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रंगभूमि/१२

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रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १३७ से – १५५ तक

 

[१२]

प्रभु सेवक ताहिरअली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाये हुए थे-“यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तंबाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगडूँ, हिस्से बेचता फिरूँ, पत्रों में विज्ञापन छपवाऊँ, बस सिगरेट की डिबिया बन जाऊँ। यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं धन कमाने की कल नहीं हूँ, मनुष्य हूँ, धन-लिप्सा अभी तक मेरे भावों को कुचल नहीं पाई है; अगर मैं अपनी ईश्वर-दत्त रचना-शक्ति से काम न लूँ, तो यह मेरी कृतघ्नता होगी। प्रकृति ने मुझे धनोपार्जन के लिए बनाया ही नहीं, नहीं तो वह मुझे इन भावों से क्यों भूषित करती। कहते तो हैं कि अब मुझे धन की क्या चिंता, थोड़े दिनों का मेहमान हूँ, मानों ये सब तैयारियाँ मेरे लिए हो रही हैं, लेकिन अभी कह दूँ कि आप मेरे लिए यह कष्ट न उठाइए, मैं जिस दशा में हूँ, उसी में प्रसन्न हूँ, तो कुहराम मच जाय! अच्छी विपत्ति गले पड़ी, जाकर देहातियों पर रोब जमाइए, उन्हें धमकाइए, उनको गालियाँ सुनाइए। क्यों? उन सबों ने कोई नई बात नहीं की है। कोई उनकी जायदाद पर जबरदस्ती हाथ बढ़ायेगा, तो वे लड़ने पर उतारू हो ही जायँगे। अपने स्वत्वों की रक्षा करने का उनके पास और साधन ही क्या है? मेरे मकान पर आज कोई अधिकार करना चाहे, तो मैं कभी चुपचाप न बैठूंगा। धैर्य तो नैराश्य की अंतिम अवस्था का नाम है। जब तक हम निरुपाय नहीं हो जाते, धैर्य की शरण नहीं लेते। इन मियाँजी को भी जरा-सी चोट आ गई, तो फरियाद लेकर पहुंचे। खुशामदी है, चापलूसी अपना विश्वास जमाना चाहता है। आपको भी गरीबों पर रोब जमाने की धुन सवार होगी। मिलकर नहीं रहते बनता। पापा की भी यही इच्छा है। खुदा करे, सब-के-सब बिगड़ खड़े हों, गोदाम में आग लगा दें और इस महाशय की ऐसी खबर लें कि यहाँ से भागते ही बने।” ताहिरअली से सरोष होकर बोले-"क्या बात हुई कि सब-के-सब बिगड़ खड़े हुए?"

ताहिर-“हुजूर, बिलकुल बेसबब। मैं तो खुद ही इन सबों से जान बचाता रहता हूँ।"

प्रभु सेवक-"किसी कार्य के लिए कारण का होना आवश्यक है; पर आज मालूम हुआ कि वह भी दार्शनिक रहस्य है, क्यों?"

ताहिर-(बात न समझकर) “जी हाँ, और क्या।"

प्रभु सेवकः-"जी हाँ, और क्या के क्या मानी? क्या आप बात भी नहीं समझते, या बहरेपन का रोग है? मैं कहता हूँ-बिना चिनगारी के आग नहीं लग सकती; आप

फरमाते हैं—'जी हाँ, और क्या।' आपने कहाँ तक शिक्षा पाई है?"

ताहिर—(कातर स्वर से) “हुजूर, मिडिल तक तालीम पाई थी, पर बदकिस्मती

ड़ियाँ खाने लगे। भूख लगी हुई थी। ये चीजें बहुत प्रिय लगीं। कहा-"सूरदास ने तो यह बात मुझसे नहीं कही।"

जगधर--"वह कभी न कहेगा। कोई गला भी काट ले, तो सिकायत न करेगा।"

प्रभु सेवक-"तब तो वास्तव में कोई महापुरुष है। कुछ पता न चला, किसने झोपड़े में आग लगाई थी?”

जगधर--"सब मालूम हो गया हजूर, पर क्या किया जाय। कितना कहा गया कि उस पर थाने में रपट कर दे, मुदा कहता है, कौन किसी को फँसाये। जो कुछ भाग में लिखा था, वह हुआ। हजूर, सारी करतूत इसी भैरो ताड़ीवाले की है।"

प्रभु सेवकः—“कैसे मालूम हुआ? किसी ने उसे आग लगाते देखा?"

जगधर-"हजूर, वह खुद मुझसे कह रहा था। रुपयों की थैली लाकर दिखाई। इससे बढ़कर और क्या सबूत होगा?”

प्रभु सेवक-"भैरो के मुँह पर कहोगे?"

जगधर-"नहीं सरकार, खून हो जायगा।"

सहसा भैरो सिर पर ताड़ी का घड़ा रखे आता हुआ दिखाई दिया। जगधर ने तुरंत खोंचा उठाया, बिना पैसे लिये कदम बढ़ाता हुआ दूसरी तरफ चल दिया। भैरो ने समीप आकर सलाम किया। प्रभु सेवक ने आँखें दिखाकर पूछा-"तू ही भैरो ताड़ीवाला है न?”

भैरो--(काँपते हुए) "हाँ हजूर, मेरा ही नाम भैरो है।"

प्रभु सेवक-"तू यहाँ लोगों के घरों में आग लगाता फिरता है?"

भैरो-"हजूर, जवानी की कसम खाता हूँ, किसी ने हजूर से झूठ कह दिया है।"

प्रभु सेवक-"तू कल मेरे गोदाम पर फौजदारी करने में शरीक था?"

भैरो-"हजूर का तावेदार हूँ, आपसे फौजदारी करूँगा! मुंसीजी से पूछिए, झूठ कहता हूँ या सच। सरकार, न जाने क्यों मारा मोहल्ला मुझसे दुसमनी करता है। आने घर में एक रोटी खाता हूँ, वह भी लोगों से नहीं देखा जाता। यह जो अंधा है, हुजूर, एक ही बदमास है। दूसरों की बहू बेटियों पर बुरी निगाह रखता है। माँग-माँगकर रुपये जोड़ लिये हैं, लेन-देन करता है। सारा मोहल्ला उसके कहने में है। उसी के चेले बजरंगी ने फौजदारी की है। मालमस्त है, गाय-भैसे हैं, पानी मिला-मिलाकर दूध बेचता है। उसके सिवा किसका गुरदा है कि हजूर से फौजदारी करे।"

प्रभु सेवक-"अच्छा! इस अंधे के पास रुपये भी हैं।"

भैरो-'हजूर, बिना रुपये के इतनी गरमी और कैसे होगी। जब पेट भरता है, तभी तो बहू-बेटियों पर निगाह डालने की सूझती है।"

प्रभु सेवक-"बेकार क्या बकता है, अंधा आदमी क्या बुरी निगाह डालेगा। मैंने सुोत हना है, व वहुत सीधा-सादा आदमी है।" भैरो-"आपका कुत्ता आपको थोड़े ही काटता है, आप तो उसकी पीठ सुहलाते हैं; पर जिन्हें काटने दौड़ता है, वे तो उसे इतना सीधा न समझेंगे।"

इतने में भैरो की दूकान आ गई। गाहक उसकी राह देख रहे थे। वह अपनी दूकान में चला गया। तब प्रभु सेवक ने ताहिरअली से कहा-"आप कहते हैं, सारा मुहल्ला मिलकर मुझे मारने आया था। मुझे इस पर विश्वास नहीं आता। जहाँ लोगों में इतना वैर-विरोध है, वहाँ इतना एका होना असंभव है। दो आदमी मिले, दोनों एक- दूसरे के दुश्मन। अगर आपकी जगह कोई दूसरा आदमी होता, तो इस वैमनस्य से मन-माना फायदा उठाता। उन्हें आपस में लड़ाकर दूर से तमाशा देखता। मुझे तो इन आदमियों पर क्रोध के बदले दया आती है।"

बजरंगी का घर मिला। तीसरा पहर हो गया था। वह भैंसों की नाँद में पानी डाल रहा था। फिटन पर ताहिरअली के साथ प्रभु सेवक को बैठे देखा, तो समझ गया- “मियाँजी अपने मालिक को लेकर रोब जमाने आये हैं; जानते हैं, इस तरह मैं दब जाऊँगा; साहब अमीर होंगे, अपने घर के होंगे; मुझे कायल कर दें, तो अभी जो जुरमाना लगा दें, वह देने को तैयार हूँ; लेकिन जब मेरा कोई कसूर नहीं, कसूर सोलहों आने मियाँ हो का है; तो मैं क्यों देखूँ? न्याय से दबा लें, पद से दबा लें, लेकिन भबकी से दबनेवाले कोई और होंगे।”

ताहिरअली ने इशारा किया, यही बजरंगी है। प्रभु सेवक ने बनावटी ऋध धारण करके कहा—"क्यों बे, कल के हंगामे में तू भी शरीक था?"

