याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद ३

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
[ २२ ]

चौथा परिच्छेद

निदान, मैं बिना कुछ उत्तर दिए ही उस अंधेरी और पथरीली गुफा में घुसा, जिसमें न बिछौना था और न ओढ़ना। अस्तु अपने भाग्य और परमेश्वर पर भरोसा रख कर मैं उसी गुफा में खाली ज़मीन पर बैठ गया और उसके प्रवेशद्वार को अफरीदियों ने पत्थर की चट्टान से बंद कर दिया। उस समय मैं मानो अंधकार-समुद्र में डूब गया था और खोह की पथरीली धर्ती में मारे जाड़े के हाथ पैर ऐंठे जाते थे। उस समय मेरे मन में तरह तरह की तरंगें उठती थीं और यही जान पड़ता था कि बस, अब मैं कल का सूर्योदय न देखंगा और मेरी समाधि इसी अफरीदी-कारागार ही में हो जायगी। किन्तु, फिर भी मैने अपने धैर्य को नहीं छोड़ा था। जगदीशबाबू! न मेरे माता पिता थे और न स्त्री; बस इसी कारण से मुझे कोई चिन्ता न थी, किन्तु उन दुराचारियों के हाथ पशु की मौत मरना पड़ेगा, यह जान कर कभी कभी मेरा कलेजा दहल उठता था।

इसी उधेड़बुन में न जाने कितनी रात बीत गई, इसका ज्ञान उस समय मुझे न था; क्योंकि मैं अंधेरी गुफ़ा में कैद किया गया था। "जगदीश बाबू! यह सुन कर तुम अचरज मानोगे, पर बात सचमुच ऐसी ही थी; अर्थात उस अफरीदी कारागार में भी मुझ पर निद्रादेवी ने बड़ी कृपा की थी और मैंने देर तक नींद का सुख लिया था। किन्तु इस सुख में कितनी देर तक मैं मग्न था, यह मैं न जान सका। एकाएक किसी आवाज़ से मेरी आंखें खुल गई और मैंने हाथ में मशाल लिए हुए एक अफरीदी सिपाही को अपने सामने देखा। वह आवाज़ उसी सिपाही की थी, जिसने व्यर्थ मुझे छेड़ कर मेरी सुख की नींद को खो दिया था।

आखिर, जब मैं नींद से चौंका तो उस सिपाही ने कहा,-"अगर तुम्हें कुछ खाने पीने की ज़रूरत हो तो कहो, उसका इन्तज़ाम कर दिया जाय।"

यह सुन कर मैंने कहा,-"दुराचारी अफ़रीदियों के कारागार में रह कर में उन्हीं बेईमानों के दिए हुए अन्त जल से अपनी भूख प्यास [ २३ ]बुझाना नहीं चाहता।"

सिपाही,-"खैर, तो यह तुम्हारी खुशी!"

यों कह कर जब वह सिपाही जाने लगा तो मैंने उसे ठहराया और हमीदा की दी हुई उसी 'याकूती तख्ती' को अपने गले से उतार उसके हाथ में दिया और कहा,-"क्या तुम इसे पहचानते हो कि यह क्या चीज़ है?"

यह सुन कर उस सिपाही ने उस तख्ती को ले कर और मशाल के उजाले में उसे खूब उलट पलट के देख कर चूम लिया और मेरी ओर आंखें गुरेर कर कहा,-"ओफ़! यह तुम्हारा ही काम था! अफ़सोस! तुम चोरी भी करते हो!

इस विचित्र शब्द को सुनकर मैने कहा,-"ऐं! चोरी का शब्द तुमने किस अभिप्राय ले कहा!"

उस सिपाही ने कहा,--"अय काफ़िर चोट्टे! यह तख्ती मेरे सर्दार की लड़की की है। आजही हमलोगों को यह मालूम हुआ कि यह चोरी होगई है। लेकिन बड़ी ख़ुशी की बात है कि यह माल बड़ी आसानी से बरामद होगया, जिसकी वजह से में मालामाल होजाऊंगा।"

मैंने कहा,-"यह तुमने किससे सुना कि यह तख्ती चोरी होगई है?

सिपाही,-"यह मैं नहीं बतला सकता।"

मैं,-"किन्तु यह तो तुम सोचो कि यदि मैने यह तख्ती चुराई होती तो तुम्हें मैं इसे दिखलाताही क्यों? और यह भी बात सोचने की है कि जबसे मुझे अफ़रीदी सिपाही कैद करके यहां लाकर बंद कर गए हैं, तबसे भला मैंने इस तख्ती के चुराने का अवसर ही कब पाया?"

सिपाही,-"तो तुमने अगर यह तख्ती नहीं चुराई तो यह तुम्हारे पास, आख़िर आई ही कैसे?"

