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युद्ध और अहिंसा/२/८ क्या करें

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १५२ से – १५७ तक

 
:८:
क्या करें

एक प्रिंसिपल ने, जो अपना नाम जाहिर नहीं करना चाहते, नीचे लिखा महत्त्वपूर्ण पत्र भेजा है :-

“निम्नलिखित श्रावश्यक प्रश्नों को हल करने के लिए सुब्ध मन दूसरों की तर्क-संगत सम्मति चाहता है--शान्ति-संघ ("पीस प्लेज यूनियन", जिसे किसी भी परिस्थिति में हिंसा का आश्रय लेने से इन्कार करके युद्ध का विरोध करने के लिए स्वर्गीय डिक शेफर्ड ने कायम किया था) की प्रतिज्ञा का पालन करना क्या हमारे संसार की मौजूदा हालत में ठीक और व्यावहारिक तरीका है?

'हाँ' के पक्ष में नीचे लिखी दलीलें हैं:-

(१) संसार के महान प्राध्यारिमक शिक्षकों ने अपने आचरगा द्वारा हमें यह शिक्षा दी है कि किसी बुराई का अन्त केवल अच्छे उपायों से ही हो सकता है, पुरे उपायों से हरगिज़ नहीं, और किसी भी तरह की हिंसा (खासकर युद्ध की, चाहे वह एकमान तथाकथित प्रात्मरक्षण के लिए ही क्यों न हो) निस्सन्देह बुरा उपाय ही है, फिर उसका उद्देश्य चाहे कुछ भी हो। इसलिए हिंसा का प्रयोग तो सदा ही गलत है।

(२) वर्तमान हिंसा और मुसीबत के वास्तविक कारण युद्ध से कभी दूर नहीं हो सकते। 'युद्ध का अन्त करने के लिए' होने चाले पिछले युद्ध ने यह बात भलीभाँति सिद्ध करदी है और यही हमेशा सत्य रहेगी। इसलिए, हिंसा का प्रयोग अन्यावहारिक है।

(३) जो लोग यह महसूस करते हैं कि (वे चाहे छोटी-छोटी बातों के लिए न लड़ें, फिर भी) स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की रक्षा के लिए तो उन्हें लड़ना ही चाहिए, वे भ्रम में हैं। मौजूदा परिस्थितियों में युद्ध का अंत चाहे विजय में ही क्यों न हो, फिर भी उससे हमारी रही-सही स्वतंत्रतानों का उससे भी अधिक निश्चित रूप में अन्त होजाता है, जितना कि किसी आक्रमणकारी की जीत से होता। क्योंकि आजकल सफलता के साथ कोई युद्ध तबतक नहीं लड़ा जा सकता, जबतक कि सारी जनता को फौजी न बना डाना जाय। उस फौजी समाज में, जो कि दूसरे युद्ध के फलस्वरूप ज़रूर पैदा होगा, चाहे जीत उसमें किसी की क्यों न रहे, बंधक बनकर रहने की अपेक्षा जान-बूझकर अहिंसात्मक रूप में अत्याचार का प्रतिरोध करते हुए मरजाना कहीं बेहतर है।

'नहीं' के पक्ष में नीचे जिस्वी दलीले हैं:-

(१) अहिंसात्मक प्रतिरोध उन लोगों के मुकाबले में ही कारगर हो सकता है, जिनपर कि नैतिक और दया-माया के विचारों का असर पड़ सकता है। कासिज्म पर ऐसी बातों का न केवल कोई असर ही नहीं पड़ता, बल्कि फासिस्ट लोग खुलेआम सब सरह के प्रतिरोध को ब्रह्म करने में किसी पसोपेश की, या उसके लिए चाहे जितनी पाशविकता से काम लेने की यह परवा नहीं करता। इसलिए फासिज्म के पागे अहिंसात्मक प्रतिरोध ठहर नहीं सकेगा। अतएव अहिंसात्मक प्रतिरोध वर्तमान परिस्थितियों में बुरी तरह अव्यावहरिक है।

(२) लोकतंत्रीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए होनेवाले हिंसास्मक प्रतिरोध में (याने युद्ध या युद्ध की ग्राम लाज़िमी भर्ती के समय) सहयोग देने से इन्कार करना एक तरह से उन्ही लोगों की मदद करना है, जो स्वतंत्रता को नष्ट कर रहे हैं। फासिस्ट आक्रमण को निस्सन्देह इस बात से बड़ा उत्तेजन मिला है कि प्रजातन्त्र में जनता के ऐसे आदमी भी रहे हैं। जो अपनी रक्षा के लिए बदना नहीं चाहते और जो युद्ध होने पर भी अपनी सरकारों का विरोध करेंगे और इस प्रकार युद्ध शुरू होने या किसी तरह की साज़िमी सैनिक भर्ती होने पर अपनी सरकारों की निन्दा करेंगे (और इस प्रकार रुकावट चाहेंगे)। ऐसी हालत में, रश के हिंसात्मक उपायों पर जान-बूझकर आपत्ति करनेवाला न केवल शान्ति-मदि में अप्रभावकारी रहता है, बल्कि वस्तुतः जो लोग उसे अंग कर रहे हैं उनकी मदद करता है।

(३) युद्ध स्वतंत्रता को भले ही नष्ट कर दे, लेकिन अगर प्रजातन्त्र बरकरार रहें तो कम-से-कम उसका कुछ या फिर से प्राप्त करने की कुछ सम्भावना तो रहती है, जबकि फ़ासिस्टों को अगर संसार का शासन करने दिया जाये तो उसकी बिलकुल कोई गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए युद्ध पर अन्तःकरण से आपति करनेवाले लोग लोकसत्तात्मक शक्तियों को कमजोर करते हुए विरोधियों की मदद करके अपने ही उद्देश्य को नष्ट कर रहे हैं।

