यह गली बिकाऊ नहीं/13
खाना खाने के तुरन्त बाद मुत्तुकुमरन आउट हाउस चला आया था। सिर्फ माधवी सबको विदा करने के लिए 'पोटिको' में खड़ी थी। उस समय माधवी के मन में यह विचार उठ रहा था कि मुत्तुकुमरन् मेरी परीक्षा लेने के लिए ही जल्दी-जल्दी आइट हाउस चला गया है कि मैं अब्दुरुला को पहुँचाने अकेली ओशियानिक जाती हूँ कि नहीं?
अब उसके मन में इस बात की खुशी हो रही थी कि अब्दुल्ला के साथ मेरे अफेले न जाने से मुत्तुकुमरन को खुशी होगी।
एक-एक करके सब गोपाल से विदा लेकर चले । कुछेक माधवी से भी विदा हुए। सबको हाथ जोड़कर उसने विदा किया । सबके जाने के बाद, घर में काम करने वाले, गोपाल के सेक्रेटरी और माधवी ही वहाँ बाकी रह गये थे । नायर छोकरा टेलिफोन के पास विनम्रता का पुतला बनकर खड़ा था। अचानक उन लोगों के सामने गोपाल माधवी पर कहर भरा जहर उगलने लगा । जिस अदम्य क्रोध को उसने अबतक दबा रखा था, वह फूट पड़ा-
"बड़ी चरित्रवान बन गयी है, मानो मैं निया-चरित समझता नहीं ! चर्बी चढ़ गयी है। मैंने पढ़ा-पढ़ाकर कहा था कि दो या तीन बजे अब्दुल्ला के यहाँ जाओ, थोड़ी देर बातें करके फिर बुला लाओ। मेरी बातों पर कान न देकर अपनी मर्जी की कर रही है । यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं देखता आ रहा हूँ कि उस्ताद के इस घर में आने के बाद तुम्हारी चाल बदल रही है।"
भाधवी बिना कोई जवाब दिए सिर झुकाकर खड़ी रही। उसकी आँखों में आँसू छलक आए । इसके पहले चार जनों के मध्य गोपाल ऐसी बातें करता था तो भी उसके दिल पर उसका कोई असर नहीं होता था। सब झाड़-पोंछकर गोपाल. से पहले की तरह मिलने-जुलने लग जाती थी । अब वह जिसके बश में हो चुकी थी, उसका अहम और स्वाभिमान भी अब उसके मन में घर कर बैठे थे। गोपाल के इन वार्तावों के खिलाफ ज्वार-भाटा तो उठे। पर मादत पड़ जाने से गोपाल के. मुंह के सामने कुछ कह नहीं पायी। पहले ऐसी बातों को सुनती हुई काठ की तरह खड़ी रहती। पर आज तन-बदन में आग-सी लग गयी।
गोपाल कोई दस मिनट तक अपनी बेलगाम जबान को हाँककर अंदर चला गया।
माधवी इतनी लाल-पीली हो गयी कि उसे रुलाई आ गयी। वह सीधे आउट हाउस की ओर बढ़ी। ड्राइवर ने बीच में ही आकर कहा, "मालिक ने आपको घर. छोड़ आने को कहा है !"
माधवी ने गोपाल पर का गुस्सा ड्राइवर पर उतारा, "कोई जरूरत नहीं। तुम अपना काम देखो। मुझे अपने घर का रास्ता मालूम है !"
"अच्छा! मालिक को यही कह दूंगा !"कहकर ड्राइवर चला गया। आउट हाउस में जाते-जाते माधवी को रुलाई आ गयी। मुत्तुकुमरन् को देखते ही वह फूटकर रो पड़ी। रोते-रोते वह मुत्तुकुमरन के सीने से मुरझायी माला की भौति लग गयी !
"क्या है ? क्या हुआ ? किसने क्या कहा ? इस तरह क्यों रो रही हो?"
