यह गली बिकाऊ नहीं/7
मुत्तुकुमरन् के विचार यही था कि स्त्रियों की बुद्धि पीठ-पीछे होती है । आखिर उसके विषय में माधवी के मन में संदेह क्यों उठा? इसका कारण एक हद तक वह जानता था । उसके मन में आया कि अपने प्रत्युत्तर से करारी चोट करे।
"तुम जैसे कायरों का काम है यह । मैं क्यों ऐसा करूँगा?"
माधवी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी उँगलियों ने टाइप करना बंद कर दिया। वह चुपचाप सिर झुकाये वैसी ही बैठी रही। उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा । जब वह उसका मौन बर्दाश्त नहीं कर पाया तो तनिक ठंडा होकर बोला, "बताओ तो सही कि क्या हुआ?"
माधवी ने कहा, "अभी आप ने जो कुछ कहा, उसे दुहराइये तो सुनूं !" "मैंने क्या कहा ? कुछ गलत तो नहीं कहा !" "बात क्यों छिपाते हैं ? क्या आपने यह नहीं कहा कि तुम जैसे कायरों का काम है वह !".
"हाँ ! कल रात को तुम्हारे घर से चलले हुए मेरे कानों में तुमने जो कुछ कहा, वह मुझे कतई पसन्द नहीं है।"
"मैंने क्या बुरा कह दिया?"
"तुमने किसी के डर के मारे ही कहा था न कि समुद्र-तट की सैर की बात ..
वहां न कहिएगा!"
"डर और सावधानी में फ़र्क होता है !"
"तुम इन दोनों का फ़र्क मुझे समझा रही हो?"
"जल्दबाजों और तुनुकमिजाजों को कितना भी समझाओ वे समझेंगे नहीं !"
मुत्तुकुमरन् बातचीत के इस रूखे दौर से उकताकर बोला, "बात-बात पर झगड़नेवाले बूढ़े मियां-बीवी की तरह हम कब तक लड़ते रहेंगे?"
यह उदाहरण सुनकर माधवी का गुस्सा काफूर हो गया और वह खिलखिला- कर हँस पड़ी। मुत्तुकुमरन् कुर्सी पर बैठी उसके कंधों पर हाथ रखकर झुकने को हुआ तो माधवी बोली, "चुप भी रहिए, जनाब ! काम करनेवालों से खिलवाड़ ठीक नहीं!"
"यह भी तो काम ही है !"
"पर गोपाल जी ने इस काम के लिए हमें यहाँ नहीं बिठाया ! फटाफट लिखिये ! नाटक जल्दी तैयार करना है। नाटक के प्रथम मंचन में अध्यक्षता के लिए मिनिस्टर से 'डेट' ले लिया गया है !"
"इसके लिए मैं क्या करूँ?"
"यही कि जल्दी लिख डालिए। बाद में अध्यक्षता करने के लिए मंत्री जी नहीं मिलेंगे !"
"इतनी जल्दी ही पड़ी थी तो मंत्री जी से ही नाटक लिखवा लेना चाहिए था।"
"नहीं ! बात यह है कि आज सवेरे आते ही उन्होंने कहा कि इधर-उधर घूमना छोड़कर पहले नाटक लिखवा लो । मंत्री महोदय से अध्यक्षता करने के लिए 'डेट' ले लिया है।"
"ओहो ! तुम यह समझकर मुझ पर नाराज हुई होगी कि 'बीच' पर जाने की बात मैंने ही गोपाल को बतायी होगी ! आज सुबह उठते ही वह मेरे पास आया और हमारे 'बीच' पर हो आने की बात छेड़ी तो मैंने क्या समझा, मालूम ? मेरा शक तो तुम्हीं परं गया कि तुम्हीं ने गोपाल को फोन किया होगा। असल में उसने ड्राइवर से पूछ-ताछ कर यह सब मालूम किया है।"
"वे बातें जाने दीजिए । अपना काम कीजिये !"
