मेरी आत्मकहानी/१० लखनऊ का प्रवास

विकिस्रोत से
[ १८३ ]

(१०)

लखनऊ का प्रवास

(१) अभी मै बीमारी से उठकर पूर्णतया स्वस्थ भी नहीं हुआ था कि मुंशी गंगाप्रसाद वर्म्मा ने मुझे कालीचरण हाई स्कूल का हेडमास्टर बनाकर लखनऊ बुलाया। बाबू कालीचरण लखनऊ के रहनेवाले थे। उन्होने कलकत्ते में जाकर बहुत धन कमाया और सार्वजनिक कामों के लिये एक लाख रुपयों का दानपत्र लिखकर उसकी रजिस्टरी करा दी। मुशी गंगाप्रसाद वर्म्मा को किसी प्रकार इस दानपत्र का पता लग गया, यद्यपि उसके छिपाने का बहुत उद्योग किया गया था। उन्होंने दानपत्र की नकल लेकर उस रुपए के प्रामिसरी नोट खरीद लिए और उनके नाम से कालीचरण हाई स्कूल स्थापित करने का आयोजन किया। लखनऊ में एक खत्रीपाठशाला थी। उसी को उन्होंने हाई स्कूल बना दिया। स्कूल खुलते ही उसमे लडको की भर्ती होने लगी। मुझे पता नहीं था कि यह स्कूल अभी रिकगनाइज हुआ या नहीं, और विज्ञान की पढ़ाई के लिये आज्ञा ली गई है या नहीं। मैंने समझा था कि यह सब हो गया है। अतएव मैं लड़को को भर्ती करने लगा। पीछे से ज्ञात हुआ कि मैंने भ्रमवश बहुत-सी बातें मान ली हैं। सराय मालीखाॅ मे एक जमीन लेकर वहाँ स्कूल की नई इमारत बन रही थी। कई महीने तक खत्रीपाठशाला के पुराने भवन में स्कूल चलता रहा, पर वह जगह छोटी थी और क्लास बढ़ गए थे। किसी प्रकार जल्दी करके नई इमारत तैयार की गई। वहाँ [ १८४ ]जाने पर विदित हुआ कि विज्ञान पढ़ाने की आज्ञा नहीं ली गई है। अब बड़ी चिंता हुई। झटपट सायंस रूम तैयार किया गया और विज्ञान पढाने का सब सामान मँगाया गया। उस समय लखनऊ में स्कूलों के इसपेक्टर मिस्टर वर्ल थे। मैं जाकर उनसे मिला और सब बातें बताई। उन्होने कहा कि विज्ञान के क्लास खोलकर तुमने ठीक काम नहीं किया। उसके स्वीकार कराने में बड़ी कठिनाई होगी। मैने कहा कि अब तो गलती हो गई, आपको उसके सुधारने में सहायता देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सायंस रूम जल्दी तैयार करायो। जब तैयार हो जाय तब मुझे सूचना देना। मैं आकर उसका निरीक्षण करूँगा और तब अपनी रिपोर्ट भेजूॅगा। यह तो उन्होंने मुझसे कहा पर प्रात काल दूसरे-तीसरे दिन आकर वे स्वयं देख जाते थे कि काम कैसे हो रहा है। जब काम पूरा हो गया जब वे स्वयं ही स्कूल के समय में निरीक्षण करने आए। सब प्रबंध देखकर उन्होंने प्रसन्नता प्रक्ट की और कहा कि मैं आज ही रिपोर्ट भेज दूँगा। मैंने निवेदन किया कि रिपोर्ट भेज देने ही से काम न चलेगा। आप इलाहाबाद-विश्वविद्यालय की सेंडिकेट की मीटिंग में स्वयं जाने का कष्ट उठावें और इस काम को पूरा करें। वे उस समय सेंडिकेट के मेवर थे। वे इलाहाबाद गए और सब काम ठीक कर आए। मिस्टर वर्ल को इस सहायता के लिये मैं बहुत कृतज्ञ हुआ। यह सब आपत्ति मेरी मूल के कारण हुई थी। मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा भी कई बेर मिस्टर वर्ल से मिलते रहे और उन्हें सहायता करने के लिये प्रेरणा करते रहे। इस प्रकार यह काम [ १८५ ]संपन्न हुआ और स्कूल चलने लगा। खत्री-पाठशाला के सब अध्यापको और कुछ नए अध्यापको की नियुक्ति हुई। पुराने अध्यापको मे एक बढ़ी त्रुटि थी कि वे समय पर न आते थे। इसमें मुझे बड़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं। पहले मैंने उन्हे समझाने का प्रयत्न किया, कुछ सफलता भी मिली, पर थोड़े दिनो के अनंतर फिर चहीं हाल हो गया। तब मैने एक उपाय निकाला। मास्टरो की हाजिरी का रजिस्टर दफ्तर में रहता था। मैने आज्ञा दी कि ठीक १० बजे यह मेरे कमरे में रख दिया जाया करे। इससे जो लोग देर करके आते उन्हें मेरे कमरे में आना पड़ता । यद्यपि मैं उनसे कुछ नहीं कहता था पर मेरे कमरे में आकर हाजिरी भरने से उनका यथेष्ट शासन हो जाता था। यह क्रम जब तक मै लखनऊ मे रहा, बराबर चलता रहा। एक बेर सर सुंदरलाल स्कूल देखने आए। उन्होंने स्कूल के भवन को देखकर कहा कि कमरो की जहाँ दो दीवाले मिलती हैं वहाँ पलस्तर से सघिस्थान को गोल बना दिया जाय जिससे गरदा न जमने पावे। अप्रैल सन् १९१४ में सर जेम्स मेस्टन ने आकर इस स्कूल का उद्घाटन-संस्कार किया। उस समय जो भाषण उन्होंने दिया उसमे मेरे लिये यह कहा था―

“The Committee is fortunate in sccuring the services as Head Master, of Babu Shyam Sundar Dass of Benares, an educationist of more than provincial repute, whose acquaintance I made in the sacred centre of Benares learning.”