मुत्तुकुमरन् ने घबराकर पूछा । कुछ देर तक वह कुछ बोल नहीं पायी। बोल फूटने के बदले सिसकी ही फूटी । मुत्तुकुमरन् ने बड़े प्यार से उसकी पीठ पर थपथपाकर सांत्वना दी तो वह अपने को सँभालकर बोली, "मुझे घर जाना है । बस का टाइम हो गया है । टैक्सी के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं । आप मेरा साथ दें तो मैं पैदल ही घर चलूंगी। मेरा और कोई साथी नहीं है । मैं अकेली हूँ 'अबला •••हूँ।"
"क्या हुआ? क्यों ऐसी बातें करती हो ? साफ़-साफ़ बतानो !
"वह कहते हैं कि मैं त्रिया-चरित्र खेल रही हूँ । अब्दुल्ला को बुला लाने के ‘लिए मैं अकेली क्यों नहीं गयी? आपके आने पर मेरा बर्ताव ही बदल गया है !"
"कौन कहता है ? गोपाल ?"
"उनके सिवा और कौन...?"
मुत्तुकुमरन् की आँखें क्रोध से लाल हो उठीं । कुछ पल वह कुछ बोल नहीं 'पाया । थोड़ी देर बाद उसका मुंह खुला, "अच्छा, चलो ! मैं तुम्हें घर छोड़कर आता हूँ !"
मुत्तुकुमरन् उसे साथ लेकर चल पड़ा । उन दोनों के बँगले की चारदीवारी के अन्दर ही गोपाल नेआकर उनका रास्ता रोका !
"तुमने गुस्से में आकर जो कहा, ड्राइवर ने आकर बता दिया है। मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा । हमारा परिचय आज या कल का नहीं है। कितनी ही ऐसी बातें मैंने कही हैं । अब कुछ दिनों से गुस्सा तुम्हारी नाक पर चढ़ा रहता है। अजनवी समझकर मुझपर सारा गुस्सा निकालने लगो तो मेरे लिए कहने को कुछ नहीं है।"
माधवी उसकी बातों का कोई जवाब दिए बिना सिर झुकाए खड़ी रही ।
मुत्तुकुमरन् भी कुछ बोला नहीं। गोपाल ने ताली बजाकर किसी को बुलाया। 'ड्राइवर ने कार लाकर माधवी के नजदीक खड़ी की।
मुत्तुकुमरन् चुपचाप यह देखता खड़ा रहा कि माधवी अब क्या करती है ।
"बैठो ! घर पर उतरकर कार वापस भिजवा देना । मेरा दिल न दुखाओ !" गोपाल मानों गिड़गिड़ाया। माधवी ने मुत्तुकुमरन् को यों देखा, मानो उसकी सलाह चाह रही हो। मुत्तकुमरन् ने उसे अनदेखा कर और कहीं देखा।
"तुम ही कहो उस्ताद ! माधवी मुझपर नाहक नाराज हो रही है । तुम्हीं समझाकर घर भेजो"-गोपाल ने मुत्तुकुमरन् से विनती की।
मुनुकुमरन ने उसकी बातों पर भी कान नहीं दिया। होंठों पर हंसी लाकर चुप रह गया। लेकिन वह इस तरह खड़ा था कि आज माधवी के चित्त की टोह लेकर ही रहेगा।
एकाएक गोपाल ने एक काम किया। इशारे से ड्राइवर को उसकी सीट से उतारकर बोला, "आओ ! मैं ही तुम्हें 'डाप' कर आऊँ ।"
माधवी 'न' •••'नहीं कह सकी। हिचकते-हिचकते मुत्तकुमरन की ओर देखती हुई कार की अगली 'सीट' का द्वार खोलकर वैठ गयी।
गोपाल ने कार 'स्टार्ट' की तो माधवी ने मुत्तुकुमरन् से विदा लेने की मुद्रा में हाथ हिलाया । पर उसने बदले में हाथ नहीं हिलाया । इतने में कार बंगले का फाटक पार कर सड़क पर हो गयी। वह समझ गयी कि मुत्तुकुमरन उसके इस व्यवहार से असंतुष्ट अवश्य हुआ होगा। घर पहुँचने तक वह गोपाल से कुछ नहीं बोली; गोपाल ने भी उसकी उस समय की मनोदशा का अनुमान करके उससे बात करने की कोशिश नहीं की । लाइडस रोड तक आकर उसे उसके घर छोड़ कर गोपाल लौट गया। घर के अंदर जाते ही माधवी ने धड़कते दिल से मुत्तुकुमरन्. को फोन किया।
"आप बुरा तो नहीं मान गए ! उनकी इस गिड़गिड़ाहट पर मैं इनकार नहीं पायी!"
