युद्ध और अहिंसा/३/५ युद्ध के प्रति मेरे भाव

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[ १९७ ]: ५ : युद्ध के प्रति मेरे भाव [ गांधी जी के द० अफ्रीका में बोअर युद्ध के समय तथा यूरोपियन महासमर के समय सरकार को सहायता देने के संबंध में एक यूरोपियन रेवरेंड बी० लाइट इवोल्यूशन नामक फ्रांसीसी पत्र में एक लेख लिखकर कुछ सवाल पूछे हैं । यं० इं० में गाँधीजी उनका जवाब यों देते हैं । ] सिर्फ अहिंसा की ही कसौटी पर कसने से मेरे आचरण का बचाव नहीं किया जा सकता । अहिंसा की दृष्टि से, शास्त्र धारण कर मारनेवालों में और नि:शस्त्र रहकर घायलों की सेवा करनेवालों में मैं कोई फर्क नहीं देखता । दोनों ही लड़ाई में शामिल होते हैं और उसी का काम करते हैं । दोनों ही लड़ाई के दोप के दोपी हैं । मगर इतने वर्षों तक आत्मनिरीक्षण करने के बाद भी मुझे यही लगता है कि मैं जिस परिस्थिति में था, मेरे लिए वही करना लाजिम था जो कि मैंने बोअर युद्ध, यूरोपियन महासमर, और जुलू बलवे के समय भी सन् १९o६ में किया था । [ १९८ ]युद्ध के प्रति मेरे भाव जीवन का संचालन अनेक शक्तियों के द्वारा होता है। अगर कोई ऐसा सर्वसामान्य नियम होता कि उसका प्रयोग करते ही हर प्रसंग में कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करने के लिए क्ष्ण मात्र भी सोचना नहीं पड़ता तो क्या ही सरलता होती ! मगर मेरे जानते तो ऐसा एक भी अवसर नहीं है। मैं स्वयं युद्ध का पक्का विरोधी हूँ इसलिए मैंने अवसर मिलने पर भी कभी मारक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करना नहीं सीखा है। शायद इसीलिए मैं प्रत्यक्ष नर-नाश से बच सका हूँ । मगर जबतक मैं पशुबल पर स्थापित सरकार के अधीन रहता था और उसकी दी हुई सुविधाओं का स्वेच्छा से उपयोग करता था, तबतक तो अगर वह कोई लड़ाई लड़े तो उसमें उसकी मदद करना मेरे लिए लाजिमी था । मगर जब उससे असहयोग कर लूँ और जहाँ तक अपना वश चल सके, उसकी दो सुविधाओं का त्याग करने लगूँ तब उसकी मदद करना मेरे लिए लाजिमी नहीं रहता ।

एक उदाहरण लीजिए : मैं एक संस्था का सभ्य हूँ । उस संस्था के कुछ खेती है । अब आशंका है कि उस खेती को बंदर नुकसान पहुँचावेंगे । मैं मानता हूँ कि सभी प्राणियों में आत्मा है और इसलिए बंदरों को मारना हिंसा समझता हूँ । मगर फस्ल को बचाने के लिए बंदरों पर हमला करने को कहने या करने से मैं नहीं झिझकता । मैं इस बुराई से बचना चाहूँगा । उस संस्था को छोड़कर या तोड़कर मैं इस [ १९९ ]
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बुराई से बच सकता हूँ। मगर मैं यह नहीं करता क्योंकि इसकी मुझे आशा नहीं है कि यहाँ से हटने पर मुझे कोई ऐसा समाज मिल सकेगा जहाँ खेती न होती हो इसलिए किसी किस्म के प्राणियों का कभी नाश न होता हो । इसलिए यधपि यह कहते हुए मुझे दर्द होता है मगर तो भी इस आशा में कि किसी दिन इस बुराई से बचने का रास्ता मुझे मिल जायगा, मैं दीनता के साथ, डरते हुए और काँपते हुए दिल से बंदरों पर चोट पहुँचाने में शामिल होता हूँ।

इसी तरह में तीनों युद्धों में भी शामिल हुआ था। जिस समाज का मैं एक सदस्य हूँ उससे अपना संबन्ध मैं तोड़ नहीं सकता था। तोड़ना पागलपन होता। इन तीनों अवसरों पर ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग करने का मेरा कोई विचार न था। अब उस सरकार के संबंध में मेरी स्थिति बिलकुल ही बदल गयी है और इसलिए उसके युद्धों में मैं भरसक अपनी खुशी से शामिल नहीं होऊँगा तथा अगर शस्त्र धारण करने या और किसी तरह से उसमें शामिल होने को बाध्य किया जाऊँ तो मैं भले ही कैद किया जाऊँ या फाँसी चढ़ा दिया जाऊँ, मगर शामिल तो नहीं ही हूँगा।

