युद्ध और अहिंसा/३/६ कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है?

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कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है?

अमरीका से एक मित्र ने वहाँ के प्रसिद्ध मासिक पत्र 'दी वर्ल्ड टुमोरो' के अगस्त १९२८ के अङ्क में से जॉन नेविन के 'तलवार त्याग और राष्ट्रीय संरक्षण' शीर्षक एक शिक्षाप्रद और मार्मिक लेख की कतरन भेजी है। वह प्रत्येक देशप्रेमी के लिए पठनीय हैं। नीचे लिखे आरम्भिक वाक्यों से पाठकों को उसके सारांश का पता चलेगा—


"शान्तिवाद के सम्बन्ध में सबसे पहले यह सवाल उठता है कि इस बीसवीं सदी में, जब कि युद्ध के अस्त्र-शस्त्र इतनी अधिक सम्पूर्णता के शिखर तक पहुँच गये हैं और उनकी संहारक शक्ति इतनी ज्यादा बढ़ गई है, क्या सचमुच फौजी साधनों द्वारा राष्ट्रीय संरक्षण हो सकता है? संभव है कि भूतकाल में फौजी साधनों की मदद से राष्ट्रीय संरक्षण हो सका होगा, मगर आज तो यह उपाय एक दम पुराना पड़ गया है और इसपर निर्भर रहना आफत मोल लेना है; क्योंकि आज हम देख सकते हैं कि जहाँ एक ओर फौजी सामान का खर्च दिन-दिन बढ़ता जाता है, तहाँ दूसरी ओर संरक्षण-

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सम्बन्धी उसकी उपयोगिता भी दिन-पर-दिन घटती जाती है और आगामी दशकों में यही बात अधिकाधिक होती जायगी । पिछले ४० वर्षों में, यानी इस पत्र के पाठकों के जीवन में ही, संयुक्तराज्य की नौसेना का सालाना खर्च डेढ़ करोड़ डालर से बढ़कर ३ १ करोड़ ८ लाख डालर हो गया है । दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि संयुक्त राज्य अपनी फौज और नौसेना पर चौबीस घण्टों में २० लाख डालर स्वाहा करता रहा है । ‘युद्ध, मनुष्य का सबसे बड़ा उद्योग' शीर्षक एक अग्रलेख में ‘न्यूयार्क टाइम्स' के मार्च १९२८ वाले श्रङ्क में उसके लेखक ने भली भाँति सिद्ध कर दिखाया था कि इस जमाने में फौजी लढ़ाई की तैयारी ही संसार का बड़े से बड़ा उद्योग हो गया है। मगर इसकी वजह से संसार को कितनी ज्यादा कुर्बानी करनी पड़ती है, उसका अन्दाजा अकेले डालरों के हिसाब से ही नहीं लगाया जा सकता; क्योंकि युद्ध के शस्त्र तैयार करने में रुपया तो खर्च होता ही है, मगर इसके सिवा भी, उनकी साल-सँभाल करने और फौजी सामान बनाने के लिए लोगों की एक बड़ी संख्या की जरूरत रहती है । इस तरह देशों की समस्त जनता और उनकी तमाम अौद्योगिक शक्ति युद्ध की तैयारी में नष्ट होती जाती है । भूतकाल में वेतन-जीवी सिपाहियों की फौजें ही युद्ध के मैदानों में भिड़ती थीं । इसलिए उन दिनों आज की अपेक्षा लोगों के एक बहुत थोड़े हिस्से को युद्ध में हाथ बैंटाना पढ़ता था । मगर वर्तमान युद्धविशारद राष्ट्र की सारी जनता को युद्ध के लिए [ २०४ ]कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है ? १६.५ भर्ती कर लेते हैं । फूांस में तो एक ऐसा क़ानून बना देने की सिफारिश की गई है, जिसकी रू से स्त्रियों का भर्ती होना भी अनिवार्य हो जाये । शान्ति के दिनों में भी पाठशालाओं में फौजी तालीम को अनिवार्य बना देने, राष्ट्रीय तालीम पर फौजी विभाग की सूक्ष्म देखरेख और प्रभुता रहने, आदि कारणों से देश के नौजवानों की मनोवृत्ति भी दिन-दिन ज्यादा युद्ध प्रिय होती जाती है । यही नहीं, बल्कि डाकघर, समाचार-पत्र, रेडियो, सिनेमा, विज्ञान, कला आदि क्षेत्रों के प्राणी भी धीरे-धीरे इसकी अधीन्ता में आते जाते हैं । इससे यह डर लगता है कि कहीं जगतव्यापी युद्ध की