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युद्ध और अहिंसा/२/२ अगर मैं 'चेक' होता!

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ ११९ से – १२५ तक

 
:२:
अगर मैं 'चेक' होता!

हेर हिटलर के साथ जो समझौता हुआ है उसे मैंने 'असम्मानपूर्ण शान्ति' कहा है, लेकिन ऐसा कहने में ब्रिटिश या फेंच राजनीतिज्ञों की निन्दा करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मुझे इस बारे में कोई सन्देह नहीं है कि श्री चैम्बरलेन इससे बेहतर किसी बात का खयाल हो नहीं कर सकते थे, क्योंकि अपने राष्ट्र की मर्यादाओं का उन्हें पता था। युद्ध अगर रोका जा सकता हो तो वह उसे रोकना चाहते थे। युद्ध को छोड़कर, चेकों के पक्ष में उन्होंने अपना पूरा जोर लगाया। इसलिए आत्मसम्मान को भी छोड़ना पड़ा तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है। हेर हिटलर या सिन्योर मुसोलिनी के साथ झगड़ा होने पर इस बार ऐसा ही होगा।

इससे अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता, क्योंकि प्रजातन्त्र खूनखराबी से डरता है। और जिस तत्त्वज्ञान को इन दोनों अधिनायकों ने अपनाया है वह खूनखराबी से बचना कायरता समझता है। वे तो संगठित हत्या की प्रशंसा में सारी कवि-कला खर्च कर डालते हैं। उनके शब्द या काम में कोई धोखा नहीं है। युद्ध के लिए वे सदा तैयार रहते हैं। जर्मनी या इटली में उनके आड़े आनेवाला कोई नहीं है। वहाँ तो उनका शब्द ही कानून है।

श्री चैम्बरलेन या श्री दलादियर की स्थिति इससे भिन्न है। उन्हें अपनी पार्लमेण्टों और चैम्बरों को सन्तुष्ट करना पड़ता है। अपनी पार्टियों से भी उन्हें सलाह करनी पड़ती है। अगर अपनी जुबान को उन्हें लोकतन्त्री भावनायुक्त रखना है, तो वे हमेशा युद्ध के लिए तैयार नहीं रह सकते।

युद्ध का विज्ञान शुद्ध और स्पष्ट अधिनायकत्व (डिक्टेटरशिप) पर ले जाता है। एकमात्र अहिंसा का विज्ञान ही शुद्ध प्रजातंत्र की ओर ले जानेवाला है। इंग्लैण्ड, फांस और अमेरिका को यह सोच लेना है कि वे इनमें से किसको चुनेंगे ? यही इन दो अधिनायकों (डिक्टेटर) की चुनौती है।

रूस का अभी इन बातों से कोई मतलब नहीं है। रूस में तो एक ऐसा अधिनायक है जो शान्ति के स्वप्न देखता है और यह समझता है कि खून की नदियां बहाकर वह उसे स्थापित करेगा । रूसी अधिनायकत्व दुनिया के लिए कैसा होगा, यह अभी कोई नहीं कह सकता।

