ा आनंद प्रकट किया और बड़े उत्साह तथा समारोह के साथ उत्सव मनाया। सवत् १९८५ की वसंत-पचमी को यह उत्सव मनाय गया। इसमे अनेक लोग बाहर से भी आए तथा संयुक्त प्रदेश की गवमेंट ने बधाई का तार भेजा और कीस कालेज के प्रिंसपल को अपना प्रतिनिधि बनाकर उत्सव में सम्मिलित होने तथा सभा को बधाई देने के लिये आदेश दिया। गवर्मेट का तार यह था–

"Gorernor acting with his munsters congratu- lates Rai Sahib Shyam Sundar Das on the success- ful compilation of Hindi Dictionary and deputes Prinapal Sanjiva Rao & Gorernment's representa- tive to participate in the celebration in the Sabha of the achierement."

इसके अतिरिकनिम्नलिखित संस्थाओं तथा व्यक्तियों ने बधाई के पत्र और मेजे–

(१) वंगाल की एशियाटिक सोसाइटी–

"On behalf of the Asiatic Society of Bengal and of myself I wish to send my hearty congratu- lation at the occasion of the successful completion of the fine work of learning by which your Sabha and all those concerned in the work have laid India under a debt of odligation, and to 'add an expression of great admiration and appreciation of the devoted and crudite labours of the Pandits actually respon- sible for the compilation of this treasury of Indian Lexicography which constitutes an enduring monument to their industry, scholar- ship and devoted service to their motherland." (२) गुजरात बर्नाक्यूलर सोसाइटी का तार- "Gujrat Vernacular Society rejoices in the achievement of a sister institution in completing an epoch-making work, nev Hindi Dictionary, and participates in the celebrations to congratulate the Chief Editor Babu Shyam Sundar Das and noble band of learned associates, who against tremendous odds carried it through successfully Accept hearty congratulations from me as well as Editor Buddhi Prakash"

(३) डाक्टर जी० ए० प्रियर्सन का पत्र- “Although to my regret, it is beyond my power to contribute a formal essay for this commemoration volume, I cannot Iet the opportunity pass without offering my congratulations to Mr Shyam Sundar Das. on the successful completion of the Hindi Shabd-Sagar, of which he has been Chief Editor It is a most important and valuable work, and it is everyway worthy of the high reputation of a scholar, whose writings I have studied and admired for more than thirty years May be live for many more years to be a guide and helper to students of the Hindi language for which he has already done so much "

(४) पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का पत्र- "काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा से मेरा संबंध प्राय. उसके जन्म-काल हो से है। जिस तरह एक बहुत छोटे से चीज से विशाल वटवृक्ष विकसित होता है, उसी तरह यह सभा भी बहुत छोटे आकार से विकसित होती हुई अपने वर्तमान आकार प्रकार को प्राप्त हुई है। इसका विशेष श्रेय इसके काशी-निवासी कुछ सभासदो और कार्यकर्ताओं को है। पहले इसकी तरफ बाहरी विद्वानों और हिंदी के हितचितकों का ध्यान कम था। परतु अब वह बात नहीं। अब तो उनमें से भी अनेक कृतविद्य सज्जन इसकी सहायता और उन्नति के कार्य में दत्तचित्र हैं।

"इस सभा को अनेक विघ्न बाधाओं-का सामना करना पड़ा है। इसके कार्यकलापो की कठोर आलोचनाएँ भी होती रही हैं और अब भी कभी-कभी हो जाती है। मुझे खेद है, पर सबे हदय से स्वीकार करना ही पड़ता है कि इन विरोधात्मक आलोचनाओं के कर्माओं में मुझ अबम की भी कई बार प्रतीति हो चुकी है। इसका प्रायश्चित्त भी मैं कर चुका हूँ। यह सब होते हुए भी सभा के कार्यकर्ता अपने उदिष्ट पथ से भ्रष्ट नहीं हुए। उनके इस मातृभाषा -प्रेम और ह्दयौदार्य की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। उन्होंने सारी विघ्न बाधाओ का उल्लंबन करके सभा को उस उस स्थिति को पहुंचा दिया है जिसमे उसे जन-समुदाय इस समय देख रहा है।

