यह गली बिकाऊ नहीं/14

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दूसरे दिन सवेरे गोपाल ने माधवी को फोन किया कि वह अपने लिये कुछ रेशमी साड़ियाँ खरीद ले। पांडि बाज़ार में एक वातानुकूलित कपड़े की दूकान में गोपाल का खाता चलता था । नाटक आदि के लिए जो साड़ियाँ खरीदनी होती थीं, माधवी वहीं से जाकर लिया करती थी। बिल वहाँ से सीधे गोपाल के पास पहुँच जाता था।

"दूकान वालों को मैं इत्तिला कर दूंगा कि तुम ग्यारह बजे वहाँ पहुँच रही हो।" गोपाल ने बताया और उसने भी स्वीकार लिया था । अतः जल्दी से नहा[ ९८ ]धोकर, कपड़े बदलकर वह चलने को तैयार हो गयी।

सिंगापुर जाने में कुछ ही दिन बाकी रह गये थे। उसके पहले सारा प्रबन्ध कर लेना था । सीन-सेटिंग जैसे भारी सामान, जो हवाई जहाज से नहीं लिये जा सकते थे, उन्हें साथ लेकर, दो दिनों में दस-पन्द्रह आदमी समुद्री जहाज़ पर जाने वाले थे। हवाई जहाज पर हल्के-फुल्के सामान ही लिये जाने की बात थी । अतः संभव था कि जरूरत से ज्यादा के कपड़े-लत्ते और साड़ियाँ भी जहाज के जरिये ही भेजे जाएँ । इसलिए उसने गोपाल की बात न टालकर जल्दी कपड़े की दूकान हो आने की बात मान ली थी।

गोपाल की नाटक-मंडली को मुत्तुकुमरन् के लिखे हुए नये नाटक के अलावा मलेशिया में एक-दो अन्य सामाजिक नाटक भी मंचित करने की योजना थी। उन नाटकों में कभी बहुत पहले गोपाल और माधवी ने भूमिका की थी। उनकी पुनरा- वृत्ति के लिए भी उन्हें तैयार रहना था ।

हालाँकि अब्दुल्ला ने 'प्रेम एक नर्तकी का'-इसी ऐतिहासिक नाटक के लिए अनुबन्ध किया था, फिर भी, विदेश के नगरों में लगातार इसी नाटक के खेलने में कठिनाइयाँ संभब थीं। इस विचार से बीच-बीच में दूसरे नाटक भी सम्मिलित किये गये। सामाजिक और ऐतिहासिक दोनों प्रकार के नाटकों में माधवी को ही बारी-बारी से नायिका की भूमिका अदा करनी थी। इसलिए उन पात्रों के अनुरूप आधुनिकतम रेशमी साड़ियाँ लेनी थीं । ग्यारह बजे जाने पर भी साड़ियाँ चुनते-चुनते दोपहर का एक तो बज ही जायेगा।

माधवी ने सोचा कि बोग रोड के बँगले पर जाकर, मुत्तुकुमरन् को भी साथ ले जाये तो अच्छा रहे। इसके साथ ही वह इस सोच में पड़ गयी कि मुत्तुकुमरन् कहीं इनकार कर दे तो क्या हो ?

"मालिक ने आपको कपड़े की दुकान पर ले जाने को कहा है।" कहते हुए ड्राइवर सवा दस बजे के करीब गाड़ी के साथ आ गया।

उसके कार में बैठते ही ड्राइवर ने पूछा, “सीधे पांडिं बाजार चलूं ?"

"नहीं ! पहले बँगले पर चलो। आउट हाउस से नाटककार को भी साथ ले जायेंगे।" माधवी ने कहा तो कार बोग रोड की तरफ़ बढ़ी।

उस समय मुत्तुकुमरन् 'आउट हाउस' के बरामदे में बैठकर उस दिन का समाचार-पढ़ रहा था। माधवी कार से उतरकर उसके सामने जा खड़ी हुई तो उसने समाचार-पत्र से सिर उठाकर देखा और पूछा, 'बड़ी खुशबू आ रही है। यह अब्दुल्ला की दी हुई 'सेंट तो नहीं ?"

