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युद्ध और अहिंसा/२/६ आलोचनाओं का जवाब

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १४२ से – १४५ तक

 
:६:
आलोचनाओं का जवाब

कुछ मित्रों ने मेरे पास अखबारों की दो कतरने भेजी हैं, जिनमें यहूदियों से की गई मेरी अपील की आलोचना है। दोनों आलोचकों का कहना है कि यहूदियों के साथ जो अन्याय हो रहा है उसके प्रतिकार के लिए अहिंसा का उपाय सुझाकर मैंने कोई नई बात उनके सामने नहीं रक्खी, क्योंकि पिछले दो हजार बरसों से स्पष्टतया वे अहिंसा का ही तो पालन कर रहे हैं। जहाँतक इन आलोचकों का सम्बन्ध है, मैंने अपना आशय स्पष्ट नहीं किया। पर, जहाँतक मैं जानता हूँ, यहूदियों ने अहिंसा को अपना ध्येय, या मुक्ति की नीति भी बनाकर उसका पालन कभी नहीं किया। निस्सन्देह, उनके ऊपर यह कलंक लगा हुआ है कि उनके पूर्व-पुरुषों ने ईसामसीह को सूली दे दी थी। क्या यह नहीं समझा जाता कि वे 'जैसे के साथ तैसे' की नीति में विश्वास करते हैं? अपने ऊपर अत्याचार करनेवालों के प्रति क्या उनके दिलों में हिंसा का भाव नहीं है? क्या वे यह नहीं चाहते कि उनपर होनेवाले अत्याचार के लिए तथाकथित लोकतंत्रात्मक राष्ट्र जर्मनी को दण्ड दें और उन्हें उसके अत्याचार से मुक्त करदें? अगर वे ऐसा चाहते हैं, तो उनके दिलों में अहिंसा नहीं है। उनके अन्दर तथाकथित अहिंसा हो भी, तो वह कमजोर और असहायों की अहिंसा है।

मैंने जिस बात पर जोर दिया है वह तो यह है कि दिल से भी हिंसा निकाल दी जाय और इस महान त्याग से पैदा हुई शक्ति को काम में लाया जाय। एक आलोचक का कहना यह है कि अहिंसात्मक रूप में काम करने के लिए उसके पक्ष में लोकमत का होना जरूरी है। स्पष्टतया ऐसा लिखते हुए उनके ख़याल में निष्क्रिय प्रतिरोध ही है, जिसे कमजोरों का शस्त्र समझा जाता है। लेकिन मैंने कमजोरों के निष्क्रिय प्रतिरोध और बलवानों के अहिंसात्मक प्रतिरोध में फर्क रक्खा है। इसमें से पिछला भयंकर-से-भयंकर विरोध के बावजूद काम कर सकता है और करता है। लेकिन इसका अन्त अधिक-सेअधिक सार्वजनिक सहानुभूति के साथ होता है। यह हम जानते हैं कि अहिंसात्मक रूप में कष्ट सहन करने से संगदिल भी पसीज जाते हैं। मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यहूदी अगर उस आत्म-शक्ति की मदद पा सकें, जो केवल अहिंसा से प्राप्त होती है, तो हेर हिंटलर उनके ऐसे साहस के सामने, कि जैसा उन्होंने किसीके साथ पेश आने में बड़े पैमाने पर कभी नहीं देखा, सिर झका देंगे और वह इस बात को तसलीम करेंगे कि वह उनके सर्वोत्तम तूफानी सैनिकों की वीरता से भी बढ़कर है। लेकिन ऐसा साहस वे ही दिखा सकते हैं जिनका सत्य और अहिंसा अर्थात् प्रेम के देवता में जीता-जागता विश्वास हो।

निस्सन्देह, आलोचक यह दलील दे सकते हैं कि मैंने जिस अहिंसा का चित्रण किया है वह सर्वसाधारण मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं है, बल्कि सिर्फ बहुत थोड़े-से, बहुत ऊँचे, पहुँचे हुए मनुष्यों के लिए ही सम्भव है। लेकिन मैंने इस विचार के खिलाफ हमेशा यह कहा है कि उपयुक्त शिक्षण और नेतत्व मिलने पर सर्वसाधारण भी अहिंसा का पालन कर सकते हैं।

फिर भी मैं यह देखता हूँ कि मेरे कहने का यह गलत अर्थ लगाया जा रहा है कि मैंने पीड़ित यहूदियों को अहिंसात्मक प्रतिरोध की सलाह दी है। इसलिए लोकतंत्रात्मक राष्ट्रों को मैं यहूदियों की ओर से हस्तक्षेप न करने की सलाह दूँगा। मुझे इस आशंका का जवाब देने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मेरे कुछ कहने के कारण बड़े-बड़े राष्ट्र कोई कार्रवाई करने से रुके, निश्चय ही ऐसा कोई खतरा नहीं है। यहूदियों को अमानुषक अत्याचारों से मुक्त करने के लिए जो कुछ वे कर सकते हैं वह तो वे करेंगे ही, क्योंकि ऐसा करने के लिए वे विवश हैं। मेरी अपील का जोर तो इसी बात में है कि शक्तिशाली राष्ट्र प्रभावकारी रूप में यहूदियों की मदद करने में अपने को असहाय समझते हैं। इसलिए मैंने यह उपाय पेश किया है जो, अगर ठीक ढंग से ग्रहण किया जाय तो, मेरी समझ में अचूक है।

मगर इस पर सबसे ज्यादा उचित आक्षेप तो यह है कि जब मैं यह जानता हूँ कि हिन्दुस्तान में ही, जहाँ कि मैं खुद काम कर रहा हूँ और जहाँ अपने को सेनापति मानता हूँ, इसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया गया है, तो फिर यहूदियों से इसे स्वीकार कराने की आशा कैसे की जा सकती है?

मेरा जवाब यह है कि वे लोग धन्य हैं जो किसी बात की आशा नहीं करते। कम-से-कम इस मामले में मैं उन्हीं की श्रेणी में हूँ, क्योंकि यह नुस्खा पा जाने और इसके असर के बारे में निश्चय हो जाने पर मुझे ऐसा लगा कि प्रभावशाली रूप में उस पर अमल हो सकने की भी सूरत देखते हुए मैं इस तरफ ध्यान न खींचूँ, तो वह मेरी ग़लती होगी।

अभी तक यूरोप की राजनीति की चर्चा करने से मैं बचता ही रहा हूँ। मेरी सामान्य स्थिति अब भी वही है। अबीसीनिया के मामले में लगभग दबी हुई आवाज में मैंने यह उपाय पेश किया था। चेकों और यहूदियों का मामला मुझे अबीसीनियनों से भी अधिक स्पष्ट मालूम पड़ा। इसलिए मैं इस बारे में लिखे बिना न रह सका। डा. माँटने उस दिन मुझसे शायद यह ठीक ही कहा था कि चेकों और यहूदियों के बारे में मैंने जैसे लेख लिखे वैसे मुझे ज्यादा-से-ज्यादा लिखते जाना चाहिए, क्योंकि और कुछ नहीं तो इनसे हिन्दुस्तान की लड़ाई में तो मुझे मदद मिलेगी ही। और अहिंसा का सन्देश सुनने के लिए इस समय पश्चिमी राष्ट्र जितने तैयार हैं उतने इससे पहले कभी न थे।

'हरिजन सेवक' : १० दिसम्बर, ११३८