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युद्ध और अहिंसा/१/१५ इतना ख़राब तो नहीं!

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ ९२ से – ९५ तक

 

: १५ :
इतना ख़राब तो नहीं!

एक मित्र, एक अग्रेज भाई के पत्र में से निम्नलिखित अंश भेजते हैं:-

“क्या आपको लगता है कि महात्माजी के ‘हरेक अग्रेज के प्रति' निवेदन का एक भी अंग्रेज के दिल पर अच्छा असर हुआ होगा? शायद इस अपील के कारण जितना वैर-भाव बढ़ा है, उतना हाल में किसी दूसरी घटना से नहीं बढ़ा। आजकल हम एक अजीबोगरीब और नाजुक ज़माने में से गुजर रहे हैं। क्या करना चाहिए, यह तय करना बहुत ही कठिन है। कम-से-कम जिस बात में साफ खतरा दिखता हो, उससे तो बचना ही चाहिए। जहाँतक मैं देखता हूँ, महात्माजी की शुद्ध अहिंसा की नीति हिन्दुस्तान को अवश्य ही बर्बादी की तरफ ले जायेगी। मैं नहीं जानता कि वह खुद कहाँतक इसपर चलेंगे। उनमें अपने-आपको अपनी सामग्री के मुताबिक बनाने की अजीब शक्ति है।

"मैं तो जानता हूँ कि एक नहीं, अनेक हृदयों पर मेरे निवेदन का अच्छा असर हुआ है। मैं यह भी जानता हूँ कि कई अंग्रेज मित्र चाहते थे कि मैं कोई ऐसा क़दम उठाऊँ। मगर उन्हें मेरी यह बात पसन्द आई है, यह मेरे लिए चाहे कितनी ही खुशी की बात क्यों न हो, मैं इसपर सन्तोष मानकर बैठना नहीं चाहता। मेरे पास इन अंग्रेज भाई की टीका की कीमत काफ़ी है। इस ज्ञान से मुझे सावधान होना चाहिए। अपने विचारो को प्रकट करने के लिए शब्दों को और ज्यादा सावधानी से चुनना चाहिए। मगर नाराजगी के डर से, भले ही वह नाराजगी प्रिय-से-प्रिय मित्र की क्यों न हो, जो धर्म मुझे स्पष्ट नजर आता है, उससे मैं हट नहीं सकता। यह निवेदन निकालने का धर्म इतना जबरदस्त और आवश्यक था कि मेरे लिए उसे टालना अशक्य था। मैं यह लेख इस वक्त लिख रहा हूँ-यह बात जितनी निश्चित है, उतनी ही निश्चित यह बात भी है कि जिस ऊँचाई पर पहुँचने का मैने ब्रिटेन को निमन्त्रण दिया है, किसी न-किसी दिन दुनिया को वहाँ पहुँचना ही है। मेरी श्रद्धा है कि जल्दी ही दुनिया जब इस शुभ दिन को देखेगी, तब हर्ष के साथ वह मेरे इस निवेदन को याद करेगी। मैं जानता हूँ कि वह दिन इस निवेदन से नजदीक आ गया है।

अंग्रेजों से अगर यह प्रार्थना की जाये कि वे जितने बहादुर आज हैं उससे भी ज्यादा बहादुर और अच्छे बनें, तो इसमें किसी भी अंग्रेज को बुरा क्यों लगे? ऐसा करने के लिए वह अपने को असम्रर्थ बता सकता है, मगर उसके दैवी स्वभाव को जागृत करने के लिए निवेदन उसे बुरा क्यों लगे? इस निवेदन के कारण भला, वैर-भाव क्यों पैदा हो? निवेदन के तर्ज में या विचार में वैर-भाव पैदा करनेवाली कोई चीज ही नहीं है। मैंने लड़ाई बंद करने की सलाह नहीं दी। मैंने तो सिर्फ यह सलाह दी है कि लड़ाई को मनुष्य-स्वभाव के योग्य, दैवी तत्व के लायक ऊँचे आधार पर ले जाया जाये। अगर ऊपर लिखे पत्र का छिपा अर्थ यह है कि यह निवेदन निकालकर मैंने नाजियों के हाथ मजबूत किये हैं, तो जरा-सा भी विचार करने पर यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जायेगी। अगर ब्रिटेन लड़ाई का यह नया तरीका अख्तियार कर ले, तो हेर हिटलर उससे परेशान हो जायेंगे, पहली ही चोट पर उन्हें पता चल जायेगा कि उनका अस्त्र-शस्त्र का सामान सब निकम्मा हो गया है।

योद्धा के लिए तो युद्ध उसके जीवन का साधन है, भले ही वह युद्ध आत्मचरण के लिए हो या दूसरों पर आक्रमण करने लिए अगर उसे यह पता चल जाता है कि उसकी युद्ध-शक्ति का कुछ भी उपयोग नहीं, तो वह बेचारा निर्जींव-सा हो जाता है।

मेरे निवेदन में एक बुजदिल आदमी एक बहादुर राष्ट्र को अपनी बहादुरी छोड़ने की सलाह नहीं दे रहा है, न एक सुख का साथी एक मुसीबत में आ फँसे अपने मित्र का मजाक ही उड़ा रहा है। मैं पत्र-लेखक को कहूँगा कि इस खुलासे को ध्यान में रखकर फिर से एकबार मेरा वह निवेदन पढें।

हाँ, हेर हिटलर और सब आलोचक एक बात कह सकते हैं। कि मैं एक बेवकूफ आदमी हूँ, जिसको दुनिया का या मनुष्य स्वभाव का कुछ ज्ञान ही नहीं है। यह मेरे लिए एक निर्दोष प्रमाण-पत्र होगा, जिसके कारण न वैरभाव पैदा होना चाहिए, न क्रोध। यह प्रमाण-पत्र निर्दोष होगा, क्योंकि मुझे पहले भी कई ऐसे प्रमाण-पत्र मिल चुके हैं। उनकी यह सबसे नई आवृत्ति होगी और मैं आशा रखता हूँ कि सबसे आखिर की नहीं, क्योंकि मेरे बेवकूफी के प्रयोग अभी खत्म नहीं हुए।

जहाँतक हिन्दुस्तान का वास्ता है, अगर वह मेरी शुद्ध अहिंसा की नीति को अपनायें, तो उससे उसे नुकसान पहुँच ही नहीं सकता। अगर हिन्दुस्तान एकमत से उसे नामंजूर करता है, तो भी उससे देश को किसी प्रकार का नुकसान नहीं होगा। नुकसान अगर होगा तो उन लोगों का, जो मूर्खता' से उसपर अमल करते रहेंगे! पत्र-लेखक ने यह कहकर कि ‘महात्माजी अपने-आपको अपनी सामग्री के मुताबिक बनाने की अजीब शक्ति रखते हैं? मेरा बड़ा भारी गुण बताया है। मेरी सामग्री की बाबत मेरे स्वाभाविक ज्ञान ने मुझे ऐसी श्रद्धा दी है कि जो हिलाई नहीं जा सकती। मुझे अऩ्दर से महसूस होता है कि सामग्री तैयार है। मेरी इस अंदरूनी आवाज ने आजतक मुझे कभी धोखा नहीं दिया। मगर मुझे पिछले अनुभव की बुनियाद् पर कोई बड़ी इमारत नहीं खड़ी करनी चाहिए। ‘मुझे अलम् है देव, एक डग।'

‘हरिजन-सेवक' : ३ अगस्त, १९४०