बजरंगी—"शरीक किसके साथ था? मैं अकेला था।"

प्रभु सेवक—"तेरे साथ सूरदास और मुहल्ले के और लोग न थे? झूठ बोलता है!"

बजरंगी—झूठ नहीं बोलता, किसी का दबैल नहीं हूँ। मेरे साथ न सूरदास था और न मोहल्ले का कोई दूसरा आदमी। मैं अकेला था।"

घीसू ने हाँक लगाई—"पादड़ी! पादड़ी!"

मिठुआ बोला—“पादड़ी आया, पादड़ी आया!”

दोनों अपने हमजोलियों को यह आनंद-समाचार सुनाने दौड़े, पादड़ी गायेगा, तसवीरें दिखायेगा, किताबें देगा मिठाइयाँ और पैसे बाँटेगा। लड़को ने सुना, तो वे भी इस लूट का माल बँटाने दौड़े। एक क्षण में वहाँ बीसों बालक जमा हो गये। शहर के दूरवर्ती मुहल्लों में अँगरेजी वस्त्रधारी पुरुष पादड़ी का पर्याय है। नायकराम भंग पीकर बैठे थे, पादड़ी का नाम सुनते ही उठे, उनकी बेसुरी तानों में उन्हें विशेष आनंद मिलता था। ठाकुरदीन ने भी दूकान छोड़ दी, उन्हें पादड़ियों से धार्मिक वाद-विवाद करने की लत थी, अपना धर्मज्ञान प्रकट करने के ऐसे सुंदर अवसर पाकर न छोड़ते थे। दयागिर भी आ पहुँचे। पर जब लोग फिटन के पास पहुँचे, तो भेद खुला। प्रभु सेवक बजरंगी से कह रहे थे-"तुम्हारी शामत न आये, नहीं तो साहब तुम्हें तबाह कर देंगे। किसी काम के न रहोगे। तुम्हारी इतनी मजाल!" बजरंगी इसका जवाब देना ही चाहता था कि नायकराम ने आगे बढ़कर कहा-“उस पर आप क्यों बिगड़ते हैं, फौजदारी मैंने की है, जो कहना हो, मुझसे कहिए।”

प्रभु सेवक ने विस्मित होकर पूछा-"तुम्हारा क्या नाम है?"

नायकराम को कुछ तो राजा महेंद्रकुमार के आश्वासन, कुछ विजया की तरंग और कुछ अपनी शक्ति के ज्ञान ने उच्छंखल बना दिया था। लाठी सीधी करता हुआ बोला-"लट्ठमार पाँड़े!"

इस जवाब में हेकड़ी की ज ह हास्य का आधिक्य था। प्रभु सेवक का बनावटी क्रोध हवा हो गया। हँसकर बोले-"तब तो यहाँ ठहरने में कुशल नहीं है, कहीं बिल खोदना चाहिए।"

नायकराम अक्खड़ आदमी था। प्रभु सेवक के मनोभाव न समझ सका। भ्रम हुआ-"यह मेरी हँसी उड़ा रहे हैं, मानों कह रहे हैं कि तुम्हारी बकवास से क्या होता है, हम जमीन लेंगे और जरूर लेंगे।" तिनककर बोला-"आप हँसते क्या है, क्या समझ रखा है कि अंधे की जमीन सहज ही में मिल जायगी? इस धोखे में न रहिएगा।"

प्रभु सेवक को अब क्रोध आया। पहले उन्होंने समझा था, नायकराम दिल्लगी कर रहा है। अब मालूम हुआ कि वह सचमुच लड़ने पर तैयार है। बोले-"इस धोने में नहीं हूँ, कठिनाइयों को खूब जानता हूँ; अब तक भरोसा था कि समझौते से सारी बातें तय हो जायँगी, इसीलिए आया था। लेकिन तुम्हारी इच्छा कुछ और हो, तो वही सही। अब तक मैं तुम्हें निर्बल समझता था, और निर्बलों पर अपनी शक्ति का प्रोयग न करना चाहता था। पर आज जाना कि तुम हेकड़ हो, तुम्हें अपने बल का घमंड है। इसलिए अब हम भी तुम्हें अपने हाथ दिखायें, तो कोई अन्याय नहीं है।"

इन शब्दों में नेकनीयती झलक रही थी। ठाकुरदीन ने कहा---"हजूर, पण्डाजी की बातों का खियाल न करें। इनकी आदत ही ऐनी है, जो कुछ मुँह में आया, बक डालते हैं। हम लोग आपके ताबेदार हैं।"

नायकराम-"आप दूसरों के बल पर कुदते होंगे, यहाँ अपने हाथों के बल का भरोमा करते हैं। आप लोगों के दिल में जो अरमान हो, निकाल डालिए। फिर न कहना कि धोखे में वार किया। (धीरे से) एक ही हाथ में सारी किरस्तानी निकल जायगी।"

प्रभु सेवक-"क्या कहा, जरा जोर मे क्यों नहीं कहते?"

नायकराम-(कुछ डरकर) "कह तो रहा हूँ, जो अरमान हो, निकाल डालिए।"

प्रभु सेवक-"नहीं, तुमने कुछ और कहा है।"

नायकराम---जो कुछ कहा है, वही फिर कह रहा हूँ। किसी का डर नहीं है।"

प्रभु सेवक-"तुमने गाली दी है।"

यह कहते हुए प्रभु सेवक फिटन से नीचे उतर पड़े, नेत्रों से ज्याला-सी निकलने लगी, नथने फड़कने लगे, सारा शरीर थरथराने लगा, एड़ियाँ ऐसी उछल रही थीं, मानों किसी उबलती हुई हाँड़ी का ढकना है। आकृति विकृत हो गई थी। उनके हाथ में केवल

एक पतली-सी छड़ी थी। फिटन से उतरते ही वह झपटकर नायकराम के कल्ले पर पहुँच गये, उसके हाथ से लाठी छीनकर फेंक दी, और ताबड़तोड़ कई बेत लगाये। नायकराम दोनों हाथों से वार रोकता पीछे हटता जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि वह अपने होश में नहीं है। वह यह जानता था कि भद्र पुरुष मार खाकर चाहे चुप रह जायँ, गाली नहीं सह सकते। कुछ तो पश्चात्ताप, कुछ आघात की अविलंबिता और कुछ परिणाम के भय ने उसे वार करने का अवकाश ही न दिया। इन अविरल प्रहारों से वह चौंधिया-सा गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रभु सेवक उसके जोड़ के न थे; किंतु उसमें वह सत्साहस, वह न्याय-पक्ष का विश्वास न था, जो संख्या और शस्त्र तथा बल की परवा नहीं करता।

और लोग भी हतबुद्धि-से खडे रहे; किसी ने बीच-बचाव तक न किया। बजरंगी नायकराम के पसीने की जगह खून बहानेवालों में था। दोनों साथ खेले और एक ही अखाड़े में लड़े थे। ठाकुरदीन और कुछ न कर सकता था, तो प्रभु सेवक के सामने खड़ा हो सकता था; किंतु दोनों-के-दोनों सुम-गुम-से ताकते रहे। यह सब कुछ पल मारने में हो गया। प्रभु सेवक अभी तक बेत चलाते ही जाते थे। जब छड़ी से कोई असर न होते देखा, तो ठोकर चलानी शुरू की। यह चोट कारगर हुई। दो-ही-तीन ठोकरें पड़ी थीं कि नायकराम जाँघ में चोट खाकर गिर पड़ा। उसके गिरते ही बजरंगी ने दौड़कर प्रभु सेवक को हटा दिया और बोला-"बस साहब, बस, अब इसी में कुसल है कि आप चले जाइए, नहीं तो खून हो जायगा।"

