युद्ध और अहिंसा/१/४ पहेलियाँ

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: ४ :
पहेलियाँ

एक प्रसिद्ध कांग्रेसवादी पूछते हैं :

"(१) इस युद्ध के बारे में अहिंसा से मेल खानेवाला आपका व्यक्तिगत रुख क्या है?

(२) पिछले महायुद्ध के वक्त आपका जो रुख था वही है या उससे भिन्न ?

(३) अपनी अहिंसा के साथ आप काँग्रेस से, जिसकी नीति इस संकट में हिंसा पर आधार स्खती है, कैसे सक्रिय-सम्पर्क रक्खेंगे और उसकी कैसे मदद करेंगे ?

(४) इस युद्ध का विरोध करने या उसे रोकने के लिये आपकी ऐसी ठोस तजवीज क्या है, जिसका कि आधार अहिंसा पर हो?"

इन प्रश्नों के साथ मेरी ऊपर से दिखलाई पड़नेवाली असंगतियों या मेरी अगम्यता की लम्बी और मित्रतापूर्ण शिकायत भी है । ये दोनों ही पुरानी शिकायतें हैं, जो शिकायत करनेवालों की दृष्टि से तो बिल्कुल वाजिब हैं, पर मेरी अपनी दृष्टि से बिल्कुल ग़ैरवाजिब हैं। इसलिए अपनी शिकायत करनेवालों और मुझमें मतभेद तो होगा ही । मैं तो सिर्फ यही कहूँगा, कि जब मैं कुछ लिखता हूँ तो यह कभी नहीं सोचता कि पहले मैंने क्या कहा [ २६ ] था। किसी विषय पर मैं पहले जो कुछ कह चुका हूँ उससे संगत होना मेरा उद्देश नहीं है, बल्कि प्रस्तुत अवसर पर मुझे जो सत्य मालूम पड़े उसके अनुसार करना मेरा उद्देश है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मैं सत्य की और निरंतर बढ़ता ही गया हूँ, अपनी याददाश्त को मैंने व्यर्थ के बोझ से बचा लिया है, और इससे भी बढ़कर बात यह है कि जब कभी मुझे अपने पचास वर्ष पहले तक के लेखों की तुलना करनी पड़ी है, तो अपने ताजा-से-ताजा लेखों से उन दोनों में मुझे कोई असंगति नहीं मिली। फिर भी जो मित्र उनमें असंगति देखते हैं, उनके लिए अच्छा यह होगा कि, जबतक पुराने से ही उन्हें कोई खास प्रेम न हो, वे उसी अर्थ को प्रहण करें जो मेरे सबसे ताज़ा लेखों से निकलता हो, लेकिन चुनाव करने से पहले उन्हें यह देखने की कोशिश करनी चाहिए कि ऊपर से दिखलाई देनेवाली असंगतियाँ के बीच ही क्या एक मूलभूत स्थायी संगति नहीं है?

जहाँतक मेरी अगम्यता का सवाल है, मित्रों को यह विश्वास रखना चाहिए कि अपने विचार सम्बद्ध होने पर उन्हें दबाने का प्रयत्न मैं कभी नहीं करता। अगम्यता कभी-कभी तो संक्षेप में कहने की मेरी इच्छा के कारण होती है, और कभी-कभी जिस विषय पर मुझसे राय देने के लिए कहा जाये उसके संबंध के मेरे अपने अज्ञान के कारण भी होती है।

नमूने के तौर पर इसका एक उदाहरण दूँ। एक मित्र, जिनके और मेरे बीच दुराव की कोई बात कभी नहीं रही, रोष [ २७ ] के बजाय तोभ से लिखते हैं:

‘भारत के युद्ध की अभिनय-स्थली होने पर, जो कोई अघटनीय घटना नहीं है, क्या गांधीजी अपने देशवासियों को यह सलाह देने के लिए तैयार हैं कि शत्रु की तलवार के सामने वे अपने सीने खोल दें? कुछ समय पहले वह जो कुछ कहते उसके लिए मैं अपने को वचनबद्ध कर लेता, लेकिन अब और अधिक विश्वास मुझे नहीं रहा है!'

