युद्ध और अहिंसा/१/७ वही पार लगायेगा

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वही पार लगायेगा

“प्रिय बन्धु,

मेरा आपसे परिचय नहीं है, पर जब सन् १६३१ में आप डार्वेन ( लंकाशायर ) आये थे, उस समय मेरी पत्नी और मैं आपको अपना मेहमान बनानेवाले थॆ कि उससे कुछ ही पहले हमकॊ बर्लिन चला जाना पड़ा। वहाँ हमने पिछले महायुद्ध के बाद भूखों मरते बच्चों में कष्ट-निवारण का काम किया था। इस बार भी हम ५॥ वर्षे जर्मनी में रहे। इससे हमें यहाँ के ताज़े हालात का खासा ज्ञान है। हमें वहाँ के बहुत-से लोगों के साथ प्रेम भी हो गया है।

इस लड़ाई के शुरू में ‘हरिजन' में आपकी कुछ पंक्तियाँ पढ़कर मुझे बड़ी दिलचस्पी पैदा हुई और प्रेरणा मिली। आपने लिखा था कि, ‘अगर हिंसा से मेरे देश की आज़ादी मिलती हो तो भी मैं उस क़ीमत पर उसे नहीं लूंगा। मेरा यह अटल विश्वास है कि तलवार से ली हुई चीज़ उसी तरह चली भी जाती है।' बहन अँगाथा हैरीसन ने भी मुझे आपके कुछ लेख बताये। इनसे [ ४५ ] मुझे युद्ध के बारे में आपका रवैया समझने में मदद मिलती है। फिर भी मेरे मन पर चिन्ता का भार है। मैं वही आपके सामने रखना चाहता हूँ।

आज-कल बहुत-से पक्के शान्ति-प्रेमियों का भी यह हाल है कि जब कभी उनके देशों की स्वतन्त्रता बुरी तरह छीनी जाती है तो वे खुद भले ही युद्ध से अलग रहें, मगर वे समझते हैं कि खोई हुई आज़ादी को वापस लेने के लिए लड़ना आनिवार्य ही नहीं, उचित भी है। क्या ऐसे वक्त में आप जैसे आध्यात्मिक नेता और ईश्वरीय दूत का यह फर्ज़ नहीं है कि आगे बढ़कर युद्ध न पागलपने के बजाय कोई दूसरा ऐसा रास्ता सुझायें जिससे आपस के भगड़े तो दूर हो ही सकें, बुराई का मुकाबिला और राजनीतिक उद्दश्यों की पूर्ति भी हो सके? मेरी समज में नहीं आया कि जिस उत्तम मार्ग के आप अगुआ हैं उसकी संसार के आगे घोषणा न करके आप युद्ध से पैदा हुई स्थिति से भारत की स्वतन्त्रता के हक में लाभ उठाने की छोटी-सी बात क्यों सोच रहे हैं! मुझे लगता है कि शायद मैं आपको समझने में गलती कर रहा हूँ। मैॱ चाहता हूँ कि परमात्मा आपके देश की शुभाशायें पूरी करे, मगर यह साम्राज्यवादी ब्रिटेन को हिंसात्मक युद्ध में मदद देकर किसी सौदे की तरह पूरी न हों, बल्कि एक नया और पहले से अच्छा जगत् निर्माण करने की योजना के सिलसिले में होनी चाहिएँ।

युद्ध की पीड़ा और निराशा से विदीर्ण होकर मेरा हृदय आप [ ४६ ] को पुकार रहा है। मेरी तरह संसार में बहुत लोग ऐसे हैं जो इस बुराई में से समय रहते मानव जाति को मुक्त देखने के लिए तरस रहे हैं। शायद आप ही ऐसे आदमी हैं, जो हमारी मदद कऱ सकते हैं। कृपया विचार कीजिए।

४६,पार्लिमेंट हेिल
लंडन, एन. डब्ल्यू. ३

आपका
कॉर्डर कैचपूल”

यह लेखक के पत्र का सार है। मैं जानता हूँ कि इसमें जो रवैया प्रगट किया गया है वही अनेक अंग्रेजों का है। वे कोई अच्छा रास्ता सुभाने के लिए मेरी तरफ़ देख रहे हैं। मेरे सत्तर साल पूरे होने के उपलच्छ में सर राधाकृष्णन ने जो अभिनन्दन-ग्रंथ छपाया है उससे शांति के हजारों उपासकों की आशायें गहरी हो गई हैं। मगर यह तो मैं ही जानता हूँ कि इन आशाओं की पूर्ति के लिए मैं कितना कमजोर साधन हूँ। भक्तों ने मुझे जो श्रेय दिया है उसका मैं हक़दार नहीं रहा हूँ। मैं अभी यह साबित नहीं कर सका हूँ कि हिन्दुस्तान बलवानों की अहिंसा का कोई बढ़िया उदाहरण दुनिया के सामने पेश करता है और न यह कि हमला करनेवाले के खिलाफ़ सशस्त्र युद्ध के सिवाय कोई और भी कारगर उपाय हो सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दुस्तान ने यह तो दिखा दिया कि कमजोरों के हथियार के रूप में निष्क्रिय अहिंसा काम की चीज है। यह भी सही है कि आतंकवाद के बजाय अहिंसा उपयोगी है। मगर मैं यह दावा नहीं करता कि यह कोई नई या बड़ी बात है। इससे शांति के आन्दोलन को [ ४७ ] कुछ भी मदद नहीं मिलती।

