युद्ध और अहिंसा/१/८ असल बात
एक मित्र ने मुझे एक पत्र लिखा है। वह लगभग ज्यों-का-त्यों यह है:
हम सबके दिलों में आपका जो विशेष स्थान है उसके कारण आपपर इतनी भारी जिम्मेदारियाँ आ पड़ी हैं केि आपको पत्र लिखकर उस बोझ को बढ़ाने में मुझे हमेशा संकोच रहता है। असल में, मैं उसी समय लिखता हूँ जब मुझसे किसी खास प्रेरणा के कारण रहा ही नहीं जाता। आप जानते हैं कि लड़ाई शुरू होने के महीनों पहले से मेरे मन में कितनी गहरी चिन्ता रही है। आपको मेरा यह पक्का विश्वास भी मालूम है कि युद्ध अनिवार्य था, क्योंकि इसके मूल कारण इतने गहरे चले गये थे कि बातचीत से मामला सुलभ नहीं सकता था।
कांग्रेस ने अपने प्रस्ताव में यह माँग की कि अंग्रेज खासकर साम्राज्य के मातहत देशों और हिन्दुस्तान के लिए अपने इरादे खोलकर बतायें। यह मुझे बहुत सुन्दर लगा। इससे नैतिक प्रश्न साम्राज्य-सरकार के सीधे सामने आगये और जी स्वार्थपूर्ण और आदर्शहीन उपयोगिता का बुरा वातावरण आज दुनिया के मामले निपटाने में राजनीतियॊं पर हावी हो रहा है उसके बीच में हिन्दुस्तान एक अजीब शान के साथ खड़ा दिखाई देता है। यह तो मुझे आशा थी ही कि अंग्रेजीं लोग सीधा-सच्चा जवाब न दे सकेंगे और बदलें झाँकेंगे। जब हिन्दुस्तान को ‘स्वाधीनता' मिलेगी, तो उसका सबक यही होगा कि उसे हासिल करने में रुकावट डालने की केिसी की भी शक्ति नहीं रही थी। ‘स्वाधीनता' से मेरा अभिप्राय यह है कि हिन्दुस्तान को अंग्रेजों और बाक़ी दुनिया के साथ कैसे सम्बन्ध रखना है, इसका निर्णय करने की आज़ादी हो। मेरे खयाल में वह समय अभी नहीं आया है, पर वह प्रस्ताव पास होने के बाद हर हिन्दुस्तानी, फिर वह कहीं भी हो, दूसरे राष्ट्रों के लोगों के सामने अभिमान और गौरव के साथ चार आँखें कर सकता है। मुझे तो उससे बड़ी प्रेरणा मिली।
इस मामले में कांग्रेस के रवैये और काम से मैं सोलह आने सहमत हूँ। मगर कुछ दूसरी बातों में मेरी-उसकी पूरी तरह एक राय नहीं है। मुझे मालूम है कि अगर मैं बताऊँ तो आप धीरज से सुनेंगे।
पहली बात तो यह है कि मुझे ऐसा लगता है कि इस मामले को कुछ ऐसा समझा जा रहा है मानो यह सिर्फ अंग्रेजों को मदद देने की बात हो और अगर अंग्रेजों हिन्दुस्तान से मदद लेना चाहते हैं तो यह उनका काम है कि हिन्दुस्तान की वाजिब माँगों को मान लें और भीतरी का अर्थ भी मालूम होनी चाहिए। कि जर्मनी की जीत को रोकने की चिन्ता अंग्रेजों को ही मुख्यत: करनी चाहिए। हिन्दुस्तान दिल से सहायता देगा तो यह उसकी एक तरह की मेहरबानी होगी। यह मेहरबानी उसी हालत में की जानी चाहिए, जब हम अंग्रेजों को उसका हक़दार समझें। ये हक़ वे इस देश के सम्बन्ध में अपनी नेकनीयती दिखाकर ही साबित कर सकते हैं।
