युद्ध और अहिंसा/३/४ युद्ध और अहिंसा

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युद्ध और अहिंसा

पिछले महायुद्ध में मैंने जो भाग लिया था और उसका 'आत्मकथा' में जिस प्रकार उल्लेख किया है वह अभी तक मित्रों और टीकाकारों को उलझन का विषय बना हुआ है। एक पत्र का जिक्र पहले कर आये हैं। यह दूसरा पत्र आया है—


"आपने 'आत्म-कथा' के चौथे भाग के ३८ वें अध्याय में पहले-पहल यूरोपीय महासमर में अपने शामिल होने का जिक्र किया है इसके औचित्य के विषय में मुझे शंका है। मेरा ख़याल है कि मैं शायद आपका मतलब ही ठीक-ठीक नहीं समझ सका हूँ। इसलिए प्रार्थना है कि आप कृपा कर मेरी शंकाओं का समाधान कर दें।

"पहला प्रश्न है 'आपको दरअसल लडाई में शामिल होने के लिए किस बात ने प्रेरित किया?' आप कहते हैं—'इसलिए अगर मुझे उस राज्य के साथ आखिर सरोकार रखना हो, उस राज्य की छत्रछाया में रहना हो तो या तो मुझे खुले तौर पर युद्ध का विरोध करके जब तक उसकी युद्ध-नीति न बदले तबतक सत्याग्रह के

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शास्त्र के अनुसार उसका बहिष्कार करना चाहिए या फिर भंग करना उचित हो तो वैसे कानूनों का सविनय भंग करके जेल का रास्ता ढुँढना चाहिए । अथवा मुझे उसकी युद्ध-प्रवृत्ति में भाग लेकर उसका विरोध करने की शक्ति और अधिकार प्राप्त करना चाहिए । ऐसी शक्ति मुम्कमें नहीं थी । इसलिए मैंने माना कि मेरे पास युद्ध में भाग लेने का ही रास्ता बचा है ।” ( भाग ४ : श्रध्याय ३ ६ ) “आप युद्ध में शरीक होकर युद्ध की हिंसा का विरोध करने के लिए कौनसी योग्यता, कौनसी शक्ति प्राप्त करना चाहते थे ? “मैं देखता हूँ कि लड़नेवाले दूसरे देशों के निवासियों की बनिस्बत आपकी स्थिति न्यारी थी । वे तो सेना में भर्ती किये जा सकते थे किन्तु आप नहीं और इसलिए निष्क्रिय प्रतिरोध का रास्ता आपके लिए स्वभावतः ही नहीं खुला हुआ था । और अधिकार का बल पीठ पर हुए बिना युद्ध का सार्वजनिक रूप से विरोध जताना तो इससे भी बुरा था । लेकिन उसके लिए जितनी आवश्यक थी उससे अनुमात्र भी ज्यादा, विवश होकर, साम्केदारी क्यों अपने ऊपर ले ली ? “यद्यपि ऊपर के उदाहरण से जान पड़ता है कि आप युद्ध का विरोध कर सकने की ताकत पैदा करने के लिए लड़ाई में शरीक हुए किन्तु दूसरी जगहों में आप खुलासा कहते हैं कि आपको आशा थी कि लड़ाई में शामिल होने से आपको अपनी और आपके देश की स्थिति अच्छी होगी-और यह पढ़कर जान पड़ता है कि यह उन्नति केवल लड़ाई का विरोध भर करने के लिए ही नहीं थी । [ १९४ ]युद्ध और अहिम्स २६५ “और इसी में से दूसरा प्रश्न यह भी उठता है कि कुछ भी पाने के लिए लड़ाई में योग देना ही क्यों उचित है? “मेरी समझ् में नहीं आता कि गीता की शिक्षा से इस बात का मेल किस तरह मिलाऊन् ? गीता में तो कहा है कि फल का विचार त्याग कर कर्म करना चाहिए । “सारे अध्ययाय् में आपने यही दलील इस्तेमाल की है कि ब्रिटिश साम्राज्य की सहायता की जाय अथवा नहीं ।और् मैं समझ्ता हूँ कि मूलत: सवाल व्यक्तिगत रूप में उठा होगा किन्तु यह इस किनारे तक ले ही जाता है कि युद्ध के रूप में युद्ध में हमें योगदान करना चाहिए या नहीं ?’