मैंने सोचा कि इसके ठीक ठीक उत्तर देने में हमीदा की सारी बातें कहनी पड़ेगी, जिन्हें एक सिपाही के आगे प्रगट करना मैंने उचित न समझा; अतएव मैंने कहा,-"तुम्हारे इस सवाल का जवाब मैं नहीं दिया चाहता।"

इस पर उस सिपाही ने कहा,- ठीक है, तभी तो तुम चोरी की इल्लत में गिरफ्तार करके यहां लाए गए हो, और इस कसूर में अजब नहीं कि तुम्हें कल फांसी दी जाय, या जल्लाद की तेज़ [ २४ ]तल्वार तुम्हारे गले पर पड़े।"

मैंने कहा,-"खैर, जो होगा, देखा जायगा। बस, तुम इस तख्ती को लाओ, मेरे हवाले करो।"

सिपाही,-"अब यह तख्ती तुम्हें लौटाई न जायगी। क्योंकि इस पर तुम्हारा कोई हक जायज़ नहीं है और माल बरामद होनेपर वह फिर चोट्टे को लौटाया नहीं जाता।"

निदान यों कहकर वह सिपाही उस तख्ती को लिए हुए उस खोह के बाहर चला गया और बाहर जाकर उसने फिर उस कंदरा के द्वार को बंद कर दिया। मैं पुनः अंधकार-समुद्र में डूबने उतराने लगा और इस बात पर सोच बिचार करने लगा कि यह तख्ती तो हमीदा ने मुझे दी थी, फिर इसके चोरी जाने की बात कैले फैलाई गई! ओह, क्या हमीदा ने मुझसे उस उपकार के बदले ऐसा विश्वासधात किया!

मैंने ऐसा सोचा तो सही, पर इस बात पर मेरा विश्वास न जमा और मेरे मानसपटल पर हमीदा सर्वथा निर्दोष हीदिखलाई देने लगी। तब मेरा ध्यान अबदुल पर गया। इस बात पर चित्त ने भी पूरा विश्वास कर लिया कि यह सब उसी हरामज़ादे का कमीनापन है। किन्तु इस का तत्व तब तक मैं नहीं समझ सका था कि मेरे उस उपकार के बदले में अबदुल ने ऐसा नीच प्रत्युपकार किसलिये किया!

अस्तु, इन्हीं बातों को देर तक मैं सोचता रहा, पर सुन्दरी हमीदा पर फिर मुझे मुतलक संदेह न हुआ। किन्तु क्यों न हुआ? इसका यही कारण है कि प्रायः स्त्रियां विश्वासघातिनी नहीं होती, चाहे पुरुषजाति कैसीही कृतघ्न क्यों न हो।

निदान, देरतक में अपनी इसी उधेड़बुन में लगा था कि इतने ही में पुनः उस गुफा का द्वार खुला और मशाल का उजला भीतर आया। यह देख कर मैं सावधान हो बैठा और आनेवाले की राह देखने लगा। तुरंतही हाथ में एक छोटी सी मशाल लिए हुए हमीदा मेरे सामने आ खड़ी हुई।

उस समय वह सफ़ेद पोशाक पहरे हुई थी, उसके एक हाथ में बरछा कमर में कटार और दूसरे हाथ में वही छोटीसी मशाल थी। उसके मुखड़े से वीरता चुई पड़ती थी और कदाचित क्रोध के मारे उसकी आंखें लाल होरही थीं। [ २५ ]हमीदा मेरे सामने आकर खड़ीही हुई थी कि उसके पीछे वह सिपाही भी वहां आकर खड़ा होगया, जिसे मैंने वह याकूती तख्ती दी थी। उसके हाथमें भी एक मशाल थी। सो उसे अपने पीछे देख, हमीदा ने उससे कहा,-"तू बाहर जाकर खड़ा रह और जबतक मैं यहां रहूं कोई भी इस खोह के अंदर आने न पावे।"

इसपर “जो हुक्म हुजूर,"यों कहकर सिपाही उस खोह के बाहर चला गया और मैं हमीदा की ओर और वह मेरी ओर देखने लगी। मानो उस समय दोनो ही यही सोच रहे थे कि पहिले कौन बोले और बातों का सिलसिला किस ढब से प्रारंभ किया जाय! किन्तु जब देर तक मेरा गला न खुलातो हमीदा पत्थर की दीवार के छेद में अपने हाथ की मशाल खोसकर मेरे सामने जमीनही में बैठ गई और बोली, अय जवांमर्द बहादुर! बड़े अफ़सोस का मुकाम है कि मुझ कंबख्त के पीछे आप बड़ी आफत में फसे! आह! मेरी आबरू बचाकर और मेरी ही हिफ़ाज़त के लिये मेरे साथ आकर आप बहुत ही बड़ी मुसीबत में गिरफ्तार हुए। मतलब यह कि इस वक्त मैं आप को जिस हालत में देख रही हूं यह सिर्फ मेरीही बदौलत आप को नसीब हुई है! अफसोस, अफ़सोस! अब मैं आप को अपना कालामुह क्योंकर दिखलाऊं और कौन से लफ़जों में आपसे माफ़ी मांगू!"

उस सुन्दरी के ऐसे आर्द्र और सहानुभूतिसूचक वाक्य से उस कारागार में रहने पर भी मेरा रोम रोम हर्षित होगया और मैंने बड़ी गंभीरता से कहा-" बीबी हमीदा! इस विषय में क्षमा मांगने की क्या आवश्यकता है! अतएव मेरे लिये तुम अपने जीमें कुछ दूसरा विचार न करो और सचजानो कि मुज्ञपर जो कुछ आपदाएं आई हैं, वे सब मेरे कर्मों का फल है! इस में तुम्हारा कोई अपराध नहीं है मेरे मनमें तुम्हारे ऊपर कोई दूसरा भाव नहीं है!"