"हाँ, पहले से भी अच्छा साथी मिल कार तो इनकार कैसे कर पाओगी?" एक-एक शब्द पर जोर देते हुए मुत्तुकुमरन् ने पूछा । आवाज़ में दबा हुआ क्रोध गुंज उठा!
"आपकी बात समझ में नहीं आती। लगता है कि आप गुस्से में बोल रहे हैं।"
"हाँ, ऐसा ही समझ लो !" कडे स्वर में जवाब देकर मुत्तुकुमरन ने चोंगा पटक दिया। माधवी के दिल पर ऐसी करारी चोट पड़ी कि वह किंकर्तव्य विमुढ़ होकर फोन हाथ में लिये खड़ी रही। फिर फोन रखकर बिस्तर पर जा पड़ी और सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसे लगा कि उसकी बदकिस्मती से ही मुत्तुकुमरन् भी उसे गलत-सलत समझ रहा है। साथ ही, उसके मन में यह बात भी आयी कि इसमें मेरा ही दोष बड़ा है। उसके पास जाकर रोयी-धोयी। फिर साथ चलने को मना लायी और आधे रास्ते में ही उसे छोड़कर गोपाल की कार में चली आयी ! इस हालत में हर कोई बुरा ही मानेगा। उस रात वह सोयी ही नहीं । आँसुओं से तकिया गीला हो गया। वह यह अनुमान नहीं लगा सकी कि उसका मन कैसे और कहाँ से कमजोर हुआ कि मुत्तुकुमरन को घर पहुँचाने के लिए साथ चलने की प्रार्थना करने और उसके तुरन्त मानकर साथ चले आने के बाद भी वह उसे ठुकराकर, गोपाल के साथ कार में चल पड़ी थी। अब अपनी करनी पर सोचते हुए उसे स्वयं ग्लानि का अनुभव हो रहा था।
वह इस सोच में पड़ गयी कि कल कौन-सा मुंह लेकर मुत्तुकुमरन् से मिलूंगी! गोपाल के स्वयं घर पहुंचाने के लिए तैयार हो जाने पर, मैं उसका मन रखने के लिए कैसे मान गयी ? यह सोचते हुए अपनी करनी पर उसे हैरानी हो रही थी।
मुबह उठने पर उसे एक दूसरी हैरानी का सामना करना पड़ा। उसकी वजह से गोपाल से मिलने में भी उसे संकोच का अनुभव हो रहा था। दरअसल डर लग रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे? कारण आज की पहली डाक से उसके नाम 'जिल जिल' का ताजा अंक आया था, जिसमें मुत्तुकुमरन् से कनियन की भेंट-वार्ता छपी थी। 'जिल जिल' कनियळकन ने भेंटवार्ता के बीच एक फ़ोटो भी छपवाया था। मुत्तुकुभरत् और माधवी के अलग- अलग चित्रों को कैची की करामात से काट-छाँटकर ऐसा एक ब्लाक बनवाया गया था, जिसमें दोनों सटकर खड़े थे । भेंट के बीच मुत्तुकुमरन की जुबानी यह बात छापी गयी थी कि माधवी जैसी लड़की मिले तो मैं शादी करूँगा । इसे पढ़कर उसे कनियळकन पर क्रोध चढ़ आया । माधवी ने सोचा कि जिस प्रकार मेरे नाम 'जिल . जिल' का यह अंक आया है, उसी प्रकार गोपाल और मुत्तकुमरन के नाम भी गया होगा । उसने यह अनुमान लगाने का भी प्रयत्न किया कि इसे पढ़कर गोपाल के मन में कैसी-कैसी भावनाएँ सिर उठाती होंगी !
