याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद ८

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
[ ५५ ]

'नवां परिच्छेद

यह सुनकर मैंने मनही मन सोचा कि अब व्यर्थ इस नरक-समान भयानक शत्रुपुरी में रहने से क्या लाभ है अतएव ममैंने कहा."प्यारी, हमीदा! यद्यपि तुम्हें छोड़कर मेरा यहाँस जाने का जी नहीं चाहता, परन्तु जब तक मैं यहांसे न जाऊंगा, तब तक तुम्हारे सिर से एक भारी बला न टलेगी, इसलिये अगर तुम मुनासिब समझो तो मुझे अफरीदी सिवाने से बाहर निकाल दो, क्योंकि मैं अब भली भांति पहाड़ी रास्ते को तय कर सकूँगा।"

हमीदा ने कहा,-. अच्छी बात है, मैं आज ही आपको यहांस निकाल दूंगी; क्योंकि जब तक मैं आपको अफरीदी सिवाने से बाहर न कर लूंगी, मेरे दिल की धड़कन दूर न होगी।"

इसी समय कुसीदा कई हथियार और एक सराही शर्बत लिये हुए आ पहुंचा और उसने आकर सुराही और हथियार हमीदा के आगे धर दिए। हमीदा ने एक तल्बार, एक बढ़ियां बंदूक और एक उत्तम बरछा मुझे दिया और एक एक आप लिया और उस सुराही में से दो तीन प्याले शर्वत मुझे पिला कर और आप भी पी कर उसने कुलीदा ले कहा,-"प्यारी, बहिन। जो कुछ मैंने तुम्हें समझाया है, उस पर बखूबी ध्यान रखना और खूब होशियारी से रहना।

इतना कह कर और उठ कर उसने एक मशाल जलाई और मुझे अपने साथ आने का इशारा कर के वह आगे हुई। वह आगे उसी रास्ते से बाहर हुई और मैं उसके पीछे। कुलीदा सबके पीछे थी। सो, उस घर के बाहर होते ही कुसीदा ने किसी ढंग से, जिसे मैं नहीं जान सका, वहांका पत्थर बराबर कर दिया। तब हमीदा ने एक ओर को उंगली उठा कर कहा,-"इस रास्ते से कुसीदा जायगी, क्योंकि यही रास्ता मेरे महल को गया है।"

इसके अनन्तर अपनी बहिन से और मुझसे सलाम बंदगी करके कुसीदा वहांसे चली गई और मैं हमीदा के साथ आगे बढ़ा।

हमीदा कहने लगी,-"यह एक सुरंग है, जिससे कोस भर तक चलने के बाद हम लोग एक घने जंगल में निकेलेंगे और वहाँ से [ ५६ ]आम रास्ते को छोड़ कर छिपी हुई पगडंडियों के रास्ते से चलेंगे।"

वह सुरंग बहुत ही तंग थी, इसलिये एक आदमी से ज्यादे एक साथ बराबर नहीं चल सकता था, किन्तु उसकी उंचाई इतनी अवश्य थी कि कैसा ही लंबा आदमी क्यों न हो, बराबर तन कर चल सकेगा।

निदान, कुछ देर में सुरंग को तय कर के हम लोग उससे बाहर हुए और हमीदा उसके द्वार को बंद कर और मशाल बुझा कर मेरे साथ हुई। आज कितने दिनों पीछे मैने खुले मैदान की हवा खाई और आस्मान की सूरत देखी। उस समय मुझे कितना आनन्द हुआ था, इसका बखान में किसी तरह भी नहीं कर सकता।

अब जिस मार्ग से हम लोग चलने लगे थे, वह बहुत ही सकरा, बीहड़ ऊबड़ खाबड़, घने जंगलों से छिपा हुआ और बिल्कुल अन्धकार में डूबा हुआ था, किन्तु तो भी हमीदा बड़ी आसानी से मुझे राह दिखलाती हुई आगे आगे चलरही थी और बड़ी कठिनता से मैं उसके पीछे पीछे चल रहा था।

चलते चलते हमीदा खड़ी हो गई और बोली,-"आज कल अंगरेजों से लड़ाई लगी रहने के सबब सब घाटियों और नाकों पर अफ़रीदियों का कड़ा पहरा रहता है, पर जिस छिपी राह से मैं तुम्हें 'लँडीकोतल, की ओर लिए जा रही हूँ, वह इतनी पोशीदा है कि दुश्मनों को इसका पता हर्गिज़ नहीं लग सकता, इसलिये इधर पहरे चौकी का उतना कड़ा बंदोबस्त नहीं है। लेकिन शायद, अगर किसी पहरेवाले से मुठभेड़ होजायगी तो ज़रूर हथियार से काम लेना पड़ेगा; इसलिये आप अपनी बंदक भर लें।"

