युद्ध और अहिंसा/२/९ अद्वितीय शक्ति

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अद्वितीय शक्ति

मेरी प्रत्येक प्रवृत्ति के मूल में अहिंसा रहती है, और इसीसे जिन तीन सार्वजनिक प्रवृत्तियों में मैं आजकल अपना सरबस उँड़ेलता दिखाई देता हूँ, उनके मूल में तो अहिंसा होनी ही चाहिए। ये तीन प्रवृत्तियाँ अस्पृश्यता निवारण, खादी और गाँवों का पुनरुद्धार हैं। हिन्दू-मुसल्मान-एकता चौथी वस्तु है। इसके साथ मैं अपने बचपन से ही ओत-प्रोत रहा हूँ। पर अभी मैं इस विषय में ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता, जो प्रत्यक्ष नजर आ सके। इसलिए इस दृष्टि से मैंने इस विषय में अपनी हार कबूल कर ली है। पर इसपर से कोई यह कल्पना न करले, कि मैं इस सम्बन्ध में हाथ धो बैठा हूँ। मेरे जीते जी नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद हिंदू और मुसलमान इस बात के साक्षी होंगे कि मैंने हिन्दू-मुस्लिम एकता साधने का मंत्र जप अंत तक नहीं छोड़ा था। इसलिए आज, जब कि इटली ने अबीसीनिया के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है, अहिंसा के विषय में थोड़ा विचार कर लेना अप्रासंगिक तो नहीं, किंतु आवश्यक ही है ऐसा मैं देखता हूँ। [ १५९ ] अहिंसा को जो धर्म के रूप में मानते हैं उनकी दृष्टि से उसे सर्वव्यापक होना चाहिए। अहिंसा को धर्म माननेवाले अपनी एक प्रवृत्ति में अहिंसक रहें और दूसरी के विषय में हिंसक, ऐसा कैसे हो सकता हैं? यह तो केवल व्यवहार-नीति मानी जायगी। इसलिए इटली जो युद्ध कर रहा है उसके सम्बन्ध में अहिंसाधर्मी उदासीन नहीं रह सकता। यह होते हुए भी इस विषय में अपनी राय बतलाने और अपने देश को मार्ग दिखाने के लिए आग्रहपूर्ण सूचनाओं के प्रति मुझे इन्कार करना पड़ा है। बहुधा सत्य और अहिंसा के लिए मौनरूपी आत्म-निग्रह धारण करना ही पड़ता है। यदि भारत ने बतौर राष्ट्र के सामाजिक अहिंसा को धर्मरूप में स्वीकार किया होता, तो मैंने अवश्य ही कोई-न-कोई सक्रिय मागे बता दिया होता। यह मैं जानता हूँ कि करोड़ों के हृदय पर मुझे कितना अधिकार प्राप्त हो चुका है पर उसकी बड़ीबड़ी मर्यादाओं को भी मैं ठीक-ठीक समझ सकता हूँ। सर्वव्यापक अहिंसा के मार्ग पर भारत की पचरंगी प्रजा को मार्ग दिखाने की शक्ति ईश्वर ने मुझे प्रदान नही की है। अनादि काल से भारत को अहिंसा-धर्म का उपदेश तो अवश्य मिलता चला आ रहा है, किंतु समस्त भारतवर्ष में सक्रिय अहिंसा पूर्णरूप से किसी काल में अमल में लाई गई थी ऐसा मैंने भारत के इतिहास में नहीं देखा। यह होते हुए भी अनेक कारणों से मेरी ऐसी अचल श्रद्धा है सही कि भारत किसी भी दिन सारे जगत् को अहिंसा का पाठ पढ़ायेगा। ऐसा होने में भले ही कई युग गुजर जाय। पर मेरी [ १६० ] बुद्धि तो यही बतलाती है कि दूसरा कोई भी राष्ट्र इस कार्य का अगुआ नहीं बन सकता।

अब हम जरा यह देखें कि इस अद्वितीय शक्ति के अंग में क्या समाया हुआ है। कुछ ही दिन पहले इस चालू युद्ध के सम्बन्ध में अनायास ही कुछ मित्रों ने मुझसे नीचे लिखे ये तीन प्रश्न पूछे थे।

१-अबीसीनिथा, जिसे शस्त्र दुर्लभ है, यदि अहिंसक हो जाये तो वह शस्त्र-सुलभ इटली के मुकाबिले में क्या कर सकता है?