"अच्छा ! इस खुशबू में इतनी बड़ी तासीर हैं कि देने वाले आदमी का नाम भी बतला दे।"

"अन्यथा मैं उसका नाम कैसे ले पाता?" [ ९९ ]वह कोई उत्तर नहीं देकर मुस्करायी।

"कहीं बाहर जा रही हो क्या?"

"हाँ ! आपको भी साथ ले जाने के विचार से आयी हूँ !"

"मुझे ? मुझे क्यों ? साथ ले जाकर आधी दूर जाने के बाद किसी की कार में बैठकर चल पड़ने के लिए?"

"आपको मुझ पर जरा-सा भी तरस नहीं आता क्या? बार-बार उसी बात की सूई चुभाते हैं !"

"जो होता है, सो कहता हूँ !"

"बार-बार उलाहना देते हुए आपको न जाने क्या मज़ा आता है ?"

"वहीं, जो तुम्हें तंग करने से आता है !

"कहते हैं कि कसूर माफ़ करना भलमनसाहत हैं !"

"समझ लो कि वह भलमनसाहत मुझमें नहीं है !"

"कैसे मान लूं ? यों हठ न पकड़िये । मैं प्रेम से बुला रही हूँ। इनकार कर मेरा जी मत दुखाइये चलिये..."

"उफ़ ! इन औरतों से पार पाना..."

".."बड़ा मुश्किल है !" उसने उसका अधूरा वाक्य पूरा किया।

मुत्तुकुमरन् हँसता हुआ उठा और कुर्ता पहनकर उसके साथ चल पड़ा। द्वार की सीढ़ियां उतरते हुए उसने पूछा, "कहाँ ले जा रही हो?"

"चुपचाप मेरे साथ चलते चलिये तो पता चलेगा।" उस पर अपना रोब जमाते हुए उसने कहा।

दूकान के सामने उतरने के बाद ही, उसे पता चला कि उसे वह कपड़े की दूकान में लायी है।

"ओहो ! अब तो हालत यहाँ तक बढ़ गयी कि जोर-जबरदस्ती खींचकर मुझे कपड़े की दूकान तक लाओ ! भगवान जाने, आगे क्या हाल होगा!" मुत्तुकुमरन् ने दिल्लगी की। माधवी को वह दिल्लंगी अच्छी लगी।

"आप देखकर जो पसन्द करेंगे, उन्हें मैं आँख मूंदकर ले लूंगी।"

"साड़ी पहननेवाला मैं नहीं हूँ ! पहननेवालों को ही अपनी पसंद की लेनी चाहिए!"

"आपको पसंद मेरी पसंद है !"

दूकानवालों ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया।

"गोपाल साहब ने फ़ोन किया था। हम तब से आँखें बिछाये आपकी राह देखे खड़े हैं !" दूकान के मालिक ने बत्तीसी दिखाते हुए कहा।

नीचे बिछी नयी कालीन पर ढेर सारी साड़ियों का अंबार-सा लगा था। मुत्तुकुमरन और माधवी कालीन पर बैठे थे। [ १०० ]
"आप हैं हमारे नये नाटक के लेखक ! बड़े भारी बिद्वान और कवि।" माधवी उसका उन्हें परिचय देने लगी तो मुत्तुकुमरन् ने उसके कानों में फुसफुसाया, "बस, बस! अपना काम देखो!"

ठंडे 'रोज़ मिल्क' के दो गिलास उनके सामने रखे गये।

"इन सबकी क्या ज़रूरत है ?" माधवी ने कहा!"