"जाने कैसे दूं ? वह भी इतनी आसानी से ? जबकि बात यहाँ तक बढ़ चुकी है।"
"बाद में हम अकेले में बैठकर इन बातों पर विचार करेंगे। अब जिल-जिल' के संपादक कनियळकन् के साथ गोपाल बाबू यहाँ आने वाले हैं । हम सब नाटक के लिए दृश्यावली चुनने के लिए आर्टिस्ट अंगप्पन के यहाँ जा रहे हैं ?"
"गोपाल तुमसे कह गया है क्या?"
"हाँ, अभी थोड़ी देर में वह जिल-जिल के साथ आयेंगे !"
"यह जिल-जिल कौन है ? बरफ़ की कोई फैक्टरी' चलाता है क्या ?"
"नहीं ! 'जिल-जिल' नाम से फ़िल्मी पत्रिका निकालते हैं। अंगप्पन के बड़े दोस्त हैं !"
"और हमारे गोपाल इन दोनों के बड़े दोस्त हैं ! यही न?"
"हाँ ! गोपाल के इशारे पर कितने ही स्टूडियो बाले बढ़िया सीन और सेटिंग तैयार कर देने को तैयार हैं। उन सबको छोड़कर ये अंगप्पन के हाथ सिर दे रहे हैं। वह इन्हें बढ़ा चढ़ाकर तंग कर छोड़ेगा।"
"बह जाये तो जाये ! हमें जाने की क्या ज़रूरत है ?"
"हो न हो, हमें गोपाल बाबू नहीं छोड़ेंगे। साथ लेकर ही जाएँगे !' "मेरे ख़याल में तो हम दोनों को जाने की कोई जरूरत नहीं ! तुम्हारा क्या -- ख़याल है ?"
"वह कुछ अच्छा नहीं होगा ! कल की बात पर ही वे जल-भुन रहे हैं ! आज हम दोनों जाने से इनकार करें तो यह ज़ख्म पर नमक छिड़कनेवाली बात हो जाएगी। इसलिए आपको भी जाना ही चाहिए। अगर आप ह करेंगे तो भी मुझे जाना ही पड़ेगा । नाहक मनमुटाव क्यों बढ़ाएँ ?"
“मगर मैं तुम्हें रोकूँगा तो क्या करोगी?"
"समझदार होंगे तो नहीं रोकेंगे !"
"तो क्या मुझे नासमझ समझती हो?"
"नहीं ! मैं आपकी. हर बात मानने को तैयार हूँ और इस बात पर भी विश्वास करती हूँ कि मुझ पर दबाच डालते हुए मुझे मना नहीं करेंगे और मेरे प्रेम को कसौटी पर नहीं कसेंगे।"
"अच्छा ! फिर तो मैं चलता हूँ। जिल-जिल और अंगप्पन को मुझे भी देखना चाहिए न?"मुत्तुकुमरन् ने उसका मन न दुखाने के विचार से मान लिया तो माधवी ऐसी खुश हुई, मानो अपने आराध्य देवता से कोई अभीप्सित वर पा लिया हो !
"आपकी उदारता पर मुझे बड़ा गर्व होता हैं !"
"मेरी प्रतिभा किसी के आगे नहीं झुकती ! पर तुम्हारे आगे...?" कहते- कहते उसके होठों पर मुस्कान खेल गयी।
इसी समय गोपाल जिल-जिल' कनियळकन के साथ वहां आया और उसका परिचय कराते हुए बोला, "आप हैं 'जिल जिल' के सम्पादक कनियळकु और आप मुत्तुकूमरन्, मेरे बड़े प्यारे दोस्त ! हमारे लिए एक नया नाटक लिख रहे हैं।"
दिसंबर का महीना, सरदी का मौसम ! तिसपर जिल-जिल साहब दिल को ठंडक पहुँचाने पधारे हुए हैं । शायद इसीलिए तन-मन ठिठुर रहा है !" मुत्तुकुमरन् के. मुंख से यह ताना सुनकर माधवी होंठों ही होंठों में मुस्करा पड़ी।
"मुत्तुकुमरन् साहब तो बड़े विनोदी हैं ! बात-बात में हास्य का रस फूटता
है !" जिल-जिल कुछ इस तरह आश्चर्य करने लगा, मानो हास्य पर प्रतिबंध लगे
किसी
टापू
से आ रहा हो।
जिल-जिल के तन पर धोती और कुरता कुछ इस तरह शोभायमान थे, मानो वे शरीर पर नहीं, 'हंगर' पर लटक रहे हो। हाँ, वह बड़ा दुबला-पतला था ! होंठों पर पान की लाली, उँगलियों में सुलगती सिगरेट, हाथों में उससे कहीं भारी चमड़े का बैग लिये और हल्की-सी कूबड़ के साथ वह इस तरह खड़ा था—जैसे कोई प्रश्न-चिह्न !
