याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद १०

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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ग्यारहवां परिच्छेद

कुछ देर तक मैं चुप था, हमीदा भी चुप थी; फिर मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा,

"प्यारी, हमीदा! जिस दिन, उस प्रदोष काल के समय मैंने आततायी गोरखों के हाथ से तुम्हारी रक्षा की थी, उसी दिन, उसी समय में तुम पर मोहित हो गया था, परन्तु इतना साहस नहीं होता था कि मैं अपना प्रेम तुम पर प्रगट करूं। मैंने मनही मन यह निश्चय कर लिया था कि इस प्राण को चुपचाप तुम्हारे अर्पण कर दूंगा और जन्मभर तुम्हारी ही याद में रह कर अन्त में तुम्हारी ही चिन्ता करते करते मर जाऊंगा; परन्तु प्यारी, हमीदा! तुम्हारे प्रत्येक कार्य से ऐसा ज्वलंत प्रेमासव प्रगट होने लगा कि अन्त में मुझे अपना सच्चा प्रेम तुम पर प्रगट कर ही देना पड़ा।"

हमीदा ने कहा,-"तो, प्यारे, निहालसिंह! मैंने भी तुमसे कब अपना 'प्रेम' छिपाया! और सच तो यह है कि जब तुमने उन पाजी ग्रोखों के हाथ से मेरी आबरू बचाई थी, तभी,-ठीक उसी समय, मैं भी तुम पर हज़ार जान से आशिक हो गई थी। तभी तो मैंने इतनी ज़िद कर के अपनी 'याकृतीतख्ती' तुम्हारी नज़र की थी। मैं भी, प्यारे! यही तय कर चुकी थी कि अपना इश्क तुम पर हर्गिज़ ज़ाहिर न करूंगी और तामर्ग सिर्फ तुम्हारी ही याद में इस ज़िन्दगी को बसर कर दूंगी, लेकिन मुझसे भी ऐसा न होसका और आखिर दिल की कमजोरी के सबब वह ज़ाहिर हो ही गया। किसीने सच कहा है कि इश्क और मुश्क की बू लाख छिपाने पर भी नहीं छिपती।"

मैंने कहा,-"इसीसे तो कहता हूं, प्यारी! कि जब परस्पर प्रेम प्रगट हो ही गया और अब अलग होने से प्रत्येक प्रेमी की जानों पर आ बनेगी तो अब क्यों न हम दोनो सदा के लिए एक हो जायं और कभी एक दूसरे से जुदा न हो।"

हमीदा कहने लगी,-"प्यारे! यह तुम्हारा कहना सही है कि जुदाई का सदमा बड़ा बुरा होता है और इसमें आशिकों की जानों पर आ बनती है, लेकिन मैं बहुत ही परीशान हूं कि अब क्या करूं? एक [ ६७ ]ओर तो मुझे इश्क तुम्हारी तरफ़ खैचता है और दूसरी ओर दानिश्मन्दी मुझे अपने बतन की तरफ़ बँधकर अपनी आज़ादी की तरल ख़याल दिलाती है। ऐसी हालत में, मैं निहायत परीशान हूं कि क्या करूं! लेकिन, मैं जहां तक सोचती हूं, यही बिहतर समझती हूं कि चाहे अपने दिल का खून करूं लेकिन अपने वालिद, अपना मज़हब, अपना मुल्क और अपनी आज़ादी हर्गिज़ न छोड़े। ऐसी हालत में, प्यारे निहालसिंह! मैं निहायत मज़बूर हूं और बड़ी आजिज़ी के साथ अब तुमसे रुखसत हुआ चाहती हूं। मैं यह बात कह भी चुकी हूं और फिर भी कहती हूं कि हर हालत में हमीदा तुम्हारी ही रहेगी और अखीर दम तक इसका हाथ कोई गैर शख्स नहीं पकड़ सकेगा।"

मैंने कहा,-"लेकिन, प्यारी, हमीदा! यह कैसा इश्क होगा कि मैं उधर तुम्हारी जुदाई में तड़प तड़प कर अपना दम दूंगा और तुम इधर तनहाई में छटपटाकर अपनी जान खोवोगी। इसले तो यह कहीं अच्छा होगा कि तुम मुझपर और मेरे प्रेम पर भरोसा रक्खो और मेरा साथ न छोड़ो। यह तुम निश्चय जानो कि निहालसिंह के पास इतनी दौलत ज़रूर है कि वह जीते जी तुम्हें किसी बात का कष्ट नहीं होने देगा।"

हमीदा बोली,-"लेकिन, प्यारे! तुम्हारे पास वह दौलत कहां है जिसकी हमीदा को चाह है। यानी आज़ादी! बल इसके अलावे और मैं किसी दौलत की जाहां नहीं हूं। और जो तुमने 'कष्ट' की बात कही, सो तुम्हारे लाथ रहने में जितना आराम मुझे महलों में मिल सकता है, उससे कम चैन जंगल पहाड़ों की झोपड़ी में नहीं मिल सकता। और फिर इन बातों की ज़रूरत क्या है? देखो, सूरज और कमल की और चांद और चकोर की मुहब्बत कितनी दूर रहने पर भी बराबर निभी जाती है!"

मैंने कहा,-"किन्तु जल और मीन की तथा दीपक और पतंग की प्रीति का क्या परिणाम होता है?"

यह सुनकर हमीदा हंस पड़ी और बोली, खैर, तुम मुझे मछली और परवानः समझ कर ही सब्र करो!"