"आप जैसे ग्राहक बार-बार थोड़े आते हैं !" दुकान के मालिक ने हाथ ऐसे जोड़े कि उँगलियों में फंसी अंगूठियाँ चमक उठीं ।

रेशमी धोती, रेशमी कुरता, पान-सुपारी की लाली से रंगी मुस्कान, मुलायम रेशम को मात करनेवाली चिकनी-चुपड़ी बातें और बात-बात में चमत्कृत करने की कोशिश।

रंग, चमक, किनारी, वनावट आदि में एक से बढ़कर एक बढ़िया साड़ियाँ उनके सामने बिछायी गयीं।

"यह आपको पसंद है?" सुआपंखी रंग की साड़ी निकालकर दिखाते हुए माधवी ने पूछा।

"शुक-सा यूरिकाओं को अपने रंग से मोह हो तो आश्चर्य की क्या बात है ?" मुत्तुकुमरन् होंठों में मुस्कान फेरते हुए बोला।

माधवी साड़ियों से नजर उठाकर मुत्तुकुमरन् को देखते हुए बोली, "हास- परिहास छोड़िये न?"

"साड़ी के बारे में मर्द बेचारा क्या जाने !"

घंटे तक साड़ियों को उलट-पलटकर देखने के बाद माधवी ने दर्जन भर साड़ियाँ चुनीं।

"आप कोई रेशमी धोती लीजिये ना?"

"नहीं !"

"जरीवाली. धोती आए' पर खूब फबेगी !" दूकानदार ने कहा । पर मुत्तुकुमरन ने इनकार कर दिया।

उन्हें लौटते हुए दोपहर के दो बज गये थे । जब वे बंगले पर पहुँचे; तब गोपाल के सेक्रेटरी 'पासपोर्ट' के क्षेत्रीय कार्यालय से पासपोर्ट ला चुके थे। थोड़ी देर में पासपोर्ट सम्बन्धित व्यक्तियों के हाथ सौंपे गये । जहाज पर पहले जानेवाले अपनी यात्रा की तैयारी में लगे थे। सीन, सेट और नाटक के अन्य सामान आदि "जहाज से भेजे जाने के योग्य ढंग से बांधे गये।

कलाकार संघ ने विदाई समारोह का आयोजन भी किया था। गोपाल की नाटक मंडली की मलेशिया यांना के बारे में भड़कीला विज्ञापन निकाला गया। उस . समारोह में जहाज से जानेवाले कलाकारों के साथ गोपाल, माधवी और मुत्तु- कुमरन् भी सम्मिलित हुए थे ! संघ के अध्यक्ष ने गोपाल की मंडली की सांस्कृतिक [ १०१ ]विजय-यात्रा की कामना करते हुए उसकी तारीफ़ के पुल भी बाँधे।

जैसे-जैसे यात्रा के दिन निकट होते गये--वैसे-वैसे घनिष्ठ मित्रों के यहाँ विदाई-दावतों का तांता लग गया। कुछेक में मुत्तुकुमरन् शामिल नहीं हुआ। एक दिन माधवी ने स्वयं जोर दिया कि मेरी अभिनेत्री-सहेली पार्टी दे रही है। आपको उसमें अवश्य शामिल होना चाहिए। पर वह गया नहीं। जिस दिन हवाई जहाज़ की यात्रा थी, उसके पहले दिन रात को माधवी ने स्वयं अपने घर में मुत्तुकुमरन्औ र गोपाल को दावत के लिए बुलाया था।

मुत्तकृमरन् उस दिन शाम को ही माधवी के घर आ गया था। शाम का नाश्ता भी वहीं किया। उसके बाद माधवी और वह दोनों बैठे बातें कर रहे थे।

उस दिन माधवी सुरमई रेशम की साड़ी पहने हुए थी, जिसपर बीच-बीच में ज़री के सितारे चमक रहे थे, जिससे उसकी सुनहली देह की सुन्दरता में चार-चाँद लग गये थे! मुत्तुकुमरन् उसकी मोहिनी सूरत पर मोहित होकर कवित्वमयी भाषा में कह उठा, “अंधकार की साड़ी पहने, विद्युल्लता विचरती हैं, विश्व के प्रांगण में।"

"वाह वाह! क्या खूब! इस पर तो कुबेर का भंडार उड़ेला जा सकता है!"