प्रभु सेवक-"हमको कोई चरकटा समझ लिया है, बदमाश, खून पी जाऊँगा, गाली देता है।"

बजरंगी-"बस, अब बहुत न बढ़िए, यह उसी गाली का फल है कि आप यों खड़े हैं; नहीं तो अब तक न जाने क्या हो गया होता।"

प्रभु सेवक क्रोधोन्माद से निकलकर विचार के क्षेत्र में पहुँच चुके थे। आकर फिटन पर बैठ गये और घोड़े को चाबुक मारा, घोड़ा हवा हो गया।

बजरंगी ने जाकर नायकराम को उठाया। घुटनों में बहुत चोट आई थी, खड़ा न हुआ जाता था। मालूम होता था, हड्डी टूट गई है। बजरंगी का कंधा पकड़कर धीरे-धीरे लँगड़ाते हुए घर चले।

ठाकुरदीन ने कहा—"नायकराम, भला मानो या बुरा, भूल तुम्हारी थी। ये लोग गाली नहीं बर्दाश्त कर सकते।”

नायकराम—"अरे, तो मैंने गाली कब दी थी भाई, मैंने तो यही कहा था कि एक ही हाथ में किरस्तानी निकल जायगी। बस, इसी पर बिगड़ गया।"

जमुनी अपने द्वार पर खड़े-खड़े यह तमाशा देख रही थी। आकर बजरंगी को कोसने लगी-"खड़े मुँह ताकते रहे, और वह लौंडा मार पीटकर चला गया, सारी पहलवानी धरी रह गई।"

बजरंगी—"मैं तो जैसे घबरा गया।" जमुनी-"चुप भी रहो। लाज नहीं आती। एक लौंडा आकर सबको पछाड़ गया, यह तुम लोगों के घमण्ड की सजा है।"

ठाकुरदीन-"बहुत सच कहती हो जमुनी, यह कौतुक देखकर यही कहना पड़ता है कि भगवान को हमारे गरूर की सजा देनी थी, नहीं तो क्या ऐसे-ऐसे जोधा कठपुतलियों की भाँति खड़े रहते। भगवान किसी का घमंड नहीं रखते।"

नायकराम-"यही बात होगी भाई, मैं अपने घमंड में किसी को कुछ न समझता था।"

ये बातें करते हुए लोग नायकराम के घर आये। किसी ने आग बनाई, कोई हल्दी पीसने लगा। थोड़ी देर में मोहल्ले के और लोग आकर जमा हो गये। सबको आश्चर्य होता था कि "नायकराम जैसा फेकैत और लठैत कैसे मुँह की खा गया। कहाँ सैकड़ों के बीच से बेदाग निकल आता था, कहाँ एक लौंडे ने लथेड़ डाला। भगवान की मरजी है।"

जगधर हल्दी का लेप करता हुआ बोला-"यह सारी आग भैरो की लगाई हुई है। उसने रास्ते ही में साहब के कान भर दिये थे। मैंने तो देखा, उसकी जेब में पिस्तौल भी था।"

नायकराम-पिस्तौल और बंदूक सब देखूँँगा, अब तो लाग पड़ गई।"

ठाकुरदीन-"कोई अनुष्ठान करवा दिया जाय।"

जगधर-"अनुष्ठान का किरस्तानों पर कुछ बस नहीं चलता।"

नायकराम-"इसे बीच बाजार में फिटन रोककर मारूँगा, फिर कहीं मुँह दिखाने लायक न रहेगा। अब मन में यही ठन गई है।"

सहसा भैरो आकर खड़ा हो गया। नायकराम ने ताना दिया-"तुम्हें तो बड़ी खुसी हुई होगी भैरो!"

भैरो-"क्यों भैया?"

नायकराम-"मुझ पर मार न पड़ी है!"

भैरो-"क्या मैं तुम्हारा दुसमन हूँ भैया? मैंने तो अभी दूकान पर सुना। होस उड़ गये। साहब देखने में तो बहुत सीधा-साधा मालूम होना था। मुझसे हँस-हँसकर बातें कीं, यहाँ आकर न जाने कौन भूत उस पर सवार हो गया।"

नायकराम-"उसका भूत मैं उतार दूँँगा, अच्छी तरह उतार दूँँगा, जरा खड़ा तो होने दो। हाँ, यहाँ जो कुछ राय हो, उसकी खबर वहाँ न होने पाये नहीं तो चौकन्ना हो जायगा।"

बजरंगी-"यहाँ हमारा ऐसा कौन बैरी बैठा हुआ है?"

जगबर-"यह न कहो, घर का भेदी लंका दाहे। कौन जाने, कोई आदमो साबसी लूटने के लिए, इनाम लेने के लिए, सुर्खरू बनने के लिए, वहाँ सारी बातें लगा आये।"

भैरो-"मुझी पर शक कर रहे हो न? तो मैं इतना नीच नहीं हूँ कि घर का भेद दूसरों से खोलता फिरूँ। इस तरह चार आदमी एक जगह रहते हैं, तो आपस में खटपट

होती ही है। लेकिन इतना कमीना नहीं हूँ कि भभीखन की भाँति अपने भाई के घर में आग लगवा दूँ। क्या इतना नहीं जानता कि मरने-जीने में, बिपत-संपत में, मुहल्ले के लोग ही काम आते हैं? कभी किसी के साथ विश्वासघात किया है? पण्डाजी ही कह दें, कभी उनकी बात दुलखी है। उनकी आड़ न होती, तो पुलिस ने अब तक मुझे कब का लदवा दिया होता, नहीं तो रजिस्टर में नाम तक नहीं है।"

नायकराम-'भैरो, तुमने अवसर पड़ने पर कभी साथ नहीं छोड़ा, इतना तो मानना ही पड़ेगा।"

भैरो-“पण्डाजी, तुम्हारा हुक्म हो, तो आग में कूद पड़ूँ।"

इतने में सूरदास भी आ पहुँचा। सोचता आता था-"आज कहाँ खाना बनाऊँगा, इसकी क्या चिंता है; बस, नीम के पेड़ के नीचे बाटियाँ लगाऊँगा। गरमी के तो दिन हैं, कौन पानी बरस रहा है।" ज्यों ही बजरंगी के द्वार पर पहुचा कि जमुनी ने आज का सारा वृत्तांत कह सुनाया। होश उड़ गये । उपले-ईधन की सुधि न रहा। सीधे नायकराम के यहाँ पहुँचा। बजरंगी ने कहा-“आओ सूरे, बड़ी देर लगाई, क्या अभी चले आते हो? आज तो यहाँ बड़ा गोलमाल हो गया।”

सूरदास-"हाँ, जमुनी ने अभी मुझसे कहा। मैं तो सुनते ही ठक रह गया।"

बजरंगी-"होनहार थी, और क्या। है तो लौंडा, पर हिम्मत का पक्का है। जबा तक हम लोग हाँ-हाँ करें, तब तक फिटन पर से कूद ही तो पड़ा और लगा हाथ-पर-हाथ चलाने।"

सूरदास-"तुम लोगों ने पकड़ भी न लिया?”

बजरंगी-"सुनते तो हो, जब तक दौड़ें, तब तक तो उसने हाथ चला ही दिया।"

सूरदास—"बड़े आदमी गाली सुनकर आपे से बाहर हो जाते हैं।"

जगधर-"जब बीच बाजार में बेभाव की पड़ेंगी, तब रोयेंगे। अभी तो फूले न समाते होंगे।"

बजरंगी-"जब चौक में निकलै, तो गाड़ी रोककर जूतों से मारे।"

सूरदास—"अरे, अब जो हो गया, सो हो गया, उसकी आबरू बिगाड़ने से क्या मिलेगा?"