इतना कह कर हमीदा अपनी बंदूक में गोली भरने लगी, मैंने भी अपनी दुनली बंदक भर डाली। फिर हम दोनो चलने लगे। इसी प्रकार बहुत दूर जाने पर हम लोग एक और भी बहुत ही सकरी घाटी में पहुंचे, जिसके दोनो ओर आकाश से बातें करने वाले बहुत ऊंचे पहाड़ खड़े थे। उस घाटी में कुछ दूर चलने पर मैंने कुछ उजेला देखा और दबे पावं कुछ दूर और जाने पर अफ़रीदी सरदार मेहरखां की सतर्कता का अच्छा नमूना पाया। मैंने क्या देखा कि एक अफरीदी सिपाही हाथ में मशाल लिये हुए उस घाटी की रक्षा कर रहा है। उसके एक हाथ में मशाल और दूसरे में नंगी तल्वार है और वह घूम घूम कर घाटी की रक्षा कर रहा है। [ ५७ ]यह देख कर मैं रुक गया और मुझे रुकते देख हमीदा भी रुक गई और बोली,-"क्यों, आप ठहर बन्यों गए?"

मैंने कहा,-"क्या तुम नहीं देखती कि सामने पहरेबाला टहल

हमीदा,-"फिर इससे क्या?"

मैं,-"अब क्यों कर इस घाटी के पार जा सकते हैं?"

हमीदा,-"आप क्या पागल हुए हैं? इतनी दूर आकर क्या अब आगे पैर नहीं बढ़ता?"

मैं,-"पहरेवाले का क्या बंदोबस्त किया जाय?"

हमीदा,-क्या आपने कोई राय ठहराई है?"

मैं,-"क्या कोई दूसरा रास्ता नहीं है?"

हमीदा,-"है क्यों नहीं, लेकिन ऐसे सुभीते का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। और रास्तों में हज़ारों पहरेदार मुस्तैदी के साथ पहरा देते होंगे।"

मैं,-"तब यहांसे लौट कर मैं कहां जाऊं?"

यह सुन कर हमीदा झल्ला उठी और कड़क कर बोली"-जहन्नुम में जाओ! छिः! जो बहादुर होकर एक पहरेदार को देख कर इतना डरता है, उसके लिये जहन्नुम से विहतर और कोई जगह नहीं है। अब तक मैं जानती थी कि में एक बहादुर शख्स के साथ आ रही हूँ! अगर यह जानती होती कि मेरा साथी निरा बोदा और भगेड़ है तो मैं खुद अब तक इस राह के साफ़ करने का बंदोबस्त कर डालती। अगर तुमको इस कदर पस्तहिम्मती ने दबा लिया है तो फिर तुम्हारा बंदूक रखना बिल्कुल बेफ़ाइदे है। मैं समझती हूं कि मुझे अब तुम्हारे खातिर अपनी बंदूक से काम लेना पड़ेगा। बस, बंदूक तुम ज़मीन में रख दो, क्योंकि इसके उठाने लायक अब तुम नहीं रहे।"

ओह! यह कैसा तीव्र तिरस्कार था! मैं अब बंदूक के धारण करने योग्य न समझा गया! मेरे पुरुषों ने बंदूक धारण किए किएही कितने बैरियों के प्राण लेकर रणक्षेत्र में अपने प्राण त्याग दिए, मैं अपने प्राण को तुच्छ समझ शौक से अपने राजा की सहायता के लिये इस समर में आया, अपने प्राण की ममता दमनपूर्वक सिक्खजाति का गौरव रक्खा और धमरक्षा के लिये जल्लादों के आगे भी

[ ५८ ]अपनी दृढ़ता न खोई; इतने पर भी हमीदा मुझे बंदूक धारण करने के अयोग्य समझती है। उसकी इस कटूक्ति से मेरे सारे बदन में आग सी लग गई। यदि और किसीने मुझे कापुरुष कहकर मेरा ऐसा उपहास किया होता तो मैं तुरंत उसे इस ढिठाई का बदला देने से कदापि न चकता, परन्तु हमीदा के हाथों तो मैं बिना दामा ही बिक चुका था, इसलिये मैने अपने उमड़ते हुए क्रोध को मनही मन दबाकर धीरे धीरे कहा,__

