युद्ध और अहिंसा/२/१ चेकोस्लोवाकिया और अहिंसा का मार्ग
: २ :
अबीसीनिया का युद्ध
- चेकोस्लोवाकिया और अहिंसा का मार्ग
- अगर मैं 'चेक' होता!
- बड़े-बड़े राष्ट्रों के लिए अहिंसा
- यहूदियों का सवाल
- जर्मन आलोचकों को
- आलोचनाओं का जवाब
- क्या अहिंसा बेकार गयी?
- क्या करें?
- अद्वितीय शक्ति
: १ :
यह जानकर खुशी होनी ही चाहिए कि फ़िलहाल तो युद्ध का खतरा टल गया है। इसके लिए जो क़ीमत चुकानी पड़ी क्या शायद वह बहुत ज़्यादा है? क्या इसके लिए शायद अपनी इज़्ज़त से हाथ नहीं धोना पड़ा है? क्या यह संगठित हिंसा की विजय है? क्या हेर हिटलर ने हिंसा को संगठित करने का ऐसा नया तरीका ढूंढ़ँ निकाला है कि जिससे रक्तपात किये बिना ही अपना मतलब सिद्ध हो जाता है? मैं यह दावा नहीं करता कि यूरोप की राजनीति से मुझे जानकारी है। लेकिन मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि यूरोप में छोटे राष्ट्र अपना सिर ऊँचा रखकर कायम नहीं रह सकते। उन्हें तो उनके बड़े-बड़े पड़ोसी हजम कर ही लेंगे और उन्हें उनके जागीरदार बनकर ही रहना पड़ेगा।
यूरोप ने चार दिन की दुनियवी ज़िन्दगी के लिए अपनी आत्मा को बेच दिया है। म्यूनिक में यूरोप को जो शान्ति प्राप्त हुई हैं वह तो हिंसा की विजय है। साथ ही वह उसकी हार भी है। क्योंकि इंग्लैंड और फ्रांस को अगर अपनी विजय का निश्चय होता, तो वे चेकोस्लोवाकिया की रक्षा करने या उसके लिए मर मिटने के अपने कर्तव्य का पालन ज़रूर करते। मगर जर्मनी और इटली की संयुक्त हिंसा के सामने वे हिम्मत हार गये। लेकिन जर्मनी और इटली को क्या लाभ हुआ? क्या इससे उन्होंने मानव-जाति की नैतिक सम्पत्ति में कोई वृद्धि की है?
इन पंक्तियों को लिखने में उन बड़ी-बड़ी सत्ताशओं से मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैं तो उनकी पाशवी शक्ति से चौंधिया जाता हूँ। चेकोस्लोवाकिया की इस घटना में मेरे और हिन्दुस्तान के लिए एक सबक मौजूद है। अपने दो बलवान साथियों के अलग हो जाने पर चेक लोग और कुछ कर ही नहीं सकते थे। इतने पर भी मैं यह कहने की हिम्मत करता हूँ कि राष्ट्रीय सम्मानरच्ता के लिए अहिंसा के शस्त्र का उपयोग करना अगर उन्हें आता होता; तो जर्मनी और इटली की सारी शक्ति का वे मुकाबला कर सकते थे। उस हालत में इंग्लैंड और फ्रांस को वे ऐसी शान्ति के लिए आरजू-मिन्नत करने की बेइज्ज़ती से बचा सकते थे, जो वस्तुतः शान्ति नहीं है और अपनी सम्मान-रक्षा के लिए वे अपने को लूटनेवालों का खून बहाये बिना मदों की तरह खुद मर जाते। मैं यह नहीं मानता कि ऐसी वीरता, या कहिए कि निग्रह, मानव-स्वभाव से कोई परे की चीज है। मानव-स्वभाव अपने असली स्वरूप में तो तभी आयगा जबकि इस बात को पूरी तरह समझ लिया जायगा कि मानव-रूप अख्त्यार करने के लिए उसे अपनी पाशविकता पर रोक लगानी पड़ेगी। इस वक्त हमें मानवरूप तो प्राप्त है, लेकिन अहिंसा के गुणों के अभाव में अभी भी हमारे अन्दर प्राचीनतम पूर्वज-'डार्विन' के बन्दर के संस्कार विद्यमान हैं।