लाजिमी सैनिक भर्तीवाले किसी भी देश में, यहा़ँतक कि खतरे की संभावनावाले प्रेट ब्रिटेन में भी, नौजवानों के लिए इस प्रश्न् का हल होना बहुत जरूरी हैं। लेकिन दक्षिण अफ्रीका मिस्र या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में, जिन्हें शायद चढ़ाई की सम्भावना का मुकाबला करना पड़े; और हिन्दुस्तान में, जिसमें 'पूर्ण स्वाधीनता' के समय शायद जापान या मुस्लिम देशों के गुट्ट की चढ़ाई की सम्भावना रहे, यह अभी असल में उतना महत्वपूर्ण नहीं है।

ऐसी सम्भावनाओ (बल्कि कहना चाहिए कि हकीकतों) के सामने क्या हरेक तीव्र विवेक-बुद्धि रखनेवाले को (फिर वह चाहे जवान हो या बूढ़ा) क्या इस बात का निश्चय न होना चाहिए कि उसके करने के लिए कौन-सा तरीका सही और व्यावहारिक हैं? यह एक ऐसी समस्या है जिसका किसी-न-किसी रूप में (अगर रोज नहीं तो किसी-न-किसी दिन) हममें से हरेक को खुद सामना करना पड़ेगा। क्या आपके वाचक इन बातों को स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं? जिन्हें इस बात का निश्चय न हो कि समय आने पर उन्हें इसका क्या जवाब देना चाहिए, वे इसपर विचार करके इसबारे में निश्चय कर सकते हैं। हाँ, जिन्हें अपने जवाब का निश्चय हो इन्हें मेहरबानी करके दूसरों को भी वैसा ही निश्चितमति बनने में मदद करनी चाहिए।

शान्ति की प्रतिज्ञा लेनेवालों के प्रतिरोध के पक्ष में जो दलीले दी गई हैं उनके बारे में तो कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। हाँ, प्रतिरोध के विरुद्ध जो दलीलें दी गई हैं उनकी सावधानी के साथ छान-बीन करने की जरूरत है। इनमें से पहली दलील अगर सही हो तो वह युद्ध-विरोधी आंदोलन की ठेठ जड़ पर ही फासिस्टों और नाजियों का हृदय पलटना संभव है। उन्हीं जातियों में वे पैदा हुए हैं कि जिनमें तथाकथित प्रजातन्त्रवादियों, या कहना चाहिए खुद युद्धविरोधियों, का जन्म हुआ है। अपने कुटुम्बियों में वे वैसी ही मृदुता, वैसे ही प्रेम, समझदारी व उदारता से पेश आते हैं जैसे युद्ध-विरोधी इस दायरे के बाहर भी शायद पेश आते हों।

अन्तर सिर्फ परिमाण का है। फासिस्ट और नाजी तथाकथित प्रजातन्त्रों के दुर्गुणों के कारण ही न पैदा हुए हों तो निश्चय ही वे उनके संशोधित संस्करण हैं। किली पेज ने पिछले युद्ध से हुए संहार पर लिखी हुई अपनी पुस्तिका में बताया है कि दोनों ही पक्षवाले झूठ और अतिशयोक्ति के अपराधी थे। वरसाई की संधि विजयी राष्ट्रों द्वारा जर्मनी से बदला लेने के लिए की गई संधि थी। तथाकथित प्रजातन्त्रों ने अब से पहले दूसरों की जमीनों को जबरदस्ती अपने कब्जे में किया है और निर्दय दमन को अपनाया है। ऐसी हालत में अपने पूर्वजों ने तथाकथित पिछड़ी हुई जातियों का अपने भौतिक लाभ के लिए शोषण करने में जिस अवैज्ञानिक हिंसा की वृद्धि की थी, मेसर्स हिटलर एण्ड कम्पनी ने उसे वैज्ञानिक रूप दे दिया तो उसमें आश्चर्य की बात क्या हैं? इसलिए अगर यह मान लिया जाये, जैसा कि माना जाता है, कि ये तथाकथित प्रजातंत्र अहिंसा का एक हद तक पालन करने से पिघल जाते हैं तो फासिस्टों और नाजियों के पाषाणहृदयों को पिघलाने के लिए कितनी अहिंसा की जरूरत होगी, यह त्रैराशिक से मालूम किया जा सकता है। इसलिए पहली दलील तो निकम्मी है, और बसमें कुछ तथ्य माना भी जाये तब भी उसे ध्यान से बाहर निकाल देना होगा।

अन्य दो दलीलें व्यावहारिक हैं! शान्तिवादियों को ऐसी कोई बात तो न करनी चाहिए जिससे उनकी सरकारों के कमजोर पड़ने की सम्भावना हो। लेकिन इस भय से उन्हें यह दिखा देने के एकमात्र कारगर अवसर को नहीं गँवा देना चाहिए कि सभी तरह के युद्धों की व्यर्थता में उनका अटूट विश्वास है। अगर उनकी सरकारें पागलपन के साथ युद्ध-विरोधियों को बनाने लगे, वो उन्हें अपनी करनी के फलस्वरूप होनेवाली अशान्ति के परिणामों को सहना ही होगा। प्रजातन्त्रों को चाहिए कि वे व्यक्तिगत रूप से अहिंसा का पालन करने की स्वतन्त्रता का आदर करें। ऐसा करने पर ही संसार के लिए आशा-किरणों का उदय होगा।

'हरिजन-सेवक' : १५ अप्रेल, १९३९