यह सुनकर हमीदाने कहा,-"शायद आप अपनी इस आफ़त की जड़ मुझे ही समझते होंगे!"

हमीदा की यह बात मुझे बहुतही कडुई लगी! और इसे सुनकर मैने बड़ी कड़ाई के साथ कहा,__

"मैं उतना नीच नहीं हूं, जितना कि तुम मुझे समझ रही हो! अफ़सोस का मुकाम है कि अफ़रीदी कुमारी मेरे हृदय के निर्मलभाव के समझने में सर्वथा असमर्थ है! हमीदा! तुम मुझे ऐसाही नीच

[ २६ ]समझती हो कि मैं तुम पर संदेह करता होऊंगा!"

मेरी बातों को सुनकर वह सरलहृदया, बीरनारी, हमीदा बहुतही प्रसन्न हुई और मेरे हाथ को पकड़ कर बड़े स्नेहसे कहने लगी,-"सच कहो, क्या तुम्हारे मनमें मुझपर तो कोई संदेह नहीं है!"

मैंने कहा,-"हमीदा! तुम निश्चय जानो, मैं तुम्हें वैसीही आदर की दृष्टिसे देखरहा हूं, जिस दृष्टिसे कि तुम मुझे देखरही हो! बस, तुम अपने कलेजे पर हाथ रखकर मेरे जीकाभी भाव समझलो।"

हमीदा,-"तो सचमुच तुम मुझे बेकसूर समझते हो!"

मैने कहा, "हमीदा! यह तुम क्या कह रही हो तुम सच जानो कि मेरे चित्त में तुम्हारे ऊपर कोई संदेह नहीं है।"

हमीदा- “अब मैं बहुत खुश हुई, लेकिन यह आफत तो तुमपर मेरेही सबब से आई!"

मैंने कहा,-"नहीं, कभी नहीं; तुम तो मुझे लौट जाने के लियेही बराबर कहती रहीं, किन्तु मैंने बलपूर्बक तुम्हारे साथ आने का हठ किया था। अतएव तुम इस विषय में बिल्कुल निरपराधही और मैं केवल अपने कर्मों का फल भोग रहा हूं। हमीदा! जिनकी दृष्टि केवल स्वार्थ के ऊपर लगी रहती है, उनसे कभी परोपकार होही नहीं सकता। अतएव यदि मैं विपद से भयभीत होता तो तुम्हारे मना करने पर भी कदापि तुम्हारे साथ न लगता। यद्यपि यह बात मुझे न कहनी चाहिए, पर लाचारी से कहना पड़ता है कि मैं बीरता का अभिमान करता हूं और इसलिये मेरे आगे संपद और बिपद दोनों बराबर हैं; अतएव मैने जानबूझकर इस विपद-सागर में अपने को डाला है, इसलिये तुम इसका कुछ सोच न करो।

"सन्दरी, हमीदा, मैंने सुना है कि तुम्हारे पिताने मुझे कल दरवार में हाज़िर करने की आशा अपने सिपाहियों को दी है। बस, कल वह अफ़रीदी सर्दार देखेगा कि एक सिक्खबीर किस दिलेरी के साथ मृत्यु को आलिङ्गन करता है!परन्तु, सर्दारपुत्री! तुम जो इतना कष्ट उठाकर इतनी रातको इस कैदी के साथ अपनी हमदर्दी ज़ाहिर करने आई हो, इसलिये यह तुम्हे सच्च जी से असंख्य धन्यवाद देता है।"

मेरी बातें सुनकर उस सुन्दरी ने एक लंबी सांस बँची और गदराई हुई आवाज़ से इस प्रकार कहा,--

"अजनबी बहादुर! मैंने तुम्हारे साथ ऐसी कोई भी नेकी नही [ २७ ]की है कि जिसके एवज़ में तुम मेरा शुक्रिया अदा करो। लेकिन खिलाफ इसके तुमने मेरे साथ बहुत बड़ी भलाई की और मेरेही सबब से तुम कैद किए गए। अफ़सोस! इस बात का खयाल जब मुझे होता है तो मेरे कलेजे का खून उबाल खाने लगता है और गुस्से व शर्म के मारे यही जी चाहता है कि बस फ़ौरन अपने तई आप हलाक कर डालूं! मगर खैर, देखा जायगा!

मैंने कहा,-"हमीदा! तुम मेरे तुच्छ प्राण के लिये व्यर्थ इतना पछतावा कर रही हो!"