२-यूरोप के पिछले महायुद्ध के परिणाम स्वरूप स्थापित राष्ट्र-संघ का इङ्गलैंड सबसे प्रबल सदस्य हैं। इङ्गलैंड यदि आपके अर्थ के अनुसार अहिंसक हो जाये तो वह क्या कर सकता है?

३-भारतवर्ष आपके अर्थ के अनुसार यदि अहिंसा को एकदम ग्रहण कर ले तो वह क्या कर सकता है?

इन प्रश्नों का उत्तर देने के पहले अहिंसा से उत्पन्न होने वाले इन पाँच उपसिद्धान्तों का आ जाना आवश्यक मालूम होता है:-

(१) मनुष्यों के लिए यथासंभव आत्म-शुद्धि अहिंसा का एक आवश्यक है।

(२) मनुष्य-मनुष्य के बीच मुकाबिला करें तो ऐसा देखने में आयेगा कि अहिंसक मनुष्य की हिंसा करने की जितनी शक्ति होती उतनी ही मात्रा में उसकी अहिंसा का माप हो जायेगा।

यहाँ कोई हिंसा की शक्ति के बदले हिंसा की इच्छा समझने [ १६१ ] की भूल न करें। अहिंसक में हिंसा की इच्छा तो कभी भी नहीं हो सकती।

(३) अहिंसा हमेशा हिंसा की अपेक्षा बढ़ी-चढ़ी शक्ति रहेगी, अर्थात् एक मनुष्य में उसके हिंसक होते हुए जितनी शक्ति होगी उससे अधिक शक्ति उसके अहिंसक होने से होगी।

(४) अहिंसा में हार के लिए स्थान ही नहीं है। हिंसा के अन्त में तो हार ही है।

(५) अहिंसा के सम्बन्ध में पदि जीत शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, तो यह कहा जा सकता है कि अहिंसा के अन्त में हमेशा ही जीत होगी। वास्तविक रीति से देखें, तो जहाँ हार नहीं वहाँ जीत भी नहीं।

अब इन उपसिद्धांतों की दृष्टि से ऊपर के तीन प्रश्नों पर विचार करें।

१-अबीसीनिया अहिंसक हो जाय तो उसके पास जो थोड़े बहुत हथियार हैं, उन्हें वह फेंक देगा। उसे उनकी जरूरत नहीं होनी चाहिए। यह प्रत्यक्ष है कि अहिंसक अबीसीनिया किसी राष्ट्र के शस्त्र बल की अपेक्षा न करेगा। यह राष्ट्र प्रात्म-शुद्ध होकर अपने विरुद्ध किसी को शिकायत करने का कोई मौका न देगा, क्योंकि वह तो तब सभी की कल्याण-कामना करेगा।

और अहिंसक अबीसीनिया जैसे अपने हथियार फेंककर इटली के खिलाफ नहीं लड़ेगा, उसी तरह इच्छापूर्वक या जबरन उसे सहयोग नहीं देगा, उसके श्राधीन नहीं होगा। अतः इटली हबशी [ १६२ ] प्रजा पर अधिकार प्राप्त नहीं करेगा, किन्तु केवल उनकी भूमि पर कब्जा करेगा। हम यह जानते हैं कि इटली का हेतु केवल जमीन पर कब्जा करने का नहीं है। इटली का हेतु तो इस उपजाऊ देश के हशियों को अपने बस में करने का है। उसका यह हेतु यदि सिद्ध न हो सका, तो फिर वह किसके विरुद्ध लड़ेगा?