नायकराम—"तो क्या मैं यों ही छोड़ दूँगा! एक-एक बेत के बदले अगर सौ-सौ जूते न लगाऊँ, तो मेरा नाम नायकराम नहीं। यह चोट मेरे बदन पर नहीं, मेरे कजेले पर लगी है। बड़े-बड़ों का सिर नीचा कर चुका हूँ, इन्हें मिटाते क्या देर लगती है। (चुटकी बजाकर) इस तरह उड़ा दूँगा।”

सूरदास—"बैर बढ़ाने से कुछ फायदा न होगा। तुम्हारा तो कुछ न बिगड़ेगा, लेकिन मुहल्ले के सब आदमी बँध जायँगे।"

नायकराम-"कैसी पागलों की-सी बातें करते हो! मैं कोई धुनिया-चमार हूँ कि इतनी बेइजती कराके चुप हो जाऊँ? तुम लोग सूरदास को कायल क्यों नहीं करते जी?
क्या चुप होके बैठ रहूँ? बोलो वजरंगी, तुम लोग भी डर रहे हो कि वह किरस्तान सारे मुहल्ले को पीसकर पी जायगा?"

बजरंगी-"औरों की तो मैं नहीं कहता, लेकिन मेरा बन चले, तो उसके हाथ-पैर तोड़ दूँ, चाहे जेहल ही क्यों न काटना पड़े। वह तुम्हारी ही बेइजती नहीं है, मुहल्ले-भर के मुँह में कालिख लग गई है।"

भैरो-"तुमने मेरे मुँह से बात छीन ली। क्या कहूँ, उस बखत मैं न था, नहीं तो हड्डी तोड़ डालता।”

जगधर-"पण्डाजी, मुँह-देखी नहीं कहता, तुम चाहे दूसरों के कहने-सुनने में आ जाओ, लेकिन मैं बिना उसकी मरम्मत किये न मानूँगा।"

इस पर कई आदमियों ने कहा-"मुखिया की इज्जत गई, तो सब की गई। वही तो किरस्तान है, जो गली-गली ईसा मसीह के गीत गाते फिरते हैं। डोमड़ा, चमार जो गिरजा में जाकर खाना खा ले, वही किरस्तान हो जाता है। वही बाद को कोट-पतलून पहनकर साहब बन जाते हैं।"

ठाकुरदीन-"मेरी तो सलाह यही है कि कोई अनुष्ठान करा दिया जाय।"

नायकराम-"अब बताओ सूरे, तुम्हारी बात मानूँ या इतने आदमियों की? तुम्हें यह डर होगा कि कहीं मेरी जमीन पर आँच न आ जाय, तो इससे तुम निश्चित रहो।

राजा साहब ने जो बात कह दी, उसे पत्थर की लकीर समझो। साहब सिर रगड़कर मर जायँ, तो भी अब जमीन नहीं पा सकते।"

सूरदास--"जमीन की मुझे चिंता नहीं है। मरूँगा, तो सिर पर लाद थोड़े ही लें जाऊँगा। पर अंत में यह मारा पार मेरे ही गिर पड़ेगा। मैं ही तो इस मारे तूफान की जड़ हूँ, मेरे ही कारन तो यह रगड़-झगड़ मची हुई है, नहीं तो साहब को तुमसे कौन दुसमनी थी।"

नायकराम---"यारो, सूरे को समझाओ।"

जगधर---"सूरे, सोचो, हम लोगों की कितनी बेआबरूई हुई है!"

सूरदास-"आबरू को बनाने-बिगाड़नेवाला आदमी नहीं है, भगवान है। उन्हीं की निगाह में आबरू बनी रहनी चाहिए। आदमियों का निगाह आवरू की परख कहाँ है। जन सूद खानेवाला बनिया, घूम लेनेवाला हाकिम और झूठ बोलनेवाला गवाह बेआबरू नहीं समझा जाता, लोग उसका आदर-मान करते हैं तो हा सच्ची आयरू की कदर करनेवा। कोई है ही नहीं।"

बजरंगी—"तुमसे कुछ मतलब नहीं, हम लोग जो चाहेंगे, करेंगे।"

सूरदास-"अगर मेरी बात न मानोगे, तो मैं जाके साहब से सारा माजरा कह सुनाऊँगा।"

नायकराम-"अगर तुमने उधर पैर रखा, तो याद रखना, यहां खोदकर गाड़ दूँगा। तुम्हें अंबा-अपाहिज समझकर तुम्हारी मुरौवत करता हूँ, नहीं तो तुम हो किस

खेत की मूली! क्या तुम्हारे कहने से अपनी इज्जत गँवा दूँ, बाप-दादों के मुँह में कालिख लगवा दूँ? बड़े आये हो वहाँ से ज्ञानी बनके। तुम भीख माँगते हो, तुम्हें अपनी इज्जत की फिकिर न हो, यहाँ तो आज तक पीठ में धूल नहीं लगी।"

सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। चुपके से उठा और मंदिर के चबूतरे पर जाकर लेट गया। मिठुआ प्रसाद के इंतजार में वहीं बैठा हुआ था। उसे पैसे निकालकर दिये कि सत्तू-गुड़ लाकर खा ले। मिठुआ खुश होकर बनिये की दुकान की ओर दौड़ा। बच्चों को सत्तू और चबेना रोटियों से अधिक प्रिय होता है।

सूरदास के चले आने के बाद कुछ देर तक लोग सन्नाटे में बैठे रहे। उसके विरोध ने उन्हें संशय में डाल दिया था। उसकी स्पष्टवादिता से सब लोग डरते थे। यह भी मालूम था कि वह जो कुछ कहता है, उसे पूरा कर दिग्वता है। इसलिए आवश्यक था कि पहले सूरदास ही से निबट लिया जाय। उसे कायल करना मुश्किल था। धमकी से भी कोई काम न निकल सकता था। नालकराम ने उस पर लगे हुए कलंक का समर्थन करके उसे परास्त करने का निश्चय किया। बोला—"मालूम होता है, उन लोगों ने अंधे को फोड़ लिया।"

भैरो—"मुझे भी यही संदेह होता है।"

जगधर—सूरदास फूटनेवाला आदमी नहीं है।"

बजरंगी—कभी नहीं।"

ठाकुरदीन-“ऐसा स्वभाव तो नहीं है, पर कौन जाने। किसी की नहीं चलाई जाती। मेरे ही घर चोरी हुई, तो क्या बाहर के चोर थे? पड़ोसियों ही की करतूत थी। पूरे एक हजार का माल उठ गया। और वहीं लोग, जिन्होंने माल उड़ाया, अब तक मेरे मित्र बने हुए हैं। आदमी का मन छिन-भर में क्या से क्या हो जाता है।"

नायकराम-"शायद जमीन का मामला करने पर राजी हो गया हो; पर साहब ने इधर अंख उठाकर भी देखा, तो बँगले में आग लगा दूँगा। (मुस्किराकर) भैरो मेरी मदद करेंगे ही।”

भैरो-“पण्डाजी, तुम लोग मेरे ऊपर सुभा करते हो, पर मैं जवानी की कसम खाता हूँ, जो उनके झोपड़े के पास भी गया होऊँ। जगघर मेरे यहाँ आते-जाते हैं, इन्हीं से ईमान से पूछिए।"

नायकराम-"जो आदमी किसी की बहू-बेटी पर बुरी निगाह करे, उसके घर में आग लगाना बुरा नहीं। मुझे पहले तो विश्वास नहीं आता था; पर आज उसके मिजाज का रंग बदला हुआ है।"

बजरंगी-“पण्डाजी, सूरे को तुम आज ३० बरसों से देख रहे हो। ऐसी बात न कहो।"

जगधर-"सूरे में और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, यह बुराई नहीं है।"

भैरो-“मुझे भी ऐसा जान पड़ता है कि हमने हक-नाहके उस पर कलंक लगाया।
सुभागी आज सवेरे आकर मेरे पैरों पर गिर पड़ी और तब से घर से बाहर नहीं निकली। सारे दिन अम्माँ की सेवा-टहल करती रही।”

यहाँ तो ये ही बातें होती रहीं कि प्रभु सेवक का सत्कार क्योंकर किया जायगा। उसी के कार्य-क्रम का निश्चय होता रहा। उधर प्रभु सेवक घर चले, तो आज के कृत्य पर उन्हें वह संतोष न था, जो सत्कार्य का सबसे बड़ा इनाम हैं। इसमें संदेह नहीं कि उनकी आत्मा शांत थी।