उसने कहा--"बस, चुप रहो, और मुझे जियादह शर्मिन्दा न करो। लेकिन याद रक्खो कि मैं उसी दिन खुदा के सामने अपना मुंह दिखलाने काबिल हूँगी, जब कि तुम्हें इस कैद से छुटकारा दिलाकर तुम्हें खुशी खुशी अफ़रीदियों की सहद के बाहर कर सकूँगी। लेकिन खैर, इस बक्त इन बातों की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं देखती हूं कि थकावट और भूख प्यास के सबब तुम बहुत काहिल हो रहे हो, इसलिये मैं चाहती हूं कि पहिले तुम्हारे खाने पीने का बंदोबस्त करना चाहिए।"

मैने कुछ रुखाई के साथ कहा,-मैं बैरियों के यहां कुछ न्योता जीमने केलिये नहीं बुलाया गया हूं, इसलिये मैं भूखप्यास का कष्ट सहलूंगा पर अत्याचारी अफरीदियों की कैद में मैं अन्न जल का स्पर्श भी न करूंगा।"

मेरी बातें कदाचित हमीदा के कोमल हृदय में तीर सी लगी, जिससे वह ज़रा तलमला उठी और कुछ देरतक सिर झुकाए हुए धर्ती की ओर देखती रही। फिर उसने मेरी ओर देखा और उदासी के साथ यों कहा,-"अय बहादुर, जवान! मुझमें अब इतनी ताक़त बाकी नहीं रह गई है कि मैं तुम्हारी मर्जी के खिलाफ़ कुछ भी कर सकूँ। गो, तुम इस बात का यकीन न करो, लेकिन खुदा जानता होगा कि मैं तुम्हारी दुश्मन नही हूं, बल्कि आपकी दोस्त और भलाई चाहने वाली हूं। मेरे वालिद और सारे के सारे अफ़रीदी बेशक तुम्हारे जानीदुश्मन हैं, लेकिन तुम्हारे दुश्मन की दुख्तर होने पर भी मैं इसवक्त तुम्हें अपना दोस्त समझ कर इस बात की आर्जू रखती हूं कि तुम मेरे न्योते को कबूल करोगे और इस बात से इनकार कर मेरी दिल शिकनी न करोगे। मैं समझती हूं कि मेरी आर्जू मान [ २८ ]लेने से तुम्हारी बहादुरी में कोई धब्बा न लगेगा, और तुम्हारे ऐसा बहादुर शख्स एक औरत के न्योते से इनकार करके उसके नन्हे से दिलको न दुखाएगा।"

जगदीशबाबू! हमीदा ने उस समय जिस सरलता से ये बातें कही थीं, उसमें कुछभी बनावट कहीथी, अतएव उसकी उस बिनती की मैं उपेक्षा न कर सका और बोला,-"सुन्दरी। यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो मैं सबभांति तयार हूं।"

यह सुनते ही हमीदा उठकर उस कारागार के द्वारपर चली और वहां पर खड़े हुए पहरेदार से कुछ कह कर तुरंत लौट आकर फिर मेरे सामने बैठ गई। थोड़ी ही देर में वह सिपाही एक सुराही ठंढ़ाजल एक गिलास शर्वत कटोराभर दूध, कई रोटियां, मेवे, फल और शराब लाकर और मेरे सामने रखकर बाहर चलागया। मैं भूखा प्यासा तो था ही सो खूब पेट भर मैंने भोजन किया, पर शराब को बिल्कुल न छुवा। मैंने हमीदा से भी अपने साथ खाने के लिये कहाथा, पर उसने इस ढंग और बिनती से उस समय इस बात को अस्वीकार किया कि फिर मैने उससे विशेष आग्रह करना उचित न समझा।

जब मैं खा पी चुका तो हमीदा के सीटी बजाने पर वही सिपाही आकर जूठे बर्तन उठा लेगया और एक खब मोटा कंबल देगया! वह कंबल दो अंगुल मोटा था और इतना लंबा चौड़ा था कि जिसे बिछा कर बीस पच्चीस आदमी सो सकते थे। सो मैंने कंबल को बिछाया और उसपर हमीदा भी बैठी और मै भी बैठा।

हाथ की मशाल हमीदाने एक छेद में खोंस दी थी, उसीके धंधले उजाले में मैं उसके सरलतामय मुखड़े को देखकर उस कारागार में भी किसी अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करता था।

हमीदा कहने लगी,-"तुम मेरे सिपाहियों के हाथ क्योंकर या कहां पर गिरफ्तार हुए, इसका मुझे अबतक ठीक ठीक हाल नहीं मालूम हुआ। मैंने अभी तुम्हारी गिरफ्तारी का हालसुना, लेकिन वह अधूरा था इसलिये तुम मेहरबानी कर के इसका खुलासा हाल मुझे सुनाओ।"

इस पर मैंने अपने पकड़े जाने का सारा हाल उसे सुनाया, जिसे सुन कर वह बहुत ही क्रुद्ध हुई और कहने लगी,-"ओफ़! यह पाजीपन उसी नुत्फेहराम अबदुल का है! अफ़सोस! उस हरामजादे ने बड़ी दगा की! खैर, मेरा हाल सुनो,-मैं तुम से बिदा हो कर अबदुल [ २९ ]के साथ इस ओर को चली आती थी कि थोड़ीही दूर जाने पर मुझे दस बारह आदमी मिल गए, जो मेरे वालिद के नौकर थे, और मेरीही खोजके लिये भेजे गए थे। खैर, तब मैं तो दो तीन आदमियों को साथ लेकर इधर आइ और बाकी आदमियों को साथ लेकर और किसी ज़रूरी काम का बहाना करके बदज़ात अबदुल दूसरी ओर चला गया। अफ़सोस। मैं यह क्यों कर जान सकती थी कि यह हरामजादा इसी ज़रूरी काम के लिये जा रहा है! वरन मैं हर्गिज़ उसे अपनी नज़रों से दूर न करती और सुबह होने पर तुम बे खटके अपने पड़ाव पर पहुंच जाते। अफ़सोस। तुमने अबदुल के साथ जैसी नेकी की थी, उसी का एवज़ उसने इस बदी से अदा किया।"

मैंने कहा,-"निस्सन्देह, अब्दल की दुष्टता के कारण ही मैं बंदी हुआ। यह बात मैंने उसी समय समझ ली थी, जबकि उसे मैने अपनी गिरत्फारी के वक्त बड़ी मुस्तैदी के साथ मौजूद देखा था। किन्तु इसका कारण मेरी समझ में अभी तक न आया कि उस कमीने ने मेरे साथ भलाई के बदले ऐसी बुराई क्यों की?"