मैं इन्हें विश्वास दिला सकता हूँ कि अपने हाल के लेखों के बावजूद, वह मुझमें इतना विश्वास रख सकते हैं कि अब भी मैं वही सलाह दूंगा जैसी कि उन्हें आशा है, मैंने पहले दी होती या जैसी मैंने चेकों या एबीसिनियनों को दी है। मेरी अहिंसा कड़ी चीज़ की बनी हुई है। वैज्ञानिकों को सबसे मजबूत जिस धातु का पता होगा उससे भी यह ज्यादा मजबूत है। इतने पर भी मुझे खेद-पूर्वक इस बात का ज्ञान है कि इसे अभी इसकी असली ताक़त प्राप्त नहीं हुई है। अगर वह प्राप्त हो गयी होती, तो संसार में हिंसा की जिन अनेक घटनाओं को मैं असहाय होकर रोज देखा करता हूँ उनसे निपटने का रास्ता भगवान् मुझे सुझा देता। यह मैं धृष्टतापूर्वक नहीं बल्कि पूर्ण अहिंसा की शक्ति का कुछ ज्ञान होने के कारण कह रहा हूँ। अपनी सीमितता या कमजोरी को छिपाने के लिए मैं अहिंसा की शक्ति को हलका नहीं आँकने दुँगा।

अब पूर्वोक्त प्रश्नों के जवाब में कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ : [ २८ ] (१) व्यक्तिगत रूप से मुझपर तो युद्ध को जो दहशत सवार हुई है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। आज मैं जितना दिलगीर हूँ उतना पहले कभी नहीं हुआ। लेकिन इससे भी बड़े खौफ़ के कारण आज मैं वैसी स्वेच्छापूर्ण भर्ती करनेवाला सार्जेण्ट नहीं बनूँगा जैसा पिछले महायुद्ध के वक्त में बन गया था। इतने पर भी यह अजीब-सा मालूम पड़ेगा कि मेरी सहानुभूति मित्र-राष्ट्रों के ही साथ है। जो भी हो, यह युद्ध पश्चिम में विकसित प्रजातन्त्र और जिसके प्रतीक हेर हिटलर हैं उस निंरंकुशता के बीच होनेवाले युद्ध का रूप धारण कर रहा है। रूस इसमें जो हिस्सा ले रहा है वह यद्यपि दु:खद है, फिर भी हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस अस्वाभाविक मेल से, चाहे अनजाने ही क्यों न हो, एक ऐसा सुखद हल पैदा होगा जो क्या शक्ल अख्तियार करेगा यह पहिले से कोई नहीं कह सकता। अगर मित्र-राष्ट्रों का उत्साह भंग न हो, जिसका जरा भी आसार नहीं है, तो इस युद्ध से सब युद्धों का अन्त हो सकता है-ऐसे भीषण रूप में तो जरूर ही जैसे में कि हम आज देख रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि यद्यपि भारत, अपने आन्तरिक भेदभावों से छिन्न-भिन्न हो रहा है, तो भी वह इस इष्ट उद्देश की पूर्ति तथा अबतक की अपेच्चता शुद्ध प्रजातंत्र के प्रसार में प्रभावशाली भाग लेगा। निस्सन्देह, यह इस बात पर है कि संसार के रंगमंच पर जो सच्चा दु:खद नाटक हो रहा है उसमें कार्य-समिति अन्त में जाकर कैसा भाग लेगी? इस नाटक में हम अभिनेता और दर्शक दोनों ही हैं। मेरा मार्ग तो निश्चित [ २९ ] है! चाहे मैं कार्य-समिति के विनम्र मार्गदर्शक का काम करूँ, या, अगर इसी बात को बिना किसी आपत्ती के मैं कह सकूँ तो कहूँगा कि, सरकार के मार्ग-दर्शक का-मेरा मार्ग-प्रदर्शन उनमें से एक को या दोनों को अहिंसा के मार्ग पर ले जाना होगा, चाहे वह प्रगति सदा अगोचर ही क्यों न रहे। यह स्पष्ट है कि मैं किसी रास्ते पर किसी को जबर्दस्ती नहीं चला सकता। मैं तो सिर्फ उसी शक्ति का उपयोग कर सकता हूँ, जो इस अवसर के लिए ईश्वर मेरे हृदय व मस्तिष्क में देने की कृपा करें।