“बेशक वे अपनी नेकनीयती साबित करदें तो बढ़ी बढ़िया बात हो, पर जैसा कि मेरे ख़याल से मैंने पिछले पत्र में आपको लिखा था, मुझे इसमें बहुत विश्वास नहीं है। मैं मानता हूँ कि नीति या न्याय के ख़याल से नहीं बल्कि संसार की परिस्थिति से मजबूर होकर ही अंग्रेज जिन देशों पर उनकी हुकूमत है वहाँ से अपने विशेष अधिकार छोड़ेंगे। इसके बावजूद मेरी राय में हमें उनकी ‘पात्रता’ की तरफ नहीं देखना चाहिए। और न उनकी अपात्रता से हमें जरा भी वह सब मदद देने में रुकावट होनी चाहिए जो हम इस संकट के मौक़े पर पश्चिमी ‘लोकतन्त्रों’, यानी ब्रिटेन और फ्रास को दे सकते हैं।
“मुझे तो ऐसा लगता हैं कि उनकी पात्रता का सवाल नहीं उठता है। चेम्बरलेन और दूसरे लोग उन्हें “शान्ति-प्रेमी राष्ट्र” कहते हैं। अवश्य ही वे शान्ति चाहते हैं, बशर्ते कि वे दुनिया के साधनों के बटवारे का मौजूदा आधार क़ायम रखकर सुलह कर सकें। वे अपने आपको न्याय-प्रमी राष्ट्र भी बताते हैं। तो भी, हिटलर इस लड़ाई के लिए जिम्मेदार हो जैसा कि वह बेशक है तो भी मौजूदा साम्यवादी राष्ट्र और संयुक्त राज्य (अमेरीका) ही अन्त में दनिया की उस अन्यायपूर्ण परिस्थिति के लिए जिम्मेदार हैं जिससे हिटलर, हिटलर बन सका। बेशक, इस लड़ाई और पिछली लड़ाई दोनों का अन्तिम दोष जर्मनी की अपेकचा से फांस और इग्लैंड का ही अधिक है। इतने पर भी इन सब बातों का यह मतलब नहीं है कि जर्मनी की जीत से न्याय या दुनिया की भलाई बढ़ेगी। वे इटली और जापानवालों की तरह इस कल्पना को उत्साह के साथ मानने लगे हैं कि शैर-युरोपियन जातियों पर साम्राज्यवादी हुकूमत क़ायम की जाये। यह काम वे अंग्रेजों, फूांसीसियों और डच लोगों के ही हाथ में न छोड़कर खुद भी उसमें शामिल होना चाहते थे। नतीजा यह होगा कि जर्मनों की सच्ची जीत हुई ती साम्राज्यवाद के उसूल की जिन्दगी और भी बढ़ जायगी और मुझे भरोसा है कि शैर-युरोपियन जातियों की पराधीनता पहले से कहीं अधिक गम्भीर और पतित हो जायेगी-इसलिए उस हालत में साम्राज्यवाद शासकों के इस यकीन पर क़ायम होगा कि हम “ऊँची नसल” के हैं, इसलिए हमें पराधीन जाति के स्वार्थों को पूरी तरह हमारे अपने स्वाथों के मातहम रखने का पूरा अधिकार है। जर्मनों के बारे में जितना मैं खुद जानता हूँ उससे मुझे डर है कि अगर उन्होंने जीतकर यदि संसारव्यापी साम्राज्य क़ायम कर लिया तो वे "जाति" के इस तत्त्वज्ञान को निठुरता से अमल में लाकर उसे ठेठतक पहुँचाये बिना न रहेंगे। और हम अपने इन “आर्यन' प्रभुऒं के “लकड़हारे और पनिहारे” हो जायेंगे।
“देश की भीतरी कमज़ोरी या प्रसन्तोष से जर्मन सरकार की जल्दी ही कमर टूट जाये तो बात दूसरी है नहीं तो मुझे लड़ाई के तीन ही परिणाम सम्भव प्रतीत होते हैं: (१) जर्मनी की जीत (२) अंग्रेजों और उनके मित्रों की जीत (३) किसी भी पकष की साफ जीत न होकर गाड़ी रुक जाये।
“इसमें से पहली बात हो तो मेरे ख़याल से उससे बढ़कर और कोई विपति-ख़ासकर कमज़ोर शैर-युरोपियन जातियों के लिए-नहीं हो सकती। मैं बहुत भूल नहीं कर रहा हूँ तो उनके लिए यह बात ‘खड्डे में से निकलकर कुएँ में गिरने' जैसी होगी और वह भी पहले से बदतर।
