युद्ध और अहिंसा/१/९ अहिंसा फिर किस काम की?
क हिन्दुस्तानी मित्र के पत्र का सार नीचे दे रहा हूँ :-
"दिल दुखता हैं नार्वे की दर्दभरी कहानी सुनकर। वे लोग हिम्मत से लड़े तो सही, लेकिन अधिक बलवान दुश्मन के मुक़ाबिले में हार बैठे। इससे हिंसा की निरर्थकता साबित होती है। लेकिन क्या हम दुनिया की समस्या को हल करने के लिए कुछ अहिंसा सिखा रहे हैं? ब्रिटेन को परेशान करके क्या हम जर्मनी को उत्साहित नही कर रहे हैं? नार्वे और डेन्मार्क हमारे रुख को कैसे ठीक समझ सकते हैं? उनके लिए हमारी अहिंसा किस काम की? चीन और स्पेन को हमने जो इमदाद दी, उसके बारे में भी वह गलतफहमी कर सकते हैं। आपने जो फर्क किया है वह केवल इसलिए केि साम्राज्यवादी ताकत को आप मदद नहीं देना चाहते, हालाँकि वह एक अच्छे काम के लिए लड़ रही है। पिछली लड़ाई में आपने भर्ती करवाई लेकिन आज आपका ख़याल बिल्कुल दूसरा है। फिर भी आप कहेंगे कि यह सब ठीक है। यह कैसे? मैं तो नहीं समझता हूँ।" डेन्मार्क श्रौर नार्वे के अत्यन्त सुसंस्कृत और निर्दोष लोगों की किस्मत पर अफ़सोस करनेवालों में लेखक अकेले ही नहीं हैं। यह लड़ाई हिंसा की निरर्थकता दिखला रही है। फर्ज किया जाये कि हिटलर मित्र-राज्यों पर विजय हासिल कर लें, तो भी वह ब्रिटेन और फ्रांस को हर्गिज गुलाम नहीं बना सकेंगे। उसका अर्थ है दूसरी लड़ाई। और अगर मित्र-राज्य जीत जाये तो भी दुनिया की बेहतरी नहीं होगी। लड़ाई में अहिंसा का सबक सीखे बिना और अहिंसा के ज़रिये जो फायदा उठाया है उसे छोड़े बग़ैर वह अधिक शिष्ट भले ही हों, पर कुछ कम बेरहम नहीं होंगे। चारों ओर, जिन्दगी के हर पहलू में न्याय हो, यह अहिंसा की पहली शर्त है। मनुष्य से इतनी श्रपेच्ता करना शायद अधिक समझा जाये। लेकिन मैं ऐसा नहीं समझता। मनुष्य कहाँ तक ऊँचा जा सकता है और कहाँ तक गिर सकता है इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। पश्चिम के इन मुल्कों को हिन्दुस्तान की अहिंसा ने कोई सहायता नहीं पहुँचाई है। इसका कारण यह है कि यह अहिंसा अभी खुद बहुत कमजोर है। उसकी अपूर्णता देखने के लिए हम उतने दूर क्यों जायें? कांग्रेस की अहिंसा की नीति के बावजूद हम अपने देश में एक दूसरे के साथ लड़ रहे हैं। खुद कांमेस पर भी अविश्वास किया जा रहा है। जबतक कांग्रेस या उसके जैसा कोई और गिरोह सबल लोगों की अहिंसा पेश न करे, दुनिया में इसका संचार हो नहीं सकता। स्पेन और चीन को जो मदद हिन्दुस्तान ने दी वह केवल नैतिक थी माली सहायता तो उसका एक छोटा-सा रूप था। इन दोनों मुल्कों के लिए जो अपनी आज़ादी रातोंरात खो बैठे, शायद ही कोई हिन्दुस्तानी हो जिसे उतनी हमदर्दी न हो। यधपि स्पेन और चीन से उनका मामला जुदा है। उनका नाश चीन और स्पेन के मुकाबिले में शायद ज्यादा मुकम्मिल है। दरअसल तो चीन और स्पेन के मामले में भी खास फर्क है लेकिन जहाँतक हमदर्दी का सवाल है उनमें कोई अन्तर नहीं आता है। बेचारे हिन्दुस्तान के पास इन मुल्कों को भेजने के लिए सिवा अहिंसा के और कुछ नहीं है। लेकिन जैसा कि मैं कह चुका हूँ, यह अभी तक भेजने के लायक चीज़ नहीं हुई है; वह ऐसी तब होगी, जब कि हिन्दुस्तान अहिंसा के ज़रिये आज्ञादी हासिल कर लेगा।