क्रम-क्रम से स्कूल में खेलने का मैदान ठीक किया गया, जमीन [ १८६ ]की सफाई हुई, फूलो और फलों के पेड लगवाए गए तथा बोर्डिंग हाउस बना। यह बोर्डिंग हाउस अभी बनकर तैयार नहीं हुआ था कि नैनीताल में मुशी गंगाप्रसाद वर्म्मा की अचानक मृत्यु हो गई। मुशी जी बडे साधु स्वभाव के पुरुष थे। देश की सेवा करना ही उनका व्रत था। लखनऊ नगर के सुधार में उनोने बहुत परिश्रम किया था। अमीनावाद का कायापलट उन्हीं के उद्योग का फल था। पर दुख की बात है कि वे अधिक दिन जीवित रहकर इस स्कूल की उन्नति न कर सके। उनके पीछे पडित गोकर्णनाथ मिश्र स्कूल के निरीक्षक (Member in Charge) बने और उन्हीं की देख-रेख में सब काम होता था। संयोगवश जब मैं लम्बनऊ में ही था तब मेरे व्येष्ठ तथा प्रथम पौत्र का देहांत हो गया। मुझे बड़ा दु:ख हुआ। मैंने चाहा कि एक महीने की छुट्टी लेकर कहीं बाहर जाकर मन बहला आऊॅ, पर मुशी गंगाप्रसाद के भाई वायू ईश्वरीप्रसाद की कृपा से यह छुट्टी न मिली। उन्होंने मेरे छुट्टी के आवेदन पर कुछ ऐसे कटु वाक्य कहे जिससे मुझे बड़ा दु:ख हुआ, पर कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि उनके कोई लड़का न था संतति के प्रेम का कभी उन्होंने अनुभव ही नहीं किया था। इससे उनका दूसरे के पौत्रशोक पर हँसी उडाना कोई ऐसी बात न थी कि जिस पर आश्चर्य किया जा सके। अस्तु, पंडित गोकर्णनाथ मिश्र के निरीक्षण में कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। सन् १९२० मे जय असहयोग-आंदोलन मचा और स्कूलों से लड़को को उभाडकर निकालने का उद्योग होने लगा तब एक दिन दोपहर के बाद पंडित गोकर्णनाथ मिश्र के छोटे भाई [ १८७ ]पंडित हरकर्णनाथ मिश्र के नेतृत्व में कुछ असहयोगी लोगो ने इस स्कूल पर भी आक्रमण किया, पर उनका उद्योग प्राय निष्फल गया, क्योंकि केवल दो या तीन लड़के क्लास छोड़कर बाहर चले गए। मैंने इसकी रिपोर्ट निरीक्षक महाशय से की। उन्होंने यह कहलाया कि उचित प्रबंध करो। मैंने जिन दिशाओ से आक्रमण हो सकता था उनकी दीवालें ऊॅची करवा दी। पीछे से मुझे ज्ञात हुआ कि जब मेरी रिपोर्ट पंडित गोकर्णनाथ मिश्र के पास पहुँची तो उन्होंने कहा कि डिप्टी कमिश्नर स्कूल कमेटी के प्रेसिडेट हैं। स्कूल का गवर्मेंट की सहायता न लेना और उसको ‘National School’ बनाना असभव है। यदि मैं इस समय इन आक्रमणों को रोकने के लिये कुछ करता हूॅ तो इन लोगो की विजय होने पर ये मुझे कुत्तो से नुचवा डालेंगे। इसलिये मेरा कुछ करना कठिन है। हेडमास्टर जो उचित समझें करें। प्राय प्राइवेट स्कूल में यह देखा जाता है कि जब कोई काम अच्छा हो जाता है तो कमेटी के मेंबर यह कह देते हैं―We managed it so beautifully’ और जब कोई बात बिगड जाती है तब कह देते हैं―‘The Head Master spoilt the whole thing’ यद्यपि पडित गोकर्णनाथ मिश्र ने बड़े उत्साह से स्कूल का काम सँभाला और प्राय सब बातों में मुझे उनके पूर्ण सहयोग का सौभाग्य प्राप्त होता रहा, तथापि यह स्थिति बड़ो भयावह थी। मैंने निश्चय कर लिया कि यहाँ रहना ठीक नहीं। यहाँ किसी दिन भारी आपत्ति आवेगी। इस निश्चय के अनुसार मैं किसी दूसरी जगह जीविका-निर्वाह के अवलंब की खोज में हुआ और [ १८८ ]जुलाई १९२१ से मैंने त्यागपत्र दे दिया जो यथासमय स्वीकृत हुआ।

(२) लखनऊ के इस आठ वर्ष के प्रवास मे सुख और दु:ख.दोनो हुए। मेरे बड़े लडके कन्हैयालाल पर किसी आत्मीय जन ने कृत्या का प्रयोग कर दिया, जिससे बारह वर्ष तक घुल-घुलकर सम् १९२६ मे उसका कलकत्ते मे औवों में कालिक दर्द की बीमारी से देहांत हो गया। इस लड़के ने एफ० ए० तक पढ़ा था, कोआपरेटिव सुसाइटी की परीक्षा भी पास की थी। यह कलकत्ते के इलाहाबाद बैंक में काम करने लग गया था। सन् १९१४ के जुलाई मास मे अमृतसर मे इसका विवाह हुआ था। यह संयोग मेरे लिये बड़ा दुखद सिद्ध हुआ।