यह सुनतेही हमीदा का चेहरा लाल हो गया और मानो उसने किसी लज्जा के कारण अपना सिर झुका लिया हो! देर तक वह सिर झुकाए हुए कुछ सोचती रही, फिर उसने सिर उठाकर मुझसे आंखें मिलाई और इस प्रकार कहना प्रारंभ किया,-"शायद अब्दुल के इस कमीनेपन की वजह तुम नहीं जानते, लेकिन मैं इसका सबब बखूबी जानती हूं। मैं यह बात तुम पर कभी ज़ाहिर न करती, लेकिन अब उसका ज़ाहिर करनाही मैं मुनासिब समझती हूं। मैने जो तुम को अपनी मुहब्बत की निशानी वह तख्ती दी थी, शायद उसे अब्दुल ने देख और मेरी बातों को सुन लिया होगा। बस, यही वजह है कि तुम पर मेरी मुहब्बत जान कर वह कंबख्त दिलही दिल में जल भुन कर कबाब हो गया और तुम्हारी जानका गांहक बनगया। इस वक्त मैं शर्म को दूर रखकर तुमसे साफ़ कहती हूं कि यह पाजी अब्दुल मेरे इश्कमें दीवाना हो रहा है, यह बात मैं जानती हूं, लेकिन आजतक मारे खौफ़ के वह अपनी जवान से इस बारे में कुछ भी जाहिर नहीं कर सका है। मैं उसे मुतलक नहीं चाहती, लेकिन जब कि उसने तुमपर मेरी मुहब्बत देखी, तो वह जीहीजी में बहुतही कुढ़ा और जलभुन कर उसने यह बद कार्रवाई की। ऐसा करने से उसने यही [ ३० ]नतीजा निकाला है कि अगर इस कार्रवाई से वह मेरे बापको खुश कर सके तो मेरे पाने की दर्खास्त करे! लेकिन मै उसपर थूकूगीं भी नहीं, मुहब्बत करना तो दूर रहा; ऐसी हालत में मेरा वालिद मेरी मर्जी के खिलाफ़ हर्गिज़ कोई कार्रवाई न करेगा। इसी सिपाही की ज़बानी, जिसे तुमने यह तख्ती दिखलाई थी और जो मेरे पास इसे लेगया था, मैंने तुम्हारी गिरफ्तारी का हालसुना कि तुम्हें अबदुल ने इसी तख्ती के चुराने के कुसूर में गिरफ्तार किया है और यहां पर इस बात को उसने हर खासा आप में बड़ी सरगर्मी के साथ मशहूर किया है।"

मैंने कहा,-"किन्तु, हमीदा बीबी! मैंने तो वह तख्ती इसीलिये उस सिपाही को दिखलाई थी कि जिसमें वह मुझे छोड़ दे और मैं यहां से चलाजाऊं। क्योंकि उस तख्ती का यही गुण तो तुमने बतलाया था! यदि मैं ऐसा जानता कि उस तख्ती के दिखलाने से इतना उपद्रव होगा तो मैं उसे कभी न दिखलाता।'

हमीदाने कहा,-"मुझे इस बातपर पूरा यकीन था कि इस तख्ती के बदौलत तुम सब आफ़तों से बचकर अफरीदी सिवाने से पार होजाओगे, लेकिन तुम्हें तख्ती देने का हाल कंबख्त अब्दुल ने जान लिया, इसीसे उस सिपाही नेतख्ती देखकर भी तुम्हें न छोड़ा और ऐसी हालत में जब कि तुम कैद होकर यहां तक लाए जा चुके थे। अगर तुम तख्ती को इस वक्त उस सिपाही को नभी दिखलाते, तौ भी दरबार में तुम्हारी तलाशी जुरूर लीजाती और उस वक्त तुम्हारे पास से वह तख्ती ज़रूर बरामद होती। इससे तो कहीं अच्छा हुआ कि तुम उस चोरी के इल्ज़ाम से बिल्कुल बेलाग बचगए और मेरी तख्ती मेरे पास पहुंचगई। अब अगर अबदुल या वह सिपाही, जिसने यह तख्ती तुमसे लेकर मुझे दी थी, तुमपर तख्ती के चुराने का इल्ज़ाम लगावेंगे भी तो मैं उनदोनो को बिल्कुल झूठा साबित कर दूंगी और अपने बाप को दिखला दूंगी कि मेरी तख्ती मेरे गले में मौजूद है और यह कभी मुझसे जुदा नहीं हई थी।"