यह सब मैं यों ही नहीं लिख रहा हूँ। चेकों को यह जानना चाहिए कि जब उनके भाग्य का फैसला हो रहा था तब कार्यसमिति को बड़ा कष्ट हो रहा था। एक तरह तो यह कष्ट बिलकुल खुदगर्जी का था। लेकिन इसी कारण वह अधिक वास्तविक था। क्योंकि संख्या की दृष्टि से तो हमारा राष्ट्र एक बड़ा राष्ट्र है, लेकिन संगठित वैज्ञानिक हिंसा में वह चेकोस्लोवाकिया से भी छोटा है। हमारी आजादी न केवल खतरे में है, बल्कि हम उसे फिर से पाने के लिए लड़ रहे हैं। चेक लोग शस्त्रास्त्रों से पूरी तरह सुसज्जित हैं, जबकि हम लोग बिलकुल निहत्थे हैं। इसलिए समिति ने इस बात का विचार किया कि चेकों के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है, और अगर युद्ध हो तो कांग्रेस को क्या करना चाहिए। क्या हम चेकोस्लोवाकिया के प्रति मित्रता जाहिर करके अपनी आजादी के लिए इंग्लैण्ड से सौदा करें, या वक्त पड़ने पर अहिंसा के ध्येय पर कायम रहते हुए पीड़ित जनता से यह कहें कि हम युद्ध में शामिल नहीं हो सकते, फिर वह प्रत्यक्ष रूप में चाहे उस चेकोस्लोवाकिया की रक्षा के लिए ही क्यों न हो जिसका एकमात्र कसूर यह है कि वह बहुत छोटा होने के कारण अपने आप अपनी रक्षा नहीं कर सकता। सोच-विचार के बाद कार्य-समिति करीब-करीब इस निर्णय पर आई कि वह इंग्लैण्ड से सौदा करने के इस अनुकूल अवसर को तो छोड़ देगी, लेकिन संसार की शान्ति, चेकोस्लोवाकिया की रक्षा और हिन्दुस्तान की आजादी की दिशा में संसार के सामने यह घोषित करके वह अपनी देन जरूर देगी कि सम्मानपूर्ण शान्ति का रास्ता निर्दोषों की पारस्परिक हत्या नहीं, बल्कि इसका एकमात्र सञ्चा उपाय प्राणों तक की बाजी लगाकर सगठित अहिंसा को अमल में लाना है।
अपने ध्येय के प्रति वफ़ादार रहते हुए कार्य-समिति यही तर्कसम्मत और स्वाभाविक रास्ता अख्त्यार कर सकती थी, क्योंकि अगर हिन्दुस्तान अहिंसा से आजादी हासिल कर सकता है, जैसा कि कांग्रेसजनों का विश्वास है, तो उसी उपाय से वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षा भी कर सकता है और इसलिए और इस उदाहरण पर चेकोस्लोवाकिया-जैसे छोटे राष्ट्र भी ऐसा ही कर सकते हैं।
युद्ध छिड़ जाता तो कार्य-समिति असल में क्या करती, यह मैं नहीं जानता। लेकिन युद्ध तो अभी सिर्फ टला है। साँस लेने के लिए यह वक़्त मिला है, इसमें मैं चेकों के सामने अहिंसा का रास्ता पेश करता हूँ। वे यह नहीं जानते कि उनकी किस्मत में क्या-क्या बदा है? लेकिन अहिंसा-मार्ग पर चल करके वे कुछ खो नहीं सकते। प्रजातन्त्रीय स्पेन का भाग्य आज झूले में लटक रहा है। और यही हाल चीन का भी है। अन्त में अगर ये सब हार जायें तो इसलिए नहीं हारेंगे कि इनका पक्ष न्यायोचित नहीं है, बल्कि इसलिए कि विनाश या जन-संहार के विज्ञान में वे अपने विपक्सि की बनिस्बत कम कुशल हैं या इसलिए कि उनका सैन्यबल अपने विनाशियों की अपेक्ष्का कम है। प्रजातन्त्री स्पेन के पास अगर जनरल प्रोम्को के साधन हों या चीन के पास जापान की-सी युद्ध-कला हो, अथवा चेकों के पास हर हिटलर की जैसी कुशलता हो तो उन्हें क्या लाभ होगा? मैं तो कहता हूँ कि अपने विरोधियों से लड़ते हुए मरना अगर बहादुरी है और वह वस्तुतः है, तो अपने विरोधियों से लड़ने से इन्कार कास्द् भी उनके आगे न भुकना और भी बहादुरी है। जब दोनों ही सूरतों में मृत्यु निश्चित है, तब दुश्मन के प्रति अपने मन में कोई भी देश-भाव रखे बिना छाती खोल्कर मरना क्या अधिक श्रेष्ठ नहीं है?
- हरिजन-सेवक': ८ अक्तूबर्, १६३८