मेरे दूसरे लड़के नदलाल ने इट्रेंस तक पढा, पर किसी काम पर यह स्थिर न रह सका। दो बैंको में नौकरी की पर वहाँ भी टिक न सका। कई रोजगार किए पर सबसे घाटा उठाया। खान-पान तथा आचार-विचार मे यह उच्छृ खल था। इससे उसे समहणी रोग हो गया और उसी से १९३७ में काशी में इसका देहांत हुआ। इसका विवाह काशी के एक प्रतिष्ठित कपूरवंश मे हुआ था। इसकी स्त्री के माता-पिता का देहांत हो चुका था पर उसका पालन-पोषण तथा सब सस्कार उसके ताया दीवान बालमुकुंद कपूर ने किया था। दीवान बालमुकुद की मृत्यु के बाद उनके दोनो पुत्र दीवान गोकुलचंद और दीवान रामचन्द्र बराबर सद्भाव क्या सज्जनता का बर्ताव करते आ रहे हैं। [ १८९ ](३) यही मेरे चतुर्थ पुत्र का जन्म हुआ। यह एम० ए०, वी-टी० पास करके लखनऊ के रीड क्रिश्चियन कालेज में काम कर रहा है। इसका विवाह प्रयाग के बाबू भगवानदास टडन की ज्येष्टा कन्या से हुआ है।

