याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद ९

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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दसवां परिच्छेद

निदान, उस घाटी में हम दोनों चुपचाप चलने लगे। आगे हमीदा थी, और उसके पीछे मैं था; पर दोनो ही चुपचाप थे। जहां जहां बहुतही बीहड़ और ऊबड़-खाबड़ रास्ता आता, हमीदा का सहारा लेकर में चलने लगता। यद्यपि हम दोनो चाहते थे कि जहांतक होसके, शीध्र इस घाटी से पार हो, पर वह रास्ता इतना बीहड़ था कि उसमें जलदी चलने की इच्छा करना, मानो प्राण ले हाथ धोना था।

यह बात तो मैं कही आया हूं कि हमीदा मुझे जी जान से चाहन लग गई थी और में उसे प्राण ले बढ़ कर प्यार करने लग गया था। पर अब रह रह कर मेरा प्राण व्याकुल होने लगा। क्योंकि यह बात में जानता था कि अक्षरीदी सिवाने से पार होतेही हमीदा मुझस बिदा होगी और मेरे लरस हदय को मरुभूमि बना डालेगी। मुझे छोड़ने पर उसके जीपर कैसी बीतेगी, इसे तो वह जाने, पर इसे छोड़ने पर कदाचित मुझे अपना प्राण छोडना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं।

जगदीशबाबू! जिस समय में पीड़ित अवस्था में हमीदा के गुप्तगृह में पड़ा पड़ा लोचता था कि इस आकस्मिक प्रेम का परिणाम क्या होगा! उस समय में यह नहीं जान सका था कि हमीदा इतनी जल्दी मुझसे दूर होगी! हाय, क्या इतना शीघ्रही हमीदा को छोड़ना पड़ेगा और इसे मैं पाब लेजाकर अपने जीवन की संगिनी न बना सकेगा।

निदान रामराम करके मैं उस घाटी के पार हुआ और सामने चमकते हुए भगवान भास्कर को बहुत दिनों के पश्चात देखकर प्रणाम किया। उस समय एक वृक्ष की छाया में, एक शिलाखंड पर हमीदा ने मुझे बैठाया और मेरे बलग में स्वयं बैठ और बड़े प्यारा से मेरे गले में बाहेडालकर उसने कहा,-"प्यारे, निहालसिंह! तुम अफरीदी सिवाने के करीब पहुंच गए। ( हाथ से एक ओर को दिखाला कर ) बस, इस राहसे एक कोस के करीब चले जाने पर तुम अफरीदी सिवाने से बाहर हो जाओगे। इसलिये अब मैं तुमसे रुखसत होती हूं और मेरे सबब जो कुछ तकलीफ़ तुमने बर्दाश्त की, उसके लिये मांफी चाहती हूं।"

हाय, इतनी जल्दी प्यारी, हमीदा, मुझसे विदा हो कर मेरे हृदय [ ६४ ]को मरुभामि बना डालेगी, इसका अब तक मुझे ध्यान ही न था। सो उसके एकाएक ऐसा कहने से मैं चिहुंक उठा और एक ठंढी सांस भर कर मैंने कहा,-"प्यारी, हमीदा! क्या तुम इतनी जल्दी मुझे छोड़ दोगी?"

यह सुनकर हमीदा ने एक गहरी सांस ली और कहा,-'क्या करूं, मज़बूरी है। लेकिन खैर, अगर तुम कभी कभी मुझे याद कर लोगे तो, चाहे मैं कहीं रहूं, मेरी रूह ज़रूर आसूदः होजाया करेगी।"

मैंने अपना कलेजा मसोस कर कहा,-"प्यारी, हमीदा! मेरे कंधे के घाव का निशान, जोकि जन्मभर न मिटेगा, तुम्हारी बराबर याद दिलाया करेगा।"

यह सुन कर हमीदा हंस पड़ी और बोली- 'आह, तो क्या मेरी यादगारी की सिर्फ इतनी ही कीतम है! अफ़सोस! मगर खैर, यह तो कहो कि अब जखम में दर्द तो नहीं होता?"

मैंने कहा,- "नहीं, अब दर्द बहुतही कम है, जो दो चार दिन में ही छूट जायगा, परन्तु बीबी हमीदा, यह तो कहो कि तुमने मुझे जल्लादों के हाथ से क्यों कर बचाया?"