"इसने कुरता पहना है या कुरते ने इसे पहना है ?" मुत्तुकुमरन् ने माधवी के कानों में कहा तो वह अपनी हँसी नहीं रोक सकी।
"उस्ताद कौन-सा पटाखा छोड़ रहे हैं ? भी तो मालूम हो !"
गोपाल ने पूछा तो माधवी ने किसी नाटक के हास्य की बात उठाकर बात टाल दी।
"कल आपसे मुलाकात कर मैं "जिल-जिल' में एक भेंट-वार्ता छापना चाहता हूँ। गोपाल साहब' बता रहे थे कि आप बड़े 'जीनियस' हैं।" जिल-जिल ने मुत्तुकुमरन् की खुशामद करनी शुरू कर दी।
थोड़ी देर बाद वे चारों आर्टिस्ट अंगप्पन से मिलने चल पड़े।
अंगप्पन की चित्रशाला चिंतातिरिपे में पुराने ढंग के एक मकान में थी। उसके मातहत चार-पाँच नौसिखुवे काम कर रहे थे। मकान की दीवारों पर सूई भर भी ऐसी जगह नहीं बची थी, जहाँ रंग के धब्बे न लगे हों।
भीड़ से बचने के लिए कार को उस मकान से सटकर खड़ा किया गया और चारों उतरकर अंदर चले आये।
"देखा, अंगप्पन ! तुम्हारे द्वार पर कितना बड़ा मशहूर 'ऐक्टर' लिबा लाया।
हमारे तमिल के महाकवि कवर ने मावंडूर चिंगन के बारे में एक कविता लिखी है कि उसके लोहारखाने में आकर त्रिमूर्ति तपस्या करते हैं कि वह एक अच्छी-सी कलम बना दें ताकि कोई महान् कवि उनकी स्तुति में कालजयी स्तोत्र रच दे। वैसे ही तुम पर भी यह लागू हो सकता है । आज ऐसे. ही बड़े-बड़े आदमी तुम्हारे द्वार पर आये जिल-जिल की इन बातों से लगा कि उन दोनों में कितनी घनिष्ठता है !
कानों में खोंसी हुई पेंसिल से खेलते हुए अंगप्पन ने उनका स्वागत किया।
उसके स्वागत-भाषण में बीते जमाने की कन्हैया कंपनी के स्वर्ण युग के रंगीन सुन्दर दृश्यबंधों से लेकर, चितातिरिपेटे में मिलती रही सस्ती 'काफ़ी' की तस्वीरें तक उभर आयी थीं।
"उन दिनों रामानुजुलु नायुडु की कंपनी में बलराम अय्यर नाम के एक सज्जन
थे, जो स्त्री की भूमिका निबाहा करते थे। स्त्री वेश में तो वह हू-ब-हू इन देवी की
तरह नजर आते । उनकी बोली में कोयल क्रूकती और हँसी में मोती झरते।"
अचानक अंगप्पन ने माधवी की प्रशंसा में बेतुकी तुक जोड़ी।
"हमारे गोपाल साहब भी मदुरै के एक बड़ी बाय्स कंपनी में पहले स्त्री की भूमिका ही किया करते थे !" जिल-जिल ने अपने हिस्से की तुकबंदी में भी कोई कसर नहीं रखी।
.. गोपाल को उसकी इस बात से रस नहीं आया, उल्टा गुस्सा ही आया । अपने उस गुस्से पर हास्य पोतते हुए उसने कहा, "लगता है कि जिल-जिल साहब सब कुछ भूल जाएँगे; पर मेरा स्त्री-पार्ट उन्हें नहीं भूलेंगे ! अजी, तुम्हारा दिल हमेशा स्त्रियों पर ही क्यों मँडराता रहा है ?"