"सभा ने देवनागरी लिपि और हिंदी-भाषा के साहित्य की उन्नति के लिये यथाशस्य अनेक काम किए हैं। उन सबमें उसका एक काम सबसे अधिक उल्लेख योग्य है। वह है हिंदी शब्द-सागर नामक विस्तृत कोश का निर्माण। यह कोश शब्द कल्पद्रुम, शब्द-स्तोममहानिधि और सेंट-पीटर्सवर्ग में प्रकाशित प्रचंड कोश की समकक्षता करनेवाला है। अपने देश की किसी अन्य प्रचलित भाषा मे निर्मित इस तरह का कोई अन्य कोश मेरे देखने मे नही आया। यह कई जिल्दी में है और गवमेंट तथा अन्य हिदी-हितैपियो-द्वारा प्रदत्त धन की सहायता से अनेक वर्षों के कठिन परिश्रम की बदौलत अस्तित्व मे आया है। यो तो वर्तमान और प्राचीन भाषाओ के अनेक कोश हैं और बड़े-बड़े हैं, पर जो विशेषता इसमे है वह शायद ही किसी और में हो। यह काम किसी एक ही मनुष्य के बूते का था भी नहीं। यदि समा इसके निर्माण के लिये दत्तचित्त न होती तो किसी एक ही सब्जन के द्वारा इसकी रचना कम से कम, इस समय तो असंभव ही थी। अतएव इसके संपादक और विशेष करके प्रधान संपादक, बावू श्यामसुंदरदास वी० ए० समस्त हिंदी-भाषा-भाषी जनसमुदाय के धन्यवाद के पात्र हैं। परमात्मा उन्हें दीर्घायुरारोग्य दे और उनका सतत कल्याण करे।”

यह सब हुआ; पर साहित्य-सम्मेलन के कान पर जूँ तक न रेंगी। न उसने सभा को बधाई दी और न उनका कोई प्रतिनिधि ही उत्सव में सम्मिलित हुआ। अस्तु यहाँ पर इस कोश के सबध में कुछ विशेष बातो का उल्लेख करना चाहता हूँ।

