याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद २

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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तीसरा परिच्छेद

मैं हमीदा के आगे फिर परास्त हुआ और निरुपाय होकर हमीदा के उस तोहफे को मैंने स्वीकार किया। मेरी स्वीकृति को सुनतेही हमीदा मारे प्रसन्नता के उछल पड़ी और उसने अपना दहना हाथ मेरे आगे बढ़ा दिया। मैंने बड़े उमंग से उसके हाथ को अपने हाथ में लिया और उसे चूम कर उसकी कृतज्ञता का बदला दिया।

आह! उस करस्पर्श में उस समय जिस अनिर्वचनीय सुख का आस्वाद मैंने पाया था, उसे जिह्वा से मैं किसी भांति भी व्यक्त नहीं कर सकता।

निदान, हमीदा ने भी मेरे हाथ को चूमा और तब फिर वही हमीदा, जो कि पहिले बड़ीही तेजस्विनी, गर्विता, परुषभाषिणी और कुपिता अफरीदी नारी थी, हास्यमुखी, कौतुकमयी, कोमलप्राणा और सरला बालिकाली प्रतीत होने लगी। इतनेही, में, खोह में पर्णशेया की रचना कर और उसके द्वार पर एक छेद में जलती लखड़ी के टुकड़े को खोल कर अबदुल बाहर आया और उसने मुझे भीतर जाकर सो रहने के लिये कहा। उस समय मैं सचमुच बहुत ही थक गया था और भारी शीत के कारण मेरा प्राण ओठों पर नाच रहा था, इसलिये हमीदा को बिदाकर के मैं खोह के भीतर गया और पर्णशैया पर जाकर पड़ गया। यह बात ठीक है कि कभी कभी बहुत परिश्रम करने के बाद जल्दी नींद नहीं आती। सो, मैं भी बहुत देर तक पड़ा पड़ा जागा किया और उस समय न जाने कितनी और कहां कहां की अनाप सनाप बातें मेरे मन में उठने लगीं; किन्तु सभी चिन्ताओं के भीतर मुझे हमीदा ही हमीदा दिखलाई देने लगी। उस समय मैने अपने मन में सोचा कि यदि हमीदा केवल कोमल-स्वाभावा किम्वा केवल परुष-स्वभावा होती तो उसके समान कोमलतामयी किम्वा पाषाणी नारी दूसरी न दिखलाई देती, किन्तु वह तो कठिनता-कोमलता, तेजस्विता-मधुरताः साहस और विनय आदि परस्पर विभिन्त प्रकृति के गणसमूहों की खान है और उन सभों पर उसका देवतादुर्लभ सौन्दर्य तो बहुत ही अनूठा है। ऐसी अवस्था में उसके लिये किस उपमा की अवतारणाकी

[ १८ ]जाय कि जिसने मुझ जैसे नीरस व्यक्ति के कठोर हृदय पर भी अपने अद्भुत प्रभाव को डाल कर मोह लिया! अस्तु, मैंने मनही मन यही सिद्धान्त किया कि यद्यपि हमीदा अफ़रीदी कन्या है, तथापि वह सिंहनीनारी किसीवीरसिंह के ही उपयुक्त और योग्य है। क्योंकि यद्यपि बहुमुल्य माणिक्य भी लोगों की अज्ञात अवस्था में मिट्टी के नीचे दबा रहता है, तो क्या इससे उसकी ज्योति और मूल्य में कभी न्यूनता होती है! और उस अवस्था में, जब कि वह किसी योग्य जौहरी के सामने आपड़ता है!

निदान, यही ऊटपटांग सोचते विचारते मैं कब ऊंघ गया, इसकी मुझे कुछ भी सुधि न रही, क्योंकि मैं बहुत रात तक जागता रहा था, सो एकही नीद में सबेरा होगया और मैने आंखें खोल कर देखा तो जान पड़ा कि दिन अधिक चढ़ आया है! यह जानकर मैं उठने लगा तो क्या देखता हूं कि मेरे हाथ पैर डोरी से जकड़ कर बांध दिए गए हैं और तल्वार, बंदूक तथा लाठी पास से गायब हैं! यह देख कर मैं बड़ा चकित हुभा और सोचने लगा कि यह कैसा उत्पात है! किन्तु उस समय वहां पर कोई न था, जिससे मैं उस अत्याचार के विषय में कुछ पूछता। लाचार, जैसे का तैसा मैं उसी गुफा में पर्णशैया पर पड़ा रहा।

थोड़ीही देर में उस गुफा के द्वार पर कुछ मनुष्यों के बोल सुनाई पड़े और दो मनुष्य भीतर आकर मुझे घसीटते हुए गुफा के बाहर लेगए। बाहर जाकर मैने पांच सात मनुष्यों को देखा, जिनमें वह कृतघ्न और पाजी अबदुल् भी था। यह सब कौतुक देखकर असल बात क्या थी, इसके समझने में मुझे देर न लगी और मैने मनही मन इस बात का निश्चय कर लिया कि यह सारा पाजीपन कमीने अबदुल् का है।