मैंने कहा,-"किन्तु, हमीदा मुझ पर चाहे जैसी विपत्ति आती पर मैं कदापि तुम्हारे उस 'प्रेमोपहार' (तख्ती) को अपने पाससे दूर न करता और सिपाही को वह तख्ती कभी न दिखलाता यदि मैं जानता कि यह इस तख्ती को फिर मुझे न लौटावेगा। खेद है कि तुम्हारे 'प्रेमोपहार' की रक्षा मैं न कर सका।" [ ३१ ]यह सुनकर हमीदा फड़क उठी और उसने हंसकर कहा,-"प्यारे दोस्त! तुम्हारी दिलेरी और कदरदानी की बात सुन कर मैं निहायत खुश हुई। बाकई, मैने अपनी मुहब्बत की निशानी (वह तख्ती) किसी एहसानफरामोश नालायक को नहीं दी थी। लेकिन, दोस्त! यह अच्छा हुआ कि इस वक्त ऐसे खतरे के वक्त तख्ती तुम्हारे पास से मेरे पास चली आई। बस, कल जब दरबार में तुम चोरी के कसूर से बरी होकर जाने लगोगे तो यह तख्ती मैं फिर तुम्हें पहिनाकर बिदा करूंगी। असोस! काफ़िर, बदजात, झुठे, बेईमान, हरामजादे, खुदगरज, एहसानफरामोश और पाजी अबदुल ने जिस गरज़ से तुम्हे इतना परीशान किया है, उस कंबख्त की यह आ ताकयामत हर्गिज पूरी न होगी, क्योंकि जैसी बदज़ाती उस बेईमान अबदुल ने की है, अगर सुलतान-ई-रूम भी वैसी हर्कत करके हमीदा के दिलपर कबज़ा किया चाहेतो यह (हमीदा) उसपर भी कभी न थूकेगी। क्योंकि मैं जितनी कदर बहादुरी और सिपहगरी की करती हूं बेईमानी, खुदगरजी और एहसानलरामोशी से उतनी ही नारत भी करती हूं। बस, कल तुम कह देना कि मैंने तख्ती नहीं चुराई।"

मैंने कहा,-"हां, तो मैं अवश्य कहूंगा, किन्तु मैं तुमसे उस तख्ती के पाने और उस सिपाही के दिखलाने से इनकार कदापि न करूंगा।"

हमीदा,-(घबरा कर) "आह! तब तो तुम सब मिट्टी कर दोगे इसलिये मस्लहत यही है कि तुम उस तख्ती के पाने या उस सिपाही को देनेसे बिल्कुल इनकार करो।"

मैंने कहा,-"हमीदा! हाय, यह तुम्हारे जैसी बोरनारी के मुंह से यह मैंने क्या सुना! हाय, इस तुच्छ प्राण के बचाने के लिये तुम मुझे झूठी हलफ़ उठाने की सिक्षा देतीहो! किन्तु सुन्दरी! तुम निश्चय जानो कि सिक्खवीर जितना झूठ से डरते हैं उतना मृत्यु से कदापि नहीं डरते, वरन उसे महातुच्छ समझते हैं।"

मेरी यह बात सुन कर हमीदा मारे खुशी के उछल पड़ी और कहने लगी,-"जानिमन सलामत! ऐसा तुम हर्गिज़ मत समझना कि हमीदा दिलकी कमज़ोर है या यह तुम्हें झूठ बोलने के लिये मज़बूर किया चाहती है। नहीं, ऐसी बात कभी नहीं है। अजी साहब! मैं तो सिर्फ तुम्हारे दिल का इम्तहान ले रही थी,। ऐसी हालत में अगर तुम मेरी यह बात मान लेते तो बेशक तुम मेरी नज़रों से गिरजाते लेकिन ऐसा [ ३२ ]क्यों हो। वाकई ख़ुदा ने मेरे दिल को एक अच्छे दिलेर शख्स के ताबे किया है, इसके लिये मैं तहेदिल से उसका शुक्रिया अदा करती हूं!"

यों कह और अपने गलेसे उतार कर हमीदा ने वह तख्ती मेरे गले में डालदी और जोश में आकर कहने लगी,-"प्यारे! मैं कल भरे दरवार में अपने बापके आगे यह बात कह दूंगी कि इस ज़वामर्द जवान पर मैं शैदा हूं और यह तख्ती मैने खुद इसे अपनी मुहब्बत की निशानी के तौर पर इसके नज़र की है।

अहा! उस समय, जबकि हमीदाने उस तख्ती को दोबारे मेरे गले में डाली थी, मेरी विचित्र दशा हो गई थी। उस समय उस सुन्दरी की भुजा का स्पर्श जब मेरे गले से हुआ था और उसके उष्ण विश्वास मेरे मुख में लगेथे उनसे यही जान पड़ता कि मानो खिली हुई पारिजातकुसुम की लता ने मेरा आलिङ्गन किया और उस पुष्प समूह की मत्तकरी सुगन्धि ने मेरे चित्त को हर लिया! अहा! यह कौन जानता था कि आसन्न मृत्यु के अवसर में उस भयंकर अफ़रीदी कारागार में भी अलोक सामान्य सुन्दरी का प्रेमालिङ्गन मुझे प्राप्त होगा।"

निहालसिंह की रहस्य पूर्ण कहानी को सुन कर मैं बहुत ही चकित हुआ और बोला,-"भई, निहालसिंह! तुम बड़े भाग्यवान हो।"