(४) सन् १९१४ में मै गुरुकुल काॅगड़ी के आर्य-भाषा-सम्मेलन का सभापति होकर वहाॅ गया। इसके अनंतर हाथरस के एडवर्ड पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव पर गया। वहाॅ रायबहादुर सेठ चिरंजीलाल बागला का अतिथि हुआ। उन्होने कृपाकर ५००) हिंदी-मनोरंजन पुस्तकमाला के लिये दान दिये जो उन्होंने पीछे से सभा में भेज दिये। इसी समय स्वामी सत्यदेव भी वहाँ पधारे थे। उन्हें भी सेठ जी ने दक्षिणा मे नागरी-प्रचार के लिये ५००) दिया। सन् १९१६ मे मैं जबलपुर के श्री शारदापुस्तकालय के वार्षिकोत्सव पर गया। यहाॅ पहले-पहल सेठ गोविंददास तथा डाक्टर हीरालाल से मेरा परिचय हुआ। सन् १९१८ मे मैं अलीगढ़ के प्रांतीय साहित्य-सम्मेलन का सभापति होकर वहाॅ भेजा गया। “भेजा गया” मैं इसलिये लिखता हूँ कि सम्मेलन की स्वागत-समिति ने काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को लिखा कि अलीगढ़ उर्दू का केन्द्र है। यहाॅ के लिये किसी उपयुक्त व्यक्ति को समापति के लिये चुनकर भेज दीजिए। सभा के आग्रह पर मैं वहाँ गया। इस सम्मेलन मे जो वक्तृता मैंने दी उसकी पंडित मदनमोहन मालवीय ने प्रशसा की। मैं जब यह वक्तृता दे रहा था तब बाबू रामचन्द्र वर्म्मा लिखते जाते थे। बाबू रामचन्द्र का यह अद्भुत कौशल देखकर मुझे बड़ा सतोप तथा आनद हुआ। [ १९० ](Afrimin mi भाr. marn. कानपुर. पटना । गम्मत mE गमे में न भाग या ग पा rinment Aur in गिंग पग्निामे TER Fifical familtinismriRTrefirma मा र अरे में are from मुझे पान-पान mgx गम में भाग लेने के साण मुमटिष्टी कमिश्नर को धमरा भीमनी में मम्मान को लार काम्यांना ाि. परामर में साम में मनभाने कंगा taपन नमा गग में उमफे पग्नं का प्रयाया। मन की बहन पटले मन्मजन के प्रांगनी पनि मानाग में पाम आग और पाने लगे कि तुम्हे मम्मे मामभापनि ना पडेगा। मैने कहा कि ममय पाहुन यो ग गया है। इनमें में अपना मापण नहीं लिम्य माना। उन्होंने पहा, जो पाको पर इम पट को स्वीकार करने के प्रतिक और मा. उपाय नह। हारफर मुझे उनकी यान माननी पी। मैने पटिन गगन र पी काशी से बुलाया। एक छुट्टी के दिन हम लोग भापण निपने के लिये बैठे। वायू पुत्तनलाल विद्यार्थी मेरे पास घे और प्रत्येक प्रश्न पर अपनी सम्मति देत जात थे और मैं मायए लिस-लिखकर पंटित रामचंद्र शुक्ल को पता जाता था और वे उसे दोहराकर एक टार्फ [ १९१ ]को देते जाते थे जो उसकी साफ नकल करता जाता था। इस प्रकार यह भाषण दो-तीन दिन में तैयार हुआ और सम्मेलन में जाकर दिया गया। एक महाशय ने इस भाषण पर यह कहा कि यह भाषण पहले से लिखा रहा था, कहीं इतने थोडे ममय मे ऐसा भाषण लिखा जा सकता है। उन्हें क्या ज्ञात था कि यह किस परिस्थिति में लिखा गया। यहाँ से सम्मेलन पटने गया और पटने सें जबलपुर। जबलपुर-सम्मेलन के सभापति मेरे संस्कृत के शिक्षक पंडित गमावतार शर्मा पांडेय थे। वे सम्मेलन समाप्त होने के पहले ही चल गए। बीच-बीच में भी व सध्योपासन आदि के लिये सम्मेलन से उठ जात थे। इन अवस्थाओं में मुझे उनका प्रतिनिधित्व करना पड़ता था। सम्मेलन में मेरे दो भापण बडे प्रभावशाली हुए। पहला तो सम्मेलन के लिये धन बटोरने की अपील करते हुए हुआ। मुझे खेद है कि बाबू रामचद्र वर्म्मा ने इसे नही लिखा यद्यपि वे वहाँ उपस्थित थे। सम्मेलन का बड़ा पडाल प्रतिनिधियों और दर्शको से खचाखच भरा था। कही खडे होने तक की जगह न थी। बड़ा हल्ला मच रहा था। मेरे भाषण आरभ करने के साथ ही वहाँ पूर्ण शांति छा गई। हम लोगो का डेरा पास ही था। उस समय बाबू रामचद्र वर्म्मा आदि डेरे पर चले गए थे। मेरे भाषण देते ही वे लौट आए। पीछे से बाबू रामचंद्र वर्म्मा ने कहा कि हम लोगों ने डेरे पर आपकी आवाज पहचानी और यह जाना कि आप बोल रहे है। बस हम लोग पडाल में चले आय। जबलपुर-सम्मेलन की रिपोर्ट में इस भाषण का संक्षेप अग्रलिखित प्रकार दिया है[ १९२ ]“हमारा यह सम्मेलन अभी सात वर्ष का बालक है। यदि आप जानना चाहे कि सम्मेलन ने इस छोटी-सी अवस्था में कौन-कौन से कार्य किए हैं तो आपको विदित होगा कि जितना कार्य इस थोडे समय में इस संस्था ने कर दिखाया है उतना कार्य कर दिखाना किसी दूसरी सत्या के लिये कठिन ही नहीं वरन् असंभव है। सम्मेलन हमारी विखरी हुई शक्तियों को एक स्थान में एकत्र करना है। आज दिन हिंदी–प्रेमियों का अभाव नहीं है। जो सहायता आजकल प्राप्त होती है वह पहले नहीं होती थी। जिस प्रकार छोटी-छोटी नदियों और नालों का जल एकत्र होकर एक सुदीर्घकाय नदी का रूप धारण करता है, बिखरी हुई किरणें एकत्र होकर जिस प्रकार प्रकाश फैलाती हैं, उसी प्रकार इस संस्था के लिये साधनों की आवश्यकता है। एक सूत्र में बाँधने के लिये कई शक्तियों की आवश्यकता है। एकता, धर्म, स्वराज्य आदि बधन पारसरिक प्रेम का प्रादुर्भाव कर सकते हैं। यूरोपीय देशों में उसके लिये जो साधन हैं वे हमे प्राप्त नहीं हैं। एक भाषा ही ऐसा साधन है जिसके द्वारा सब लोग प्रेमबंधन में बँध सकते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि मातृमाषा के लिये हृदय में भक्ति हो। भारतवर्ष में एक भाषा की क्या आवश्यकता है? इस सबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है। अत: इस स्थान पर और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। हजार विरोध होने पर भी हिंदी अभी जीवित है। यह उसकी उपयुक्तता का द्योतक है। महाराष्ट्र, बंगाली, गुजराती आदि अपनी अपनी भाषाएँ आनद से पड़े, अन्यथा वे अपने कर्तव्य से [ १९३ ]च्युत होंगे। किंतु साथ ही एक सार्वदेशिक भाषा के स्थान में हिंदी का ही व्यवहार करे और इसी व्यवहार को सुचारू रूप से पूर्ण करने के लिये हिंदी भाषा सीखे। २३-२४ वर्ष पूर्व विद्यार्थी-जीवन में हिंदी का नाम लेने-मात्र से उपहास होता था। आज हम सब इस स्यान में एकत्र होकर उसके प्रति स्नेह प्रकट करते हैं। अस्तु, अब मैं मूल विषय की ओर आता हूॅ। हिंदी का प्रचार क्यो हो? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि वह ऐसी सरल, सुलभ और सुबोध है कि प्राय, सभी प्रांतो के लोग थोड़े प्रयास से उसे सीख सकते हैं। मद्रासी महाशय अँगरेजी में न बोलकर हिंदी में बोल सकते हैं। चाहे वे सुंदर रीति से अपने मनोगत भावो को न प्रकट कर सकें, पर किसी प्रकार उनका आशय सर्वसाधारण पर प्रकट हो ही जाता है। इतना ही नहीं, हिंदी का प्राचीन साहित्य भली भॉति परिपूर्ण है। प्राचीन वैभव मनुष्य को आनदित करता है। प्राचीन गौरख और महत्व के बिना हमारी उन्नति नहीं हो सकती। इस भाषा की लिपि भी जैसी सुंदर, सुवाच्य और सुस्पष्ट है वैसी अन्य किसी भाषा की नहीं।

“हमने अपना उद्देश्य कह सुनाया। मध्य प्रदेशवालो का उत्साह अपूर्व है। यहाँ की आर्थिक शक्ति के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। उसी शक्ति के प्रभाव से यह सब संभव हो गया है। आप लोग जानते ही हैं कि महायल्न के लिये क्या-क्या चाहिए। जब आपने इस सम्मेलन के लिये इतना किया है तब अवश्य ही माता की सहायता करने में आप पीछे न रहेगे। माता का ऋण सबसे भारी होता है। वास्तव में हमारी तीन माताएँ है―एक के लिये क्या-क्या