(१)कोशकार्यालय का निरीक्षण करने के लिये एक छोटी कमेटी थी। जब तक मैं काशी में रहा, मैं ही इसका सयोजक रहा। मेरे काश्मीर चले जाने पर पंडित केशवदेव शास्त्री संयोजक बने। वे बडे चलते-पुर्जे और उन आर्यसमाजियों मे से थे जो सब बातो में अपनी टाँग अड़ाते हैं और अपना अधिकार प्रदर्शित करने के लिये सब कुछ कर बैठते है। स्वभावत, अन्य आर्यसमाजी उनका पक्ष समर्थन करते थे। ये उस समय काशी में बैठक करते थे, इनमें कोशकार्यालय के कार्य करनेवालों से न पटी। ये चाहते थे कि सब लोग ठीक समय पर आवें और बराबर कार्य करते हैं तथा उनके काम की नाप जाँच निन्य होती रहें। पटित गमचंद्र शुद्ध कभी समय पर नहीं आते थे। उनकी प्रकृति ही ऐसी ढीली-ढ़ाली थी कि समय पर काम करना उनके लिये असंभव था। उनकी देखा-देखी और लोग भी देर से आते रहे। मैं स्वय इस बात से असतुष्ट था। मैने कई बेर इन लोगों को समझाया कि समय पर आया करें। पर किसी की प्रकृति और स्वभाव में परिवर्तन करना मेरी शक्ति के बाहर था। साथ ही मैं इस बात के भी पक्ष में नहीं था कि साहित्यिक काम की जाँच-पडताल तराजू पर तौलकर की जानी चाहिए। सारांश यह कि मनोमालिन्य बढ़ता गया और मुझे ऐसा अनुभव होने लगा कि इस अवस्था से काम बिगढ़ आयगा। साथ ही मैं सब बातों में न कायकर्ताओं का पक्ष समर्थन कर सकता था और न पंडित केशवदेव शास्त्री का पक्ष ले सस्ता था। कई बेर समझौते का उद्योग हुआ, पर जब काम का ठीक-ठीक प्रबंध न हो सका तब मैंने हारकर इस काम से अलग हो जाने की प्रार्थना की। पडित केशवदेव शास्त्री के पक्ष में विशेपत, पंडित रामनारायण मिश्र, बाबू गौरीशंकरप्रसाद और बावू शिवप्रसाद गुप्त थे। अन्तर्गोष्टी में यह ठहरा कि पहले कोई संपादक ठीक कर लिया जाय तब त्यागपत्र स्वीकार किया जाय। इसके लिये उन लोगो ने पडित महावीर- प्रसाद द्विवेदी को चुना और बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने उन्हे सपादकत्व स्वीकार करने के लिये पत्र भी लिखा, पर द्विवेदी जी ने उसे स्वीकार न किया। हारकर यह निश्चय करना पड़ा कि जहाँ मैं रहूँ वहीं कोशका- र्यालय भी रहे। यह सब हुआ पर कोश-कार्यालय के कार्यकर्त्ताओ की देर से आने की आदत न छूटी। मैं खूब समझता था कि साहित्यिक कार्य में बहुत खींच-तान करना लाभदायक न होगा। चुपचाप मैं इन लोगो की बातो को सहता रहा और किसी प्रकार जाकर यह कार्य समाप्त हुआ। पडित केशवदेव शास्त्री की घृष्टता का मैं एक उदाहरण देता हूँ। वे अपने को सव विद्याओं में पारंगत समझते थे। प्रथम साहित्य-सम्मेलन की स्वागतसमिति के अध्यक्ष मेरे मित्र राय शिवप्रसाद थे। उनका भापण मैंने लिखा था। उस पर कलम चलाने और उसे सुधारने का साहस इन शास्त्री जी ने किया। जब उनका संशोधित भाषण मेरे सामने रखा गया तो मुझे बड़ा बुरा लगा। मैंने उसको फाड़कर चिथडे-चिथड़े कर दिया। पीछे से इन टुकड़ों को जोड़कर राय शिवप्रसाद ने अपना भाषण तैयार किया। इस घटना के दूसरे दिन पंडित राम- नारायण मिश्र अपनी प्रकृति के अनुसार मुझसे मिलने आए और बात-चीत में इन्होंने इस बात का उद्योग किया कि उनकी ओर से मेरा मन मैला न हो जाय। मैं उनके इस स्वभाव से भली भाँति परिचित था। मैंने इस घटना का फिर किसी से उल्लेख नहीं किया।

(२) १८ जनवरी सन् १९१३ को संयुक्त-प्रदेश के लेफ्टनेंट: गवर्नर सर जेम्स मेस्टन सभा में पधारे। उनको सभा के सब विभाग भली भाँति दिखाए गए। कोश-कार्यालय का निरीक्षण उन्होंने बडे ध्यान से किया। आरंभ से लेकर उसके प्रकाशन तक किस क्रम से काम हो रहा था, यह उन्हें बताया गया। उन लाखो स्लिपो का अवार भी उन्हें दिखाया गया जिन पर मिन्न-भिन्न ग्रंथों से चुनकर शब्द लिखे गए थे। स्लिपो के इस पहाड़ को देखकर वे बड़े प्रभावित हुए। सभा ने उन्हें एक अभिनंदन पत्र देकर अधिक आयिक सहायता के लिये प्रार्थना की थी। जो उत्तर वे लिखकर लाए थे उसमें और सहायता देना अस्वीकार किया गया था। पर जो उत्तर उन्होंने दिया उसमें कहा कि गवर्मेंट और सहायता देने के संबंध में सहानुभूतिपूर्वक विचार करेगी। अब सर जेम्स जाने लगे तो उनके एडीकांग से मैंने उनके उत्तर की टाइप की हुई प्रति मांग ली। उसमें अंत का वाक्य काटकर नया वाक्य हाथ से लिखा था। इससे अनुमान होता है कि स्लिपों के ढेर को देखकर वे बड़े प्रमावित हुए थे। पीछे से गवर्मेंट ने ६,०००)रुपए की और सहायता दी।