"प्यारी हमीदा! मैं बंदूक उठाने के योग्य हूं, या नहीं, खेद है कि इसका प्रत्यक्ष अभिनय मैं तुम्हें दिखला न सका, इसलिये अब मैं इस विषय में क्या अभिमान करूं किन्तु कदाचित इस बात को तुम कभी अस्वीकार न करोड़ो कि मैं मौत से तनिक भी नहीं डरता। तौभी तुम 'डरपोक' कह कर मेरा ठहा उड़ा सकती हो, और यह बात सच भी है। क्योंकि यदि मैं कापुरुष न होता तो इस आधी रात के समय, ऐसे बीहड़ मार्ग ले तुम्हारी सहायता लेकर भागता क्यों। अतएव मेरा आज का यह काम, अवश्य ही कापुरुष का काम है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। तुम निश्चय जानो, हमीदा! मैं अपने प्राण का कुछ भी भय नहीं करता, क्योंकि एक बेर तो मैं एक प्रकार से मरही चुका था; न हो, अब भी मरूंगा; किन्तु इस मार्ग में यदि इस समय कोई उपद्रव उठ खड़ा हो तो मैं तुम्हारी रक्षा क्योंकर कर सकूँगा! बस मुझे केवल इसी बात का सोच है। ऐसी अवस्था में तुम मुझे हज़ार बार कापुरुष कह सकती हो! तुम भूली न होगी, हमीदा! कि 'लुंडीकोतल' के मार्ग में गोर्खाओं के हाथ से जो मैंने तुम्हारे सन्मान की रक्षा की थी, उसके बदले में तुमने भरे दर्वार में अपने पिता से कैसी फटकार सुनी थी, अब यदि फिर यहां पर भी कोई वैसाही बखेड़ा उठ खड़ा हो, और तुम्हें अपनेही राज्य की सीमा के भीतर, अपने पिता के ही भृत्य से कुछ भी अपमान सहना पड़े तो वह मुझसे कदापि न सहा जायगा; और ऐसा में कभी नहीं चाहता कि मेरे लिये तम्हें कोई अपमान सहना पड़े। इसलिये, प्यारी, हमीदा! अब मैं यही उचित समझताहूं, कि तुम यहांस अपने घर लौट जाओ; फिर तुम्हारे जाने पर यदि मुझमें कुछ भी सामर्थ्य होगी तो मैं अपनी बंदूक और तल्वार की सहायता से राह साफ कर अपनी सेना में जा मिलूँगा और यदि ऐसा न हो सका तो फिर कई अतितायियों का [ ५९ ]सिर काट कर इस पहाड़तली में आपभी कट मरूंगा।"

मेरी लंबी चौड़ी बात सुन कर वीरनारी हमीदा खिलखिला कर हंस पड़ी ओर बोली,-"वाह हज़रत! आपने मुझे ऐसीही नाचीज़ समझ रक्खा है कि मैं इस आकृत के वक्त आपको अकेला छोड़ कर यहांसे चली जाऊंगी! हर्गिज़ नहीं। क्या सिक्ख मरना जानते हैं और अफरीदी औरते मरना नहीं जानती! जनाब! मैं भी लड़कपन ही से मौत के साथ खेलती आती हूं, इसलिये उससे में ज़राभी नहीं डरती। फिर आपले दूर होने के बनिस्वत तो आपके साथ रह कर मरना कहीं अच्छा है! साहब! मेरी जिन्दगी बिल्कुल बेकार है, इस लिये जहां तक जल्द मुझे इस बला से छुटकारा मिले, उतनाहीं अच्छा क्योंकि मुझे अब जी कर करना ही क्या है! इसलिये, प्यारे! मेरे लिये तुम जरा भी फिक्र न करो और इसे सच जानो कि अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं खुद इस पहरेदार को मार कर तुहारी राह साफ कर दूंगी और तुम्हें अफरीदी सिवाने से बाहर पहुंचा कर, तभी लौटूंगी।"

हमीदा की बातें सुन कर मैं सन्नाटे में आगया और सोचने लगा कि यह स्त्री दानवी है कि देवी, पावाणी है कि पुष्पमयी और बज्रहृदया है कि कोमलप्राणा! बस, उस समय में सब कुछ भूलकर इन्हीं बातों कोही सोचने लगा और मनही मन यह प्रण करने लगा कि यह मौत को इस चाव से क्यों बुला रही है। आह! इस रहस्यमयी युवती के हृदय के निगूढ़ भाव का मैं अभीतक न समझ सका और न यही जान सका कि अब ऐसी अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए? मैं जहां पर रुक गया था, उसो जगह खड़े खड़े सोचा किया और इधर धीरे धीरे रात भी बीत चली।