फा० १३ [ १९४ ]जन्मदात्री, दूसरी पालन-पोषण करनेवाली और तीसरी हृदयस्थ भावो को प्रकट करनेवाली अर्थात् भाषा। भाषा का ऋण बहुत भारी है। इसे पूर्ण करने के लिये हृदय उदार होना चाहिए। स्वागतकारिणी समिति का खर्च छोड़कर इन सात वर्षों में आप लोगो ने ३४,०००) दिया है। हमारी कामना है कि हम लोग हिदी-विश्वविद्यालय देखे। नगर-नगर में नागरी पुस्तकालय हो। काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा ने इसके लिये कोई पौने दो लाख रुपया २३ वर्षों में जमा किया है। आप सब मिलकर एक वर्ष का कार्य चलाइए, माता को भूल न जाइए। आपकी मातृभाषा अन्य भाषाओं से बुड्ढी है। माता की ममता कम नहीं होती। वह सदा सहायता पहुॅचाती है। सुमाता को सुपूतो की आवश्यकता है।”

सम्मेलन को समाप्त करते हुए भी मैंने भाषण किया था, पर रिपोर्ट में उसका सारांश नहीं दिया है।

(६) जून सन् १९१८ में पडित गौरीशकर हीराचंद ओझा और पंडित चद्रवर शर्मा गुलेरी के उद्योग से मुशी देवीप्रसाद, मुसिफ जोधपुर, १०,०००) का दान करने के लिये उद्दत हुए। यह दान उन्होंने ऐतिहासिक पुस्तकों के प्रकाशित करने के लिये काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को दिया। इस दानपत्र को लिखवाने तथा बबई बक के ७ हिस्सो का सर्टिफिकेट लेने के लिये मुझे ओझा जी ने अजमेर बुलाया। वहाँ कोई विशेष घटना नहीं हुई। दो-तीन दिन टालमटोल करके मुंशी जी ने दानपत्र लिख दिया और शेयर सर्टिफिकेट के लिए। ये सब कागज मेरी जेब में थे। मैं डाकगाड़ी [ १९५ ]से काशी लौट रहा था। मै जिस डब्बे में बैठा था उसमे और कोड नहीं था। कानपुर से आगे बढ़ने पर मुझे शौच जाने की आवश्यकता हुई। मैंने कोट को उतारकर खूँटी पर टॉग दिया। उसमें उस समय भी वे सब कागज थे। फिर कुछ ऐसी प्रेरणा हुई कि उन कागजो को जेब मे से निकालकर मैंने संदूक मे बंद कर दिया। शौच से जब निकला तो देखता क्या हूॅ कि मेरा कोट हवा के तेज झोके से उड़कर खिड़की की तरफ गया है। जब तक मैं दौड़कर उसे पकड़ने की धुन मे आगे बढ़ा तब तक वह बाहर उड़ गया और फिर उसका पता न चला कि कहाँ गया। घड़ी दैवी कृपा थी कि सब कागज संदूक मे बंद थे, नहीं तो न जाने कितनी आपत्ति उठानी पड़ती।

(७) अक्टूबर सन् १९१८ मे बाबू रामदास गौड़ के प्रस्ताव पर सभा ने एक उपसमिति नियमो को दुहराकर ठीक करने के लिये बनाई। नियम बने और छापकर विचार करने के लिये बाॅटे गए। सन् १९१९ के वार्षिक अधिवेशन मे और काम मे फँसे रहने के कारण मैं उपस्थित न हो सका। मैं उस समय सभा का सभापति था। मेरी अनुपस्थिति में बाबू रामदास गौड़ वार्षिक अधिवेशन के सभापति चुने गए। उन्होंने उस आसन से यह निर्णय दिया कि सभा के नए नियम विचाराधीन हैं। उनके स्वीकार होने पर नया चुनाव हो। और काम तो सब हो गया पर चुनाव स्थगित हो गया। मुझे यह पता चला कि बाबू रामदास गौड़ इस चिंता में हैं कि सभा का अधिकार-सूत्र उनके हाथ मे आ जाय और वे उसका संचालन अपनी [ १९६ ]इच्छा के अनुसार करें। गर्मी की छुट्टियों में मैं काशी आया तो इस व्यवस्था का पूरा-पूरा ब्योग मिला। मैंने अपनी नीति स्थिर करके सभापतित्व से त्यागपत्र दे दिया और वह स्वीकृत भी हो गया। धान यह थी कि यदि मैं सभापति बना रहता तो जो विशेष अधिवेशन नियमो पर विचार करने के लिय होनेवाला था उममें मुझे वह आसन ग्रहण करना पड़ता और तटस्थ रहकर कार्य-सचालन करना पड़ता, पर मैं चाहता था कि इस कार्य में पूरा-पूरा भाग लूँ। अतएव जून मास में तीन दिन तक विचार होता रहा। नियमो का संशोधन हो जाने पर वार्षिक चुनाव के लिये फिर नाम चुने जाने लगे। इसमें गौड जी ने बड़ी आपत्ति की। वे अपने दल के लोगों को भरना चाहते थे। अंत में यह निश्चय हुआ कि बाबू भगवानदास दोनों पक्षों की बातों को सुनकर जो सूची बना दें वह मान्य हो। ऐसा ही हुआ। इस सूची में गौड़ जी के पक्ष के लोगों की अधिक संख्या थी। अतएव इस आपत्ति से बचने के लिये मैंने एक दूसरा उपाय निकाला। जब चुनाव होने लगा तब मैंने यह प्रस्ताव किया कि जिन लोगों के यहाँ चंदा बाकी है वे कार्यकर्ता या प्रबंध-समिति के सदस्य नियमानुसार नहीं हो सकते। इस पर सूची की जाँच की गई तो विपक्षीदल के लोगों में से अधिकांश लोगों के नाम अलग हो गए और चुनाव हम लोगों के अनुकूल हुआ। मेरी नीति के रहस्य को सभा के सहायक मत्री बाबू गोपालदास जानते थे और किसी को इसका पता न था। इस नियम के कारण बाबू रामदास गौड़ के पक्ष के लोग न कार्यकर्त्ता हो सके और न प्रबंध-समिति के सदस्य ही। [ १९७ ]इस प्रकार यह आपत्ति टली। सभा पर पहली आपत्ति बाबू देवकीनंदन खत्री के मंत्रित्व में आई थी और दूसरी आपत्ति यह थी। ईश्वर ने दोनो आपत्तियों से सभा की रक्षा की और उसका उन्नतिशील मार्ग बहुत वर्षों के लिये निर्विन्न हो गया।