जो तैयारी और जो संगठन इस समय हो रहा है, उसके फन्दे में ये लोग भी शीघ्र ही न फेंस जायें । अगर यह हुआ ही तो इसकी वजह से मानव जाति की स्वतंत्रता की, वाणी-स्वातंत्र्य और विचार-स्वातंत्र्य के जन्म-सिद्ध अधिकार और सामाजिक उन्नति को घोर आघात पहुँचेगा । अर्थात फौजी साधनों द्वारा देश के संरक्षण के लिए जी कीमत चुकानी पड़ती है, उसमें इसकी भी गिनती होनी चाहिए । इसपर से पाठक समझ सकेंगे कि फौजी तैयारी द्वारा की गई रक्षा संसार के लिए कितनी महेंगी पड़ती है और भविष्य में कितनी अधिक महँगी हो पड़ेगी । लेकिन इससे भी अधिक चिन्ता की बात तो यह है कि फौजी साधन पर बराबर अनन्त धन-व्यय करते हुए भी आज जनता सुख की नींद नहीं सो सकती । संभव है, दस-बीस [ २०५ ]१६६ युद्ध और अहिंसा साल तक जैसे-तैसे यह हालत निभ जाय, मगर आखिरकार तो इस नीति के कारण निस्सन्देह संसार पतन के गड्ढे में गिरकर रहेगा । कुछ समय पहले सेनेटर बीरा ने ‘तैयारी के मानी' शीर्षक से लिखते हुए ससार की जनता पर दिन पर दिन बढ़नेवाले कर और सरकारी कर्ज के बढ़ते हुए बोझ की तरफ खास तौर पर ध्यान खींचा था और कहा था-‘भविष्य में सरकारों को अपनी शक्ति का अधिक से अधिक उपयोग विरोधी दल के सामने लडने में नहीं, बल्कि अपनी रिआया की आर्थिक और राजनैतिक अशन्ति को दबाने में करना होगा ।।' इसका नतीजा यह होगा कि राज्य जितने बड़े पैमाने पर फौजी तैयारी करेंगे, उतनी ही उनकी हालत संकटमय बनेगी; क्योंकि सरकार और रिआया के बीच की खाई अधिक गहरी होती जायेगी और जनता में निराशा तथा असन्तोष का वातावरण भी बढ़ता ही जायगा । इस हालत की संरचण की तैयारी कहना ' संरच्हण ' शब्द का दुरुपयोग करना है। जिसकी वजह से रिआया का आर्थिक संकट घटने के बदले बढ़ता है, वह तैयारी नहीं, गसिक अ-तैयारी है ।” आजकल लोग सहज ही यह मान लेते हैं कि जो बात अमरिका और इंग्लैंड के लिए उचित-अनुकूल है वही हमारे लिए भी उचित होनी चाहिए । मगर उक्त लेखक ने फौजी तैयारी के लिए आवश्यक खर्च के जो चौंकानेवाले आँकड़े दिये हैं उनसे सचमुच हमें सावधान हो जाना चाहिए। आजकल की युद्ध-कला [ २०६ ]कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है ? १६७ केवल घातक शास्त्रों को बनानेवाली कला-मात्र रह गई है । उसमें वीरता, शौर्य या सहनशक्ति को बहुत ही थोड़ा स्थान प्राप्त है । हजारों स्त्री, पुरुष और बालकों को बटन दबाकर या ऊपर से ज़हर बरसाकर निमिष मात्र में नामशेष कर देना-मार डालना ही वर्तमान युद्ध-कला की पराकाष्ठा है। क्या हम भी अपने संरक्षण के लिए इसी पद्धति का अनुकरण किया चाहते हैं ? हमें इसपर विचार करना होगा कि क्या हमारे पास इस संरक्षण के लिए काफी आर्थिक साधन या शक्ति है ? हम दिन-दिन बढ़ते जानेवाले फौजी खर्च की शिकायत करते हैं, मगर यदि हम इंग्लैंड या अमेरिका की नकल करने लगेंगे तो हमारा फौजी खर्च आज से कहीं अधिक बढ़ जायगा । आलोचक शायद पूछंगे कि अगर किसी चीज के लिए यह संरक्षण आवश्यक ही हो तो उतना भार उठाकर भी उसकी रक्षा क्यों न की जाये ? लेकिन बात तो यह है कि दुनिया आज इस गम्भीर सवाल का जवाब खोजने लगी है कि यह संरक्षण कर्त्तव्य है अथवा नहीं ? उवत लेखक जोरदार शब्दों में जवाब देते हुए कहते हैं—‘किसी भी राज्य के लिए यह कर्त्तव्य नहीं' । अगर यह नियम सही-सच्चा हो तो हमें भी सेना को बढ़ाने के झंझट में न फँसना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं होता कि कोई हमसे जबरदस्ती से शस्त्र छीनले । यह संभव नहीं कि कोई परदेशी सरकार अपनी