“मुझे ऐसा भी लगता है कि अगर अंग्रेज़ों और फूांसीसियों की पूरी और भारी जीत हुई और जर्मन फिर उनकी दया पर रह गये, तो भी संसार के लिए मुसीबत ही होगी। हाँ, यह मुसीबत जर्मनी की जीत से कहीं कम होगी। मगर इसमें उन अवस्थाओं के स्थायी होने की सम्भावना रहेगी जो इस लड़ाई और पिछले महायुद्ध के मूल कारण हैं और कुछ साल बाद सब राष्ट्रों के नौजवानों को फिर घरों से निकल-निकलकर विशेष स्वार्थों और साम्राज्य के अधिकारों को क्रायम रखने के लिए अपने प्राण देने पड़ेंगे। नहीं, मित्र राष्ट्रों की जीत से भी समस्या हल न होगी। हमें फिर वही वसाई की संधि के परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
“तीनों में सब से अच्छा नतीजा तो यही हो सकता है कि किसी पकष की पूरी जीत न हुई हो, दोनों ने बराबरी के नाते संधिचर्चा करके सुलह कर ली हो और दोनों अच्छी तरह समझ गये हों कि और लड़ने का अनिवार्य परिणाम यही होगा केि संसार छिन्नभिन्न हो जाये और अव्यवस्था फैल जाये। जब नौबत यहाँ तक पहुँच जायगी कि दोनों पस्नेों को साफ-साफ मालूम हो जायगा कि समझौता नही करेंगे तो मिट जायेंगे, मेरे ख़याल से तभी किसी ऐसे निपटारे की आशा हो सकती है जिससे संसार में सच्ची शान्ति स्थापित हो जाये और राष्ट्रों के आपसी सम्बन्ध भविष्य में अधिक सन्तोषजनक रह सकें।
बड़ी मुश्किल तो यह है कि इस लड़ाई के परिणाम के विषय में निश्चय के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अख़बारों में जो दिलासा देनेवाला प्रचार हो रहा है उसके बावजूद दोनों तरफ की ज़ाहिरा और भीतरी शक्तियाँ इतनी बराबर की-सी हैं कि अगर यह देश अंग्रेजों की पूरी तरह सहायता न करे तो पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि अन्त में ब्रिटेन की हार नहीं होगी। उसका अर्थ होगा ७ करोड़ से ऊपर जर्मनों की जीत-यानी ऐसे लोगों की जीत जिनके दिलों में यह विश्वास जम गया है कि वे एक “ऊँची नसल” के हैं और इसलिए उन्हें दुनियाभर पर अपना साम्राज्य रखने का हक़ है। मेरा पक्का विश्वास है कि दोनों में से यह विपत्ति बड़ी होगी।
“अगर मुझे इतना भर मालूम हो जाये कि हिन्दुस्तान के बिल्कुल अलग रहने पर भी युद्ध का ऐसा अन्त न होगा तो मैं ज़रूर इस बात के हक में ही जाऊँगा कि यह देश इस समय कुछ भी मदद न दे और जिनके पास साम्राज्य है और जो साम्राज्य बनाना चाहते हैं उन दोनों को एक दूसरे के भेजे में समझ भरने के लिए छोड़ दिया जाये। इतना ही नहीं, मुझे यक़ीन हो जाये कि हिन्दुस्तान इस वक़त कठिनाइयाँ पैदा करके गाड़ी न रोक देगा तो भी अंग्रेजों और उनके मित्रों की ही पूरी जीत होगी, तो मैं पसन्द करूंगा कि हम ब्रिटेन की मुश्किलें बढ़ाकर वह परिणाम लायें। मगर यह यक़ीन तो ही नहीं सकता और नाजी सरकार की ज़बरदस्त जीत हुई तो इतनी भारी विपति होगी कि मेरी राय में उसकी जोखम उठाना हमारे लिए ठीक नहीं है। वह जोखम बहुत बड़ी है।
