याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद ७

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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आठवां परिच्छेद

मैं ये बातें मनही मन सोचता जाता था और कुसीदा की ओर टकटकी बांध कर देखता जाता था। मेरे मन के भाव को कुसीदा ने भली भांति समझा और हंस कर कहा,-"क्या, आपको मेरे कहने पर यकीन नहीं होता!"

मैंने कहा,-"हां, सचमुच बात ऐसीही है और मैं ऐसा समझता हूं कि, हमीदा! तुम मुझसे दिल्लगी कर रही हो!" इस पर वह खिलखिला कर हंस पड़ी और अपना बायां गाल मेरे सामने कर के बोली,-"देखिए, मेरे बाएं गाल पर तिल का निशान है। बस, अब तो आपने यह बात बखूबी समझली होगी कि में हमादा नहीं हूं, बल्कि उसकी बहिन कुसीदा हूं और आपके साथ दिल्लगी नहीं की जा रही है!"

मैंने कहा,-"वाह! तिल तो हमीदा के गाल पर भी है!"

उसने कहा,-"हां, बेशक है, लेकिन उसके दहने गाल पर है और मेरे बाएं गाल पर। बस, अगर खुदा ने इतना भी फर्क हम दोनों में न डाल दिया होता तो फिर दुनियां में ऐसा कोई ज़रिया बाकी न रह जाता, जिससे हम दोनों अलग अलग पहचानी जा सकती।"

मैंने हमीदा के गाल पर वैसाही तिल ज़रूर देखा था, पर इस बात पर मैंने अब तक ध्यान नहीं दिया था कि उसके किस गाल पर तिल है! सो, मैं कुसीदा की बिचित्र बातों की उलझन को सुलझा रहा था कि इतने ही में हमीदा भी आ पहुंची और उसने एक कहकहा सः कर मुझसे कहा,-"आज तो आप एक अजीब उलझन में फंसेगें! क्योंकि आज यह पहला ही मौका ऐसा हुआ है, जबकि आपके सामने हम दोनो बहिने आ मौजूद हुई हैं!"

मैंने कहा,-" हां, निस्सन्देह! आज मैं बड़ी उलझन में फंसा हुआ हूं।"

इसके अनन्तर कुसीदा ने वे सब बातें, जोकि उसके साथ मेरी हइ थीं, कह सुनाई, जिन्हें सुन, हमीदा ने हंसकर कहा,-"हां, ये सब बातें, मैं बाहर ही से रौशनदान के पास खड़ी खड़ी सुन चुकीहूं।' [ ५३ ]इसके अनन्तर कुसीदा चली गई और उसके जाने पर वह प्रवेशद्वार बंद होगया फिर हमीदा ने मुझे बलकारक भोजन कराया और इधर उधर की बहुतसी बातें करने के बाद उसने कहा,-"प्यारे, निहालसिंह! मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि मैं दिन के वक्त आपके पास ज्यादे देर तक नहीं रह सकती। हां, रातभर मैं आज़ादी के साथ रह सकती हूं,। क्योंकि अंगेरज़ों से गहरी लड़ाई छिड़ जाने के सबब मेरे वालिद और अबदुल रातभर अफरीदी फ़ौज के मोर्चे पर रहते हैं, इसलिये आपके पास रहने का मुझे अच्छा मौका मिलता है। इसलिये में उम्मीद करती हूं कि आप मुझे ख़ुशी से इजाज़त देगें और में इस वक्त आप से रुखसत होकर फिर रात को आजाऊंगी और रातभर आपकी खिदमत करूंगी!"

उस करुणामयी, प्रेममयी और दयामयी अफ़रीदी युवती की सरल बाते सुनकर मेरी आंखों में प्रेम के आंसू उमग आए और मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा,-'हमीदा! तुम मुझे इतना चाहती हो!"

यह सन और अपना हाथ खेंच कर वह उठ खड़ी हुई और बोली,-"इस बात का जवाब तो आप अपने दिलही से पा सकते हैं।"

इसके अनन्तर उसने एक किताब निकाल कर मुझे दी और कहा, "तनहाई की हालत में यह किताब आपको बखूबी खुश करेगी और मैं बालिद के चले जाने पर रात को फिर आपके पास आजाऊंगी।"

इतना कहकर हमीदा उठी और किसी हिकमत से उस पत्थर को हटा कर उस कोठरी से बाहर होगई और बाहर जाकर उसने उस पत्थर को फिर ज्यों का त्यों बराबर कर दिया।

वह पुस्तक फ़ारसी भाषा के सुप्रसिद्ध नीतिविशारद कवि 'सादी' की 'गुलिश्तां' थी, जिसका में बड़ा भारी रसिक था, इस लिये उस पुस्तक को बड़े प्रेम से में देखने लगा। लगभर दो घंटे तक उस पुस्तक को मैं देखता रहा, इतने में कुसीदा आई और मुझे एक ग्लास शर्बत पिला कर चली गई। कदाचित वह कोई औषधि थी, जिसके पीने के थोड़ीही देर बाद मुझे नीद आने लगी और मैं गहरी नीद में सोगया।

जब मैं जागा, रात होगई थी, उसी कोने में दीया बल रहा था आर हमीदा मेरे सिर में कोई तेल लगारही थी। मैंने आंखें मलकर यह सब [ ५४ ]देखा और आनन्दसागर में ड्यक्रियां लेकर कहा,-"हमीदा, वह दिन अब बहुत समीप है, जबकि तुम मुझे अपने पास से दूर करोगी!"

हमीदा ने हंसकर कहा,-"अगर आपका दिल चाहे तो आप हमेशा मेरे पास रहिए।"

मैंने कहा,-"और यदि तुम्हीं मेरे साथ चलकर मेरे गले का हार बनो तो कैसा?"

हमीदा,--"यह गैरमुमकिन है! मैं अपने मुल्क को छोड़कर कहीं नहीं जा सकती, लेकिन इससे यह न समझिएगा कि हमीदा आपको भूल जायगो या हमीदा के जिस हाथ को आपने पकड़ा है, उसे हमीदा जीतेजी किसी गैर शख्स के हाथ में देगी।"

मैंने अचरज से पूछा-:तो क्या तुम शादी न करोगी?'

उसने कहा,-'मेरी शादी तो होचकी, अब क्या बार बार होगी?"

मैंने जान बूझकर भी अनजान बनकर कहा,-"तुम्हारी शादी किसके साथ हुई है?"

उसने कहा,-"जब कि इस बात की आपको ख़बर ही नहीं है तो फिर इसे सुनकर क्या कीजिएगा?"

निदान, देर तक इसी प्रकार की बातें होती रहीं और हमीदा बराबर मेरे सिर और सारे शरीर में तेल मालिश करती रही। मैंने उसे बहुत मना किया, पर वह न मानी और अपनी मनमानी करती ही गई। फिर कुसीदा खाना ले कर आई और रकाबी रखकर चली गई। उसके जानेपर हमदोनो ने साथ बैठ कर भोजन किया और बह पहलाही अवसर था कि मैं उठकर बैठा था और हमीदा के साथ मैंने खाना खाया था।

अस्तु, इसी प्रकार दो सप्ताह में जब में कुछ सबल होगया तो एक रोज़ रात के वक्त हमीदा ने कहा,-"प्यारे निहालसिंह! अगर आप चाहे तो मैं आज आपको अफरीदी सिवान के बाहर कर सकती हूं। क्या, आप अब अपने तई इस काबिल समझते हैं कि पहाड़ी रास्ते का सफर आसानी से कर सकेंगे?'

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