कोई भला आदमी अपशब्दों को सहन नहीं कर सकता, और न करना ही चाहिए। अगर कोई गालियाँ खाकर चुप रहे, तो इसका अर्थ यही है कि वह पुरुषार्थ-हीन है, उसमें आत्माभिमान नहीं। गालियाँ खाकर भी जिसके खून में जोश न आये, वह जड़ है, पशु है, मृतक है।

प्रभु सेवक को खेद यह था कि मैंने यह नौबत आने ही क्यों दी। मुझे उनसे मैत्री करनी चाहिए थी। उन लोगों को ताहिरअली के गले मिलाना चाहिए था; पर यह समय-सेवा किससे सीखूँ? उह! ये चालें वह चले, जिसे फैलने की अभिलाग हो, यहाँ तो सिमटकर रहना चाहते हैं। पापा सुनते ही झल्ला उठेगे। सारा इलजाम मेरे ही सिर मढ़ेंगे। मैं ही बुद्धिहीन, विचारहीन, अनुभवहीन प्राणी हूँ। अवश्य हूँ। जिसे संसार में रहकर सांसारिकता का ज्ञान न हो, वह मंदबुद्धि है। पाग बिगड़ेंगे, मैं शांत भाव से उनका क्रोध सह लूँगा। अगर वह मुझसे निराश होकर यह कारखाना खोलने का विचार त्याग दें, तो मैं मुँह-माँगी मुराद पा जाऊँ।

किंतु प्रभु सेवक को कितना आश्चर्य हुआ, जब सारा वृत्तांत सुनकर भी जॉन सेवक के मुख पर क्रोध का कोई लक्षण न दिखाई दिया; यह मौन व्यंग्य और तिरस्कार से कहीं ज्यादा दुस्सह था। प्रभु सेवक चाहते थे कि पापा मेरी खूब तंबीह करें, जिसमें मुझे आनी सफाई देने का अवसर मिले, मैं सिद्ध कर दूँ कि इस दुर्घटना का जिम्मेदार में नहीं हूँ। मरी जगह कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके सिर भी यही विपति पड़ती। उन्होंने दो-एक बार पिता के क्रोध को उकसाने की चेष्टा की; किंतु जॉन सेवक ने केवल एक बार उन्हे तीव्र दृष्टि से देखा, और उठकर चले गये। किसी कवि की यशेच्छा श्रोताओं के मौन पर इतनी मर्माहत न हुई होगी।

मिस्टर जॉन सेवक छलके हुए दूध पर आँसू न बहाते थे। प्रभु सेवक के कार्य की तीत्र आलोचना करना व्यर्थ था। वह जानते थे कि इसमें आत्म-सम्मान कूट-कूटकर भरा हुआ है। उन्होंने स्वयं इस भाव का पोषण किया था। सोचने लगे-इम गुत्थी को कैसे सुलझाऊँ? नायकराम मुहल्ले का मुखिया है। सारा मुहल्ला इसके इशारों का गुलाम है। सूरदास तो केवल स्वर भरने के लिए है। और, नायकराम मुखिया ही नहीं है, शहर का मशहूर गुंडा भी है। बड़ी कुशल हुई कि प्रभु सेवक वहाँ से जीता जागता लौट आया। राजा साहब बड़ी मुश्किलों से सीधे हुए थे! नायकराम उनके पास जरूर फरियाद करेगा, अबको हमारी ज्यादती साबित होगी। राजा साहब को पूँजीवालों से यों ही चिढ़

है, यह कथा सुनते ही जामे से बाहर हो जायँगे। फिर किसी तरह उनका मुँह सीधा न होगा। सारी रात जॉन सेवक इसी उधेड़-बुन में पड़े रहे। एकाएक उन्हें एक बात सूझी। चेहरे पर मुस्किराहट की झलक दिखाई दी। संभव है, यह चाल सीधी पड़ जाय, त फिर बिगड़ा हुआ काम सँवर जाय। सुबह को हाजिरी खाने के बाद फिटन तैयार कराई और पाँड़ेपुर चल दिये।

नायकराम ने पैरों में पट्टियाँ बाँध ली थीं, शरीर में हल्दी की मालिश कराये हुए थे, एक डोली मँगवा रखी थी और राजा महेंद्र कुमार के पास जाने को तैयार थे। अभी मुहूर्त में दो-चार पल की कसर थी बजरंगी और जगधर भी साथ जाने वाले थे। सहसा फिटन पहुँची, तो लोग चकित हो गये। एक क्षण में सारा मोहल्ला आकर जमा हो गया, आज क्या होगा?

जॉन सेवक नायकराम के पास जाकर बोले—“आप ही का नाम नायकराम पाँडे है न? मैं आपसे कल की बातों के लिए क्षमा माँगने आया हूँ। लड़के ने ज्यों ही मुझसे यह समाचार कहा, मैंने उसको खूब डॉटा, और रात ज्यादा न हो गई होती, तो मैं उसी वक्त आपके पास आया होता। लड़का कुमार्गी और मूर्ख है। कितना ही चाहता हूँ कि उसमें जरा आदमीयत आ जाय, पर ऐसी उलटी समझ है कि किसी बात पर ध्यान ही नहीं देता। विद्या पढ़ने के लिए विलायत भेजा, वहाँ से भी पास हो आया; पर सज्जनता न आई। उसकी नादानी का इससे बढ़कर और क्या सबूत होगा कि इतने आदमियों के बीच में वह आपसे बेअदबी कर बैठा। अगर कोई आदमी शेर पर पत्थर फेंके, तो उसकी वीरता नहीं, उसका अभिमान भी नहीं, उसकी बुद्धिहीनता है। ऐसा प्राणी दया के योग्य है; क्योंकि जल्द या देर में वह शेर के मुँह का ग्रास बन जायगा। इस लौंडे की ठीक यही दशा है। आपने मुरौवत न की होती, क्षमा से न काम लिया होता, तो न जाने क्या हो जाता। जब आपने इतनी दया की है, तो दिल से मलाल भी निकाल डालिए।"

नायकराम चारपाई पर लेट गये, मानो खड़े रहने में कष्ट हो रहा है, और बोले— "साहब, दिल से मलाल तो न निकलेगा, चाहे जान निकल जाय। इसे चाहे हम लोगों की मुरौवत कहिए, चाहे उनकी तकदीर कहिए कि वह यहाँ से बेदाग चले गये; लेकिन मन्याल तो दिल में बना हुआ है। वह तभी निकलेगा, जब या तो मैं न रहूँगा या वह न रहेग। रही भलमनसी, भगवान् ने चाहा, तो जल्द ही सीख जायँगे। बस, एक बार हमारे हाथ में फर पड़ जाने दीजिए। हमने बड़े-बड़ों को भलामानुस बना दिया, उनकी क्या हस्ती है!"

जॉन सेवक—“अगर आप इतनी आसानी से उसे भलमनसी सिखा सके, तो कहिए, आप ही के पास भेज दूँ, मैं तो सब कुछ करके हार गया।"

नायकराम—“बोलो भाई बजरंगी, साहब की बातों का जवाब दो, मुझसे तो बोला नहीं जाता, रात कराह-कराहकर काटी है। साहब कहते हैं, माफ कर दो, दिल में मलाल

न रखें मैं तो यह सब व्यवहार नहीं जानता। यहाँ तो ईट का जवाब पत्थर से देना सीखा है।"

बजरंगी—“साहब लोगों का यही दस्तूर है। पहले तो मारते हैं, और जब देखते हैं कि अब हमारे ऊपर भी मार पड़ा चाहती है, तो चट कहते हैं—माफ कर दो; यह नहीं सोचते कि जिसने मार खाई है, उसे बिना मारे कैसे तसकीन होगी।"

