युद्ध और अहिंसा/१/५ भारत का रुख
पिछले २७ अगस्त को, याने मृढ़तापूर्ण लड़ाई शुरू होने के ठीक पहले श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय ने मुझे लिखा था:-
"बम्बई के ‘क्रानिकल' अख़बार के ज़रिये मैंने आपसे अपील की है कि आप वर्तमान स्थिति के बारे में भारत के ही नहीं बल्कि पूर्व की समस्त शोषित प्रजाऒं के रुख को व्यक्त करें। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि आप हमारी इस पुरानी स्थिति की फिर से ताईंद कर दें कि इस साम्राज्यवादी युद्ध से हमारा कोई सरोकार नहीं है, बल्कि मैं चाहती हूँ केि इससे कुछ अधिक किया जाये। वर्तमान संघर्ष खासकर उपनिवेशों या जिन्हें नरम शब्दों में अब प्रभावकारी क्षेत्र कहा जाता है उनकी साधारण छीनाभपटी के बारे में है। इस प्रश्न पर दुनिया के ख़याल में केवल दो रायें हैं, क्योंकि वह केवल दो ही मत सुनती है। एक तो वे लोग हैं जो पूर्वस्थिति के ही कायम रहने में विश्वास रखते हैं, और दूसरे वे हैं जो उसमें तब्दीली तॊ चाहते हैं पर चाहते हैं उसी आदार पर-दूसरे शब्दों में कहें तो वे लूट का फिर से बँटवारा और शोषण का अधिकार चाहते हैं, जिसका मतलब निसन्देह युद्ध ही है। यह तयशुदा और स्वाभाविक-सा है कि ऐसा पुनर्विभाजन सशस्र संघर्ष के बिना कभी नहीं हो सकता। उसके बाद उपभोग के लिए कोई रहेगा या नहीं और उपभोग के लायक कोई चीज भी रहेगी या नहीं, यह निसन्देह दूसरा सवाल है। लेकिन संसार मुख्यतः इन्ही दो में बँटा हुआ है। अगर एक की बात को ठीक माना जाये, तो दूसरे की बात को भी ठीक मानना चाहिए, क्योंकि अगर इग्लैण्ड और फ्रांस बड़े-बड़े भूभागों और राष्ट्रों पर शासन करने का अधिकार है तो जर्मनी और इटली को भी जरूर वैसा ही अधिकार है। इग्लैण्ड और फ्रांस का हिटलर को इससे रुकने के लिए कहना उतना ही कम न्यायोचित है जितना कि हिटलर का वह दावा जिसे केि वह अपना काजिब हक बतलाता है।
“इस सम्बन्ध में तीसरा विचार क्या है, यह संसार मुश्किल से ही सोचता जान पड़ता है, क्योंकि वह कभी-कभी ही सुनाई पड़ता है। लेकिन वह इतना आवश्यक है कि वह व्यक्त होना ही चाहिए, क्योंकि वह उन लोगों की आवाज है जो सारे खेल में प्यादों के मानिंद हैं। असली सवाल न तो डांज़िग का है, न पोलिश कोराइडर का। सवाल तो दरअसल उस सिद्धान्त का है, जिसपर कि इस वर्तमान पश्चिमी सभ्यता का सारा दारोमदार है। और वह है निर्बलों पर शासन करने और उनका शोषण करने के लिए बलवानों की लड़ाई। इसलिए यह सब उपनिवेशों के सारे सवाल के आसपस केन्द्रित है, और हिटलर तथा मुसोलिनी संसार को इसकी याद दिलाते कभी नहीं थकते। इंग्लैड ने साम्राज्य के खतरे में होने की जो आवाज उठायी है उसका भी वस्तुत: यही कारण है। इसलिए इस सवाल से हम सभी का घनिष्ठ सम्बन्ध है।
“हम, जैसी हालत है उसके वैसी ही बनी रहने के खिलाफ हैं। हम उसके खिलाफ लड़ रहे है, क्योंकि हम उसमें तब्दीली चाहते हैं। लेकिन युद्ध हमारा विकल्प नहीं है, क्योंकि हम यह अच्छ़ी तरह जानते हैं कि उससे समस्या वास्तविक रूप में हल नहीं होगी। हमारे पास दूसरा विकल्प ज़रूर है और वही इस भयंकर गड़बड़ी का एक मात्र हल और भविष्य की विश्व-शांति की कुब्जी है। उसी को मैं दुनिया के सामने पेश करना चाहती हूँ। आज वह अरण्य-रोदन के समान मालूम पड़ सकता है, मगर हम जानते हैं कि वही ऐसी आवाज है जो अन्त में कायम रहेगी और जो हाथ आज इन कवच-धारी भुजाओं के सामने बहुत कमजोर मालूम पड़ते हैं, वे ही अन्त में विध्वस्त मानवता का नवनिर्माण करेंगे।