उसका मुत्तुकुमरन के साथ एक चित्र में सटकर खड़े होने और मुत्तुकुमरन् के मुँह से उस जैसी लड़की से शादी की बातों को देख-पढ़कर गोपाल कसे जल उठेगा? यह बात वह एक भुक्तभोगी की भाँति जानती थी। इसलिए उस दिन उन दोनों से मिलने में उसे भय-संकोच हो रहा था।
उसने मन में निश्चय किया कि आज माबलम की तरफ़ न जाना ही अच्छा है ताकि मुत्तुकुमरन् या गोपाल से मुलाकात नहीं हो पाये। लेकिन अप्रत्याशित रूप से ग्यारह बजे के करीब गोपाल ने उसे फोन पर बुलाया और बोला, "पासपोर्ट जैसे कुछ जरूरी कागजात पर दस्तखत करना है। एक बार आ जाओ।" "मेरी तंबीयत ठीक नहीं है। अगर जल्दी हो तो किसी के हाथ भिजवा दीजिए। हस्ताक्षर कर दूंगी।" उसके यहाँ जाने से बचने के लिए उसने यह बहाना बताया। उसे इस काम में सफलता मिली। गोपाल यह मान गया कि वह ड्राइवर के हाथा आवेदन आदि पर हस्ताक्षर करने को भेज देगा।
उसे मालूम था कि मुन्तकुमरन् फोन नहीं करना चाहेगा। लेकिन उसे भी फोन करने से भय-संकोच होता था। पिछली रात को मुत्तकुमरन ने जो उत्तर दिया था, वह अब भी उसके मन में खटक रहा था। मुत्तकुमरन की कड़ी बातों से बढ़कर उसे अपनी ही ग़लती कहीं ज्यादा अखर गयी। मुत्तुकुमरन के क्रोध की वह कल्पना भी नहीं कर सकी।
उस दिन वह बड़ी उधेड़बुन में पड़कर घर पर ही रह गयी। बाहर कहीं नहीं गयी। गोपाल का ड्राइवर दो बजे के बाद आया और कागजों पर हस्ताक्षर ले चला गया। उसे इस बात की चिंता सताने लगी कि फॉर्म आदि भरकर मुत्तकुमरन से इस तरह के हस्ताक्षर लिये होंगे कि नहीं? क्योंकि उसे इस बात का डर सताने लगा था कि पिछली रात की घटना से मुत्तकुमरन उससे और गोपाल से नाखुश हैं। इसलिए संभव है कि मलेशिया जाने से इनकार कर दे। एक ओर निष्कलंक वीर के आत्माभिमान और कवि के विद्या-गर्व से भरे मुत्तकुमरन की याद में उसका दिल द्रवित हो रहा था और दूसरी ओर उसके निकट जाते हुए डर भी लग रहा था। उस पर अपार प्रेम होने से और उस प्रेम के भंग हो जाने के डर से वह बड़ी दुविधा में पड़ गयी। उसने यह निश्चय किया कि यदि मुत्तकमरन मलेशिया जाने के डर से इनकार कर दे तो उसे भी वहाँ नहीं जाना चाहिए। इस तरह का निर्णय लेने की। हिम्मत उसमें थी। लेकिन उस हिम्मत को कार्य रूप देने की हिम्मत नहीं थी।
जनवरी के प्रथम सप्ताह से तीसरे सप्ताह तक मलेशिया और सिंगापुर में भ्रमण करने का आयोजन हुआ था। मुत्तुकुमरन को साथ लिये बिना, सिर्फ गोपाल के साथ विदेश भ्रमण करने को उसका मन नहीं हो रहा था। जीवन में पहली बार और अभी अभी उसके हृदय में गोपाल के प्रति भय और भेदभाव के अंकुर फुटे थे।
गोपाल के बंगले में काम करनेवाले छोकरे नायर को फ़ोन पर बुलाकर माधवी ने पूछा, "तुम्हें यह पता है कि नाटक लिखने वाले बाबू मलेशिया जा रहे हैं या नहीं?" पर उसे इस बात का कुछ अधिक पता नहीं था। ज्यादा पूछने पर, 'आप ही पूछ लीजिये कहकर वह आउट हाउस का फ़ोन मिला देगा। ऐसी हालत में वह क्या बोले ओर कैसे बोले। यह भय-संकोच अब भी उसके मन से नहीं गया था।