(८) लखनऊ के प्रवासकाल मे मेरी साहित्यिक कृतियाँ ये है―

(१) हिंदीकोविदरन्नमाला―दूसरा भाग। यह सन्१९१३ में प्रकाशित हुआ। इसके संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का जीवन-वृत्तांत मिलने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई। वे इस समय मुझसे असंतुष्ट थे। सन् १९०० के लगभग वे काशी आए थे और अपनी बहिन के यहाँ ठहरे थे। मैं उनसे मिलने गया और उन्होंने भी मेरे यहाँ पधारने की कृपा की। फिर दो-एक वर्ष बाद वे काशी आए और मुझे अपने आने की सूचना पहले से दे दी। जिस दिन वे आनेवाले थे उस दिन या उसके एक दिन पहले मुझे काशी के अध्यापकों का प्रतिनिधि होकर एक डेपुटेशन मे, जो लेफ्टनेट गवर्नर से मिलने जा रहा था, लखनऊ जाना पड़ा। मैं इसकी सूचना द्विवेदी जी को न दे सका। वे मेरे यहाॅ मेरी अनुपस्थिति मे आए और मुझे न पाकर बड़े असंतुष्ट हुए। यहाॅ से उनके असतोष का आरंभ हुआ। फिर हिंदी-वैज्ञानिक कोष तथा हिंदी- पुस्तकों की खोज के संबंध में मतभेद हुआ। मुझे स्मरण आता है कि कलकत्ते के भारतमित्र पत्र में उनका एक लेख छपा था और मैने भी एक लेख लिखा था। पर इसकी प्रतियाँ इस समय अप्राप्य होने से मैं उनके विषय मे कुछ नहीं कह सकता। इस मनोमालिन्य के [ १९८ ]चढ़ने का एक कारण नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में उनकी “विधवा-विलाप" नामक कविता का न छपना भी था। इस प्रकार मनोमालिन्य बढ़ता गया और अंत में सरस्वती में जो यह वाक्य छपा करता था― “सभा के अनुमोदन में प्रतिष्ठिन उमका अंत हो गया। इम अवस्था में उनका जीवन-चरित्र प्राप्त होना और भी कठिन हो गया। पंडित सूर्यनारायण दीक्षित ने किमी प्रकार द्विवेदी जी में उनकी जीवन-घटनाओं को जानने का सफल प्रयोग किया। उनके आधार पर उन्होने उनका जीवन-चरित लिखकर उनके पास भेज दिया। उन्होंने उसे संशोधित करके दीक्षित जी के पास भेजा। उनमे फिर वह मुझे प्राप्त हुआ। इसमे दो मुख्य वाक्य द्विवेदी जी ने बढ़ाए थे। एक स्थान में यह वाक्य था― “आपकी समालोचनाएँ बहुधा जरा कटु हो जाती हैं,” इसको द्विवेदी जी ने इस प्रकार संशोधन किया था―“आपकी समालोचनाएँ जरा तीव्र अधिक हो जाती है।”

लेख के अंत में ये वाक्य थे―“ईश्वर आपको नीरोग और चिरंजीव करे। आपसे हिंदी-भाषा का अभी और बहुत कुछ उपकार होने की आशा है।” इनको काटकर द्विवेदी जी ने ये वाक्य लिखे थे―“द्विवेदी जी में कवित्व, समालोचन और प्रथ-निर्माण इन दोनो शक्यिो का एकत्र अधिष्ठान है। ये बाते किसी विरले ही पुरुप में होती है।’