२-समस्त अंग्रेज जनता हृदय से अहिंसा को स्वीकार कर ले, तो वह साम्राज्य-विस्तार का लोभ छोड़ दे, अरबों रुपये के गोलाबारूद इत्यादि का त्याग कर दे। इस कल्पनातीत त्याग में जो नैतिक बल अंग्रेजों में देखने में आयेगा उसका असर इटली के हृदय पर हुए बिना न रहेगा। अहिंसक इंग्लैण्ड के जिन पाँच उपसिद्धांतों को मैंने बतलाया है उनका संसार को चकाचौंध में डाल देनेवाला एक सजीव प्रदर्शन हो जायगा। यह परिवर्तन एक ऐसा महान् चमत्कार होगा जो किसी भी युग में न अबतक हुआ है, और न आगे कभी होगा। ऐसा परिवर्तन कल्पनातीत होते हुए भी अगर अहिंसा एक सच्ची शक्ति है तो वह होकर ही रहेगा। मैं तो इसी श्रद्धा पर जी रहा हूँ।

३-तीसरे प्रश्न का उत्तर इस तरह दिया जा सकता है। यह तो मैं ऊपर कह ही चुका हूँ कि भारत राष्ट्र के रूप में पूर्ण रीति से अहिंसक नहीं हैं। और उसके पास हिंसा करने को भी शक्ति नहीं। बहादुर आदमियों को हथियारों की पर्वा कम-से-कम हुआ करती है। जरूरी हथियार किसी तरह से भी वे प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए हिन्दुस्तान में हिंसा करने की शक्ति नहीं [ १६३ ] है इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दुस्तान ने कभी एक राष्ट्र के रूप में इस शक्ति को विकसित नहीं किया। इसलिए उसकी अहिंसा दुर्बल की अहिंसा है, इसीसे वह उसे नहीं मोह सकती, और उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता। जहाँ तहाँ हम निस्य भारत की दुर्बलता का ही दर्शन किया करते हैं और संसार के सामने भारत एक ऐसी प्रजा के रूप में दिखाई देता है कि जिसका दिनदिन शोषण होता जा रहा है। यहाँ भारत की राजनीतिक पराधीनता ही बताने का हेतु नहीं है, बल्कि अहिंसक और नैतिक दृष्टि से हम अाज उतरे हुए मालूम होते हैं। आपस में बात करें तो भी हम अपने को नीचे ही देखते हैं। ऐसा मालूम होता है कि किसी भी बलवान के आगे साहस के साथ खड़े होने की शक्ति हम खो बैठे हैं। हम लोगों में ऐसी शक्ति नहीं है, यह बात हमारे दिल में घर कर गई है। जहाँ-तहाँ हम अपनी निबलता ही देखा करते हैं। यदि ऐसा न हो तो हम लोगों में हिन्दू मुसल्मान के बीच झगड़ा ही क्यों हो? आपस में तकरार ही क्यों हो? राजसत्ता के विरुद्ध लड़ाई किसलिए हो? यदि हममें सबल राष्ट्र की अहिंसा हो, तो अंग्रेज न हम लोगों के प्रति अविश्वास करें, न अपने प्राणों का हमारी तरफ से कोई भय रखें और न अपने को यहाँ विदेशी शासक के रूप में माने। भले ही राजनीति को भाषा में इच्छा हो तो हम उनकी टीका करें। कितनी ही बातों में हमारी आलोचना में सचाई होती है। किन्तु यदि एक क्षण के लिए भी पैतीस करोड़ मनुष्य अपने को एक सबल [ १६४ ] मनुष्य के रूप में समझ सके और अंग्रेजों को-या किसी को भी-हानि पहुँचाने की कल्पना करते हुए भी लज्जित हों, तो अंग्रेज सिपाहियों, व्यापारियों अथवा अफसरों का भय हम छुड़ा देंगे, और अंग्रेजों में हमारे प्रति आज जो अविश्वास है वह दूर हो जायगा। यदि हम सच्चे अहिंसक हो जाये तो अंग्रेज हमारे मित्र बन जाये। अर्थात्, हम करोड़ों की संख्या में होने से इस दुनिया में बड़ी-से-बड़ी शक्ति के रूप में पहिचाने जायें, और इसीलिए उनके हितचिन्तक के रूप में हम जो सलाह उन्हें दें उसे वे अवश्य ही मानें।