माधवी और मुत्तुकुमरन् एक-दूसरे को देखकर मन-ही-मन मुस्कराये।
"मुत्तुकुमरन् साहब मशहूर कविराज की परंपरा के एक बड़े कवि हैं। अब हमारे गोराल साहब की कंपनी के लिए नाटक लिख रहे हैं। गीत-रचना में भी बड़े निपुण हैं !" जिल-जिल की करुणा की धारा भुत्तुकुमरन् पर बहने लगी तो अंगप्पन ने बात का एक छोर पकड़ लिया--"आहा ! वह जमाना अब कहाँ से लौटेगा भला ! जब किट्टप्पा मंच पर आकर 'कायात कानकम्' (पुराने समय का गाना गानें लगते तो सारी सभा झूम उठती । हाय, कैसा गला पाया था उन्होंने ! वह जमाना ही दूसरा था !'
जिल-जिल ने जो कुछ कहा था, उसका गलत अर्थ निकालकर, गायक और गीतकार का फर्क न जानते हुए, अंगप्पन ने किट्टप्पा की तारीफ़ करनी शुरू कर दी. थी। विवश होकर मुत्तुकुमरन् को उसकी बकवास सुननी पड़ी !
बात काटकर गोपाल ने अपनी ज़रूरत के दरबार, नंदन वन, राजवीथि और राजमहल जैसे दृश्यबन्धों की बात चलायी तो अंगप्पन ने अपने पास पहले ही से तैयार कुछ नये 'सोन' दिखाने शुरू किये।
गोपल ने मुत्तुकुमरन् से पूछा कि हमें कैसे-कैसे दृश्यों की जरूरत पड़ेगी? पर उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वह अंगप्पन और जिल-जिल से इस बात में लग गया कि हमें अमुक-अमुक दृश्यों की जरूरत पड़ेगी। मुत्तुकुमरन् को उसका यह बर्ताद पसंद नहीं आया । लेकिन वह चुप्पी साधे रहा। दस मिनट के बाद, गोपाल ने मुत्तुकुमरन् की सलाह दोबारा चाही तो वह बोला, "जो-जो सीन तुम खरीदोगे, उसके अनुसार ही कहानी गढ़ लें तो बड़ा बस्छा रहेगा!"
- उसकी बातों के पीछे जो तीखा व्यंग्य था, उसे समझे बिना गोपाल बोला,
"हाँ, कभी-कभी ऐसा भी करना पड़ जाता है !"
मुसुकुमरन को गुस्सा आया । पर उसे पीकर वह चुप रह गया। गोपाल की बड़ाई करते हुए जिल-जिल ने अंगप्पन से कहा, "अंगप्पन, तुम्हें मालूम हो या न हो, हमारे गोपाल शाहम के इशारे पर कितने ही स्टूडियो वाले 'सीन-सेटिंग' तैयार कर उनके दरवाजे पर भिजवा देंगे। लेकिन हमारे गोपाल बाबू बाय्स कंपनी में काम कर चुके हैं। इसलिए चाहते हैं कि तुम जैसे नाटक-कंपनियों के लिए सीन-सेटिंग तैयार करनेवालों से ही दृश्य खरीदें।"
"हाँ-हाँ, खुशी से खरीदें ! मेरा भी नाम होगा । साथ ही, महालक्ष्मी-सी देवी जी आयी हैं। उनकी कृपा से लक्ष्मीजी की कृपा हन पर बरसेगी !" अंगप्पन बिला वजह माधवी की तारीफ़ में लगा रहा ।
"इसकी आँखों में तुम्हें छोड़कर और कोई नहीं गड़ा मुत्तुकुमरन् ने माधवी के कानों में कहा ।
थोड़ी देर में अंगप्पन के पास जितने नये-पुराने 'सीन' थे, सब देख लिये गये। सौदे की बात बली । अंगप्पन ने आये हुए अभिनेता की माली हालत और मर्यादा को मद्दे-नज़र रखकर भाव बताया। जैसे महल के 'सीन' का मूल्य महल के मूल्य से अधिक बताया, वैसे ही अन्य' सीनों के भी दाम ऊँचे बताये । - गोपाल सोच में पड़कर बोला, "मेरे ख्याल में हम इस दाम में नये सीन 'ऑर्डर' देकर बनवा सकते हैं।"