अंत में जिस रूप में यह कोविदरत्रमाला में छपी वह उस पुस्तक मे देखी जा सकती है।

इस जीवनी के अंत में यह लिखा था कि द्विवेदी जी का स्वभाव [ १९९ ]किंचिन् उग्र है। जब यह पुस्तक प्राय समस्त छप गई तब द्विवेदी जी ने इस अंश को देखा। उन्होनें बाबू चिंतामणि घोष मे यह आग्रह किया कि यह अंश निकाल दिया जाय। मुझसे पूछा गया। मैंने कहा मुझे कुछ आपत्ति नहीं है। जो कुछ मैंने लिखा है उसकी सत्यता प्रमाणित हो गई। आश्चर्य यह है कि द्विवेदी जी अपने विरुद्ध एक शब्द भी कहीं छपा नहीं देख सकते थे। मिश्रबंधुओं के लेखो का एक संग्रह इडियन प्रेस में छप रहा था। उसमें एक या दो लेखों में द्विवेदी जी की आलोचना की प्रत्यालोचना थी। इस पर प्रेसवालो से फिर आग्रह किया गया कि ये लेख न छपें। मिश्रबंधुओ ने इस बात को स्वीकार नहीं किया और छपी हुई पुस्तक रद्दी कर दी गई। द्विवेदी जी में आत्माभिमान और क्रोध की मात्रा अधिक थी। कदाचित् जिम धेय को उन्होंने अपने सामने रखा था उसमें इन विशेषताओं की आवश्यकता वे समझते हों और यह सोचते हों कि अपनी धाक जमाने के लिये इनका प्रयोग अनिवार्य है। कुछ भी हो। पीछे से द्विवेदी जी के स्वभाव मे बड़ा परिवर्तन हो गया। वे नम्रता और शिष्टाचार की साक्षात् मूर्ति हो गए। अभी मैं लखनऊ मे ही था कि एक दिन मुझे कुछ विद्यार्थियों ने आकर सूचना दी कि द्विवेदी जी अपने भांजे से मिलने के लिये बोर्डिङ्गहाउस में आए हुए हैं। उनका यह भांजा उस समय कालीचरण हाई स्कूल में पढ़ता था। सुनते ही मैं गया और उन्हें अपने वासस्थान पर लिवा लाया। वहाँ मैंने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। द्विवेदी जी ने प्रसन्न होकर कहा कि हम दोनों में बहुत वैमनस्य रहा। जिंदगी का कोई ठिकाना [ २०० ]नही, मैं बुड्ढा हो चला हूँ। जो कुछ मैंने कहा-सुना है उसके लिये तुम मुझे क्षमा करो और मै भी तुम्हें क्षमा करता है। बस समझौता हो गया और फिर हम दोनों में सदभाव की स्थापना हो गई।

(२) राजा लक्ष्मणसिंह-लिखित मेघदृत का सस्करण मन् १९२० मे इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ।

(३) दीनदयालगिरिग्रंथावली और

(४) परमालरासो सन् १९२१ में नागरी-प्रचारिणीग्रंथमाला में संपादित होकर प्रकाशित हुए।

(५-७) सरल संग्रह नूतन संग्रह और अनुलेखमाला नाम की तीन पुस्तके सन् १९१९ मे स्कूलों के लिये नवलकिशोर प्रेस में छपीं।

(८) नागरी-प्रचारिणी पत्रिका को वर्तमान नया रूप १९२० में दिया गया। मैं भी इसके सपादकों में था। पहले वर्ष मे (१) गोस्वामी तुलसीदास की विनयावली और (२) हस्तलिखित हिंदी-पुस्तको की खोज-सवधी मेरे दो लेख पत्रिका में छपे। १३ वर्ष तक पडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा इस पत्रिका के सपादक रहे। लेखो का सग्रह आदि करना और उन्हें काट-छाँटकर ठीक करना उनका काम था और छपाना तथा प्रूफ आदि देखना मेरा काम था। १४वे भाग से मैं इस पत्रिका का सपादक हुआ और १८ भाग तक यह काम करता रहा। १८वें भाग को समाप्त करके मैं इस काम से अलग हुआ। पत्रिका के भिन्न-भिन्न अंको मे मेरे ये लेख छपे―

(१) रामावत संप्रदाय (१९२४)

(२) आधुनिक हिंदी के आदि आचार्य (१९२६) [ २०१ ](३) भारतीय नाट्यशास्त्र (१९२६)

(४) गोस्वामी तुलसीदास (१९२७-२८)

(५) हिंदी-साहित्य का वीरगाथाकाल (१९२९)

(६) बालकांड का नया जन्म (आलोचना) (१९३१)

(७) चंगुप्त (आलोचना) (१९३२)

(८) देवनागरी और हिंदुस्तानी (१९३७)

इनमें सें पाँचवाँ लेख पंडित रामचंद्र शुक्ल के सहयोग से लिखा गया था।

(९) इन सब फुटकर कामों के अतिरिक्त मैंने १९१२ से मनोरजन पुस्तकमाला नाम की एक पुस्तकमाला का सपादन किया। इसमे एक आकार-प्रकार और मूल्य के १०० ग्रंथ निकालने का आयोजन किया गया। इसके प्रकाशन का भार नागरी-प्रचारिणी सभा ने लिया। यह पुस्तकमाला खूब चली। मेरे सपादकत्व मे इसमे निम्नलिखित ५० ग्रंथ प्रकाशित हुए जिनमे कई के कई संस्करण हुए तथा कुछ का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। इस पुस्तकमाला की देखा- देखी अनेक पुस्तकमालाएं निकली और अब तक निकल रही हैं। यह आनंद की बात है कि नागरी-प्रचारिणी सभा अब पुन इस माला को जीवनदान देने में तत्पर हुई है―

(१) आदर्श जीवन―लेखक, पडित रामचन्द्र शुक्ल (१९१४)

(२) आत्मोद्धार―लेखक, बाबूरामचद्र वर्मा (१९१४)

(३) गुरु गोविंदसिंह―लेखक, बाबू वेणीप्रसाद (१९१४) [ २०२ ](४) आदर्श हिंदू (भाग १)―लेखक, मेहता लज्जाराम शर्मा (१९१५)

(५) आदर्श हिंदू (भाग २)―लेखक, मेहता लज्जा राम शर्मा (१९१५)

(६) आदर्श हिंदू (भाग ३)―लेखक, मेहता लज्जा राम शर्मा (१९१५)

(७) राणा जंगवहादुर―लेखक, बाबू जगन्मोहन वर्मा (१९१५)

(८) भीष्मपितामह―लेखक, पष्टित द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी (१९१५)