(३) भारत-गवर्मेंट ने यह लिखा था कि यदि सभा कोश के लिये २०,०००) रुपया इकट्ठा कर लेगी तो भारत-गवर्मेट ५,०००) रुपया सहायतार्थ देगी। १९,०००) से कुछ ऊपर इकट्ठा हो चुका था, पर २० हजार पूरा नहीं होता था। इस पर एक दिन मैं मिनगानरेश राजषि उदयप्रतापसिंह से मिला और उनसे सब व्यवस्था बताकर मैने निवेदन किया कि आप एक हजार की सहायता दीजिए तो गवमेंट से ५,०००) मिल जाय। उन्होंने अत्यंत उदारतापूर्वक इसे स्वीकार किया और थोड़े दिनों में ही १,०००) रुपया भेज दिया जिससे हमको भारत-गवर्मेंट से भी ५,०००) मिल गया।

(४) जब कोश की समाप्ति पर उत्सव मनाने की चर्चा हो रही थी तब यह निश्चय हुआ था कि प्रत्येक जीवित संपादक को एक दुशाला, एक घड़ी और एक फाउंटेन पेन उपहार मे दी जाय जिसमे दुशाला उनके प्रति सम्मान का सूचक, घड़ी अपने समय को इस काम में लगाने की सूचक और कलम इस बात की सूचक हो कि उन्होंने इससे कितना बड़ा काम किया है। इन सपादको मे मेरा भी नाम था। एक दिन बातो-बातो में मैंने अपनी स्त्री से इस आयोजन का हाल कहा। उसने पूछा कि “क्या तुम भी दुशाला, घड़ी और कलम लोगे।” मैने उत्तर दिया “क्यो नही?” उसने प्रत्युत्तर दिया-“यह सर्वथा अनुचित है। सभा को तुम अपनी कन्या मानते हो, उसकी कोई चीज को लेना अनुचित और धर्म-विरुद्ध समझते हो, फिर ये चीजें कैसे ले सकते हो?” मैं इस तर्क से चुप हो गया और साथ ही अपनी स्त्री की धर्मभावना पर मुग्ध होकर मैंने ये चीजें लेना अस्वीकार कर दिया। इस पर यह सोचा गया कि मेरे अभिनंदन मे लेखों का एक संग्रह छापा जाय और वह मुझे भेंट किया जाय। इस पर मेरे एक मित्र ने पत्र लिखकर इसका घोर विरोध किया, अत इसको भी मैने अस्वीकार किया। तब अंत मे कोशोत्सव-स्मारक संग्रह प्रकाशित किया गया और वह मुझे अर्पित किया गया। समर्पण-पत्र अग्रलिखित प्रकार थाअपने जन्मदाता और प्राण

श्रीयुक्त बाबू श्यामसुंदरदास बी० ए०

को

जिनके परिश्रम, उद्योग और बुद्धिबल

तथा

जिनके सपादन में हिंदी-भाषा का सबसे बड़ा कोश हिंदी-

शब्द-सागर

प्रस्तुत हुआ है, उनके सम्मानार्थ तथा कीर्ति-रक्षार्थ काशी-नागरी-

प्रचारिणी सभा द्वारा

निवेदित।

इस संग्रह के संपादक तथा भूमिका-लेखक रायबहादुर महामहोपाध्याय डाक्टर गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा थे।