निहालसिंह ने कहा, सचमुच, जगदीशबाबू। मेरे भाग्यवान होने में कुछभी सन्देह नहीं है। अस्तु, सुनो-जिस समय हमीदा मेरे गलेसे लपट गईथी और मैंने उसके और उसने मेरे कपोलों का स्नेहपूर्वक चुंबन किया था, उस समय एक विचित्र घटना-संघटित हुई थी अर्थात ठीक उसी समय एक उद्वेजक अदृहास्य-ध्वनि सुनकर हम दोनो एक दूसरे के आलिङ्गन से पृथक हुए आंखे उठा कर हम दोनो ने देखा कि डाह की आग में ताव पेंच खाता हुआ कमीना अब्दुल् गुफ़ा के भीतर घुस आया है और आंखें गुरेर कर हम दोनो की ओर देख रहा है। उसे देखते ही मैं तो केबल उसे "कमीना पाजी" कह कर चुप हो गया, पर हमीदा ने बेतरह त्योरी बदल और कड़क कर कहा,

"बदज़ात तू किसके हुक्म से इस वक्त यहां आया!"

यह सुन अबदुल ने ताने से कहा,-"बीबी हमीदा! यह मुझे नहीं मालूम था इस वक्त आप तख्लिये में एक काफ़िर कैदी के साथ इश्क मज़ाकी का मज़ा लूट रहीं हैं, वरन बगैर इत्तला कराए, हर्गिज़ अन्दर आने की गुस्ताखी न करता। लेकिन निहायतही अफ़सोस का [ ३३ ]मुकाम है कि लार मेहरखां की लड़की एक गैरमज़हब, काफ़िर अपने मुल्क के दुश्मन और अजनवी शल्ल के इश्क में दीवानी हुई है और वह हया व शर्म को ताक पर धर कर ऐसी शोखी के साथ उसपर अपना इश्क ज़ाहिर कर रही है! इसके बनिस्बत तो कल आप अगर उन काफिरों के हाथ, जिन्होंने कि कल आप पर हमला किया था, मर गई होती तो कहीं अच्छा होता। अफ़सोस 'लुंडीकोतल' के नामी सर्दार मेहरखां की नेकरखस्लत दुख्तर की यह बेशर्मी: लानत है इस इश्क पर और हज़ार लानत है ऐसे आशिक पर।"

यह सुनते ही हमीदा ऐसी तेजी के साथ उठ खड़ी हुई, जैसे बाणविद्धा सिंहिनी और पुच्छविमर्दिता सर्पिणी अत्यंत कुपित होकर उठती है।

निदान, हमीदा ने उसकी ओर तुच्छ दृष्टि से देख कड़क कर कहा,-"हरामज़ाद, पाजी, बदज़ात! मेहरखां के एक नाचीज गुलाम को भी इतना हौसला हुआ है कि वह कंबख्त अपने मालिक की लड़की की नसीहत करे! मगर खैर, तेरी इस शोखी की सज़ा तो मैं तुझे अभी देती; लेकिन नहीं, इस वक्त तो मैं तुझे छोड़ देती हूं, पर तू याद रख कि वह वक्त दूर नहीं है जबकि मेरी छुरी तेरे कलेजे का खून पीएगी और तेरे तन की बोटियां चील कब्वों की खुराक बनेंगी! बस तू फ़ौरन यहां से अपना मुंह काला कर, वरन में अभी तेरा काम तमाम कर दूँगी।"

यों कह कर हमीदा ने अब्दुल पर थूका और तेजी के साथ अपनी कमर से उस कातिल छुरे को खैंच लिया। उस छुरे को देखतेही डरपोक अबदुल एक दम पीछे हटा और गुफा के द्वार पर जाकर फिर कहने लगा,-"आह, अफ़सोस आप मुझ जान का डर क्या दिखलाती हैं क्या यह बात आप भूल गई कि अफरीदी बहादुर मौत से डरतेही नहीं; लेकिन ऐसी बात अगर आपने कहा तो कोई ताज्जुब न करना चाहए, क्योंकि इस वक्त आप बेख़ुदी के आलम में मुबतिला है। मगर खै, आप यकीन कीजिए कि मैं मौत से डरनेवाला नहीं हूं, लेकिन तो भी अपने सर्दार की लड़की को मैं एक काफ़िर के इश्क में दीवानी देखकर चुप होजाऊं, यह मुझसे हर्गिज़ न होगा। बीबी हमीदा! इस वक्त तुम मुझपर चाहे जितनी तेज़ी झाड़लो, लेकिन कल जब भरे दरबार में में तुम्हारी बदचलनी का इज़हार दूँगा, तब तुम देखना कि तुम्हारी छरी मेरा काम तमाम करती है, या जल्लाद की पैनी तल्वार तुम्हारा या तुम्हारे सदजात आशिक का!!!"