मेरी दलीलें पूरी हो गई। पाठक देख सकेंगे कि ऊपर की दलीलें देकर मैंने उक्त पाँच उपसिद्धांतों का ही जैसे-तैसे समर्थन किया है। सच बात तो यह है कि जिसकी दलील से पूर्ति करनी पड़ती है वह न तो सिद्धांत है न उपसिद्धांत। सिद्धांत को सो स्वयंसिद्ध होना चाहिए। पर दुर्भाग्य से हम मोहजाल में अथवा जड़तारूपी शक्ति में ऐसे फंसे हुए हैं कि अक्सर सूर्यवत् स्पष्ट वस्तुओं को भी हम नहीं देख सकते। इसी से किसी प्राचीन ऋषि ने कहा है कि, "सत्य के ऊपर जो सुनहला आवरण आ गया है, उसे हे प्रभो, तू दूर कर दे।"

यहाँ, मुझे जब मैं विद्यार्थी था तब का एक स्मरण याद आ रहा है। जबतक 'भूमिति' समझने लायक मेरी बुद्धि विकसित नहीं हुई थी तब तक यह बात थी कि अध्यापक तो तख्ती पर आकृतियाँ बनाया करता और मेरा दिमाग इधर-उधर चक्कर लगाया करता [ १६५ ] था। कई बार यूक्लिड के १२ सिद्धांत पढ़े, पर मेरी समझ में पत्थर भी न आया। जब यकायक मेरी बुद्धि खुल गई, तब उसी ज्ञण भूमिति-शास्त्र मुझे एक सरल-से-सरल शास्त्र मालूम हुआ। इससे भी अधिक सरल अहिंसा-शास्त्र है, ऐसा मेरा विश्वास हैं। पर जबतक हमारे हृदय के पट नहीं खुल जाते, तबतक अहिंसा हमारे अंतर में कैसे प्रवेश कर सकती हैं? बुद्धि हृदय को भेदने में असमर्थ हैं। वह हमें थोड़ी ही दूर ले जा सकती है, और वहाँ व्याकुल बनाकर छोड़ देती हैं। अनेक सशय हमें भ्रमाते हैं। अहिंसा श्रद्धा का विषय है, अनुभव का विषय हैं। जहाँतक संसार उसपर श्रद्धा जमाने के लिए तैयार नहीं, वहाँतक तो वह चमत्कार की ही बाट जोहता रहेगा। उसे बड़े पैमाने पर जो प्रत्यक्ष दिखाई दे सके ऐसी अहिंसा की जीत देखनी हैं। इसलिए कुछ विद्वान बुद्धि का महान प्रयोग करके हमें समझाते हैं कि बर्तौर सामाजिक शक्ति के अहिंसा को विकसित करना आकाशपुष्प तोड़ने की तैयारी करने के समान हैं। वे हमें समझाते हैं कि अहिंसा तो केवल एक व्यक्तिगत वस्तु है। सचमुच अगर ऐसा ही है, तो क्या मनुष्यजाति और् पशुजाति के बीच बास्तविक भेद कुछ है ही नहीं? एक के चार पैर हैं, दूसरे के दो; एक के सींग, दूसरे के नहीं!

'हरिजन्-सेवक' : १२ अक्तुबर्, ११३५