(५) जब समस्त कोश छप गया तब इसकी भूमिका, प्रस्तावना आदि लिखने का प्रबंध किया गया। प्रस्तावना में हिंदी-भाषा और साहित्य का इतिहास है। हिंदी-भाषा का इतिहास मेरी भाषाविज्ञान नामक पुस्तक के अंतिम अध्याय का परिमार्जित और परिवर्धित रूप है। साहित्य का इतिहास पंडित रामचंद्र शुक्ल का लिखा है। शुक्ल जी का स्वभाव था कि वे किसी काम को समय पर नहीं कर सकते थे। उसे टाल रखते थे और प्राय बहुत धीरे-धीरे काम करते थे। इसका मुझे पूरा-पूरा अनुभव था। पहले हम लोगों का विचार था कि शुक्ल जी और मैं दोनों मिलकर साहित्य का इतिहास तैयार करें। इसी व्येय को सामने रखकर वीरगाथाकाल का अध्याय हम लोगों ने लिखा और वह नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। पीछे जब साहित्य के इतिहास की हिंदीशब्दसागर मे प्रस्तावनारूप से देने की जल्दी मची तव इस विचार में परिवर्तन हुआ। जो प्रूफ आता था वह संध्या को शुक्ल जी के पास भेज दिया जाता था। प्रात काल जब मैं घूमने निकलता तब उनके यहाँ जाता और प्रूफ तथा नई कापी ले आता। कभी-कभी पंडित केशवप्रसाद मिश्र भी मेरे साथ जाते। यह कम महीनो चला और तब जाकर यह अंश तैयार होकर छप गया। जब प्रस्तावना का अंतिम पृष्ठ छपने को था तब शुक्ल जी ने बिना कुछ कहे सुने प्रेस में जाकर प्रस्तावना के अंत में अपना नाम दे दिया। कदाचित् उनकी इस समय यह भावना हुई होगी कि मेरी इस अपूर्व कृति में किसी दूसरे का साझा न हो। अपनी कृति पर अभिमान होना स्वाभाविक है―

निज कवित्त केहि लाग न नीका।
सरस होइ अथवा अति फीका॥

यह कृति तो उत्कृट थी। अतएव इस पर अभिमान होना कोई आश्चर्य की बात न थी, पर इस प्रकार चुपचाप अपना नाम छपवा देने में दो बातें सप्ट हुई। एक तो यह कि वे किसी के सहयोग में अब काम करने को उद्दत न थे और दूसरे अनजाने में उन्होंने मेरे भाषा के इतिहास को भी अपना लिया। ऐसी ही एक घटना तुलसीग्रंथावली के सबंध में भी हुई। उसके तृतीय भाग में भिन्न-भिन्न लोगों के लेख थे। प्रस्तावना शुक्ल जी की लिखी हुई थी। उसके दो खंड चरित्र-खंड और आलोचना-खंड थे। चरित्र-खंड मेरी

फा० १२ एक कृति को घटा-बढाकर प्रस्तुत किया गया था। यद्यपि भूमिका में शुक्ल जी ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था, पर भ्रम के लिये स्थान था। मुझे आश्चर्य है कि यह भावना इतनी देर मे क्यो प्रबल हुई। यदि यह पहले उत्पन्न हो जाती तो कदाचित् शब्दसागर के प्रत्येक शब्द पर जो उनका संपादित किया हुआ था, कोई ऐसा चिह्न वे बना देते जिससे उनकी कृति स्पष्ट हो जाती। इसके कुछ दिनो बाल शुक्ल जी ने मुझसे स्पष्ट कह दिया कि हम फरमायशी काम नहीं कर सकते। उस दिन से फिर मैंने कभी किसी ग्रंथ के लिखने के लिये उनसे नहीं कहा। इसका क्या परिणाम हुआ यह मेरे कहने की बात नहीं है। जब कोश छप गया तब शुक्ल जी के द्वितीय पुत्र ने आकर मुझसे कहा कि दोनो पुस्तके भाषा और साहित्य का इतिहास, एक ही जिल्द मे छपे, पर नाम अलग-अलग रहे। मैं नहीं कह सकता कि उसने यह अपने मन से कहा या शुक्ल जी के आदेशानुसार। मैने इस प्रस्ताव को स्वीकार नही किया और यह निश्चय किया कि मै स्वयं साहित्य का इतिहास लिखूँगा। मेरा विचार था कि भिन्न-भिन्न कालो की प्रवृत्तियो का विवेचन और वर्णन किया जाय, केवल किसी काल के कवियों की कविताओ को चुनकर न दिया जाय और न उन पर मत प्रकट किया जाय। यह काम १९३० में जाकर सम्पन्न हुआ। यह बड़ी सजधजके साथ प्रकाशित हुआ। इस सबंध में एक घटना का उल्लेख कर देना क्दाचित अनुचित न होगा। विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित अधिकारी ने एक दिन बातो के सिलसिले में मुझसे कह दिया कि एक उदार महाशय ने किसी उच्चतम अधिकारी से जाकर कहाँ है कि यह ग्रंथ तुम्हारा लिखा नहीं है, दूसरे से लिखवाकर तुमने अपना नाम दे दिया है। मैंने किसी से इस बात को नहीं कहा अपने मन में ही रखा। आज पहले-पहल प्रकाशित करता हूॅ। शुक्ल जी की परिवर्तित भावना का एक नमूना और देना चाहता हूॅ। अभ्युदय के एक संवाददाता ने सन् १९३४ में शुक्ल जी से मिलकर कुछ प्रश्न किए जिसका प्रकाशन उस पत्र में हुआ। उसमें एक प्रश्न यह था कि “क्या आपने भाषा-विज्ञान लिखा है?” कुछ उत्तर न देकर शुक्ल जी मुसकरा दिए। इससे जो अनुमान हो सकता है वह स्पष्ट है। शुक्ल जी ने मेरी “भाषा-विज्ञान” नामक पुस्तक प्रकाशित होने के पूर्व देखी भी न थी। पर मुसकराहट का यह अर्थ था कि हाँ, पुस्तक उन्हीं को लिखी है। इस प्रकाशन का जब उन्हें पता लगा तब उन्होंने मुझे यह पत्र मिर्जापुर से २१-६-३४ को लिखा― “प्रिय बाबू साहब,