"आपकी मर्जी ! उसके लिए भी मैं तैयार हूँ!" गोपाल की योजना स्वीकार करते हुए अंगप्पन ने कहा।
नये सीन बनवाने के बारे में फिर से सौदेबाजी हुई। नये सीन बनवाने के लिए अंगप्पन ने जितना समय चाहा, वह गोपाल को मंजूर नहीं था। अतः एक बार फिर उन्हीं बने-बनाये दृश्यों पर मोल-तोल हुआ। जिल-जिल ने दोनों ओर की वकालत कर किसी तरह सौदा तय किया।
उन्हें वहाँ से चलते हुए दोपहर हो गयी थी । एक बज चुका था । जिल-जिल ने उस दिन गोपाल के साथ गोपाल के यहाँ खाना खाया । 'डाइनिंग टेबुल पर गोपाल, जिल-जिल और मुत्तुकुमरन् बैठे तो खाना परोसने को रसोइया आगे बढ़ा। उसे मना करके गोपाल ने माधवी को आदेश दिया कि भोजन वह परोसे।
मुत्तुकुमरन् को यह बात नहीं भायी। उसने चाहा कि माधवी उसके इस आदेश को नकार दे। मुत्तुकुमरन् ने देखा कि गोपाल अधिकार-लिप्सा में अन्धा होकर एक औरत से क्या-क्या काम करा रहा है ! उसी से नायिका की भूमिका, गाना गवाना, टाइप कराना. और अब खाना परोसवाना भी यह अन्धेर नहीं तो क्या है ?
मुत्तुकुमरन ने जैसा चाहा, माधवी वैसा इनकार नहीं कर सकी। वह उत्साह के साथ खाना परोसने लग गयी। माधवी की यह ताबेदारी मुत्तुकुमरन को गंवारा. नहीं हुई। उसका चेहरा उतर गया। जैसे उसकी हँसी उड़ गयी। माधवी ने खाना परोसते हुए मुत्तुकुमरन का यह मनोभाव पढ़ लिया । -गोपाल और जिल-जिल अट्टहास करते हुए खा रहे थे । मुत्तुकुमरन् गुमसुम बैठा खा रहा था । उसका मौन देख कर जिल-जिल ने गोपाल से पूछा, "मुत्तुकुमरन् साहब, हमारी बातों में शामिल क्यों नहीं होते ?"
"वह शायद किसी कल्पना-लोक में उड़ रहे होंगे !"-गोपाल ने कहा। उन दोनों को अपने बारे में बोलते हुए देखकर भी मुत्तुकुमरन् ने मुंह नहीं खोला।
गोपाल ने हाथ धोने के लिए 'वाश बेसिन' तक हो आने की जरूरत को परे रखकर जैसे सुस्ताते हुए यह आदेश दिया कि एक मटका पानी लाओ ! मुत्तुकुमरन् ने समझा कि नायर छोकरा पानी लायेगा। पर यह क्या ? लाल रंग के एक प्लास्टिक बरतन में हाथ धोने के लिए स्वयं माधवी पानी ले आयी थी। वह डाइनिंग टेबुल के पास आकर हाथ में पानी लिये खड़ी हुई और गोपाल वहीं बैठे- बैठे बरतन में ही हाथ धोने लगा । मुत्तुकुमरन का मन क्षोभ से भर गया।
यह खातिरदारी अपने तक सीमित न रखकर गोपाल ने जिल-जिल और मुत्तुकुमरन् से कहा, "आप लोग भी इसी तरह धो डालिये।" जिल-जिल ने इनकार कर दिया। मुत्तुकुमरन् यह कहते हुए उठा कि मुझमें वाश-वेसिन तक जाने की शक्ति अब भी है !
गोपाल के अभिमान को देखकर मुत्तुकुमरन् क्रोध और क्षोभ से भर गया था। भोजन के थोड़ी देर बाद, गोपाल और जिल-जिल चल। । जाते हुए जिल-जिल कहता हुआ गया, "एक दिन आपसे मुलाक़ात के लिए फिर आऊँगा !"