हमीदा,-"आह! यह सवाल तो तुम सैकड़ों मर्तब कर चुके हो।"

मैंने कहा,-"परन्तु अब इसे अन्तिम प्रष्ण ही समझो, इसलिये इस रहस्य को अब मुझपर कृपा कर प्रगट कर दो।"

हमीदा,-"खैर, अगर ऐसी ही तुम्हारी मर्जी है तो सुनो। वालिद ने मुझपर भी कड़ा पहरा बैठा दिया था, इसलिये मैं फिर तुमसे मिल नहीं सकी थी, परमैं तुम्हें भूली नथी। सोजब तुम्हारे मार डालने के वास्ते तीन जल्लाद मुकर्रर किये गए, जिनमें एक अबदुल भी था, तो मैंने बहुतसी अशर्फियां देकर दो जल्लादों को अपने काबू में कर लिया, पर अबदुल से मैंने कुछ भी बात न की, इस ख़याल से कि, कहीं मेरी बंदिश ज़ाहिर न हो जाय। सो उन दोनो जल्लादों की बंदूकों में गोलियां न थीं, सिर्फ अबदुल की बंदूक की गोली तुम्हारे कंधे में लगी, जिसके लगतेही तुम बेहोश होकर वहीं गिर गए। तब अबदुल ने तुम्हे मरा समझ कर उन दोनो से कहा कि,-'इस मुर्दे को कहीं पर फेंक दो और इसके गले में से याकूतीतख्ती उतार कर मेरे हवाले करो।" यों कह कर जब वह कंबख्त चला गया तो वे दोनो जल्लाद तुम्हें उठाकर मेरे पास ले आए और अबदुल से उन्होंने यह कह [ ६५ ]दिया कि,-"याकूती तख्ती बीबी हमीदा ने बीच रास्तेही में हम दोनों से ज़बर्दस्ती लेलिया। गरज़ यह कि उन दोनो को बिदाकर मैं अपनी बहिन की मदद से तुम्हें उस जगह उठा लेगई, जहां पर तुम होश में आए थे। फिर मैंने बड़ी मुश्किल से गोली निकाली और जहां तक मुझसे होसका, मैंने तुम्हारी दवादारू करी। मैं इन बातों के जाहिर करने की ज़रूरत नहीं समझती थी, पर तुम्हारी ज़िद से मुझे आखिर यह हाल कहना ही पड़ा।"

यह सुन कर मैंने हमीदा को गले से लगा लिया और उसके गालों को चूम, बड़े दुःख से कहा,-हाय, हमीदा! जिस अभागे को तुमने एक बार मृत्यु के मुख से निकाल कर बचाया, आज उसी को तुम खुशी से मौत के हवाले कर रही हो!"

यह सुन कर हमीदा कांप उठी और आंखों में आंसू भर कर कहने लगी,-"प्यारे, निहालसिंह! तुम अपने दिल से ही मेरे भी दिल का हाल दर्याप्त कर लो कि इस वक्त मेरे दिल पर भी कैसी कयामत बरपा होरही है! लेकिन मैं लाचार हूं। यह तुम यकीन रक्खो कि अब सिवा तुम्हारे हमीदा किसीकी भी न होगी, और सिर्फ तुम्हारी ही याद में यह तहेग़ोर पहुंचेगी, लेकिन ऐसा यह कभी न करेगी कि अपने मुल्क, अपने मज़हब, अपनी कौम, और अपने बाप को छोड़ तुम्हारा साथ पकड़े और दुनियां की फिटकार सहे। इसीलिये अब यही बिहतर है कि तुम मुझे बिदा करो और मैं यहांसे चली जाऊं। प्यारे निहालसिंह! यह कभी मुमकिन नहीं है कि अब जीते जी तुम्हारी हमारी फिर कभी मुलाकात होगी; इसलिये अगर होसके तो तुम मुझे भूल जाने की कोशिश करना।"

मैंने कहा,-"और हेपत्थर! तुम! तुम क्या करोगी? क्या तुम भी मुझे भूल जाने के लिये कोशिश करोगी?"

हमीदा, प्यारे, यह गैर मुमकिन है, कि मैं तुम्हें जीते जी कभी भल सकूँ!"

मैंने कहा,-"तो आओ, पाषाणी बस, बिदा होते समय आपस में मिल भेंट तो लें।

यों कह कर मैंने हमीदा को कसकर गले से लगा लिया और उसने भी मुझे अपने भुजपाश में जकड़ लिया। हमदोनो प्रेमान्ध होकर एक दूसरे के अधरोष्ट के आसव का पान करने लगे और वाह्य जगत का खयाल किसीको भी न रहा।

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