शासित जनता से बलात् आहिंसा का पालन करा सके । हर एक देश की प्रजा को स्वेच्छापूर्वक आत्म विकास [ २०७ ]१६८ युद्ध और अहिंसा करने की पूरी-पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। हमें यहाँ इस बात पर विचार करना है कि क्या हम पाश्चात्य देशों की नकल-भर करना चाहते हैं ? वे आज जिस नरक में से गुजर रहे हैं क्या हम भी उसी रास्ते जाना चाहते हैं ? और फिर भी आशा रखते हैं कि भविष्य में किसी समय हम पुनः दूसरे पथ के पथिक बन जायेंगे ? या हम अपने सनातन शान्ति-पथ पर दृढ़ रहकर ही स्वराज्य पाना और दुनिया के लिए एक नया मार्ग खोज निकालना चाहते हैं ? तलवार-त्याग की इस नीति में भीरुता को कहीं कुछ भी स्थान नहीं है । अपने संरक्षण के लिए हम अपना शस्त्रबल बढ़ावें और मारक शक्ति में वृद्धि भी करें, तो भी अगर हम दुःख सहने की अपनी ताकत नहीं बढ़ाते, तो यह निश्चय है कि हम अपनी रक्षा कदापि न कर सकेंगे । दूसरा मार्ग यह है कि हम दुःख सहन करने की ताकत बढ़ाकर विदेशी शासन के चंगुल से छूटने का प्रयत्न करें। दूसरे शब्दों में, हम शान्तिमय तपश्चर्या का बल प्राप्त करें । इन दोनों तरीकों में वीरता की समान आवश्यकता है । यही नहीं, बल्कि दूसरे में व्यक्तिगत वीरता के लिए जितनी गुंजाइश है, पहले में उतनी नहीं। दूसरे पथ के पथिक बनने से भी थोड़ी-बहुत हिंसा का डर तो रहता ही है, मगर यह हिंसा मर्यादित होगी और धीरे-धीरे इसका परिमाण घटता जायेगा । आजकल हमारा राष्ट्रीय ध्येय अहिंसा का ध्येय है। मगर मन [ २०८ ]कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है ? १६६ और वचन से तो हम मानों हिंसा ही की तैयारी करते हैं । सारे देश में अधीरता का वातावरण फैला हुआ है, ऐसे समय हमारे हिंसा में प्रवृत्त न होने का एकमात्र कारण हमारी अपनी कमजोरी है । ज्ञान और शक्ति का भान होते हुए भी तलवार-त्याग करने में ही सच्ची अहिंसा है । मगर इसके लिए कल्पना-शक्ति और जगत की प्रगति के रुग्घ को पहचानने की शक्ति होनी चाहिए । आज हम पश्चिमी देशों की बाहरी तड़क-भड़क से चौंधिया गये हैं, और उनकी उन्मत्त प्रवृत्तियों को भी प्रगति का लक्षण मान बैठे हैं । फलस्वरूप हम यह नहीं देख पाते कि उनकी यह प्रगति ही उन्हें विनाश की ओर् ले जा रही है। हमें समझ लेना चाहिए कि पाश्चात्य लोगों के साधनों द्वारा पश्चिमी देशों की स्पर्धा में उतरना अपने हाथों अपना सर्वनाश करना है। इसके विपरीत अगर हम यह समझ सके कि इस युग में भी जगत नैतिक बल पर ही टिका हुआ है, तो अहिंसा की असीम शक्ति में हम अडिग श्रद्धा रग्घ सकेंगे और उसे पाने का प्रयत्न कर सकेंगे । सब कोई इस बात को मंजूर करते हैं कि अगर सन १६२२ में हम अन्त तक शान्तिपूर्ण वातावरण बनाये रखने में सफल होते तो हम अपने ध्येय को सम्पूर्ण सिद्ध कर सकते । फिर भी हम इस बात की जीती-जागती मिसाल तो पेश कर ही सके थे कि नगण्य-सी अहिंसा भी कितनी असाधारण हो सकती है । उन दिनों हमने जो उन्नति की थी, आज भी उसका प्रभाव कायम है । सत्याग्रह-युग के पहले की भीरुता आज हम में नहीं [ २०९ ] २०० युद्ध और अहिंसा है । वह सदा के लिए मिट गई है । अगर हम अहिंसा-बल पाने की इच्छा रखते हैं तो हमें धैर्य से काम लेना होगा, समय की प्रतिक्षा करनी होगी । यानी, अगर सचमुच ही हम अपनी रक्षा करना चाहते हों और संसार की प्रगति में स्वयं भी हाथ बँटाने की इच्छा रखते हों, तो उसके लिए तलवार-त्याग, पशुबल-त्याग् के सिवा दूसरा कोई रास्ता है ही नहीं । हिन्दी 'नवजीवन' : १ सितम्बर, १६१६