हमीदा ने मुझे चुप चाप खड़े हुए देख कर कहा,-"बस: अध ज़ियादह गौर करने का समय नहीं है, और इतने सोचने की बातही कौन सी है! देखो रात बीत चली,सुबह की सफेदी आस्मान पर दौड़ गई और हमें अभी दूर जाना है।"

मैंने कहा,- "प्यारी हमीदा! मैं तुम्हारीही बातों को सोच रहा था। देखो, दूर से, एकाएक बंदूक दाग कर इस पहरेवाले को मार डालना बहुत सहज बात है, परन्तु इस निरपराध मनुष्य पर इस प्रकार हाथ उठाने में में असमर्थ हूं। हां उसे होशियार करके लड़ना पड़े तो मैं तैयार हूं।" [ ६० ]मेरी बात सुन, उठा कर हमीदा हंस पड़ी, जिससे कुछ संकुचित होकर मैंने पूछा,-" तुम इस तरह क्यों हंस पड़ी।"

मेरी बात सन और मझसे आंखें मिला कर हमीदा ने मुस्कुराते हुए कहा,-"निहालसिंह! यक बयक तुम्हारा ऐसा धर्मज्ञान कैसे जाग पड़ा! अगर तुम धर्म से इतना डरते हो तो बेचारे बेकसूर अफरीदियों को कत्ल करने क्यों आए? क्या इन लोगों ने तुम्हारा कोई कसर किया है? और सोचो तो, तुम्हारा क्या कसूर था जो मेरे वालिद ने तुम्हारे कत्ल का हुक्म दिया था! लेकिन, खैर तुम ज़रा यहीं ठहरो; मैं आगे बढ़ कर पहरेवाले से कहती हूं कि वह मेरा रास्ता छोड़दे। अगर इस तरह काम निकल गया तो ठीक है, वरन फिर तुम्हें अपनी राह साफ़ करने के वास्ते मजबूर होना पड़ेगा।"

यों कह और मेरे उत्तर का आसरान देख कर हमीदा आगे बढ़ी और उसके पैर की आहट पाते ही पहरेवाले ने ज़ोर से ललकार कर कहा,-"इस घाटी में कौन चला आरहा है?"

यों कह और अपनी तल्वार सम्हाल कर वह सिपाही रास्ता रोक कर खड़ा हुआ और हमीदा ने उसक सामने पहुंच कर कहा,- "मैं अफरीदी सरदार मेहरखां की लड़की है और उम्मीद करती हूं कि तुम्हारे लिये इतनाही कहना काफी होगा और तुम मुझे अपने एक साथी के साथ इस घाटी से पार होजाने दोगे।"

हमीदा की बात सुन कर उस सिपाही ने अपने हाथ की मशाल ऊंची कर के उसके मुखड़े को देखा और उसे पहचान, शाहानः आदाब बजा ला कर कहा,-" हज़रत सलामत! मैंने आपको पहचान लिया। बेशक आप मेरे सर की प्यारी दुखतर हैं; लेकिन आप मेरी गुस्ताकी मांफ कीजिएगा; आपको इस घाटी के पार होने का परवाना मुझे दिखलाना चाहिए। क्योंकि मैं एक अदना गुलाम हूं और आपके वालिद के हुक्म की तामीली करना अपना फर्ज समझता हूं।"

पहरेवाले की बात सुन कर मारे क्रोध के हमीदा जल उठी, पर उसने अपने उमड़ते हए क्रोध को मन ही मन दबा कर कहा, "बेवकूफ सिपाही! आज यह मैंने नई बात सुनी कि मेहरखां की लड़की को भी घाटी से बाहर जाने के लिये परवाना दिखलाना पड़ेगा मामाकूल! तू क्या मेरो बेइज्जती करने पर आमादा हुआ है? बस, हटजा और मुझे इस घाटी से बाहर चले जानेदे।" [ ६१ ]हमीदा की बातें सुन कर उस ईमानदार सिपाही ने हाथ जोड़ कर बड़ी नम्रता से कहा,-"हुजूर! मैं आपका एक अदना गुलाम हूं, लेकिन बगैर हुक्मनामा दिखलाए, आप कोभी इस घाटी से बाहर नहीं जाने देसकता! गो, आप मेरे मालिक की लड़की हैं, लेकिन आपके वालिद के हुक्म के आगे मैं आपका हुक्म नहीं मान सकता। पस, मैं उम्मीद करता हूं कि अब आप इस बारे में ज़ियादह ज़िद न करेंगी।

हमीदा ने कड़क कर कहा,-"तो मैं जानती हूं कि अब तेरी मौत आई है!"