मैंने कहा,-"जब कि तुम्हारे यहां ऐसा अन्याय है तो फिर झख मार कर मुझ सभी कुछ सहना पड़ेगा: किन्तु प्यारी, हमीदा! तुम इतना जुल्म न करो और मेरे खून से अपनी प्यास न बुझाओ।" [ ६८ ]हमीदा,-"लेकिन, निहालसिंह! यह गैर मुमकिन है। देखो, सोचो तो सही, तुम्हारे खातिर मैंने क्या क्या न किया। अपने मुल्क, अपने बालिद, अपनी कौम और अपने मज़हब के बिल्कुल खिलाफ कार्रवाइयां मैंने की। गो, तुम अब मेरे दोस्त हो, लेकिन, मेरे मुल्क, मेरी कौम और मेरे मज़हब के तो तुम पूरे दुश्मन हो। ऐसी हालत में मैंने तुम्हारी तरफदारी करके कितना बड़ा गुनाह किया है! क्या मेरे इन गुनाहों की मांफी होसकती है? हर्गिज़ नहीं: ऐसी हालत में भला अब मैं तुम्हारा साथ क्यों कर देसकती हूं।

मैंने कहा,-"तो क्या अब तुम मुझसे बिदा होकर अपने पिता के पास लौट जाओगी।"

हमीदा:--"हां ज़रूर लौट जाऊंगी और अपना सारा कसूर अपने वालिद पर ज़ाहिर करके उनसे अपने इन गुनाहों की सज़ा लूंगी।"

हमीदा की यह बात सन कर मैं कांप उठा और बोला,-"क्या सारी बातें तुम अपने पिता पर प्रगट कर दोगी,"

हमीदा,-"हां, कुल बातें ज़ाहिर कर दूंगी। यहां तक कि तुम्हारी मुहब्बत और उस पहरेदार के मरवाने का हाल भी छिपा न रक्खेंगी।"

मैंने कहा,-"तो मुझे विश्वास है कि तुम्हाराबाप तुम्हारे अपराधों को क्षमा कर देगा"

हमीदा,-"तुम्हारा ऐसा समझना सरासर भूल है। क्योंकि मेरा बालिद इस मिज़ाज का आदमी नहीं है कि मेरे कसूरों का हाल सुन कर वह मुझे माफ़ कर देगा।"

मैं,-"तो फिर वह कौनसी सज़ा तुमको देगा!"

हमीदा,-"कत्ल की सज़ा, और यही मैं चाहती भी हूं।"

यह सुन कर मैं एक दम थर्रा उठा और कहने लगा,-"हाय, तुम क्या किया चाहती हो!"

हमीदा,-"निहालसिंह! तुह्मारे बगैर मैं जी कर क्या करूंगी! भला, तुम्हारी जुदाई से मेरी जान बच सकेगी! ऐसी हालत में मैं यही बिहतर समझती हूं कि अपने कसूरों को अपने वालिद पर ज़ाहिर कर के उनसे कत्ल की सज़ा पाऊं। और अगर उन्होंने मुझ पर रहम किया, यानी मुझे मुआंफ़ किया और मुझे कल की सज़ा न दी, तो भी मैं अब ज्यादा दिन न जीऊंगी और बहुत जल्द खुदकुशी करके इस इश्क की आग से अपनी रूह को बवा दूंगी।" [ ६९ ]हमीदा की बातों ने मुझे घबरा दिया और मैं यही सोचने लगा कि यह पठानी युवती देवी है कि राक्षसी! निदान, देर तक मैंने उसके साथ अपना सिर खाली किया, पर वह अपने हठ से न हटी और उसने 'ना" से "हां" न किया। अन्त में वह उठी, मैं भी उठा और मेरे गले से वह लपट गई। मैंने भी उसे जोर से अपने हृदय से लगा लिया और परस्पर चौधारे आंसू बहाते हुए एक दूसरे के अधरोष्ठ का खूब चुंबन किया। न जाने वह अवस्था हम दोनों की कब तक रहती, यदि वहां पर की एक झाड़ी में से यह आवाज़ न आती कि,"हमीदा! तेरा कत्ल तो तेरा बाप खुद करेहीगा, लेकिन, तेरे आशिक का खून मैं अभी पीए लेता हूं; क्योंकि हमीदा के दो चाहनेवाले दुनियां में जी नहीं सकते।"

यह आवाज़ सुनतेही हम दोनो एक दूसरे के आलिंगन से अलग हुए और जिधर से वह आवाज़ आई थी, उस ओर अपनी अपनी दृष्टि को दौड़ाने लगे। मैंने और हमीदा ने भी देखा कि उपर्युक्त कटुक्ति का छौंकनेवाला सिवाय पाजी अबदुल के और कोई न था। किन्तु जब तक मैं सह्मलूं अबदुल अपना बरछा तान कर मुझपर झपटा; किन्तु उसके पीछे से एक नौजवान ने झपट कर उसकी गर्दन पर ऐसी तल्वार मारी कि उसका सिर भुट्टासा छटक कर दूर जा गिरा और धड़ भी जमीन में गिर कर तड़पने लगा। यदि उस समय उस अज्ञात नामा नवयुवक ने ऐसी अपूर्व सहायता न की होती तो निश्चय था कि सम्हलने के पहले ही अबदुल मुझे मार गिराता और फिर हमीदा की भी जान कदाचित ब्यर्थही जाती, किन्तु बहुत ठीक समय पर उस नवयुवक ने वहां पहुंच कर मेरी और हमीदा की भी सहायता की।

किन्तु जब धन्यवाद देने के लिये हमीदा और मैं-दोनो उसकी ओर बढ़े तो उस नवयुवक ने हमीदा का हाथ पकड़ कर कहा,"प्यारी, बहिन, हमीदा! मैं तो तुम्हारी अजीज कुसीदा हूं!"

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।