मारे क्रोध के मेरा सारा शरीर थर थर कांपने लगा और मैंने अपनी आंखों से आग बरसाकर उस दुष्ट अदुल् से कहा,-"रे विश्वासघातक, चांडाल, रेरे बेईमान, ऐहसान-फरामोश, कमीने अबदुल्! कल जो मैंने उन गोर्खे सिपाहियों से तेरी जान और तेरे मालिक की लड़की हमीदा की आबरू बचाई और अपनी जान पर खेल और इतना कष्ट सह कर जो तुम लोगों की रक्षा के लिये मैं यहां तक आया, उसका बदला यही है! इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि कल तू उन गोर्खे सिपाहियों के हाथ से मारा गया होता!" [ १९ ] किन्तु मेरी झिड़की याफिटकार से निर्लज अबदुल कुछ भी लजित न हुआ और कर्कश स्वर से बोला,-"जनाब! मैं अफरीदी सर्दार मेहरखां का फ़र्मावर गुलाम हूं, चुनांचे उनके हुक्म की तामीली करनाही मेरा फर्ज है।"

मैंने क्रोध से भभककर कहा,-'पाजी, बेईमान! तु अपने "फर्ज" के साथ ही जहन्नुम-रसीदः हो।"

इसके अनन्तर वे सब मुझे घेर कर खड़े होगए और उनके लक्षण से यही जान पड़ने लगा कि वे मुझे मार डालेंगे। अस्तु, मैंने कड़ककर कहा-"निःशस्त्र बैरी को मार डालना, नीच और असभ्य अफरीदियों के लिये लज्जा की बात नहीं है, किन्तु पाजियो! यदि मैं अभी अपनी तल्वार पाऊं तो अकेलाही तुम सभों को काट कर यहीं ढेर कर दूं।"

यह सुनकर उनमें से एकने कहा,-"साहब! हमलोगों की यह मन्शा नहीं है कि नाहक आपके बदन में हाथ लगावें, क्योंकि जिस तरह आपलोग नाहक आदमी का खून करने पर तुले रहते हैं, वैसा इरादा हमारे सरदार का कभी नहीं है, बस, सिर्फ़ हमलोग आपको कैदी की सूरत में अपने सरदार के सामने लेजाया चाहते हैं। क्योंकि हमारे सर्दार का ऐसाही हुक्म है।"

बस, मैंने समझ लिया कि हाथ पैर बंधे रहने और अपने पास हथियार न रहने की अवस्था में इन पाजियों के हाथ से छुटकारा पाना असंमव है! अतएव मैंने विपत्ति के समय धैर्य का अवलंबन किया और उनलोगों की ओर देखकर पूछा,-'मुझे कितनी दूर जाना पड़ेगा?"

यह सुनकर उनमें से एकने कहा,-"यह बात हमलोग नहीं बतला सकते।"

मैंने कहा,-"तो ऐसी अवस्था में यदि मैं तुम लोगों के साथ न जाना चाहूं, तो?"

उसी अफ़रीदी ने कहा,-"तो सुनिए, आपको ज़िन्दा, या मुर्दा हालत में हमलोगों को अपने सर्दार के पास हाज़िर करनाही पड़ेगा; क्योंकि उनका ऐसाही हुक्म है।"

इसके अनन्तर उन सभों ने अपने अपने हथियार मुझे दिखलाए, जिन्हें देखकर मैंने धीरता से कहा,-'अस्तु तुमलोगों का अभिप्राय मैंने समझा, किन्तु यह तो बतलाओ कि हाथ पैर बंधे रहने के कारण [ २० ]म बिना लाठी के सहारे इस दुरारोह पार्वतीय मार्ग में चलूंगा, क्यों कर!"

इस पर एक व्यक्ति ने कहा,-'सुनिए, एक बेत के दौरे में आपको बैठाकर उससे आपको डोरियों से बांध देंगे। फिर आपकी आंखों पर पट्टी बांध कर दो अफरीदी उसे डोली की तरह उठाकर अपने सार के पास लेचलेंगे। बाकी सिपाही इसलिये आगे पीछे और अगल बगल साथ रहेंगे कि जिसमें आप अगर भागने का ज़रा भी इरादा करें तो फौरन आपकी खोपड़ी उड़ा दी जाय।"

उनकी इस सतर्कता के वृत्तान्त को सुनकर उस अवस्था में भी मुझे हंसी आई और मैंने कहा,-'अस्तु, जो कुछ तुमलोगों ने बिचारा हो, या जैसा हुक्म तुम्हें तुम्हारे दुराचारी सदीर ने दिया हो, तुम लोग वैसा ही करो,--लेकिन इतना तो सोचो कि पास शस्त्र न रहने और यहां के पहाड़ी रास्ते का हाल न जानने के कारण मैं भला, भागने का विचार किस बिरते पर करूंगा?"