सिपाही,-"चाहे जो कुछ हो, लेकिन जब तक मेरे दम में दम रहेगा, मैं अपने सरदार की हुक्म अदूली हर्गिज़ न करूंगा।"

हमीदा,-"पाजी, गुलाम! तुझे इतना ग़रूर हुआ है कि मेरे हुक्म की बेइज्जती करता है? क्या तू इस बात को मुतलक भूल गया है कि मेरी तौहीन करने की तुझे कैसी सज़ा दी जायगी? अफ़सोस, सरदार मेहरखां की लड़की की यह बेइज्जती!"

इस पर पहरेदार ने और भी नम्रता से कहा,- बीबी हमीदा! मुझे धमका कर आप मेरे फर्ज से मुझको हर्गिज न गिरा सकेंगी। आपके वालिद ने मुझे ऐसी नसीहत नहीं दी है कि मैं अपने फर्ज़ से चूकूँ। लेकिन बड़े अफ़सोस का मुकाम है कि आप मुझे नाहक़ ज़ेर करती हैं! अच्छा, अब आप साफ़ सुन लीजिए कि आपके वालिद ने ऐसा ही हुक्म दिया है कि बगैर परवाना दिखलाए, हमीदा भी अफरीदी सिवाने के बाहर न जाने पाए। पस, मैं उम्मीद रखता हूं कि अब आप लौट जायंगी, वर न मैं आपको कैद करके आप के वालिद के पास भेज दूंगा; क्योंकि उनका ऐसा ही हुक्म है।"

हमीदा,-"ओफ़! जान पड़ता है कि यह सारी शरारत कमीने अबदुल की है। ( पीछे फिर कर ) निहालसिंह! अब में तुम्हे हुक्म देती हूं कि अगर तुममें कुछ भी मर्दूमी हो तो अपने रास्ते को साफ़ कर डालो।"

जगदीश बाबू! हमीदा के मुंह से इतना निकलते ही इधर से तो बंदूक उठाए हुए मैं झपटा और उधर से मेरे सामने वह सिपाही दौड़ आया। उसने आते ही मेरा निशाना बनाकर बंदूक दाग दी, पर ईश्वर के अनुग्रह से मैं उस वार को बचा गया और उस सिपाही को अपना [ ६२ ]निशाना बनाया। पहली ही गोली उसके माथे में लगी और वह गिर कर वहीं रह गया। तब मैंने हमीदा से कहा,-"प्यारी, हमीदा! सम्भव है कि यहां कहीं पासही अफरीदी सेना की छावनी हो और बंदूक की आवाज़ सुन कर इधर कुछ सिपाही आजायँ, तो बड़ा बखेड़ा मचेगा; इसलिये अब यही उचित है कि जहांतक जल्द हो सके, इस घाटी से पार पहुंचना चाहिए।"

"हां, यह तो सही है;"इतना कह कर हमीदा आगे हुई और मैं उसके पीछे पीछे चला। उस समय चलते चलते हमीदा ने एक लंबी सांस ली और धीरे धीरे आप ही कह उठी,-"अफसोस! आज मेरे वालिद का एक ईमानदार सिपाही मारा गया!"

मैंने उदासी से कहा,-"किन्तु सुन्दरी, हमीदा! मैंने केवल तुम्हारी आज्ञा का पालन किया।"

हमीदा,-"निहालसिंह! इस बारे में मैं तुमको कसूरवार नहीं बनाती! ओफ एहसान का बदला चुकाना कितना मुश्किल है!"

निदान, फिर हम दोनो चुपचाप उस घाटी में, जहां तक हो सका, जल्दी जल्दी चलने लगे। यद्यपि सवेरा होगया था, पर कुहेसे के कारण घाटी में पूरा परा उजाला नहीं हुआ था। यद्यपि वह रास्ता बहुतही बीहड़ और भयानक था, पर मेरे आगे राह दिखलाने वाली हमीदा थी, इसलिये मुझे विशेष कष्ट नहीं हुआ ।

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