“उस आवाज को व्यक्त करने के लिए आप सबसे उपयुक्त हैं। संसार के उपनिवेशों में, मैं समझती हूँ कि भारत का आज एक खास स्थान है। इसकी नैतिक प्रातान्य भी है और इसमें संगठन-सम्बन्धी शक्ति भी है जो बहुत ओद उपनिवेशों में होगी। दूसरे अनेक बातों में लोग इनकी ओर पथप्रदर्शन के आये निहारते हैं। ससार को वह लड़ाई की एक ऐसी ऊँची कला का प्रदर्शन भी करा चुका है, जिसके नैतिक मूल्य की किसी न किसी दिन वह जरूर क़द्र करेगा। इसलिए बिलकुल बावले और उन्मत्त संसार भारतवर्ष को यह कहना है कि मनवता को अगर बीच-बीच में होनेवाले ऐसे विनाशों से बचकर उत्पीड़ित संसार में शान्ति और स मंजस्य लाना है तो उसे आगे क़दम बढ़ाना ही पड़ेगा। जिन लोगों को इस पद्धति से इतना कष्ट उठाना पड़ा है और जो वीरतापूर्वक उसे बदलने के लिए लड़ रहे हैं वेही पूरे विश्वास और इसके लिए आवश्यक नैतिक आधार के साथ न केवल अपनी ओर से बल्कि संसार की समस्त शोषित और पीड़ित प्रजाओं की ओर से बोल सकते हैं।"
मुझे खेद है कि 'क्रानिकल' में प्रकाशित श्रीमती कमलादेवी का पत्र मैंने नहीं देखा। मैं कोशिश तो करता हूँ, फिर भी अखबारों को पूरी तरह नहीं पढ़ सकता! इसके बाद समय के अभाव से पत्र मेरी फाइल में रखा रहा। लेकिन मेरे खयाल में इस देरी से पत्र के उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं पड़ा। बल्कि मेरे लिए शायद यही ऐसा मनोवैज्ञानिक अवसर है जब मैं यह जाहिर करूँ कि भारत का रुख क्या है या क्या होना चाहिए। युद्ध करनेवाले पक्षों के उद्देश्यों का कमलादेवी ने जो विश्लेषण किया है उससे में सहमत हूँ। दोनों ही पंजवाले अपने अस्तित्व और अपनी गृहीत नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए ही लड़ रहे हैं। मगर दोनों में एक बड़ा फर्क जरूर है। मित्र-राष्ट्रों की घोषणायें कितनी ही अपूर्ण और संदिग्धार्थ क्यों न हों, संसार ने उनका अर्थ यह किया है कि वे लोकतंत्र की रच्ता के लिए लड़ रहे हैं । जब कि हेर हिटलर जर्मन सीमा-विस्तार के लिए लड रहे हैं। हालाँकि उनसे कहा गया था कि वह अपने दावे को एक निष्पन्न अदालतके सामने जाँच के लिए पेश करें । मगर शान्ति या समझौते के तरीके को उन्होंने उपेच्ता के साथ ठुकरा दिया और तलवार का ही रास्ता चुना । इसीलिए मित्र-राष्ट्रों के साथ मेरी सहानुभूति है। लेकिन मेरी सहानुभूति का मतलब यह हर्गिज नहीं समझना चाहिए कि मैं तलवार के न्याय का किसी भी रूप में समर्थन करता हूँ, फिर वह चाहे निश्चित रूप से ठीक बात के लिए ही क्यों न हो । वाजिब बात में तो ऐसी ज्ञमता होनी चाहिए कि जंगली या खूरेजी के साधनों के बजाय ठीक साधनों से उसकी रच्ता की जा सके । मनुष्य जिसे अपना हक या अधिकार समझता है उसको कायम रखने के लिए उसे खुद अपना खून बहाना चाहिए। अपने विरोधी का खून जो कि उसके 'अधिकार’ पर आपत्ति करे, उसे हर्गिज नही बहाना चाहिए । कांग्रेस जिस भारत का प्रतिनिधित्व करती है वह अपने ‘अधिकार’ को तलवार से नहीं बल्कि अहिंसात्मक उपाय से सिद्ध करने के लिए लड़ रही है। और उसने संसार में अपना एक अद्वितीय स्थान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है, यद्यपि अभी भी अपने उद्देश्य से वह दूर है-हमें आशा करनी चाहिए कि जिस स्वाधीनता का वह स्वप्न्न देख रहा है वह अब बहुत दूर नहीं है। उसके अदभुत उपाय की ओर संसार का ध्यान आकर्षित हुआ है, यह स्पष्ट है। अतः संसार को भारत से यह आशा करने का अधिकार है कि इस युद्ध में, जिसे संसार के किसी भी देश की प्रजा ने नहीं चाहा, यह आग्रह करके वह निश्चयात्मक भाग ले कि इस बार शान्ति इस तरह का मजाक न हो कि विजेता युद्ध के माल का आपस में बँटवारा कर लें और विजितों का अपमान हो। जवाहरलाल नेहरू ने, जिन्हें कि कांग्रेस की ओर से बोलने का अधिकार प्राप्त है, गौरवपूर्ण भाषा में कहा भी है कि शान्ति का मतलब उन लोगों की स्वतंत्रता होना चाहिए जिन्हें संसार की साम्राज्यवादी सत्ताओं ने गुलाम बना रखा है। मुझे इस बात की पूरी उम्मीद है कि कांग्रेस संसार को यह भी बतला सकेगी कि न्यायोचित बात की रक्षा के लिए शस्त्रास्त्र से जो शक्ति प्राप्त होती है वह इसी बात के लिए और वह भी तर्क के इससे अच्छे प्रदर्शन के साथ, अहिंसा से प्राप्त शक्ति के मुकाबिले में कुछ भी नहीं है। शस्त्रास्र कोई दलील नहीं दे सकते, वे तो उसका सिर्फ दिखावा ही कर सकते हैं।
हरिजन सेवक : १४ अक्तूबर, १९३९
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