अब रहा ब्रिटेन का मसला। कांग्रेस ने उसे कोई परेशानी में नहीं डाला है। मैं यह घोषित कर चुका हूँ कि मैं कोई ऐसा काम नहीं करूँगा जिससे उसे कोई परेशानी हो। अंग्रेज परेशान होंगे, अगर हिन्दुस्तान में अराजकता होगी। कांग्रेस जबतक मेरी बात मानेगी तबतक इसका समर्थन नहीं करेगी।
कांग्रेस जी नहीं कर सकती वह यह है कि अपना नैतिक प्रभाव ब्रिटेन के पक्ष में नहीं डाल सकती। नैतिक प्रभाव मशीन की तरह कभी नहीं दिया जा सकता। उसे लेना न लेना ब्रिटेन के ऊपर निर्भर करता है। शायद ब्रिटेन के राजनेता सोचते हैं कि ऐसा कौन नैतिक बल है जो कांग्रेस दे सकती है।
उनको नैतिक बल की दरकार ही नहीं। शायद वह यह भी सोचते हैं कि इस लड़ाई में फँसी हुई इस दुनिया में उन्हें किसी चीज की ज़रूरत है तो वह माली सहायता है। अगर ऐसा वे सोचते हैं, तो ज्यादा ग़लती भी नहीं करते। यह ठीक ही है, क्योंकि लड़ाई में नीति नाजायज़ होती है। यह कहकर कि ब्रिटेन का हृदय-परिवर्तन करने में सफलता की संभावना नहीं है लेखक ने ब्रिटेन के पक्ष में सारा मामला हार दिया। मैं ब्रिटेन की बुराई नहीं चाहता। मुझे दुःख होगा, अगर उसकी हार हो। लेकिन जबतक वह हिन्दुस्तान का कब्जा न छोड़े, कांग्रेस का नैतिक बल ब्रिटेन के काम नहीं आ सकता। नैतिक प्रभाव तो अपनी अपरिवर्तित शर्त पर ही काम करता है।
जब मैंने खेड़ा में भर्ती की थी, तब की और आज की मेरी वृत्ति में मेरे मित्र को कोई फर्क नजर नहीं आता। पिछली लड़ाई में नैतिक प्रश्न नही उठाया गया था। कांग्रेस ने अहिंसा की प्रतिज्ञा उस वक्त नहीं ली थी। जो नैतिक प्रभाव उसका आम जनता पर आज है वह तब नहीं था। मैं जो करता था, निजी तौर से करता था, मैं लड़ाई की कान्फ्रेंस में भी शरीक हुआ था, और वादा पूरा करने के लिए, अपनी सेहत को भी खतरे में डालकर, मैं भर्ती करता रहा। मैंने लोगों से कहा कि अगर उन्हें हथियारों की जरूरत हो, तो फौजी नौकरी के ज़रिये उन्हें ज़रूर प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन अगर वह मेरी भाँति अहिंसक हों, तो मेरी भर्ती की अपील उनके लिए नहीं थी। जहाँ तक मैं जानता था, मेरे दर्शकों में एक भी आदमी अहिंसा को माननेवाला नहीं था। उनकी भर्ती होने की अनिच्छा का कारण यह था कि उनके दिलों में ब्रिटेन के लिए वैरभाव था। लेकिन ब्रिटेन की हुकूमत को खत्म करने का एक जाग्रत निश्चय धीरे-धीरे इस वैरभाव का स्थान ले रहा था।
तब से हालात बदल चुके हैं। पिछली लड़ाई में हिन्दुस्तान की ओर से सार्वजनिक सहायता मिलने के बावजूद भी, ब्रिटेन की वृत्ति रौलट एक्ट और ऐसे ही रूपों में प्रगट हुई। अंग्रेजरूपी खतरे का मुकाबिला करने के लिए कांग्रेस ने असहयोग को स्वीकार किया। जलियाँवाला बाग, साईमन कमीशन, गोलमेज कान्फ्रेंस और थोड़े-से लोगों की शरारत के लिए बंगाल को कुचलना, यह सब बातें उसकी यादगार हैं।
जबकि कांग्रेस ने अहिंसा की नीति को स्वीकार कर लिया है, मेरे लिए आवश्यक नहीं कि मैं भर्ती के लिए लोगों के पास जाऊँ। कांग्रेस के जरिये मैं थोड़े से रंगरूटों की अपेक्ष बहुत ही बेहतर सहायता दे सकता हूँ। लेकिन यह जाहिर है कि ब्रिटेन को उसकी जरूरत नहीं है। मैं तो चाहता हूँ पर लाचार हूँ।
'हरिजन-सेवक' : ४ मई, १६४०