“सवाल यह नहीं है कि हम अंग्रेज़ों को जर्मनी पर विजय पाने में मदद देने की कृपा करें या न करें। नाज़ी जर्मनी लड़ाई में जीतकर दुनिया भर में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता है। यह वह उन शक्तियों को हराकर ही कर सकता है कि वे जर्मनी को रोक सकती हैं। हमारे सामने सवाल यह है कि हम दूसरों के साथ शामिल होकर इस तरह की जीत की असंभव बनायें या न बनायें। हेम, जो इस समय संसार के शोषित और पराधीन राष्ट्र हैं, जर्मनी की जीत को बर्दाश्त नहीं कर सकते। मुझे डर है केि इस वक्त हमने उसे रोकने में शामिल होने से इन्कार किया और अफ्रीका और उसके फलस्वरूप जर्मनी जीत गया तो संसार को और खासकर एशिया और अफ्रीका की गैर-युरोपियन और सैनिक दृष्टि से कम ज़ोर जातियों की जी परिणाम भोगने पड़ेंगे उनकी ज़िम्मेवारी से हम न बच सकेंके, हालाँकि यह सच है केि लड़ाई की परिस्थिति पैदा करने में हमारा कुछ भी हाथ नहीं है।
“आज मैंने ‘न्यूज़ क्रानिकल' को भेजा हुआ आपका वक्तव्य देखा। आपने मुद्दे कितने बढ़िया ढंग से निकाले हैं और इन मुद्दों को पश्चिमवालों के सामने हर बक्त रखना कितना ज़रूरी है! फिर भी मुझे लगता है कि आनेवाले समय का तकाज़ा और भी कुछ है वह यह है कि अंग्रेज़ जबतक हमारी उचित माँगों को मान न लें, तबतक हम इस नाजुक मौके पर हाथ-पर-हाथ धरे न बैठे रहें। संम्भव है, लड़ाई के नतीजे का दारोमदार इसी पर हो कि यह देश अन्त में नहीं बल्कि इस समय वया रास्ता पकड़ता है।
“मुझे जर्मनों से ज़रा भी घृणा नहीं है। उरुटे, मुझे उनके साथ गहरी सहानुभूति है। मुझे लगता है कि उनके और वैसे ही दूसरे जिन राष्ट्रों के पास साम्राज्य नहीं है उनके साथ बड़ा अन्याय हो रहा है और जिन राष्ट्रों के पास साम्राज्य हैं उनका वश चले ती वे इस अन्याय को सदा के लिए बनाये रखें। मगर मुझे नाजियों के मौजूदा दृष्टिकोण से ज़रूर नफरत और अन्देशा है, और वह खास तौर पर इसलिए कि जिन्हें वे 'नीची नसल' समझते हैं इनके साथ उनका व्यवहार बहुत बुरा होगा। मुझे रूस की भी इस बात से बड़ी घृणा है कि वहाँ 'अबांछ्नीय लोगों की छटनी' बहुत बेदर्दी के साथ की जाती है और आज़ादी के साथ विचार और प्रलोचना करने का ख़ानगी हक़ छीना जाता है फिर भी जर्मनों के मौजूदा विचारों को देखते हुए मैं उनके बजाय यह पसन्द करूंगा कि दुनिया पर रूसियों का आधिपत्य भले ही हो। रूसी कम-से-कम "ऊँची नसल" के तत्वज्ञान से तो कोई सरोकार नहीं रखेंगे। भले ही वे बीच बीच के वर्गवालों का सफाया करदं, पर जो बच रहेंगे उनके साथ नीची नसल का सा बताँव तो न करेंगे। मगर जर्मनों के दृष्टिकोण में तो हम सभी के लिए खतरा भरा है। मेरी समभ से इस बारे में कोई भी जोखम उठाना हमारे लिए पागलपन होगा।
“इस बीच दिन-दिन और घंटा-घंटा करके कीमती समय चला जा रहा है और हिन्दुस्तान ने श्रभी तक यह विश्वास नहीं करा दिया है कि वह अंग्रेज़ों की परेशानी का कारण नहीं बनेगा। यह देखकर क्या संसारभर में नाज़ीवाद की शक्तियों का हौसला और बल नहीं बढ़ेगा? मुझे नहीं दीखता कि इससे गैर-यूरोपियन जातियों की या जगत को कोई सेवा होगी।”