चेकों और उनके द्वारा उन सब देशों को, जो 'छोटे' या 'कमज़ोर' कहलाते हैं, मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ उसकी भूमिका-स्वरूप यह सब कहना जरूरी था। चेकों से मैं कुछ इसलिए कहना चाहता हूँ, कि उनकी दुर्दशा से मुझे शारीरिक और मानसिक वेदना हुई है और मुझे ऐसा लगा कि इस सिल. सिले में जो विचार मेरे दिमाग में चक्कर काट रहे थे उन्हें अगर उनपर प्रगट न करूं तो वह मेरी कायरता होगी। यह तो स्पष्ट है कि छोटे राष्ट्र या तो अधिनायकों के आधीन हो जायें या उनके संरक्षण में आने के लिए तैयार रहें, नहीं तो यूरोप को शान्ति बराबर खतरे में रहेगी। यथासम्भव पूरी सद्भावना रखते हुए भी इंग्लैण्ड और फ्रांस उनकी रक्षा नहीं कर सकते। उनके हस्तक्षेप का मतलब तो ऐसा रक्तपात और विनाश ही हो सकता है जैसा पहले कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इसलिए, अगर मैं चेक होता, तो इन दोनों राष्ट्रों को अपने देश की रक्षा करने की जिम्मेदारी से मुक्त कर देता। इतने पर भी मुझे जीवित तो रहना ही चाहिए। किसी राष्ट्र या व्यक्ति का आश्रित मैं नहीं बनेगा। मुझे तो पूरी स्वतंत्रता चाहिए, नहीं मैं मर जाऊँगा। हथियारों की लड़ाई में जीतने की इच्छा करना तो निरी कोरी शेखी होगी। लेकिन जो मुझे अपनी स्वतंत्रता से वंचित करे उसकी इच्छा का पालन करने से इन्कार करके उसको ताकत की अवज्ञा कर इस प्रयत्न में मैं निरस्त्र मर जाऊँ, तो वह कोरी शेखी नहीं होगी। ऐसा करने में मेरा शरीर तो नष्ट हो जायगा, लेकिन मेरी आत्मा याने मान-मर्यादा की रक्षा हो जायगी।

अभी-अभी इस अपकीर्तिकारक शांति की जो घटना घटी है, यही मेरा मौका है। इस नदामत के कलंक को धोकर मुझे अब सची स्वतंत्रता प्राप्त करनी होगी।

लेकिन एक हमदर्द कहता है, "हिटलर दया-मया कुछ नहीं जानता। आपका आध्यात्मिक प्रयत्न उसे किसी बात से नहीं रोकेगा।"

मेरा जवाब यह है कि "आपका कहना ठीक होगा। इतिहास में ऐसे किसी राष्ट्र का उल्लेख नहीं है, जिसने अहिंसात्मक प्रतिरोध को अपनाया हो। इसलिए हिटलर पर अगर मेरे कष्टसहन का असर न पड़े तो कोई बात नहीं, क्योंकि उससे मेरा कोई खास नुकसान न होगा। मेरे लिए तो मेरी मान-मर्यादा ही सब कुछ है और उसका हिटलर की दया भावना से कोई ताल्लुक नहीं। लेकिन अहिंसा में विश्वास रखने के कारण, मैं उसकी सम्भावनाओं को मर्यादित नहीं कर सकता। अभीतक उनका और उन जैसे दूसरों का यही अनुभव है कि मनुष्य पशुबल के आगे झुक जाते हैं। निःशस्त्र पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का अपने अन्दर कोई कटुता रक्खे बिना अहिंसात्मक प्रतिरोध करना उनके लिए एक अद्भुत अनुभव होगा। यह तो कौन कह सकता है कि ऊँची और श्रेष्ठ शक्तियों का आदर करना उनके स्वभाव के ही विपरीत है। उनके भी तो वही आत्मा है जो मेरे है।"

लेकिन दूसरा हमदर्द कहता है, "आप जो कुछ कहते हैं वह आपके लिए तो बिलकुल ठीक है। पर जनता से आप इस श्रेष्ठ का आदर करने की आशा कैसे करते हैं, वे तो लड़ने के आदि हैं। व्यक्तिगत वीरता में वे दुनिया में किसी से कम नहीं हैं। उन्हें अब अपने हथियार छोड़कर अहिंसात्मक प्रतिरोध की शिक्षा पाने के लिए कहने का श्रापका प्रयत्न मुझे तो व्यर्थ ही मालूम पड़ता है।"

"आपका कहना ठीक होगा। लेकिन मुझे अन्तरात्मा का जो आदेश मिला है उसका पालन करना ही चाहिए। अपने लोगों याने जनता तक मुझे अपना सन्देश जरूर पहुँचाना चाहिए। यह अपमान मेरे अन्दर इतना अधिक समा गया है कि इससे बाहर निकलने के लिए कोई रास्ता चाहिए हो। कम-से-कम मुझे तो उसो तरह प्रयत्न करना चाहिए जैसा कि प्रकाश मुझे मिला है।"