मुत्तुकुमरन् से घर पहुँचाने की प्रार्थना करके, गोपाल के साथ घर लौटने की अपराधी भावना उसके दिल में कुंडली मारे बैठ गयी थी और बाहर होने का नाम ही नहीं लेती थी! तो बेचारी क्या करे? दूसरे दिन भी तबीयत खराब होने
के बहाने मांबलम की ओर नहीं गयी।
"कोई जल्दी नहीं। तबीयत ठीक होने पर आ जाना । बाक़ी ठीक है।" गोपाल ने तो फ़ोन कर दिया। लेकिन वह जिस फ़ोन की प्रतीक्षा में थी, वह नहीं आया। मुत्तुकुमरन् को फोन करने के लिए वह तड़प उठी। पर भय ने हाथ रोक दिया। वह तो हठ आने बैठा था, फ़ोन क्यों करने लगा!
माधवी को लगा कि उससे बातें किये बिना वह पागल हो जाएगी । 'आउट हाउस' में हाथ भर की दूरी पर फ़ोन होते हुए भी वह कुछ कहता क्यों नहीं ? वह तड़प उठी कि अभी जाकर मुत्तुकुमरन् से क्यों न मिल लूँ ? उन आदेग में वह यह 'भूल गयी कि उसने गोपाल से झूठमूठ का बहाना किया था कि तबीयत ठीक नहीं है। शाम को पांच बजे तक वह अपने मन को काबू में रख पायी । पर साढ़े पांच बजते-न-बजते वह हार गयी और हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलकर चल पड़ी।
बह चाहती तो गोपाल से कहकर कार मँगवा सकती थी। लेकिन टैक्सी पर जाने के विचार से चल पड़ी । जब वह टैक्सी स्टैड' पर पहुंची, तब वहाँ कोई टैक्सी नहीं थी। टैक्सी मिलने में बड़ी देर हो गयी। उस तनाब में उसे लगा कि सिर्फ मुत्तुकुमरन ही नहीं, सारी दुनिया उससे रूठ गयी है। हर कोई किसी-न-किसी बात पर उसी पर गुस्सा उतार रहा है और उसी से बदला ले रहा है। उसे अपने आप पर भी खीझ-सी हो आयी।
धर से अजंता होटलं तक पहुँचते हुए उसने देखा कि रास्ते पर पैदल चलने वाले लोग उसे धूर-घूरकर देखते जा रहे हैं। टैक्सी की प्रतीक्षा में खड़ी रहते हुए, उसे इतनी परेशानी हुई थी कि वह आत्मग्लानि से गड़ गयी थी ।
कद-काठी से ऊँची, गदराय बदन वाली किसी औरत को रास्ते चलते देखकर ही रास्ते पर चलती आँखें उसे निगल जाती हैं। सिने-सितारे जैसी नपे-तुले नाक- नक्श वाली किसी सुन्दरी पर नजर पड़ जाए तो पूछना क्या? नोचकर न खा लेंगी ? माधवी पर भी ऐसी नजरें उठीं कि शरम से वह नज़र ही नहीं उठा पायी।
आधे घंटे के बाद एक टैक्सी मिली। इधर टैक्सी बोग रोड का मोड़ ले रही थी कि उधर गोपाल की कार कहीं बाहर जा रही थी। माधवी ने गोपाल को देख लिया। पर भाग्य से गोपाल ने माधवी को नहीं देखा। माधवी ने टैक्सी को बँगले. के द्वार पर नहीं, आउट हाउस के द्वार पर रुकवाया। 'आउट-हाउस' के झरोखों से बत्ती की रोशनी आ रही थी। भला हुआ कि मुत्तुकुमरन कहीं बाहर नहीं गया था । यहाँ आते हुए जिस झंझट का सामना करना पड़ा था, उसकी पुनरावृत्ति न हो इसलिए माधवी ने टैक्सी को रुकवा लिया।
छोकरा नायर द्वार पर मानो रास्ता रोके खड़ा था। वह बोला, "बाबूजी ने किसी को अन्दर आने को मना किया है।"
माधवी ने आँखें तरेरी तो वह रास्ता छोड़कर हट गया। अन्दर जाते ही वह
हिचककर खड़ी हो गयी।
मुत्तुकुमरन् सामने एक तिपाई पर बोतल, गिलास, सोडा और ओपनर वगैरह लिये डटा था । लगा कि वह पीने की तैयारी कर रहा है।
द्वार पर ही से माधवी ने हिचकते हुए पूछा, "लगता है आपने बहुत बड़ा काम शुरू कर दिया है। मैं अन्दर आ सकती हूँ कि नहीं ?"