[ ३४ ]इतना कह कर अबदुल तेज़ी के साथ उस गुफा के बाहर चला गया; तब हमीदा ने 'कादिर कादिर' कह कर कई आवाज़े दी, पर बाहर से किसीने कोई जवाब न दिया। यह देख कर हमीदा उठ खड़ी हुई और अपनी मशाल अपने हाथ में लेकर कंदरा के बाहर चली। मैं भी उसके साथ साथ कंदरा के द्वार तक आकर ठहर गया। हमीदा कंदरा से बाहर हुई और बाहर जाकर उसने एक अफरीदी को एक पेड़ से जकड़ कर बंधा हुआ पाया। यह वही व्यक्ति था कि जिसे मैंने वह याकूती तख्ती दी थी और जिसे हमीदा ने 'कादिर कादिर' कह कर पुकारा था।

निदान, हमीदा ने उसके बंधनों को खोल दिया और पूछा,-"तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?"

इस पर कादिरने पहिले अदब से झक कर हमीदा को सलाम किया और फिर इस प्रकार कहना प्रारंभ किया,-"हुजूर! आपने मुझे यह हुक्म दिया था कि,-'जब तक मैं इस खोह में रहे, बगैर मेरी इजाज़त कोई शख्स इसके अन्दर न आने आवे ' लिहाज़ा, मैं पहरे पर मुस्तैद था कि यकबयक अबदुल आया और इस खोह के अन्दर जाने लगा। मैंने उसे रोका और खोह के भीतर जाने देने से इनकार किया। आखिर वह लौट गया और फौरन ही कई आदमियों के साथ आकर उसने मुझे इस पेड़ के साथ बांध दिया। इसके बाद अबदुल के साथी, जिनके चेहरों पर नकाबें पड़ी हुई थीं; एक ओर को चल गए और वह इस खोह के अंदर गया।"

यह सुनकर हमीदा ने अपने कुर्ते के जेब से निकालकर कई अशफ़ियां उल सिपाही के हाथ पर धरी और मेरी ओर स्नेहपूर्वक देखकर वह एक ओर को चली गई। उसके जाने पर उस खोह का द्वार पूर्ववत बंदकर दिया गया।

उस अफरीदी कैदखाने में फिर मुझे चिन्ताओं ने घेर कर सताना प्रारंभ किया और मैं भांति भांति के सोचविचारों के समुद्र में डूबने उतराने लगा। मैंने उस एक ही रात्रि को जैसे जैसे तमाशे देखे थे और जैसी जैसी बातें सुनी थीं उनसे मेरा विस्मय बराबर बढ़ता ही गया। उस समय मुझे यही जान पड़ने लगा था कि मानो मैं ‘अलिलैला' की हज़ार रातों में से किसी एक रात्रि का नायक बनाया गया हूं और किसी कल्पनामयी सुन्दरी के प्रेम में डूबकर किसी दानवनगरी के पाषाणमय कारागार में बंदी किया गया हूं! किन्तु जगदशिबाबू! [ ३५ ]उस समय का वह कल्पनामय स्वप्न आज सत्य होगया है और तुम्हारे कथनानुसार मैं सचमुच अब अपने को बड़ा भाग्यवान समझ रहा हूं।

किन्तु उस समय मेरे बाहर भीतर-चारोओर अंधकारही अन्धकार था और में मानसिक पीड़ा से बिकळ हो, रहरह कर हमीदा को पुकार उठता था, परन्तु उस समय वहां पर हमीदा थी कहां, जो मेरे प्रष्ण का उत्तर देती?

थोड़ी देर के अनन्तर जब मेरा चित्त कुछ स्वस्थ हुआ और मैंने चिन्ताओं के उत्पात से कुछ छुटकारा पाया तो उसी अन्धकारमय कारागृह में एक ओर पड़ रहा और पड़ा पड़ा सोचने लगा कि क्या बदज़ात अबदुल सचमुच भरे दरबार में अफरीदी सर्दार के सामने उसकी लड़की (हमीदा) का अपमान करेगा; और क्या मेरी ही भांति उस वीरनारी को भी किसी भयानक दंड की कठोरता झेलनी पड़ेगी?

किन्तु सोचसांगर में पड़कर मुझे किसी ओर भी किनारा नहीं दिखलाई देता था, अतएव एक ठंढी लांस भर कर मैंने निद्रादेवी का आवाहन करना प्रारंभ किया। बड़ी बड़ी आराधनाओं से भी निन्द्रा तो न आई,पर उसने अपनी छोटी बहिन तंद्रा को अवश्य भेज दिया, जिसकी गोद में पड़कर मैं हमीदा के प्रेमपूर्ण स्वरूप का दर्शन करने लगा।

अहा! उस तंद्रामय स्वप्न में मुझे एक ओर सुख दिखलाई देता था, और दूसरी ओर दुःख; एक ओर मृत्यु की भयंकरी मूर्ति नृत्य करती हुई दीख पड़ती थी और दूसरी ओर अमृत; एक ओर जागरण, क्लेश, बन्धन और पराधीनता मुझे घेर रही थी और दूसरी ओर तंद्रा के मोह में सुख की मृगमरीचिका, हमीदा का प्रेम और स्वर्गराज्य की उज्वल किरणे दिखलाई देती थीं। मैंने उसी तंद्रामय स्वप्न में देखा कि हमीदा मेरे गले से लपटी हुई मेरे कपोलों का स्नेहपूर्वक चुंबन कर रही है! आह! उस अफरीदी कैदखाने में भी स्वप्न ने मुझे ऐसे सब्जबाग दिखलाए थे!!!

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