युद्ध और अहिंसा/१/१४ मुझे पश्चात्ताप नहीं है

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मुझे पश्चात्ताप नहीं है

हरेक अंग्रेज के प्रति वह निवेदन लिखकर मैंने एक और बोझ अपने सिर पर ले लिया है। बिना ईश्वर की मदद के मैं इसे उठाने के लायक नहीं हूँ। अगर उसकी इच्छा होगी कि मैं इसे उठाऊँ, तो वह उठाने की मुझे शक्ति भी देगा। मैंने अपने लेख जब अधिकतर गुजराती में ही लिखने का निश्चय किया, तब मुझे यह पता नहीं था कि मुझे वह निवेदन लिखना होगा। उसे लिखने का विचार तो एकाएक ही उठा, और उसके साथ-ही उसे लिखने की हिम्मत भी आ गई। कई अंग्रेज और अमेरिकन मित्र बहुत दिनों से आपह कर रहे थे कि मैं उनको रास्ता बताऊँ, पर में उनके आग्रह के वश नही हुआ था। मुझे कुछ सूझता नहीं था। मगर वह निवेदन लिखने के बाद, अब मुझे उसकी जो प्रतिक्रिया हो रही है उसका पीछा करना ही चाहिए। अनेक लोग मुझे इस सम्बन्ध में पत्र लिख रहे हैं। सिवाय एक गुस्से से भरे तार के, अंग्रेजों ने उस निवेदन की मित्रभाव से ही आलोचना की है, और कुछ अंग्रेजों ने तो [ ८६ ] उसकी क़द्र भी की है।

वायसराय साहब ने मेरी तजवीज ब्रिटिश सरकार के सामने रखी, इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। इस बारे में जो पत्रव्यवहार हुआ है, वह या तो पाठकों ने देख लिया होगा, या इस श्रङ्क में देखेंगे। यद्यपि मेरे निवेदन के इससे बेहतर उत्तर की ब्रिटिश सरकार से आशा नहीं की जा सकती थी, तो भी मैं इतना कह दूँ, कि ब्रिटिश सरकार के विजय पाने तक लड़ते जाने के निश्चय के ज्ञान ने ही मुझसे यह निवेदन लिखाया था। इसमें शक नहीं कि यह निश्चय स्वाभाविक है, और सर्वोत्तम ब्रिटिश परम्परा के योग्य भी है: मगर इस निश्चय के अन्दर भयंकर हत्याकांड निहित है। इस चीज के जानते हुए लोगों की अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए कोई बेहतर और ज्यादा वीरतापूर्ण रास्ता ढंढ़ना चाहिए, क्योंकि शान्ति की विजय युद्ध की विजय से अधिक प्रभावशाली होती है। अंग्रेज अहिंसक रास्ता अखत्यार करते, तो इसका अर्थ यह नहीं था कि वह चुपचाप निन्दनीय तरीके से जर्मनी के सामने झुक जाते। अहिंसा का तरीका शत्रु को हक्का-बका बनाकर रख देता, और युद्ध की सारी आधुनिक कला और चालबाजियों को निकम्मा बना देता। नया विश्व-तन्त्र भी, जिसके कि आज सब स्वप्न देख रहे हैं, इसमें से निकल आता। मैं मानता हूँ कि अन्त तक युद्ध लड़कर अथवा दोनों पत्न अन्त में थकान के मारे कैसी भी कच्ची-पक्की सुलह करले, उसमें से नया विश्व-तन्त्र पैदा करना असम्भव है। [ ८७ ] अब एक मित्र ने अपने पत्र में जो दलीलें पेश की हैं, उनको लेता हूँ:

“दो अंग्रेज मित्र जो आपके प्रति बहुत आदर-भाव रखते हैं, कहते हैं कि आपके हरेक अंग्रेज के प्रति लिखे निवेदन का आज कोई असर नहीं हो सकता। आम जनता से यह आशा नहीं रखी जा सकती, कि वह एकदम अपना रुख बदल ले, और समझ के साथ ऐसा करे। सच तो यह है कि जबतक अहिंसा में हार्दिक विश्वास न हो, बुद्धि से इस चीज़ को समझना अशक्य है। जगत् को आपके ढाँचे में ढालने का वक्त तो युद्ध के बाद आयेगा। वे समझते हैं कि आपका रास्ता सही रास्ता है, मगर कहते हैं कि उसके लिए बेहद तैयारी की, शित्ता की और भारी नेतत्व की ज़रूरत है, और उनके पास आज इनमें में ऐसी एक भी चीज़ नहीं है। हिन्दुस्तान के बारे में वह कहते हैं कि सरकार का ढंग शोचनीय है। जिस तरह कैनाडा आजाद है, उसी तरह हिन्दुस्तान को भी बहुत अरसे पहले आजाद कर देना चाहिए था, और हिन्दुस्तान के लोगों को अपना विधान खुद बनाने देना चाहिए। मगर जो बात उनकी समझ में नहीं आती वह है हिन्दुस्तान की आज तुरन्त पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग। दूसरा कदम यह होगा कि ब्रिटेन को लड़ाई में मदद न देना, जर्मनी के सामने झुकना, और फिर अहिंसक तरीके से उसका सामना करना। इस ग़लतफह्लमी को दूर करने के लिए आपको अपना अर्थ ज्यादा तफसील से समझाना होगा। यह एक सच्चे आदमी के दिल पर हुआ असर है।” [ ८८ ] यह निवेदन आज असर पैदा करने के हेतु से लिखा गया था। वह असर हिसाब करके, तोल-माप के जरिये, पैदा नहीं हो सकता था। अगर दिल में यकीन हो जाता कि मेरा रास्ता सही रास्ता सही रास्ता था, तो उस पर अमल करना आसान था। जनता के मन पर दबाव के वक्त असर होता है। मेरे निवेदन का असर नहीं हुआ, इससे जाहिर होता है कि या तो मेरे शब्दों में शक्ति नहीं, या ईश्वर की ही कुछ ऐसी इच्छा है कि जिसका हमें पता नहीं। यह निवेदन व्यथित हृदय से निकला है। मैं उसे रोक नहीं सकता था। यह निवेदन केवल उसी चतण के लिए नहीं लिखा गया था। मुझेपूर्ण विश्वास है कि उसमें बताया गया सत्य शाश्वत है।

अगर आज से भूमिका तैयार न की गई, तो युद्ध के अन्त में जब चारों ऒर खिन्नता और थकान का वातावरण होगा, नया नंत्र बनाने का समय ही नहीं रह जायेगा नया तन्त्र जो भी होगा वह जाने-अनजाने आज से हम जो प्रयत्न करेंगे, उसीका परिणाम होगा। दरअसल, प्रयत्न तो मेरा निवेदन निकलनेसे पहले ही शुरू हो चुका था। आशा है कि निवेदन ने उसे उत्तोजन दिया होगा, और एक निश्चित दिशा दिखाई होगी। गैर अधिकारी नेताओं और ब्रिटिश प्रजा का मत ढालने वालों को मेरी सलाह है कि यदि उन्हें यक़ीन हो गया है कि मेरा रास्ता सही है, तो वे उसे स्वीकार कराने का प्रयत्न करें। मेरे निवेदन ने जो महान प्रश्न उठाया है, उसके सामने हिन्दुस्तान की आजादी का प्रश्न तुच्छ बन जाता है। मगर मैं इन दो अंग्रेज़ मित्रों के साथ सह [ ८९ ] मत हूँ कि ब्रिटिश सरकार का ढंग शोचनीय है। लेकिन इन मित्रों ने हिन्दुस्तान की प्राचादी की कल्पना करके उसके जो नतीजे निकाले है वह सरासर गलत है। वह भूल जाते हैं कि मैं इस चित्र से बाहर हूँ जिनके सिर पर कार्य समिति के पिछले प्रस्ताव कि जिम्मेदारी है, उनकी धारणा यही रही है कि स्वतन्त्र हिन्दुस्तान ब्रिटेन के साथ सहयोग करेगा। उनके पास जर्मनी के आगे झुकने या उसका अहिंसक तरीके से सामना करने का तो कोई प्रश्न ही नही उठता।