"सबको अपना-अपना काम बड़ा ही लगता है !"
"अन्दर आऊँ?" "विक्ष लेकर जानेवालों को इजाजत लेकर आना पड़ता है। बिना कहे-सुने हर किसी के साथ यहाँ-वहाँ-जहाँ कहीं भी जानेवालों के बारे में कहने को क्या रखा ३ "अभी तक आपने अन्दर बुलाया नहीं !" "बुलाना कोई जरूरी है क्या ?"
"तो मैं जाती हूँ !"
"खुशी से ! वह तो अपनी-अपनी मर्जी है !"
पता नहीं, उसने वहाँ से चले जाने की बात किस हिम्मत से उठा दी। लेकिन एक पग भी बाहर नहीं रख सकी। उसकी नाराजगी और बेपरवाही पर वह तड़प उठी। चेहरा लाल हो गया और आँखें गीली हो गयीं। बह जहाँ-की-तहां खड़ी रही।
मुत्तुकुमरन् पीने के उपक्रम में लगा। अचानक अप्रत्याशित ढंग से वह तेजी से अन्दर गयी और झुककर उसके पाँव पकड़ लिये। मुत्तुकुमरन् ने पैरों में आँखों की नमी महसूस की।
"मानती हूँ कि मैंने उस दिन जो किया, ग़लत किया ! मेहरबानी करके मुझे माफ़ कर दीजिये !"
"किस दिन ? क्या किया ? अरे "अचानक यह नाटक क्यों ?"
"मानती हूँ मैंने आपको साथ चलने को बुलाया था और गोपाल की कार में घर चली गयी थी। मैंने यह ठीक नहीं किया। मैं अपनी विवशता को क्या कहूँ ? सहसा मैं उनसे वैर न ठान सकी और न मुंह मोड़ पायी।"
"मैंने तो उसी दिन कह दिया न ? चाहे जो भी साथी मिलें, उनके साथ तुरन्त चल पड़नेवालों के लिए; वह चाहे जिस किसी के भी साथ जाये, इससे मेरा क्या आता-जाता है ?"
"वैसा मत कहिए। पहले मैं ऐसी रही होऊँगी लेकिन अब मैं वैसी नहीं हूँ। आपसे मिलने और परिचय पाने के बाद मैं आप ही को अपना साथी मानती हूँ !"
"••••••"
"मेरा यह अनुरोध तो मानिए ! मेरे सिसकते-बिलखते आँसुओं पर विश्वास कीजिए। मैं दिल से आपको निश्चय ही धोखा नहीं दे रही।"
इतना कहकर उसने अपना सिर झुका लिया। उसके होंठ मुत्तुकुमरन् के पाँव चूमने लगे और आँसू उन्हें धोने लगे । मुत्तुकुमरन् का दिल पसीज गया। उसे भूलने के लिए ही तो उसने मदिरा का आश्रय लिया था ! लेकिन कुछ ही क्षणों में उसने मदिरा को भुला दिया। उसने अपने आँसुओं से उसका दिल इस तरह पिघला दिया था कि उसे इस बात का अब भान ही नहीं रहा कि सामने शराब पड़ी है।
अपने पैरों में पड़ी हुई उसकी केश-राशि और उसकी देह से लिपटी सुगंध में मदिरा से भी अधिक मादकता पाकर वह निहाल हो गया। माधवी के अश्रुपूरित नेत्रों ने उसके हृदय-पटल पर अमिट भाव-चित्र खींच दिये थे।
"आप साथ चलने को तैयार हों तो हम पैदल ही घर चले जायेंगे" ---कहते हुए जो आत्माभिमान था, वह न जाने कहाँ बहकर चला गया?
