युद्ध और अहिंसा/१/१० हमारा कर्तव्य

विकिस्रोत से
[ ६६ ]
: १० :
हमारा कर्तव्य

“नाज़ी जर्मनी द्वारा किये जानेवाले इधर के और भी क्रूरतापूर्ण हमलों का ख़याल रखते हुए और इस वाकये को आँखों के सामने रखते हुए कि ब्रिटेन आज मुसीबत में पड़ गया है और चारों श्रोर आपदाओं से घिरा हुआ है। क्या अहिंसा का यह तक्राज़ा नहीं है कि हम उससे कहदें कि यद्यपि हम अपनी स्थिति से ज़रा भी नहीं हट रहे हैं और जहाँ तक उसके साथ हमारे ताल्लुक़ात और हमारे भविष्य का सम्बन्ध है हम अपनी माँग में तिल भर कमी न करेंगे। फिर भी मुसीबतों से घिरे होने की हालत में उसे तंग या व्यग्र करने की हमारी इच्छा नहीं है। इसलिए फिलहाल सत्याग्रहआन्दोलन के विषय में सारे ख़यालात और सब तरह की बातें हम निश्चित रूप से मुल्तवी कर देते हैं? आज नाज़ीवाद स्पष्टत: जैसे प्रभुत्व के लिए उठ रहा है, क्या हमारा मन उसकी कल्पना के खिलाफ विद्रोह नहीं करता है? क्या मानवीय सभ्यता का सम्पूर्ण भविष्य खतरे में नहीं है? यह ठीक है कि विदेशी शासन से अपने को स्वतन्त्र करना भी हमारे लिए ज़िन्दगी और मौत का ही सवाल [ ६७ ] है। लेकिन जब ब्रिटेन ऐसे आक्रमणकारी के मुकाबले खड़ा है, जो निश्चितरूप से जंगली उपायों का इस्तेमाल कर रहा है, तब क्या हमें ऐसी समयोचित और मानवीय भाव-भंगी न प्रहण करनी चाहिए जो अन्त में हमारे विरोधी के दल को जीत ले? फिर श्रगर इसका उसपर कुछ असर न हो और इज्ज़त आबरू के साथ कोई समझौता नामुमकिन ही बना रहे, तो भी क्या हमारे लिए यह एक ज़्यादा ऊँची और श्रेष्ट बात न होगी कि हम अहिंसात्मक युद्ध तब छेड़ें, जब वह (ब्रिटेन) आज की तरह चारों तरफ से मुसीबतों से घिरा न हो? क्या इसके लिए हमें अपने अन्दर और ज्यादा ताकृत की ज़रूरत न पड़ेगी? और चूंकि ज्यादा ताक़त की ज़रूरत पड़ेगी, इसलिए क्या इसका अर्थ अधिक और ज्यादा टिकाऊ लाभ नहीं होगा और क्या यह आपस में सिर फोड़नेवाली दुनिया के लिए एक ऊँचा उदाहरण नहीं होगा? क्या यह इस बात का भी प्रमाण नहीं होगा कि अहिंसा प्रधानतया बलवानों का श्रस्त्र है?” नार्वे के पतन के बाद कई पत्र लेखकों के जो पत्र मुझे प्राप्त हुए हैं उनकी भावना इस पत्र में कदाचित ठीक-ठीक जाहिर हुई है। यह इन पत्र-लेखकों के दिलों की शराफ़त का सबूत है। पर इसमें वस्तुस्थिति के प्रति ठीक समझ का अभाव है। इन पत्रों में ब्रिटिश प्रकृति का खयाल नहीं किया गया है। ब्रिटिश जाति को गुलाम जाति की हमददी॔ की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह इस गुलाम जाति से जो कुछ चाहे ले सकती है। वह वीर और स्वाभिमानी जाति है। नार्वे जैसी एक नहीं अनेक विघ्न-वाधाओं [ ६८ ] से भी वे लोग पस्तहिम्मत होने वाले नहीं हैं। अपने आगे आनेवाली किसी भी दिक्कत का सामना करने में वे भली भाँति समर्थ हैं। युद्ध में भारत को किस तरह क्या हिस्सा लेना है इस बारे में उसको खुद कुछ कहने का हक नहीं है। उसे तो ब्रिटिश मन्त्रिमंडल की इच्छामात्र से इस युद्ध में घसीटना पड़ा है। उसके साधनों का ब्रिटिश मन्त्रिमंडल की इच्छानुसार इस्तेमाल किया जा रहा है। हम शिकायत नहीं कर सकते। हिन्दुस्तान एक पराधीन देश है और ब्रिटेन इस पराधीन देश को उसी तरह दुहता रहेगा जिस तरह कि अतीत काल में दुहता रहा है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस क्या भाव-भंगी कया रुख इख्तियार कर सकती है? उसके वश में जो सबसे ऊँची भाव-भंगी थी, उसे वह अब भी ग्रहण किये हुए है। वह देश में कोई फ़िसाद खड़ा नहीं करती है। खुद अपनी ही नीति के कारण वह इससे बच रही है। मैं कह चुका हूँ और फिर दोहराता हूँ कि मैं हठवश ब्रिटेन को तंग करने के लिए कोई काम नहीं करूंगा। ऐसा करना सत्याग्रह की मेरी धारणा के प्रतिकूल होगा। इसके आगे जाना कांग्रेस की ताक़त के बाहर है।