(९) जीवन के आनंद―लेखक, पडित गणपति जानकीराम दूबे, बी० ए० (१९१६)

(१०) भौतिक विज्ञान―लेखक, बाबू संपूर्णानद बी० एस-सी०, एल० टी० (१९१६)

(११) लाल चीन―लेखक, बाबू ब्रजनंदनसहाय (१९१६)

(१२)कबीर-वचनावली-सग्रहकर्त्ता पडित अयोध्यासिहं उपाध्याय (१९१६)

(१३) महादेव गोविद रानाडे―लेखक, पडित रामनारायण मिश्र, बी० ए० (१९१६)

(१४) वुद्वदेव―लेखक, बाबू जगन्मोहन वर्मा (१९१६)

(१५) मितव्यय―लेखक, बाबू रामचंद्र वर्मा (१९१६)

(१६) सिक्खो का उत्थान और पतन―लेखक, पडित नंदकुमारदेव शर्मा (१९१६) [ २०३ ](१७) वीरमणि―लेखक, पंडित श्यामविहारी मिश्र, एम० ए० तथा पंडित शुकदेवविहारी मिश्र, वी० ए० (१९१७)

(१८) नेपोलियन बोनापार्ट―लेखक, बाबू राधामोहन गोकुल जी (१९१७)

(१९) शासन पद्धति―लेखक, पंडित प्राणनाथ विद्यालकार (१९१७)

(२०) हिदुस्तान (भाग १)―लेखक, बाबू दयाचद्र गोयलीय, बी० ए० (१९१०)

(२१) हिंदुस्तान (भाग २)―लेखक, बाबू दयाचद्र गोयलीय, वी० ए० (१९१७)

(२२) महर्षि सुकरात―लेखक, बाबू वेणीप्रसाद (१९१७)

(२३) ज्योतिर्विनोद―लेखक, बाबू सपूर्णानंद, वी० एस-सी०, एल० टी० (१९१७)

(२४) आत्मशिक्षण―लेखक, पडित श्यामविहारी मिश्र, एम० ए० तथा पंडित शुकदेवबिहारी मिश्र, बी०ए०

(२५) सुंदरसार―संग्रहकर्त्ता, पुरोहित हरिनारायण शर्मा, बी०ए०

(२६) जर्मनी का विकास (भाग १)―लेखक, ठाकुर सूर्यकुमार वर्मा (१९१८)

(२७) जर्मनी का विकास (भाग २)―लेखक, ठाकुर सूर्यकुमार वर्मा (१९१९)

(२८) कृपिकौमुदी―लेखक, बाबू दुर्गाप्रसादसिंह, एल० ए-जी० (१९१९) [ २०४ ](२९) कर्त्तव्यशास्त्र―लेखक, बाबू गुलाबराय एम० ए०, एल- एल० बी० (१९१९)

(२०) मुसलमानी राज्य का इतिहास (भाग १)―लेखक, पडित मन्नन द्विवेदी, बी० ए० (१९१९)

(३१) मुसलमानी राज्य का इतिहास (भाग २)―लेखक, पडित मन्नन द्विवेदी, बी० ए० (१९१९)

(३२) रणजीतसिह―लेखक बाबू वेणीप्रसाद (१९२०)

(३३) विश्व-प्रपच (भाग १)―लेखक, पंडित रामचंद्र शुक्ल (१९२१)

(३४) विश्व-प्रपच (भाग २)―लेखक, पडित रामचंद्र शुक्ल (१९२१)

(३५) अहिल्याबाई―लेखक, पडित गोविदराम केशवराम जोशी (१९२१)

(३६) रामचंद्रिका―संकलनकर्ता, लाला भगवानदीन (१९२२)

(३७) ऐतिहासिक कहानियाँ―लेखक, पडित द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी (१९२२)

(३८) हिंदी-निबंधमाला (भाग १)―संग्रहकर्ता श्यामसुंदरदास, बी० ए० (१९२२)

(३९) हिंदी-निबंधमाला (भाग २)―संग्रहका श्यामसुंदरदास, बी० ए० (१९२२)

(४०) सूरसुधा―संपादक, पंडित गणेशविहारी मिश्र, पंडित श्यामबिहारी मिश्र और पंडित शुकदेवबिहारी मिश्र (१९२२)

(४१) कर्त्तव्य―लेखक, बाबू रामचंद्र बर्मा (१९२२) [ २०५ ]

(४२) सक्षिप्त राम-स्वयंवर―सपादक, श्री बाबू व्रजरवदास बी० ए०, एल-एल० वी० (१९२३)

(४३) शिशु-पालन―लेखक डाक्टर मुकुदस्वरूप वर्मा (१९२५)

(४४) शाही दृश्य―लेखक, बाबू मक्खनलाल गुप्त (१९२६)

(४५) पुरुषार्थ―लेखक, बाबू जगन्मोहन वर्मा (१९२६)

(४६) तक-शास्त्र (भाग १)―लेखक, बाबू गुलाबराय, एम० ए०, एल-एल० वी० (१९२७)

(४७) तर्क-शास्त्र (भाग २)―लेखक, बाबू गुलाबराय, एम० ए०, एल-एल० बी० (१९२७)

(४८) तर्क-शास्त्र (भाग ३)―लेखक, बाबू गुलाबराय, एम० ए०, एल-एल० बी० (१९२७)

(४९) प्राचीन आर्य-वीरता―लेखक, पंडित द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी (१९२७)

(५०) रोम का इतिहास―लेखक, पंडित प्राणनाथ विद्यालंकार (१९२८)