एक सज्जन से कल मुझे मालूम हुआ कि “अभ्युदय” मे मेरा कोई वक्तव्य प्रश्नोत्तररूप में प्रकाशित हुआ है। मैं यहाँ “अभ्युदय” की वह सख्या ढुँढ़वा रहा हूँ, पर अभी तक मिली नहीं। मैं नहीं जानता कि उसमे क्या छपा है?

एक महीने से ऊपर हुआ कि काशी में मेरे यहाँ सहसा मि० तकरू पहुँचे और कहा कि मुझे आपसे दो वाते पूछनी है। उन्होंन पूछा―“हिदी-शब्द-सागर की भूमिका के रूप में हिंदी-भाषा और साहित्य के इतिहास दिए गए हैं, क्या दोनों इतिहास आप ही के लिखे हैं?” मैंने उत्तर दिया―“मेरा लिखा केवल साहित्य का इतिहास है; भाषा का इतिहास बाबू श्यामसुंदरदास का लिखा है।” इस पर मि० तकरू बोले―“भाषा का इतिहास जहाँ समान हुआ है वहाँ तो बाबू श्यामसुदरदास जी या और किसी का नाम नहीं है। हाँ, जहाँ साहित्य का इतिहास समाप्त हुआ है वहाँ आपका नाम दिया है।” मैंने उत्तर दिया―“पहले निश्चित हुआ था कि दोनो इतिहासों में (शब्द-सागर के अतर्गत) किसी का नाम न दिया जाय, पीछे जब साहित्य का इतिहास प्राय छप चुका तब विचार बदल गया और मेरा नाम उसके अंत मे दे दिया गया।” बातचीत हो जाने पर मि० तकरू ने कहा कि मैंने ये बातें “अभ्युदय” के प्रतिनिधि के रूप में आपसे पूछी हैं।

केवल पाँच मिनट तकरू से और मुझसे बातचीत हुई थी। मुझे स्मरण आता है कि उस समय पंडित चन्द्रवली पाँडे भी वहाँ मौजूद थे। उन्ही के सामने ऊपर लिखी बातचीत हुई थी।

मैं “अभ्युदय” ढुँढ़वा रहा हूँ। मिलने पर देखूँगा। यदि जो बातें मैंने तकरू से कही थी उसके विरुद्ध या उससे अधिक कुछ “अभ्युदय” में छपा होगा तो उसका खंडन करना मेरे लिये बहुत ही आवश्यक है।”