निस्सन्देह, कांग्रेस का फर्ज है कि स्वतन्त्रता की अपनी माँग का अनुसरण करे और अपनी शक्ति की पूरी सीमा तक सत्याग्रह की तैयारी जारी रखे। इस तैयारी की खासियत का मान करना चाहिये। खादी, प्रामोघोगा और साम्प्रदायिक एकता को बढ़ाना अस्पृश्यता का निवारण, मादकद्रव्य-निषेध तथा इस उद्देश्य से [ ६९ ] कांग्रेस-सदस्य बनाना और उनको ट्रेनिग देना। क्या इस तैयारी को मुल्तवी कर देना चाहिए? मैं तो कहूँगा कि अगर काँग्रेस सचमुच अहिंसात्मक बन गई और अहिंसा की नीति के पालन में उसने ऊपर बताये हुए रचनात्मक कार्यक्रम को सफलता पूर्वक निभा लिया, तो निसंदेह वह स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकेगी। तभी हिन्दुस्तान के लिए अवसर होगा कि वह एक स्वतन्त्र राष्ट्र की हैसियत से यह फैसला करे कि उसे ब्रिटेन को कौन-सी मदद किस तरह देनी चाहिए?

जहाँतक मित्रराष्ट्रों का हेतु संसार के लिए शुभ है तहाँ तक उसमें कांग्रेस की देन यह है कि वह अहिंसा और सत्य का असली तौर पर पालन कर रही है और बिना कमी व विलम्ब किये पूर्ण स्वतन्त्रता के अपने ध्येय का अनुसरण कर रही हैं। कांग्रेस की स्थिति की परीच्ज्ञा करने और उसकी न्यायता को स्वीकार करने से आग्रहपूर्वक इन्कार करके और ग़लत सवाल खड़े करके ब्रिटेन असल में खुद अपने ही हेतु को नुक़सान पहुँचा रहा है। मैंने जिस तरह की विधान-परिषद का प्रस्ताव किया है उसमें एक के श्रलावा और सब दिक़कते हल हो जाती हैं-बशते कि इस एक को भी दि़क्कत मान लिया जाये। इस परिषद में हिन्दुस्तान के भाग्य-निर्णय में ब्रिटिश हस्तक्षेप के लिए अलबत्ता कोई गुॱजाइश नहीं है। अगर इसे एक दिक्कत की शक्ल में पेश किया जाये, तो कांग्रेस को तबतक प्रतीच्ता करनी पड़ीगी जबतक यह न मान लिया जाये कि यह न सिर्फ कोई दिक्कत नहीं। [ ७० ]है बल्कि यह कि आत्म-निर्णय हिंदुस्तान का निर्विवाद अधिकार है।

अच्छा होगा कि इस बारे में एक-न-एक बहाना खड़ा करके सत्याग्रह की घोषणा करने में मेरी अनिच्छा का दोषारोपण करते हुए जो पत्र मुझे मिले हैं उनका भी जिक्र मैं कर दूँ। इन मित्रों को जान लेना चाहिए कि अहिंसा-अस्त्र के सफल प्रदर्शन के लिए मैं उनसे ज्यादा चिंतित हूँ। इस शोध के अनुगमन में मैं ऐसा लगा हूँ कि अपने को एक पल का विश्राम नहीं दे रहा हूँ। निरन्तर मैं प्रकाश के लिए प्रार्थना कर रहा हूँ। लेकिन बाहरी दबाव के कारण मैं सत्याग्रह छेड़ने में जल्दबाजी नहीं कर सकता-ठीक वैसे, जैसे कि बाहरी दबाव के कारण में उसको छोड़ नहीं सकता। मैं जानता हूँ कि यह मेरी सबसे बड़ी कसौटी की घड़ी है। यह दर्शाने के लिए मेरे पास बहुत ज्यादा सबूत हैं कि बहुतेरे कांग्रेसकर्मियों के हृदय में काफी हिंसा भरी है और उनमें स्वार्थ की मात्रा भी बहुत ज्यादा है। अगर कांग्रेसकार्यकर्ता अहिंसा की सच्ची भावना से ओत-प्रोत होते तो स्वतन्त्रता हमें १६२१ ई० में ही मिल गई होती और हमारा इतिहास आज कुछ दूसरा ही लिखा गया होता। लेकिन मुझे शिकायत नहीं करनी चाहिए। जो औजार मेरे पास हैं उन्हींसे मुझे काम करना है। मैं इतना ही चाहता हूँ कि कांग्रेसी लोग मेरी ऊपर से दीख पड़नेवाली अक्रियता का कारण जान लें।

‘हरिजन-सेवक': २० मई; १९४०