मगर इससे प्रश्न अभी हल नहीं होता। अगर यहाँ पर राष्ट्रीय सरकार हो तो मैं भले ही उसके भी किसी युद्ध में शामिल न होऊँ, मगर तो भी मैं ऐसे अवसर की कल्पना कर सकता हूँ, जब कि सैनिक शिक्षण पाने की इच्छा रखने[ २०० ]
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वालों को वह शिक्षण देने के पक्ष में मत देना मेरा कर्तव्य हो; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अहिंसा में जिस हद तक मेरा विश्वास है, उस हद तक इस राष्ट्र के सभी आदमी अहिंसा में विश्वास नहीं करते। किसी समाज या आदमी को बलपूर्वक अहिंसक नहीं बनाया जा सकता।

अहिंसा का रहस्य अत्यंत गूढ़ है। कभी-कभी तो अहिंसा की दृष्टि से किसी आदमी के काम की परीक्षा करना कठिन हो जाता है। उसी तरह कभी-कभी उसके काम हिंसा- जैसे भी लग सकते हैं जब कि वे अहिंसा के व्यापक से व्यापक अर्थ में अहिंसक ही हों और पीछे चलकर अहिंसक ही साबित भी हों । इसलिए उपर्युक्त अवसरों पर अपने व्यवहार के बारे में मैं सिर्फ इतना ही दावा कर सकता हूँ कि उनके मूल में अहिंसा की ही दृष्टि थी। उनके मूल में कोई बुरा राष्ट्रीय या दूसरा स्वार्थ नहीं था। मैं यह नहीं मानता कि किसी एक हित का बलिदान करके राष्ट्रीय या किसी दूसरे हित की रक्षा करनी चाहिए।

मुझे अपनी यह दलील अब और आगे नहीं बढ़ानी चाहिए। आखिर अपने विचार पूरे-पूरे प्रकट करने के लिए भाषा एक मामूली त्रुटिपूर्ण साधन मात्र है । मेरे लिए अहिंसा कुछ महज दार्शनिक सिद्धान्त भर ही नहीं है। यह तो मेरे जीवन का नियम है, इसके बिना मैं जी ही नहीं सकता। मैं जानता हूँ कि मैं गिरता हूँ। बहुत बार चेतनावस्था में ही। यह [ २०१ ]१६.२ युद्ध और अहिंसा प्रश्न् बुद्धि का नहीं बल्कि हृदय का है् । सन्मार्ग तो परमात्मा की सतत प्रार्थना से, अतिशय नम्रता से, आत्मविलोपन से, आत्म्त्याग करने को हमेशा तैयार बैठे रहने से मिलता है । इसकी साधना के लिए ऊँचे से ऊँचे प्रकार की निर्भयता और साहस की आवश्क्ता है । मैं अपनी निर्बलताओं को जानता हूँ और मुझे उनका दुःख है। मगर मेरे मन में कोई दुविधा नहीं है। मुझे अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान है । अहिंसा और सत्य को छोड़कर, हमारे उद्धार का कोई दूसरा रास्ता नहीं है। मैं जानता हूँ कि युद्ध एक तरह की बुराई है् और शुद्ध बुराई है। मैं यह भी जानता हूँ कि एक दिन इसे बंद होना ही है । मेरा पक्का विश्वश है् कि खूनखराबी या धोखेबाजी से ली गयी स्वाधीनता, स्वाधीनता है ही नहीं । इसकी अपेक्षा कि मेरे किसी काम से अहिंसा का सिद्धान्त ही गलत समझा जाय या किसी भी रूप में मैं असत्य और हिंसा का हामी समझा जाऊँ, यही हजारगुना अच्छा है कि मेरे विरुद्ध लगाये गये सभी अपराध अरक्षणीय असमर्थनीय समझे जायें । संसार हिंसा पर नहीं टिका है, असत्य पर नहीं टिका है किन्तु उसका आधार अहिंसा है, सत्य है । हृिन्दी 'नवजीवन' : २० सितम्बर, १३ २८