जॉन सेवक—"तुम्हारा यह कहना ठीक है, लेकिन यह समझ लो कि क्षमा बदले के भय से नहीं माँगी जाती। भय से आदमी छिप जाता है, दूसरों की मदद माँगने दौड़ता है, क्षमा नहीं माँगता! क्षमा आदमी उसी वक्त माँगता है, जब उसे अपने अन्याय और बुराई का विश्वास हो जाता है, और जब उसकी आत्मा उमे लज्जित करने लगती है। प्रभु सेवक से तुम माफी माँगने को कहो, तो कभी न राजी होगा। तुम उसकी गरदन पर तलवार चलाकर भी उसके मुँह से क्षमा याचना का एक शब्द नहीं निकलवा सकते। अगर विश्वास न हो, तो इसकी परीक्षा कर लो। इसका कारण यही है कि वह समझता है, मैंने कोई ज्यादती नहीं की। वह कहता है, मुझे उन लोगों ने गालियाँ दी। लेकिन मैं इसे किसी तरह नहीं मान सकता कि आपने उसे गालियाँ दी होगी। शरीफ आदमी न गालियाँ देता है, न गालियाँ सुनता है। मैं जो क्षमा माँग रहा हूँ, वह इसलिए कि मुझे यहाँ सरासर उसकी ज्यादती मालूम होती है। मैं उसके दुर्व्यवहार पर लजित हूँ, और मुझे इसका दुःख है कि मैंने उसे यहाँ क्यों आने दिया। सच पूछिए, तो अब मुझे यही पछतावा हो रहा है कि मैंने इस जमीन को लेने की बात ही क्यों उठाई। आप लोगों ने मेरे गुमास्ते को मारा, मैंने पुलिम में सट तक न की। मैंने निश्चय कर लिया कि अब इस जमीन का नाम न लूँगा। मैं आप लोगों को कष्ट नहीं देना चाहता, आपको उजाड़-कर अपना घर नहीं बनाना चाहता। अगर तुम लोग स्तुदी से दोगे, तोलूँगा, नहीं ना छोड़ दूँगा । किसी का दिल दुखाना सबसे बड़ा अधर्म कहा गया है। जब तक आप लोग मुझे क्षमा न करेंगे, मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।"

उदंडता मरलता का केवल उग्र रूप है। सादर के मधुर वाक्यों ने नायकराम का क्रोध शांत कर दिया। कोई दूसरा आदमी इतनी ही आसानी से उसे साहब की गरदन पर तलवार चलाने के लिए उत्तेजित कर सकता था; संभव था, प्रभु सेवक को देवकर उसके सिर पर खून सवार हो जाता; पर इस समय साहब की वाती ने उसे मंत्रमुग्ध—गा कर दिया। बोला—"कहो बजरंगो, क्या कहते हो?"

बजरंगी—"कहना क्या है, जो अपने सामने मस्तक नवाये, उनके सामने मस्तक नवाना ही पड़ता है। साहब यह भी तो कहते हैं कि अब हम इस जमीन से कोई सरोकार न रखेंगे, तो हमारे और इनके बीच में झगड़ा ही क्या रहा।"

जगधर—"हाँ, झगड़े का मिट जाना ही अच्छा है। बैर—बिरोध से किसी का भला नहीं होता।"

भैरो—"छोटे साहब को चाहिए कि आकर पण्डाजी से खता माफ करावें। अब वह

कोई बालक नहीं है कि आर उनकी ओर से सिपारिस कर! बालक होते, तो दूसरी बात थी, तब हम लोग आप ही को उलाहना देते। वह पढ़े-लिखे आदमी हैं, मूछ-दाढ़ी निकल आई है, उन्हें खुद आकर पण्डाजी से कहना-सुनना चाहिए।"

नायकराम—"हाँ, यह बात पक्की है। जब तक वह थूककर न चाटेंगे, मेरे दिल से मलाल न निकलेगा।"

जॉन सेवक—"तो तुम समझते हो कि दाढ़ी-मूछ आ जाने से बुद्धि भी आ जाती है? क्या ऐसे आदमी नहीं देखे हैं, जिनके बाल पक गये हैं, दाँत टूट गये हैं, और अभी तक अक्ल नहीं आई? प्रभु सेवक अगर बुद्धू न होता, तो इतने आदमियों के बीच में और पण्डाजी-जैसे पहलवान पर हाथ न उठाता। उसे तुम कितना ही दबाओ, पर मुआफी न माँगेगा। रही जमीन की बात, अगर तुन लोगों की मरजी है कि मैं इस मुआमले को दबा रहने दूँ, तो यही सही। पर शायद अभी तक तुम लोगों ने इस समस्या पर विचार नहीं किया, नहीं तो कभी विरोध न करते। बतलाइए पण्डाजी, आपको क्या शंका है?”

नायकराम—"भैरो, इसका जवाब दो। अब तो साहब ने तुमको कायल कर दिया!"

भैरो—"कायल क्या कर दिया, साहब यही कहते है न कि छोटे साहब को अक्कल नहीं है; तो वह कुएँ में क्यों नहीं कूद पड़ते, अपने दांतों ने अपना हाथ क्यों नहीं काट लेते? ऐसे आदमियों को कोई कैसे पागल समझ ले?"

जॉन सेवक—"जो आदमी यह न समझे कि किस मौके पर कौन काम करना चाहिए, किस मौके पर कौन बात करनी चाहिए, वह पागल नहीं, तो और क्या है?"

नायकराम—"साहब, उन्हें मैं पागल तो किसी तरह न मानूँगा। हाँ, आपका मुँह देख के उनसे बैर न बढ़ाऊँगा। आपकी नम्रता ने मेरा सिर झुका दिया। सच कहता हूँ, आ की भलमनसी और सराफत ने मेरा गुस्सा ठंडा कर दिया। नहीं तो मेरे दिल में न जाने कितना गुबार भरा हुआ था। अगर आप थोड़ी देर और न आते, तो आज शाम तक छोटे साहब अस्पताल में होते। आज तक कभी मेरी पीठ में धूल नहीं लगी। जिंदगी में पहली बार मेरा इतना अपमान हुआ और पहली बार मैंने क्षमा करना भी सीखा। यह आपकी बुद्धि की बरकत है। मैं आपकी खोपड़ी को मान गया। अब साहब की दूसरी बात का जवाब दो बजरंगी!”

बजरंगी—“उसमें अब काहे का सवाल-जवाब। साहब ने तो कह दिया कि मैं उसका नाम न लूँगा। बस, झगड़ा मिट गया।"

जॉन सेवक—'लेकिन अगर उस जमीन के मेरे हाथ में आने से तुम्हारा सोलहों आने फायदा हो, तो भी तुम हमें न लेने दोगे?"

बजरंगी—"हमारा फायदा क्या होगा, हम तो मिट्टी में मिल जयँगे।"

जॉन सेवक—"मैं तो दिखा दूँगा कि यह तुम्हारा भ्रम है। बतलाओ, तुम्हें क्या एतराज है?" बजरंगी—"पंडाजी के हजारों जात्रो आते हैं, वे इसी मैदान में ठहरते हैं। दस-दस, बीस-बीस दिन पड़े रहते हैं, वहीं खाना बनाते हैं, वहीं सोते भी हैं। सहर के धरमसालों में देहात के लोगों को आराम कहाँ। यह जमीन न रहे, तो कोई जात्री यहाँ झाँकने भी न आये।"

जॉन सेवक—"जात्रियों के लिए, सड़क के किनारे, खपरैल के मकान बनवा दिये जाय, तो कैसा?"

बजरंगी—"इतने मकान कौन बनवायेगा?"

जॉन सेवक—"इसका मेरा जिम्मा। मैं वचन देता हूँ कि यहाँ धर्मशाला बनवा दूँगा।"

बजरंगी—"मेरी और मुहल्ले के आदमियों को गाय-भैसे कहाँ चरेंगी?"

जॉन सेवक—"अहाते में घास चराने का तुम्हें अख्तियार रहेगा। फिर, अभी तुम्हें अपना सारा दूध लेकर शहर जाना पड़ता है; हलवाई तुमसे दूध लेकर मलाई, मक्खन, दही बनाता है, और तुमसे कहीं ज्यादा सुखी है। यह नफा उसे तुम्हारे ही दूध से तो होता है! तुम अभी यहाँ मलाई मक्खन बनाओ, तो लेगा कौन? जब यहाँ कारखाना खुल जायगा, तो हजारों आदमियों की बस्ती हो जायगी, तुम दूध की मलाई बेचोगे, दूध अलग बिकेगा। इस तरह तुम्हें दोहरा नफा होगा। तुम्हारे उपले घर बैठे बिक जायँगे। तुम्हें तो कारखाना खुलने से सब नफा-ही-नफा है।”

नायकराम—"आता है समझ में न बजरंगी?"