यही वह तरीका है जिसपर कि, मेरा खयाल है, अगर मैं चेक होता तो मुझे चलना चाहिए था। सब से पहले जब मैंने सत्याग्रह शुरू किया, तब मेरा कोई संगी-साथी नहीं था। सारे राष्ट्र के मुकाबले में हम सिर्फ तेरह हजार पुरुष, स्त्री और बच्चे थे, जिन्हें बिलकुल मटियामेट कर देने को भो उस राष्ट्र में क्षमता थी। मैं यह नहीं जानता था कि मेरी वान कौन सुनेगा। यह सब बिलकुल अचानक-सा हुआ। कुल १३,००० लड़े भी नहीं। बहुत-से पिछड़ गये। लेकिन राष्ट्र को लाज रह गई, और दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह से एक नये इतिहास का निर्माण हुआ।

खान अब्दुलगफ्फार खाँ शायद इसके और भी उपयुक्त  उदाहरण हैं, जो अपने को ‘खुदाई खिदमतगार’ कहते हैं और पठान जिन्हें फख-ए-अफरन' कहकर प्रसन्न होते हैं। जब कि मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, वह मेरे सामने बैठे हुए हैं। उनकी प्रेरणा पर उनके कई हज़ार आदमियों ने हथियार बाँधना छोड़ दिया है। अपने बारे में तो उनका ख्याल है कि उन्होंने अहिंसा की शक्ति को हृदयंगम कर लिया है; पर अपने आदमियों के बारे में उन्हें निश्चय नहीं है। उनके आदमी यहाँ क्या कर रहे हैं वह सब अपनी आखों से देखने के लिए ही मैं सीमाप्रान्त आय हूँ, या यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि वह मुझे यहाँ लाये हैं। यह तो मैं पहले से ही फौरन कह सकता हूँ कि इन लोगों को अहिंसा का ज्ञान बहुत कम है। इनका सबसे बड़ा खजाना तो अपने नेता में अटुट विश्वास है। इन शान्ति-सैनिकों को मैं ऐसा नहीं समझता जिन्होंने इस दिशा में सम्पूर्णता प्राप्त कर ली हो। मैं तो इनका उल्लेख सिर्फ इसी रूप में कर रहा हूँ कि एक सैनिक अपने साथियों को शांति-मार्ग पर लाने का ईमानदारी के साथ प्रयत्न कर रहा है। यह मैं कह सकता हूँ कि उनका यह प्रयत्न ईमानदारी के साथ किया जा रहा है और अन्त में यह चाहे सफल हो या असफल, भविष्य में सत्याग्रहियों के लिए यह शिक्षाप्रद होगा। मेरा उद्देश्य तो इतने मैं ही सफल हो जाएगा कि मैं इन लोगों के दिलों तक पहुँचकर इन्हें यह महसूस करा दूँ कि अपनी अहिंसा से अगर ये अपने को सशस्त्र स्थिति से अधिक बहादुर अनुभव करते हों तभी ये उसपर क़ायम रहें, नहीं तो उसे छोड़ दें क्योंकि ऐसा न होने पर तो वह कायरता का ही दूसरा नाम है, और जिन हथियारों को उन्होंने स्वेच्छा से छोड़ रखा है उन्हें फिर से ग्रहण कर लें।

डा० बेनेस को मैं यही अस्त्र पेश करता हूँ, जो कि दरअसल कमजोरों का नहीं, बहादुरों का हथियार है; क्योंकि मन में किसी के प्रति कटुता न रखकर, पूरी तरह यह विश्वास रखते हुए कि आत्मा की सेवा और किसी का अस्तित्व नहीं रहता, दुनिया की ताकत के सामने, फिर वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, घुटने टेकने से दृढ़तापूर्वक इंकार कर देने से बढ़कर कोई वीरता नहीं है।

'हरिजन-सेवक'ː १५ अक्तूबर, १९३८