मेरे पिछले लेख का पत्र-लेखक ने जो हवाला दिया है उसमें और कांग्रेस की माँग के साथ मेरे एकरस होजाने में विरोध दिखायी दे, तो कोई अचरज की बात नहीं है। मगर विरोध जैसी चीज़ असल में है नहीं। उस वक्त क्या, मैं तो अब भी अहिंसा का बलिदान करके आजादी नही लूँ। आलोचक यह ताना दे सकता है कि ब्रिटिश सरकार से जो घोषणा चाही जाती है वह करदे तो आप मित्र-राष्ट्रों की मदद करने लगेंगे और इस तरह हिंसा के भागीदार बन जायेंगे! यह ताना वाजिब होता, अगर बात यह न होती कि कांग्रेस की सहायता तो शुद्ध नैतिक सहायता होगी। कांग्रेस न धन देगी, न जन। उसके नैतिक प्रभाव का उपयोग भी शांति के लिए किया जायगा। मैं इस अखबार में पहले ही कह चुका हूँ कि मेरी अहिंसा बचाव और हमला करनेवाली अलग-अलग क़िस्म की हिंसाओं को मानती है। यह सही है कि अन्त में यह भेद मिट जाता है, मगर आरम्भ में तो उसका मूल्य है ही। मौका पड़ने पर अहिंसावादी व्यक्ति के लिए यह कहना धर्म हो जाता है कि न्याय किस तरफ़ है। इसीलिए मैंने अबीसीनिया, स्पेन, चेकोस्लावाकिया, चीन और पोलैण्ड के निवासियों की सफलता चाही थी, हालाँकि मैंने हर सूरत में यह चाहा था कि वे लोग अहिंसात्मक मुकाबिला करते। मौजूदा मामले मे अगर चेम्बरलेन साहब ने जो ऊँची बातें कहीं हैं उनपर अमल करके ब्रिटेन अपना दावा कांग्रेस के सामने सच्चा साबित करदे और हिन्दुस्तान [ ४८ ] आज़ाद घोषित कर दिया जाये, तो वह अपना सारा नैतिक प्रभाव शान्ति के पच्त में जुटा देगा। मेरी राय में जो हिस्सा मैं इस काम में ले रहा हूँ वह बिल्कुल अहिंसात्मक है। कांग्रेस की माँग के पीछे कोई सौदे की भावना नहीं है। वह माँग है भी तो खालिस नैतिक। न सरकार की तङ्ग करने की इच्छा है। सविनय-भंग भी जल्दबाजी में शुरू न होगा। इस बात की सावधानी रखी जा रही है कि कांग्रेस की माँग पर जो भी उचित आप़ति हो उसका समाधान किया जाये और वांछित घोषणा करने में ब्रिटेन को जो भी कठिनाई मालूम हो उसे कम किया जाये। जो अधीर कांग्रेसी अहिंसात्मक ही सही, लड़ाई के लिए छटपटा रहे हैं उनपर खूब जोर डाला जा रहा है। मैं खुद यह चाहता हूँ कि शांति-स्थापन के काम में मैं कारगर हिस्सा लेने के योग्य हो जाऊँ! ऐसा मैं उसी हालात में कर सकता हूँ, जब हिन्दुस्तान सचमुच ब्रिटेन का आजाद साथी बन जाये, भले ही कानूनी क्रियायें युद्ध खत्म होने के बाद होती रहें।

लेकिन मैं हूँ कौन? जो ईश्वर मुझे देता है। इसके अलावा मेरे पास कोई ताकत नहीं है। सिर्फ नैतिक प्रभाव के अलावा मेरी देश-वासियों पर भी कोई सजा नहीं है। इस समय संसार पर जिस भीषण हिंसा का साम्राज्य है उसकी जगह अहिंसा स्थापित करने के लिए ईश्वर मुझे शुद्ध अस्त्र समझता होगा तो वह मुझे बल भी देगा और रास्ता भी दिखायेगा। मेरा बड़ा से बड़ा हथियार तो मूक प्रार्थना है। इस तरह शान्ति स्थापन का काम [ ४९ ] ईश्वर के समर्थ हाथों में है। उसके हुक्म के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। उसका हुक्म उसके कानून की शक्ल में ही जारी होता है। यह कानून सदा वैसा ही रहता है, कभी बदलता नहीं उसमें और उसके कानून में कोई भेद भी नहीं है। हम उसे आैर उसके कानून को किसी आईने की मदद से ही पहचान सकते हैं और वह धुंधला-सा। पर उस कानून की जो हलकी सी झलक दिखाई देती है वह मेरे अन्तर को आनन्द, आशा और भविष्य में श्रद्धा से भर देने के लिए काफ़ी है

‘हरिजन-सेवक' : ६ दिसम्बर, १६३६