बजरंगी—"समझ में क्यों नहीं आता, लेकिन एक मैं दूध की मलाई बना लूँगा, और लोग भी तो हैं, दूध खाने के लिए जानवर पाले हुए हैं। उन्हें तो मुमकिल पड़ेगी?"

ठाकुरदीन—"मेरी ही एक गाय है। चोरों का बस चलता, तो इसे भी ले गये होते। दिन-भर वह चरती है। साँझ-सबेरे दूध दुहकर छोड़ देता हूँ। केले का भी चारा नहीं लेना पड़ता। तब तो आठ आने रोज का भूसा भी पूरा न पड़ेगा।"

जॉन सेवक—"तुम्हारी पान की दुकान है न? अभी तुम दस-बारह आने पैसे कमाते होगे। तब तुम्हारी बिक्री चौगुनी हो जायगी। इधर की कमी उधर पूरी हो जायगी। मजदूरों को पैसे की पकड़ नहीं होती; काम से जरा फुरसत मिली कि कोई पान पर गिरा, कोई सिगरेट पर दौड़ा। खोंचेबाले की खासी विक्री होगी, और शराब-ताड़ी का तो पूछना ही क्या, चाहें तो पानी को शराब बनाकर बेचो। गाड़ीवालों की मजदूरी बढ़ जायगी। यही मोहल्ला चौक की भाँति गुलजार हो जायगा। अभी तुम्हारे लड़के शहर पढ़ने जाते हैं, तब यहीं मदरसा खुल जायगा।"

जगधर—"क्या यहाँ मदरसा भी खुलेगा?"

जॉन सेवक—"हाँ, कारखाने के आदमियों के लड़के आखिर पढ़ने कहाँ जायँगे? अँगरेजी भी पढ़ाई जायगी।"

जगधर—"फीम कुछ कम ली जायगी?" जॉन सेवक— "फीस बिलकुल ही न ली जायगी, कम-ज्यादा कैसी!"

जगधर—"तब तो बड़ा आराम हो जायगा।"

नायकराम—"जिसका माल है, उसे क्या मिलेगा?"

जॉन सेवक—"जो तुम लोग तय कर दो। मैं तुम्हीं को पंच मानता हूँ। बस, उसे राजी करना तुम्हारा काम है।”

नायकराम—"वह राजी ही है। आपने बात-की-बात में सबको राजी कर लिया, नहीं तो यहाँ लोग मन में न जाने क्या क्या समझे बैठे थे। सच है, विद्या बड़ी चीज है।"

भैरो—“वहाँ ताड़ी की दूकान के लिए कुछ देना तो न पड़ेगा?"

नायकराम—"कोई और खड़ा हो गया, तो चढ़ा-ऊपरी होगी ही।"

जॉन सेवक—"नहीं, तुम्हारा हक सबसे बढ़कर समझा जायगा।"

नायकराम—"तो फिर तुहारी चाँदी है भैरो!"

जॉन सेवक—"तो अब मैं चलूँ पंडाजी, अब आपके दिल में मलाल तो नहीं है?"

नायकराम—"अब कुछ कहलाइए न, आपका-सा भलामानुस आदमी कम देखा।" जॉन सेवक चले गये, तो बजरंगी ने कहा-"कहीं सूरे राजी न हुए, तो?”

नायकराम—"हम तो राजी करेंगे! चार हजार रुपये दिलाने चाहिए। अब इसी समझौते में कुसल है। जमीन रह नहीं सकती। यह आदमी इतना चतुर है कि इससे हम लोग पेस नहीं पा सकते। यो निकल जायगी तो हमारे साथ यह सलूक कौन करेगा? सेंत में जस मिलता हो, तो छोडना न चाहिए।"

जॉन सेवक घर पहुंचे, तो डिनर तैयार था। प्रभु सेवक ने पूछा--"आप कहाँ गये थे?” जॉन सेवक ने रूमाल से मुँह पोंछते हुए कहा-"हरएक काम करने का तमीज चाहिए। कविता रच लेना दूसरी बात है, काम कर दिखाना दूसरी बात। तुम एक काम करने गये, मोहल्ले-भर से लड़ाई ठानकर चले आये। जिस समय मैं पहुँचा हूँ, सारे आदमी नायकराम के द्वार पर जमा थे। वह डोली में बैठकर शायद राजा महेंद्रसिंह के पास जाने को तैयार था। मुझे सबों ने यों देखा, जैसे फाड़ खायेंगे। लेकिन मैंने कुछ इस तरह धैर्य और विनय से काम लिया, उन्हें दलीलों और चिकनी-चुपड़ी बातों से ऐसा ढरें पर लाया कि जब चला, तो सब मेरा गुणानुवाद कर रहे थे। जमीन का मुआमला भी तय हो गया। उसके मिलने में अब कोई बाधा नहीं है।"

प्रभु सेवक—“पहले तो सब उस जमीन के लिए मरने-मारने पर तैयार थे।"

जॉन सेवक—"और कुछ कसर थी, तो वह तुमने जाकर पूरी कर दी। लेकिन याद रखो, ऐसे विषयों में सदैव मार्मिक अवसर पर निगाह रखनी चाहिए। यही सफलता का मूल-मंत्र है। शिकारी जानता है, किस वक्त हिरन पर निशाना मारना चाहिए। वकील जानता है, अदालत पर कब उसकी युक्तियों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ सकता है। एक महीना नहीं, एक दिन पहले, मेरी बातों का इन आदमियों पर जरा भी असर न होता। कल तुम्हारी उइंडता ने वह अवसर प्रस्तुत कर दिया। मैं क्षमा-प्रार्थी बनकर उनके सामने

गना। मुझे दबकर, झुककर, दीनता से, नम्रता से अपनी समस्या को उनके सम्मुग्व उपस्थित करने का अवसर मिला। यदि उनकी ज्यादती होती, तो मेरी ओर से भी नाड़ाई की जाती। उस दशा में दबना नीति और आचरण के विरुद्ध होता। ज्यादती हमारी ओर से हुई, बस यही मेरी जीत थी।"

ईश्वर सेवक बोले—"ईश्वर, इस पापी को अपनी शरण में ले। बर्फ आजकल बहुत महँगी हो गई है, फिर समझ में नहीं आता, क्यों इतनी निर्दयता से वर्च की जानी है। सुराही का पानी काफी ठण्डा होता है।"

जॉन सेवक—"पापा, क्षमा कीजिए, बिना बर्फ के प्याम ही नहीं बुझनी।"

ईश्वर सेवक—"खुदा ने चाहा बेटा, तो उस जमीन का मुआमला नय हो जायगा। आज तुमने बड़ी चतुरता से काम किया।

मिसेज सेवक—"मुझे इन हिन्दुस्थानियों पर विश्वास नहीं आता। दगाबाजी कोई इनसे सीख ले। अभी सब-के-सब हाँ हाँ कर रहे हैं, मौका पड़ने पर सब निकल जायेंगे। महेंद्रसिंह ने नहीं धोखा दिया? यह जाति ही हमारी दुश्मन है। इनका वश चले, तो एक ईसाई भी मुल्क में न रहने पाये।"

प्रभु सेवक'मामा, यह आपका अन्याय है? पहले हिन्दुस्थानियों को ईसाइयों से कितना ही द्वेष रहा हो, किंतु अब हालत बदल गई है। हम खुद अंगरेजों की नकल करके उन्हें चिढ़ाते हैं। प्रत्येक अवसर पर अँगरेजों की सहायता से उन्हें दबाने की चेष्टा करते हैं। किंतु यह हमारी राजनीतिक भ्रांति है। हमारा उद्धार देशवासियों मे भ्रातृभाव रखने में है, उन पर रोब जमाने में नहीं। आखिर हम भी तो इसी जननी की संतान हैं। यह असंभव है कि गोरी जातियाँ केवल धर्म के नाते हमारे साथ भाईचारे का व्यवहार करें। अमेरिका के हबशी ईसाई हैं, लेकिन अमेरिका के गोरे उनके साथ कितना पाशविक और अत्याचार-पूर्ण बर्ताव करते हैं! हमारी मुक्ति भारतवासियों के माथ है।"