मैं नहीं कह सकता कि शुक्ल जी को “अभ्युदय” का वह अंक मिला या नहीं। हाँ, उनका खंडन तो अब तक देखने मे नहीं आया। जिसने लंदन मिशन स्कूल से खींचकर साहित्य के महारथियो मे स्थान पाने योग्य उन्हें बनाया, जिसने सदा उनकी सहायता की, सब अवसरों पर उन्हें उत्साहित कर-करके उनसे ग्रंथ लिखवाए, उन्हें छपवाया और पुरस्कार दिलाया तथा सदा उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया, उसके प्रति यह “उदारता” शुक्ल जी या उनके जैसे लोगो को ही शोभा दे सकती है। इस सबंध मे मैं इतना और कह देना चाहता हूॅ कि मैंने इन सब बातो को उपेक्षा की दृष्टि से देखा; पर जिस पेड़ को मैंने लगाया उसे काटने की बात तो दूर रही, उसे कभी खरोच लगने तक का मैने कभी स्वप्न भी नहीं देखा।

(६) कोश में कुछ जातियो का भी संक्षिप्त विवरण दिया गया है। कुछ लोगो को यह भ्रम हो गया कि यह तो हमारी जाति के विषय मे एक प्रकार की शास्त्रीय व्यवस्था होगी। इस पर कुछ लोगो ने आपत्ति की। उनके पत्र समय-समय पर नागरी-प्रचारिणी पत्रिका मे छाप दिए गए। पर भूमिहार ब्राह्मणो को विशेष आपत्ति थी। उन लोगो ने एक दिन कत्वौरी गली में लाला भगवानदीन पर आक्रमण किया। पर लाला भगवानदीन यों दवनेवाले न थे। उन्होने गया की “लक्ष्मी” पत्रिका में विस्तारपूर्वक इस जाति का विवरण दिया। बाबू इंद्रनारायणसिह के पुत्र बाबू कवीद्रनारायणसिह ने काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा की प्रबंध-समिति में मेरे विरुद्ध भी भर्त्सना का प्रस्ताव उपस्थित किया, पर वह स्वीकृत न हुआ। सच तो यह है कि भारतवर्ष में जाति-पाॅति के झगड़ो ने कितने ही उपद्रव मचाए हैं। जाँच-पड़ताल करके तथ्य पर पहुॅचने की प्रवृत्ति नहीं है। समी जातियों के लोग अपने को क्षत्रिय या ब्राह्मण सिद्ध करने के उद्योग मे रहते हैं। किसी-किसी जाति के लोग शास्त्रीय मर्यादा का उल्लंघन कर यज्ञोपवीत भी धारण करने लग गए हैं। आत्म-प्रधान और कर्म-प्रधान का झगड़ा अभी तक चल ही रहा है। यह देश कब इन झगड़ों को शांतकर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होगा!

(७) कोश के उत्सव के साथ ही नवीन सभा-भवन के शिलान्यास का भी आयोजन किया गया और इस कार्य को सम्पन्न करना श्रद्धेय पंडित मदनमोहन मालवीय ने कृपाकर स्वीकार किया था। इस कार्य के निमित्त वे दिल्ली से काशी आए थे; पर यहाँ आने पर वे राजा मोतीचंद के यहाँ किसी यज्ञोपवीत संस्कार में सम्मिलित होने के लिये चले गये। यद्यपि सभा में इकट्ठे हुए सब लोग उनका आसरा देख रहे थे और वे भी सभा के सामने से ही गए और केवल १० मिनट तक ठहरकर इस उत्सव को सम्पन्न करने की उन्होंने कृपा न की। राजा मोतीचंद के यहाँ वे बहुत देर तक ठहरे रहे। ऐसा सुनने में आया कि एक महोदय ने उन्हें वहाँ जितनी देर तक रोकना संभव था, उतना रोका। अस्तु, जब बहुत देर हो गई तब पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा-द्वारा शिलान्यास-संस्कार कराया गया। कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ था कि मालवीय जी आ गए और बाकी कृत्य उनसे कराया गया। मुझे मालवीय जी के इस व्यवहार पर बड़ा खेद हुआ; कुछ क्रोध भी आया। पंडित रामनारायण मिश्र ने इस अवसर पर मेरी भर्त्सना की और कहा कि मेरे लिये इसका फल अच्छा न होगा, पर उनके उपदेश की उपेक्षा कर मैं सभा-भवन-से इस कृत्य के समाप्त होने के पहले ही चला गया। निश्चित सायत टल गई और भवन आज तक न बन सका।