इसका मैंने नीचेलिखा उत्तर दिया है-:
“कोई अन्धविश्वास भले कहे तो भी मुझे एक चीज़ से प्रेम है। जब किसी मामले में दोनों ही तरफ़ अनीति न हो और मुझे कोई शंका हो कि किधर जाऊँ तो मैं चितपट कर लेता हूं और उसमें मुझे सचमुच ऐसा लगता है कि ईश्वर का हाथ है! मेरा और कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। मेरी राय में अन्तिम सत्ता ईश्वर में ही मानना वैज्ञानिक तरीका है। मौजूदा संकट में भी मैंने एक तरह के चितपट का आश्रय लिया है। अगर मेरी ही चलती तो आपको मालूम है कि क्या हुआ होता। पर वह होना नहीं था। कांग्रेस के तरीके में अनीति ती थी ही नहीं, उसके लिए नैतिक मार्ग भी एकमात्र वही था। यही वजह है कि मैंने कांग्रेस का साथ दिया। ऐसा करने में मेरा उद्देश्य यह था कि मेरे प्रस्ताव में जो अहिंसात्मक तरीक़ा था उसीको और भी आगे बढ़ा सकूं। कांग्रेस के तरीके में उस अर्थ की गुजाइश थी जो लेखक ने लगाया है। मैं इसे कोई शर्त नहीं मानता। यह तो चितपट है। कांग्रेस का कहना है कि अंग्रेजों का इरादा पाक है, तो हम मैदान में कूद पड़ेंगे। इस इरादे की परीच्ता करने का उपाय यह जान लेना है कि अंग्रेज हिन्दुस्तान के बारे में क्या सोचते हैं। अगर अंग्रेज़ों का उद्देश्य शुद्ध है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर चाहता है कि कांग्रेस अपना सारा प्रभाव अग्रेजों के पच्त में लगा दे ताकि अन्त में जीत सबसे प्रबल सेना की न होकर प्रबल पच्त की हो। आप जो चीजत चाहते हैं वह तो पहले से ही अग्रेजों के हाथ में है। बेरोक-टीक धन-जन लिये जा रहे हैं। जबतक हिंसा नहीं फूट पड़ती, तबतक ये दोनों चीजेों उन्हें मिलती रहेंगी। हिंसा को कांग्रेस बर्दाश्त नहीं करेगी। इसीलिए यह मानकर चला जा सकता है कि जहाँतक हिंसात्मक तरीके का सम्बन्ध है अंग्रेजों को कांग्रेस से जरा भी नहीं डरना चाहिए। मेरी राय में सिर्फ अहिंसात्मक दृष्टि-कोण ही सोचने लायक़ है और उसको देखा जाये तो जबतक अंग्रेजों की नैतिक स्थिति साफ न हो जाये, तबतक कांग्रेस का उन्हें नैतिक सहायता देना अनीतिपूर्ण होगा।
“आपकी तरह में नाजीवाद के बारे में कोई नियम नहीं बनाना चाहता। जर्मन भी वैसे ही मनुष्य हैं जैसे आप या मैं। और ‘वादों' की तरह नाजीवाद भी आज का खिलौना है। जो उनका हाल होना है वही इसका भी होगा।
“आप और मुझमें जो फर्क है वह मेरी समझ में आ गया है। पश्चिमी होने के कारण आप बुद्धि को श्रद्धा के मातहत नहीं कर सकते। मैं हिन्दुस्तानी ठहरा। मैं चाहूँ तो भी श्रद्धा की बुद्धि के अधीन नहीं कर सकता। आप परमपिता परमात्मा को भी अपनी बुद्धि से ललचाना चाहते हैं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। देवं चैवात्र पंचमम्।"
“हमारे बौद्धिक मतभेदों के बावजूद हमारे हृदय हमेशा ही एक रहे हैं, और रहँगे।”
‘हरिजन-सेवक' : २३ दिसम्बर, १९३९