मिसेज सेवक—"खुदा वह दिन न लाये कि हम इन विधर्मियों की दोस्ती को अपने उद्धार का साधन बनायें। हम शासनाधिकारियों के सहधर्मी हैं। हमारा धर्म, हमारी रीति-नीति, हमारा आहार-व्यवहार अँगरेजों के अनुकूल है। हम और वे एक कलिसिया में, एक परमात्मा के सामने, सिर झुकाते हैं। हम इस देश में शासक बनकर रहना चाहते हैं, शासित बनकर नहीं। तुम्हें शायद कुँवर भरतसिंह ने यह उपदेश दिया है। कुछ दिन और उनकी सोहबत रही, तो शायद तुम भी ईसू से विमुख हो जाओ।"

प्रभु सेवक—"मुझे तो ईसाइयों में जाति के विशेष लक्षण नहीं दिखाई देते।"

जॉन सेवक—"प्रभु सेवक, तुमने बड़ा गहन विषय छेड़ दिया। मेरे विचार में हमारा कल्याण अँगरेजों के साथ मेल-जोल करने में है। अँगरेज इस समय भारतवासियों की संयुक्त शक्ति से चिंतित हो रहे हैं। हम अँगरेजों से मैत्री करके उन पर अपनी राज-भक्ति का सिक्का जमा सकते हैं, और मनमाने स्वत्व प्राप्त कर सकते हैं। खेद यही है कि

हमारी जाति ने अभी तक राजनीतिक क्षेत्र में पग ही नहीं रखा। यद्यपि देश में हम अन्य जातियों से शिक्षा में कहीं आगे बढ़े हुए हैं, पर अब तक राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है। हिंदुस्थानियों में मिलकर हम गुम हो जायँगे, खो जायँगे। उनसे पृथक्र हकर विशेष अधिकार और विशेष सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।"

ये ही बातें हो रही थीं कि एक चपरासी ने आकर एक खत दिया। यह जिलाधीश मिस्टर क्लार्क का खत था। उनके यहाँ विलायत से कई मेहमान आये हुए थे! क्लार्क ने उनके सम्मान में एक डिनर दिया था, और मिसेज सेवक तथा मिस सोफिया सेवक को उसमें सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया था। साथ ही मिसेज सेवक से विशेष अनुरोध भी किया था कि सोफिया को एक सप्ताह के लिए अवश्य बुला लीजिए।

चपरासी के चले जाने के बाद मिसेज सेवक ने कहा—"सोफी के लिए यह स्वर्ण-संयोग है।"

जॉन सेवक—"हाँ, है तो; पर वह आयेगो कैसे?"

मिसेज सेवक—"उसके पास यह पत्र भेज दूँ?”

जॉन सेवक—"सोफी इसे खोलकर देखेगी भी नहीं। उसे जाकर लिवा क्यों नहीं लाती?"

मिसेज सेवक—"वह तो आती ही नहीं।”

जॉन सेवक—"तुमने कभी बुलाया ही नहीं, आती क्योंकर?"

मिसेज सेवक-"वह आने के लिए कैसी शर्त लगाती है!"

जॉन सेवक—"अगर उसकी भलाई चाहती हो, तो अपनी शर्तों को तोड़ दो।"

मिसेज सेवक—"वह गिरजा न जाय, तो भी जबान न खोलूँ?"

जॉन सेवक—"हजारों ईसाई कभी गिरजा नहीं जाते, और अँगरेज तो बहुत कम आते हैं।"

मिसेज सेवक—"प्रभु मसीह की निंदा करे, तो भी चुप रहूँ?"

जॉन सेवक—'वह मसीह की निंदा नहीं करती, और न कर सकती है। जिसे ईश्वर ने जरा भी बुद्धि दी है, वह प्रभु मसीह का सच्चे दिल से सम्मान करेगा। हिंदू तक ईसू का नाम आदर के साथ लेते हैं। अगर सोफ़ी मसीह को अपना मुक्तिदाता, ईश्वर का बेटा या ईश्वर नहीं समझती, तो उस पर जब क्यों किया जाय? कितने ही ईसाइयों को इस विषय में शंकाएँ हैं, चाहे वे उन्हें भय वश प्रकट न करें! मेरे विचार में अगर कोई प्राणी अच्छे कर्म करता है और शुद्ध विचार रखता है, तो वह उस मसीह के उस भक्त से कहीं श्रेष्ठ है, जो मसीह का नाम तो जपता है, पर नीयत का खराब है।"

ईश्वर सेवक—"या खुदा, इस खानदान पर अपना साया फैला। बेटा, ऐसी बातें जबान से न निकालो। मसीह का दास कभी सन्मार्ग से नहीं फिर सकता। उस पर प्रभु मसीह की दयादृष्टि रहती है।" जॉन सेवक--(स्त्री से) "तुम कल सुबह चली जाओ, रानी से भेंट भी हो जायगी और सोफी को भी लेती आओगी।”

मिसेज सेवक--"अब जाना ही पड़ेगा। जी तो नहीं चाहता; पर जाऊँगी। उसी की टेक रहे!"

* * *

सूरदास संध्या-समय घर आया, और सब समाचार सुने, तो नायकराम से बोला- "तुमने मेरी जमीन साहब को दे दी?"

नायकराम-"मैंने क्यों दी? मुझसे वास्ता?”

सूरदास-"मैं तो तुम्हीं को सब कुछ समझता था और तुम्हारे ही बल पर कुदता था; पर आज तुमने भी साथ छोड़ दिया। अच्छी बात है। मेरी भूल थी कि तुम्हारे बल पर फूला हुआ था। यह उसी की सजा है। अब न्याय के बल पर लड़गा, भगवान् ही का भरोसा करूँगा।"

नायकराम-"बजरंगी, जरा भैरो को बुला लो, इन्हें सब बातें समझा दे। मैं इनमे कहाँ तक मगज लगाऊँ।"

बजरंगी-"भैरो को क्यों बुला लूँ, क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता। भैरो को इतना सिर चढ़ा दिया, इसी से तो उसे घमंड हो गया है।"

यह कहकर बजरंगी ने जॉन सेवक की सारी आयोजनाएँ कुछ बढ़ा-घटाकर बयान कर दी और बोला-"बताओ, जब कारखाने से सबका फायदा है, तो हम साहब से क्यों लड़ें?”

सूरदास-"तुम्हें विश्वास हो गया कि सबका फायदा होगा?"

बजरंगी-"हाँ, हो गया। मानने-लायक बात होती है, तो मानी ही जाती है।"

सूरदास-"कल तो तुम लोग जमीन के पीछे जान देने पर तैयार थे, मुझ पर संदेह कर रहे थे कि मैंने साहब से मेल कर लिया, आज साहब के एक ही चकमे में पानी हो गये?"

बजरंगी-"अब तक किसी ने ये सब बातें इतनी सफाई से न समझाई थीं। कारखाने से सारे मुहल्ले का, सारे शहर का, फायदा है। मजूरों की मजूरी बढ़ेगी, दूकानदारों की बिक्री बढ़ेगी। तो अब हमें तो झगड़ा नहीं है। तुमको भी हम यही सलाह देते हैं कि अच्छे दाम मिल रहे हैं, जमीन दे डालो। यो न दोगे, तो जाबते से ले ली जायगी। इससे क्या फायदा?"

सूरदास-अधर्म और अविचार कितना बढ़ जायगा, यह भी मालूम है?"

बजरंगी-"धन से तो अधर्म होता ही है, पर धन को कोई छोड़ नहीं देता?"

सूरदास-"तो अब तुम लोग मेरा साथ न दोगे? मत दो। जिधर न्याय है, उधर किसी की मदद की इतनी जरूरत भी नहीं है। मेरी चीज है, बाप-दादों की कमाई है,

किसी दूसरे का उस पर कोई अखतियार नहीं है। अगर जमीन गई, तो उसके साथ मेरी जान भी जायगी।"

यह कहकर सूरदास उठ खड़ा हुआ और अपने झोपड़े के द्वार पर आकर नीम के नीचे लेट रहा।