(२) मैं समझता हूँ कि इस प्रश्न का जवाब पहले प्रश्न के जवाब में आ गया है।

(३) अहिंसा की भाँति हिंसा के भी दर्जे होते हैं। कार्यसमिति इच्छापूर्वक अहिंसा की नीति से नहीं हटी है। सच तो यह है कि वह ईमानदारी के साथ अहिंसा के वास्तविक फलितार्थों को स्वीकार नहीं कर सकती। उसे लगा कि बहुसंख्यक कांग्रेसजनों ने इस बात को स्पष्ट रूप से कभी भी नहीं समभा कि बाहर से आक्रमण होने पर वे अहिंसात्मक साधनों से देश की रक्षा करेंगे। सच्चे अर्थों में तो उन्होंने सिर्फ यही समझा है कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ कुल मिलाकर अहिंसा के जरिये वे सफल लड़ाई लड़ सकते हैं। अन्य क्षेत्रों में कांग्रेसजनों को अहिंसा के उपयोग की ऐसी शिक्षा मिली भी नहीं है। उदाहरण के लिए, साम्प्रदायिक दंगों या गुण्डेपन का अहिंसात्मक रूप से सफल मुक्राबिला करने का निश्चित तरीक़ा उन्होंने अभी नहीं [ ३० ] खोज पाया है। यह दलील अन्तिम है, क्योंकि वास्तविक अनुभव पर इसका आधार है। अगर इसलिए अपने सर्वोत्तम साथियों का मैं साथ छोड़ दूँ कि अहिंसा के विस्तृत सहयोग में वे मेरा अनुसरण नहीं कर सकते, तो मैं अहिंसा का उद्देश नहीं साधूंगा। इसलिए इस विश्वास के साथ मैं उनके साथ ही रहा कि अहिंसात्मक साधन से उनका हटना बिल्कुल संकीर्ण क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा और वह अस्थायी ही होगा।

(४) मेरे पास कोई खास योजना तैयार नहीं है, क्योंकि मेरे लिये भी यह क्षेत्र नया ही है। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि साधनों का मुझे चुनाव नहीं करना है, चाहे मैं कार्य-समिति के सदस्यों से मन्त्रणा करूं या वायसराय के साथ, वे साधन सदा शुद्ध अहिंसात्मक ही होने चाहिए। इसलिए जो मैं कर रहा हूँ वह खुद ही ठोस योजना का एक अङ्ग है। और बातें मुझे दिन-ब-दिन सूझती जायेंगी, जैसे कि मेरी सब योजनाओं के बारे में हमेशा हुआ है। असहयोग का प्रसिद्ध प्रस्ताव भी मेरे दिमाग में कांग्रेसमहासमिति की उस बैठक में, जो कि १९२० में कलकत्ते में हुई थी और जिसमें यह प्रस्ताव पास हुआ, कोई २४ घंटे से भी कम समय में आया, और अमली रूप में यही हाल दाण्डी-कूच का रहा। पहले सविनय भंग की नींव भी, जिसे उस वक्त निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया गया, प्रसंगवश, भारतीयों की उस सभा में पड़ी, जो इन दिनों के एशियाई-विरोधी क़ानून का मुक़ाबला करने के उपाय खोजने के उद्देश से १९०६ में जोहान्सबर्ग में हुई [ ३१ ] थी। सभा में जब मैं गया तो उस प्रस्ताव की पहले से मुझे कोई कल्पना नहीं थी। वह तो उस सभा में ही सूझा। इस सृजनशक्ति का भी अभी विकास हो रहा है, लेकिन फर्ज कीजिए कि ईश्वर ने मुझे पूरी शक्ति प्रदान की है, (हालाँकि वह कभी नहीं करता) तो मैं फ़ौरन अंग्रेज़ों से कहूँगा कि वे शस्र धर दें, अपने सब आधीन देशों को आजाद कर दें, ‘छोटे इंग्लैंडवासी' कहलाने में ही गर्वानुभव करें और संसार के सब निरंकुशतावादियों के बुरे-से-बुरा करने पर भी उनके आगे सिर न झुकायें। तब अंग्रेज बिना प्रतिरोध के मरकर इतिहास में अहिंसात्मक वीरों के रूप में अमर हो जायेंगे। इसके अलावा, भारतीयों को भी मैं इस दैवी शहादत में सहयोग करने के लिए निमंत्रित करूँगा। यह कभी न टूटनेवाली ऐसी साझेदारी होगी, जो ‘शत्रु' कहे जाने वालों के नहीं बल्कि उनके अपने शरीरों के खून से लिखे अक्षरों में अङ्कित हो जायेगी। लेकिन मेरे पास ऐसी सामान्य सत्ता नहीं है। अहिंसा तो धीमी प्रगतिवाला पौदा है। वह अदृश्य किंतु निश्चित रूप में बढ़ता है। और इस खतरे को लेकर कि मेरे बारे में भी ग़लतफ़हमी होगी, मुझे उस-और भी ‘क्षीण आवाज़' के अनुसार ही काम करना चाहिए।

हरिजन सेवक : ३० दिसम्बर १९३९