मुत्तुकुमरन् ने मुंह खोलकर कुछ नहीं कहा । सिर हिलाकर विदा कर दिया। फिर आउट हाउस में जाकर अपने काम में डूब जाना चाहा। माधवी अभी नहीं आयी थी। उसे लगा कि भोजन करके आने में कोई आधा घण्टा लगेगा। उसकी प्रतीक्षा में मुत्तुकुमरन् लिखने का कोई काम कर नहीं पाया ।"
यह सोचते-सोचते कि माधवी में यह दास-बुद्धि कहाँ से आयी ? उसकी सहनशक्ति जवाब दे गयी । माधवी तो उसके लिए प्राणों से भी प्यारी थी! गुलामों की तरह वह दूसरों की सेवा करे, यह उसे गवारा नहीं हुआ।
गोपाल को तो चाहिए था कि माधवी को साथ बिठाकर खिलाये ! पर उसने यह क्या किया ? उसने उसे अपना हुक्म बजाने को बाध्य किया था ! उसकी इस महत्त्वाकांक्षा से उसे चिढ़ हो गयी । उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि गोपाल इतना क्रूर और निर्दयी निकलेगा। वह इन विचारों में लगा हुआ था कि माधवी एक हाथ में चाँदी की तश्तरी में पान-सुपारी और दूसरे में फलों की तश्तरी लिये हुए आयो।
"आपके लिए पान-सुपारी लाने अन्दर गयी थी! तब तक आप चल पड़े थे !" "जूठे बरतन उठाने वाले हाथ पान-सुपारी लायें तो मैं कैसे ग्रहण करूँ?" "लगता है कि आप मुझपर नाराज हैं ! मैंने खाते हुए ही देख लिया था !"
"नाराज न होऊँ तो क्या करूँ ? तुम तो गोपाल से बहुत डरती हो !"
"आप मेरी स्थिति में होते तो क्या करते ? पहले सोचिए फिर बताइयेगा।"
"वह घमंड में चूर है तो चूर रहे ! मैं पूछता हूँ, तुम क्यों इतना दबती हो?
खाना परोसना तो एक बात हुई ! पर जूठे बरतन क्यों उठा लायी ?"
"मैं इस स्थिति में क्या कर सकती हूँ ?"
"कुछ नहीं कर सकती हो तो डूब मरो ! गुलाम ही दुनिया में नरक का सृजन करते हैं !"
"सच पूछिये तो मैंने अपने दिल को एक ही व्यक्ति का गुलाम बनाया है। वह भी मुझ पर गुस्सा उतारे तो मैं क्या करूं ?"
"तुमने जिस पर अपना दिल निछावर किया है, तुम्हें चाहिए कि ऐसा काम करो, जिससे उसका सिर ऊँचा हो। न कि तुम्हारे कामों से उसका सिर नीचा हो! पर तुम्हारे काम ऐसे कहाँ हैं ?"
माधवी की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो मुत्तुकुमरन् ने आँख उठाकर देखा। ?
माधवी की सुन्दर आँखें छल छला आयी थीं।
"तुम्हें कहने से कोई फायदा नहीं ! उस बदमाश के कान उमेठकर पूछना चाहिए कि नृत्य और गायन तो अनूठी कलाएँ हैं। उनमें पगे-लगे हाथों से तुमने जूठे बरतन कैसे उठवाये ? तुम्हारा सत्यानाश होगा ! तुम देख लेना एक दिन उसके मुँह के सामने पूछता हूँ कि नहीं ?"
मुत्तुकुमरन् जोश में भरकर चीखने को हुआ तो माधवी की मुलायम उँगलियों ने उसका मुंह बन्द कर दिया।
"दया करके ऐसा कुछ न कीजियेगा। मुझे गौरव प्रदान करने के प्रयास में, आपको अपना गौरव नहीं खोना चाहिए !" माधवी ने सिसकी भरी विनती की मुत्तुकुमरन ने सिर उठाकर देखा । माधवी के नेत्रों से मोती ढुलक रहे थे।