"सच कहती हो या मेरी तारीफ़ की तारीफ़ में तुम मेंरी तारीफ़ करती हो?"

"सच कह रही हूँ। आपने मेरी तारीफ़ की। बदले में मैंने आपकी तारीफ़ कर दी।"

इस तरह दोनों बातें कर ही रहे थे कि गोपाल का फोन आया। माधवी ने रिसीवर उठाया।

"आयकर के एक मामले में मुझे एक अधिकारी से अभी तुरत मिलना है। मैं आज वहाँ नहीं आ सकता। माफ़ करना!"

"आप भी ऐसा कहें तो कैसे काम चलेगा? आपको जरूर आना है। मैं और लेखक महोदय काफ़ी देर से आपका इन्तजार कर रहे हैं।"

"नहीं-नहीं, आज यह मुमकिन नहीं लगता। मुत्तकुमरन् जी से भी कह देना।"

उसका चेहरा स्याह पड़ गया। फ़ोन रखकर मुत्तुकुमरन् से बोली, "आज वे नहीं आ रहे हैं। कहते हैं, किसी आयकर अधिकारी से मिलना है।"

"जाये तो जाये! उसके लिए तुम उदास होती क्यों हो?"

"उदास नहीं होती! कोई आने की बात कहकर सहसा न आने की बात कहे तो दिल हताश हो जाता है न?"

"माधवी! मैं एक बात पूछूँ! बुरा तो नहीं मानोगी?"

"क्या है भला?"

"आज की दावत में गोपाल आता और मैं नहीं आता तो क्या समझती?"

"ऐसी कोई कल्पना मैं कर ही नहीं सकती!" [ १०२ ]"वैसा हुआ होता तो तुम क्या करती? यही मैं पूछना चाहता हूँ !"

"वैसा हुआ होता तो मेरे चेहरे पर उल्लास की रेखा तक फूटी नहीं होती।

एक तरह से मैं जीवित लाश ही दीख पड़ती।"

"जो भी कहो, गोपाल के न आने से तुम्हें निराशा ही हुई है ।"

"जैसा आप समझें!"

"मेरे आने पर तुम्हारा क्या बड़प्पन रहा ? गोपाल जैसा 'स्टेटस्' वाला कलाकार आता तो तुम्हारा बड़प्पन बढ़ता और अड़ोस-पड़ोस के लोग भी गर्व का अनुभव करते।"

"आप चुप न रहकर मेरा मुंह खुलवाना चाहते हैं। गोपाल जी के न आने का मुझे ज़रूर दुख हुआ है । पर उनके न आने के दुख को आपके आने के सुख ने कोसों दूर भगा दिया है !"

"मुझे खुश करने के लिए यों ही कह रही हो !"

"आप मेरे प्रेम पर सन्देह करें तो निश्चय ही आपका भला नहीं होगा।"

"शाप देती हो मुझे?"

"मैं शाप देनेवाली कौन होती हूँ? आप मेरे साथ जा रहे हैं केवल इसी आश्वासन पर मैं इस यात्रा में सम्मिलित हो रही हूँ !"

"नाराज न होओ। यों ही तुम्हें उकसाकर तमाशा देखना चाहता था।"

मुत्तुकुमरन् ने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा तो उसे यह पूरा विश्वास हो गया कि सच ही वह उसपर मन-प्राण न्योछावर कर चुकी है । दावत से बड़ा उपहार पाकर खुश कौन नहीं होता ? खुशी से वह दावत खाने बैठा।