बेशक लड़ाई में योगदान के लिए मुझे प्रेरित करनेवाला उद्देश्य मिश्रित था । दो बातें मैं याद करता हूँ । यदि व्यक्तिगत रूप से मैं लड़ाई के विरुद्ध था किन्तु मेरी ऐसी स्थिति नहीं थी कि मेरे विरोध का असर पड़ सके । अहिम्समय विरोध तभी हो सकता है जबकि विरोध करनेवाले ने विरोधी की पहले कुछ सच्ची निःस्वार्थ सेवा की हो, सच्चे हार्दिक प्रेम का प्रदर्शन किया हो : जैसे कि किसी जंगली आदमी को पशु का बलिदान करने से रोकने के लिए मेरी तबतक कोई स्थिति नहीं होगी, जबतक कि मेरी किसी सेवा या मेरे प्रेम के कारण वह मुझे अपना मित्र न समझ ले । दुनिया के पापोन का न्याय करने मैं नहीं बैठता हूँ । स्वयं असम्पूर्न् होने के कारण, और् चूंकि खुद मुझे को औरोन् की सहनशीलता तथा उदारता की दरकार है, मैं संसार की [ १९५ ]१८६ युद्ध और् हिंसा

कच्चाइयों या असम्पूर्णताओन् को तबतक सहन करता रहता हूँ जबतक कि उनपर प्रकाश डालने का अव्सर मैं पा या बना न लूँ । मुझे लगा कि अगर मैं यथेष्ट सेवा करके वह शक्ति, वह विश्वास पैदा करलूँ कि साम्राज्य के युद्धों और युद्ध की तैयारियों को रोक सकूँ तो मेरे जैसेआदमी के लिए यह बड़ी अच्छी बात होगी जो खुद अप्ने ही जीवन में अहिमस का व्यवहार करना चाहता है तथा यह भी जाँचना चाहता है कि सामूहिक रूप में इसका कहाँ तक उपयोग किया जा सकता है । दूसरा उद्दश्य साम्राज्य के राजनीतियोन् की सहायता से स्वराज्य की योग्यता पैदा करने का था । साम्राज्य के इस जीवन-मरण की समस्या में उसे सहायता दिये बिना यह योग्यता मुझे में आ नहीं सकती थी । यहाँ यह भी समझ् लेना चाहिए कि मैं सन् १९१४ ई की अप्नी मानसिक स्थिति की बात लिख रहा हूँ जबकि मैं ब्रिटिश साम्राज्य और हिन्दुस्तान के उसके स्च्पच्छ्र्पूर्वक् सहायता देने की बात में विश्वास करता था । अगर् मैं तब भी आज्-जैसा अहिसक विद्रोही होता तोअवश्य ही सहायता न देता बल्कि अहिम्सा के जरिये जिस जिस तरह उनका उद्दश्य चौपट होता, करने की सभी कोशिशें करता । युद्ध के प्रमेराति विरोध और उसमें अविश्वास तब भी आज के ही जैसे सबल थे । मगर हमें यह मानना पड़ता है कि हम बहुत से काम करना नहीं चाहते तो भी उन्हें करते ही हैं । मैं छोटे से छोटे सजीव प्राणी को मारने के उतना ही [ १९६ ]युद्ध और अहिंसा १९६ विरुद्ध हूँ, जितना कि लड़ाई के; किन्तु मैं निरन्तर ऐसे जीवों के प्राण इस आशा में लिये चला जाता हूँ कि किसी दिन मुझ में यह योग्यता आजायगी कि मुझे यह हत्या न करनी पड़े । यह सब होते रहने पर भी अहिंसा का हिमायती होने का मेरा दावा सही होने के लिए यह परमावश्यक है कि मैं इसके लिए सचमुच में, जी-जान से और अविराम प्रयत्न करता रहूँ। मोत अथ्वा शरीरी अस्तित्व की आवश्यकता से मुक्ति की कल्पना का आधार है सम्पूर्णता को पहुँचे हुए पूर्ण अहिम्सक स्त्री-पुरुषों की आवश्यकता । सम्पति मात्र के कारण कुछ न कुछ हिंसा करनी ही पड़ती है । शरीररूपी सम्पत्ति की रक्षा के लिए भी चाहे कितनी थोड़ी हो, पर हिंसा तो करनी ही पड़ती है । बात यह है कि कर्त्तव्यों के धर्म संकट में से सच्चा मार्ग ढूंढ लेना सहज नहीं है। अन्त में, गीता की उस शिक्षा के दो अर्थ हैं । एक तो यह कि हमारे कामों के मूल में कोई स्वार्थी उद्देश्य नहीं होना चाहिए । स्वराज्य लेने का उद्देश्य स्वार्थपूर्ण नहीं है। दूसरे कर्म फल का मोह छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि उससे अनभिज्ञ रहा जाय या उनकी उपेक्षा की जाय या उनका विरोध किया जाय । मोहरहित होने का अर्थ यह कभी नहीं है कि जिसमें अपेक्षित फल न पावे, इसलिए कर्म करना ही छोड़ दिया जाय । इसके उलटे मोह-हीनता ही इस अचल श्रद्धा का प्रमाण है कि सोचा हुआ फल अपने समय पर जरूर होगा ही । ह्नेिन्दी 'नवजीवन' : १५ मार्च १९२८