"आप तनिक शांति से सोचेंगे तो स्वयं जान जायेगे। जव वे कार पास खड़ी करके जिद करने लगे कि चलो चलें.."तो कैसे इनकार किया जा सकता था भला !"
"हाँ, जब किसी का गुलाम हो गये तो अस्वीकार करना मुश्किल ही है !"
"कोई किसी का गुलाम न भी हो तो भी तकल्लुफ़ बरतना पड़ता है !" कहते हुए वह उठी और द्वार पर जाकर नायर लड़के को बुलाया। उसके अन्दर आने पर, मुत्तुकुमरन् की अनुमति के बिना ही उसे बोतल, गिलास वगैरह उठा ले जाने को कहा । यद्यपि लड़का उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सका, फिर भी ज़रा हिवका कि, मुत्तुकुमरन् कहीं मना न कर दे । ऐसा लगा जैसे विना मुत्तुकुमरन् की आज्ञा के वह नहीं ले जायेगा। मुत्तुकुमरन ने मुँह खोलकर कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर वहां वैसा ही मौन छाया रहा।
लगभग पाँच मिनट बाद, मुत्तुकुमरन् ने हाथ से सारी चीजें ले जाने का इशारा किया । लड़का 'ट्रे' सहित सब कुछ उठा ले गया तो माधवी बोली, "यह लत क्यों पालते हैं ? आदत पड़ गयी तो तन्दुरुस्ती खराब हो जायेगी !" "माना कि तुम बड़ी अच्छी आदतों वाली हो और मेरी सारी बुरी आदतों को दूर करने का कौशल जानती हो !"
"नहीं, मैं ऐसा नहीं कहती ! आप मुझे जितना भी बुरा कहें, पर आप मेरे लिए अच्छे हैं !"
"तो कहो कि तुम्हें चापलूसी भी खूब आती है !"
"हाँ, आपके दिल में स्थान जो बनाना है।"
"मुंहजोरी भी कम नहीं आती।"
"आपके सामने मैं डरपोक भी हूँ और मुँहज़ोर भी 1 'एक भ्यान में दो सलवार' वाली कहावत झूठी हो सकती है भला?" याह थोड़ी देर में दोनों सहज-स्वाभाविक हो गये थे। अपने मन की आशंका दूर करने के लिए उसने पूछा, “मलेशिया जाने के लिए पासपोर्ट के कागजात पर हस्ताक्षर कर दिये कि नहीं ?"
"मैं साथ न जाऊँ तो आप लोगों को सुविधा होगी कि नहीं ?"
"यों क्यों दिल छेदते हैं ? आपके साथ जाने पर ही मेरे लिए सहूलियत होगी!"
मुत्तुकुमरन के कानों में मानो शहद की फुहार-सी पड़ी। उसने माधवी के गदराये कंधों को ऐसा दबाया कि वह मधुर-पीड़ा के सुख में चिहुँक उठी और अपनी फूल- माला-सी बांहों से उसे जकड़ लिया। दोनों की साँस जुगलबंदी करके चलने लगी। माधबी उसके कानों में फुसफुसायी-"उस पत्रिका में हमारी तस्वीर छपी थी, आपने देखी?"
"हाँ, देखी ! उसमें क्या रखा है ?"
"तो इसमें क्या रखा है ?"