वह अफरीदी बोला,-"खैर, इन हुज्जतों से हमें कोई मतलब नहीं है।"

यह कहकर वह एक बड़े से बेत के दौरे को लेआया, जो बड़े भारी डोल की सूरत का बहुत ही दृढ़ बना हुआ था और उसमें ऊपर की ओर बांस लगाने के लिये दो बड़े मजबूत लोहे के गोल कड़े लगे हुए थे। निदान, कई अफरीदियों ने मुझे उठाकर उसी बेत के झांपे में बैठा कर मेरी आंखों पर पट्टी बांधदी और तब आंख रहते भी मैं पूरा अंधा बन गया।

फिर मुझे केवल यही जान पड़ने लगा कि मुझे दो, या चार अफ़रीदी उठाकर पहाड़ की चढ़ाई और उतराई को लांघते हुए बड़ी तेज़ी के साथ किसी ओर को जारहे हैं। उस समय वे सबके सब चुपचाप थे।

दोपहर ढलते ढलते वे सब एक पहाड़ी झरने के पास पहुंच कर उहर गए और मुझे उस झापे में से निकाल और हाथ पैर तथा आंखों को खोलकर उनमें से एक ने कहा,-"साहब! अगर इस मुकाम पर आपको हाथमुंह धोना कुछ जलपान करना, या कुछ नाश्ता वाश्ता करना हो तो कर लीजिए, क्योंकि दो घंटे आराम करके फ़िर हमलोग यहांसे कूच करेंगे और शाम होने से पेश्तर ही अपने सार के पास पहुंच जायंगे।" [ २१ ]यह सुनकर मैं अपने मामूली कामों में लग गया और कपड़े उतार कर हाथमुंह धो और अपने पास की थोड़ी सी मेवा खाकर जलपान किया। इतने में वे सब भी अपने मामूली कामों से छुट्टी पागए और फिर मुझे पूर्ववत उस झापे में डाल तथा आंखो पर पट्टी बांध कर चलपड़े।

कई घंटे चलने के बाद वे सब फिर ठहर गए और मैं भी झांपे से निकाला गया। मेरी आंखों पर की पट्टी और हाथ पैर खोल दिए गए, तव मैंने चारों ओर देखकर समझ लिया कि मैं अफरीदियों की बस्ती में आगया हूं। जहांतक मेरी दृष्टि गई, मैंने देखा कि चारो ओर आकाश से बातें करनेवाले दुरारोह पर्वत खड़े हैं और उनके घेरे में कई कोस का लंबा चौड़ा मैदान है। घास, पात, बेत और बांस के झोपड़े जो हर एक दूसरे से बिलकुल अलग अलग थे, बने हुए हैं और उन्हीं में अफरीदी रहते हैं। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर सैकड़ों अफरीदी नरनारी एकत्र होगए हैं और सभी मुझे अचरज की दृष्टि से देख रहे हैं। वेसब, उनलोगों से, जोकि मुझे कैद कर लेगए थे, मेरे विषय में पछपाछ रहे हैं, जिसके जवाब में वे सब भी कुछ उत्तर देरहे हैं। किन्तु उनसभों की बात चीत में इतने ग्रामीण शब्द मिले हुए थे और उनका उच्चारण इतना द्रुत था कि मैं उनकी भाषा जानने पर भी उस वार्तालाप का बहुत थोड़ा अभिप्राय समझ सकता था, सोभी शब्दद्वारा नहीं, बरन भाव द्वारा। तात्पर्य यह कि वे सब बातें मुझसे ही संबंध रखती थीं और मेरे पकड़े जाने पर सभी प्रसन्न थे।

निदान, संध्या होने से एक घंटे पहिले मैं बहुत ही लंबी चौड़ी एक पहाड़ी बारहदरी में, जोकि बहुत साफ़ और चिकनी थी, पहुंचाया गया और तब मैने जाना कि उस अफरीदी सर्दार का दर्वारगृह या कचहरी यही है। किन्तु उस समय दस बीस अफरीदी अमीर वहां पर उपस्थित थे और सर्दार मेहरखां न था। उन अमींरों से यह जान पड़ा कि कल के दरबार में मुझे हाज़िर करने के लिये सरदार ने हुक्म दिया है और आज रात भर जेलखाने की इजाजत दी है।

इसके अनन्तर वही कमीना अब्दुल मुझे कुछ दूर पर, एक पहाड़ी खोह के पास ले गया और बोला,-"तुम्हारे लिये इसी जेल का हुक्म हुआ है, चुनांचे तुम्हें आज रात भर यहीं रहना होगा।"

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।