युद्ध और अहिंसा/२/५ जर्मन आलोचकों को गांधीजी का जवाब

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जर्मन आलोचकों को गांधीजी का जवाब

['हरिजन' में प्रकाशित गांधीजी के “यहूदियों का सवाल" शीर्षक लेख की हाल में जर्मनपत्र 'नाशोसगाबे में जर्मनी के एक लेखक ने जो आलोचना की है, उसके जवाब में गांधीजी ने 'स्टेट्समैन' के संवाददाता को नीचे लिखा विशेष संदेश दिया है-सं०]

यहूदियों के प्रति जर्मनों के बर्ताव के बारे में मैंने जो लेख लिखा था उस पर जर्मनी ने जो रोष जाहिर किया है उसके लिए, यह बात नहीं कि, मैं तैयार नहीं था। यूरोप की राजनीति के बारे में अपनी अज्ञानता तो मैं खुद ही स्वीकार कर चुका हूँ। पर यहूदियों की बहुत-सी मुसीबतों को दूर करने के अर्थ उन्हें अपना उपाय सुझाने के लिए यूरोपियन राजनीति के सही ज्ञान की मुझे जरूरत भी नहीं थी। उनपर तो जुल्म हुए हैं, उनके बारे की मुख्य हकीकतै बिल्कुल निर्विवाद हैं। मेरे लेख पर पैदा हुआ रोष जब दब जायगा, और खामोशी छा जायगी, तब अत्यन्त ऋद्ध जर्मन को भी यह मालूम हो जायगा कि मेरे लेख की तह में जर्मनी के प्रति मित्रता की ही भावना थी, द्वष की हर्गिज नहीं।

क्या मैंने बार-बार यह नहीं कहा है कि विशुद्ध प्रेम-बन्धत्व [ १४० ] या समत्व की भावना ही अमली अहिंसा है? और यहदी लोग असहायावस्था और आवश्यकतावश मजबूरी से अहिंसा को ग्रहण करने के बजाय अगर अमली अहिंसा, याने गैर यहूदी जर्मन के प्रति जान-बूझकर बन्धत्व की भावना को अपना लें, तो मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि जर्मनों का दिल पसीज जायगा। इसमें शक नहीं कि संसार की प्रगति में यहूदियों की बहुत बड़ी देन है, लेकिन उनका यह महान कार्य उनकी सबसे बड़ी देन होगी और युद्ध एक अतीत की चीज़ बन जायगा।

यह बात मेरी समझ में ही नहीं आती कि मैंने जो बिलकुल निर्दोष लेख लिखा था उस पर कोई जर्मन क्यों नाराज हो। निस्सन्देह, जर्मन आलोचक भी दुसरों की तरह यह कहकर मेरा मजाक उड़ा सकते थे कि यह तो एक स्वप्नदर्शी का प्रयत्न है, जिसका असफल होना निश्चित है। इसलिए मैं उनके इस रोप का स्वागत ही करता हूँ, हालाँकि मेरे लेख को देखते हुए उनका यह रोप बिलकुल नामुनासिब है।

क्या मेरे लेख का कोई असर हुआ है? क्या लेखक को यह लगा है कि मैंने जो उपाय सुझाया है, वह ऊपर से जैसा हास्यास्पद दीखता है असल में वैसा हास्यास्पद नहीं बल्कि बिल्कुल व्यावहारिक है? काश, कि बदले की भावना के बगैर कष्ट-सहन के सौन्दर्य को हम समझ लें। मैंने यह लेख लिखकर अपनी, अपने आन्दोलन की और जर्मन-भारतीय सम्बन्धों को कोई भलाई नहीं की है, इस कथन में धमकी भरी हुई है। यह कहना अनुचित भी न [ १४१ ] हो, तो भो अप्रासंगिक तो जरूर है। और जिसे मैं अपने अन्ततम में सौ फीसदी सलाह समझता हूँ उसे, अपने देश या अपने या जर्मन-भारतीय सम्बन्धों पर कोई आँच पाने के भय से, देने में पशोपेश करूँ, तो मुझे अपने को कायर ही समझना चाहिए।

बर्लिन के लेखक ने निश्चय ही यह एक अजीब सिद्धान्त निकाला है कि जर्मनी के बाहर के लोगों को जर्मन कामों पर टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए, फिर ऐसा अत्यधिक मित्रता के भाव से हो क्यों न किया जाय। अपनी तरफसे तो मैं निश्चय ही उन दिलचस्प बातों का स्वागत करूँगा जो जर्मन या दूसरे बाहरी लोग हिन्दुस्तानियों के बारे में हमें बतलायेंगे। अंग्रेजों की ओर से कुछ कहने की मुझे कोई जरूरत नहीं है। लेकिन ब्रिटिश प्रजा को, अगर मैं थोड़ा भी जानता हूँ, तो वह भी ऐसी बाहरी आलोचना का स्वागत ही करेगी, जो अच्छी जानकारी के साथ को जाय और जो द्वष से मुक्त हो। इस युग में, जब कि दूरी की कोई कठिनाई नहीं रही है, कोई भी राष्ट्र 'कूपमण्डूक' बनकर नहीं रह सकता। कभी-कभी तो दूसरों के दृष्टिकोण से अपने को देखना बड़ा लाभकारक होता है। इसलिए अगर कहीं जर्मन आलोचकों की नजर मेरे इस जवाब पर पड़े, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि वे मेरे लेख के बारे में न केवल अपनी राय ही बदल देंगे, बल्कि साथ ही बाहरी आलोचना के महत्व को भी महसूस करेंगे।

'हरिजन-सेवक' : १० दिसम्बर ११३८