मगर, यद्यपि विषय दिलचस्प और ललचानेवाला है तो भी मुझे हिन्दुस्तान की आजादी और उसके फलितार्थों का विचार करने के लिए यहाँ नहीं ठहरना चाहिए।

मेरे सामने इस भाव के पत्र और अखबार की कतरने पड़ी हैं कि जब कांग्रेस ने हिंसक फौज के जरिये हिन्दुस्तान की रक्षा की तैयारी न करने की आपकी सलाह न मानी, तो आप अंग्रेजों को यह सलाह कैसे दे सकते हैं और उनसे कैसे आशा रख सकते हैं कि वे इसे स्वीकार करेंगे? यह दलील देखने में ठीक मालूम देती है, मगर सिर्फ देखने में ही। आलोचक कहते हैं कि जब मैं अपने लोगों को ही न समझा सका, तो मुझे यह आशा रखने का कोई हक नही कि आज जीवन और मौत की लड़ाई के मझधार पड़ा ब्रिटेन मेरी बात सुनेगा। मेरा तो जीवन में एक खास ध्येय है। हिन्दुस्तान की करोड़ों की जनता ने अंग्रेजों की तरह युद्ध के कड़वे स्वाद नहीं चखे। ब्रिटेन ने जिस मकसद [ ९० ] की दुनिया के सामने घोषणा की थी, अगर उसे हासिल करना है तो उसे अपनी नीति बिलकुल बदल देनी होगी। मुझे ऐसा लगता है कि मैं जानता हूँ कि क्या परिवर्तन करने की जरुरत है। जिस विषय की यहाँ चर्चा हो रही है उसमें मेरी कार्यसंमिति को न समझा सकने की बात लाना असंगत है। ब्रिटेन और हिन्दुस्तान की परिस्थिति में कोई साम्य ही नहीं है। इसलिए 'मुझे वह निवेदन लिखने पर थोड़ा-सा भी पश्चात्ताप नहीं है। मैं इस बात पर कायम हूँ कि निवेदन लिखने में मैंने ब्रिटेन के एक आजीवन मित्र का काम किया है।

एक लेखक प्रत्युतर में लिखते हैं, “हेर हिटलर को अपना निवेदन भेजो न!” पहली बात तो यह है कि मैंने हेर हिटलर को भी लिखा था। मेरे पत्र भेजने के कुछ समय बाद वह पत्र अखबारों में छपा भी था। दूसरी बात यह है कि हेर हिटलर को मेरा अहिंसक रास्ता अखत्यार करने के लिए कहना कुछ अर्थ नहीं रखता। हेर हिटलर विजय-पर-विजय प्राप्त कर रहे हैं। उनसे तो मैं यही कह सकता हूँ कि अब बस करो। वह मैं कह चुका हूँ। मगर ब्रिटेन आज अपनी रक्षा के लिए लड़ रहा है। उनके हाथ में मैं अहिंसक असहयोग का सचमुच प्रभावकारी शस्त्र रख सकता हूँ। मेरा रास्ता ठुकराना हो, तो उसके गुण-दोषों का विचार करके ठुकराया जाये, अनुचित तुलनायें करके या लूलीलँगड़ी दलीले दे करके नहीं। मैं समझता हूँ कि मैंने जो सवाल उठाया है वह सारे संसार के लिए महत्त्वपूर्ण है। अहिंसक [ ९१ ] मार्ग की उपयोगिता को सब आलोचक स्वीकार करते हैं। मगर वह खामखाह मान लेते हैं कि मनुष्य का स्वभाव ऐसा बना है कि वह अहिंसक तैयारी का बोझ नहीं उठायेगा। लेकिन यह तो प्रश्न को टालने की बात है। मैं कहता हूँ कि आपने यह तरीका़ अच्छी तरह आज़माया ही नहीं है। जहाँ तक आज़माया गया है, परिणाम आशाजऩक ही मिला है।

‘हरिजन-सेवक’ : २७ जुलाई, १६४०