"इसी में तो सब कुछ रखा है !" उसकी बाँहें और कसने लगीं।
"चलो, बगीचे में चलकर घास पर बैठकर बातें करेंगे !" माधवी ने हौले-से कहा । मुत्तुकुमरन् को लगा कि माधवी डर रही है कि एकाएक कोई यहाँ आ जाए तो क्या हो? लेकिन उसकी बात मानकर उसके साथ वह बगीचे में गया ।
बे जब बगीचे में बैठकर बातें कर रहे थे, तब गोपाल लौट गया था। 'आउट हाउस' में जाकर खोजने के बाद वह वहीं आ गया, जहां वे दोनों बैठे थे। उसके हाथ में भी वही पत्रिका थी।
"देखा उस्ताद ! तुम्हारे बारे में जिल जिल ने कितना बढ़िया लिखा है !"
"वढ़िया क्या लिख दिया? मैंने जो कहा है, सो लिखा है ! अगर कुछ बढ़िया हो तो वह मेरी बात है !"
"अच्छा, तो यह कहो कि तुमने जो कुछ कहा है, वही लिखा है !"
गोपाल की बातों में चुभता व्यंग्य था। उसकी बातों में अभिधा, लक्षणा और 'व्यंजना-तीनों इस तरह घुली-मिली थी कि उन्हें समझने में थोड़ी देर लग गयी। मुत्तुकुमरन माधवी से शादी करना चाहता है इस बात का पुष्टीकरण मुत्तुकुमरन् के मुह से गोपाल चाहता था।
थोड़ी देर तक तीनों खामोश रहे।
"इस साक्षात्कार में छपा चिन भी नया-नया खिंचवाया मालूम होता है !"
गोपाल ने उन दोनों को चित्र दिखाकर पूछा।
पत्रिका में छपे उस चित्र से गोपाल का ध्यान बँटाने के प्रयत्न में माधवी लगी रही।
पर मुत्तुकुमरन ने गोपाल की बातों पर ध्यान दिया ही नहीं। उसने एक तरह से
लापरवाही बरती। दोनों के पास आकर गोपाल का उस तरह बातें करना बड़ा
बचकाना लगा। मुत्तुकुमरन और गोपाल दोनों रुष्ट हो जाएँ तो क्या हो? इस
नाजुक स्थिति को टाल देने का माधवी का प्रयत्न उतना सफल नहीं रहा ।
थोड़ी देर की बातों के बाद, गोपाल ने पूछा, "आज रात को अब्दुल्ला यहाँ से जा रहे हैं। मैं उन्हें विदा करने 'एयरपोर्ट' तक जानेवाला हूँ। आप में से कोई चलना चाहेंगे ?"
मुत्तुकुमरन् और माधवी ने एक-दूसरे का मुंह देखा । गोपाल की बातों का किसी ने उत्तर नहीं दिया। उनको हिचकिचाहट देखकर गोपाल, 'अच्छा ! मैं जा रहा हूँ !' कहते हुए उठा । जाते हुए वह पत्रिका ऐसे छोड़ गया, हो!
गोपाल के जाने के बाद मुत्तुकुमरन् ने माधवी की खिल्ली उड़ाते हुए पूछा, "अब्दुल्ला को विदा करले तुम गयी क्यों नहीं ?"
इतने में छोकरा नायर दौड़ता हुआ आया और बोला, "टैक्सी बड़ी देर से 'वेटिंग' में खड़ी है । ड्राइवर चिल्ला रहा है।"
तभी माधवी को यह बात याद आयी कि अरे वह तो टैक्सी में यहाँ आयो थी और वह बड़ी देर से उसके लिए खड़ी है। उसने मुत्तुकुमरन् की ओर मुड़कर ऐसी दृष्टि फेरी, कि मानो पूछती हो कि अब मैं जाऊँ या और थोड़ी देर ठहरूँ ?"
"टेक्सी खड़ी है तो जाओ। कल मिलेंगे !" मुत्तुकुमरन ने कहा।
वह बुझे दिल से वहाँ से चली मानो और ढेर सारी बातें कहने को रह गयी हों । मुत्तुकुमरन भी बगीचे से चलकर आउट हाउस' में गया ।