रंगभूमि/२०

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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मि० क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया—"डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो।" नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराये—“यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं पकड़ी गई? किसी ने रिशवत की शिकायत तो नहीं कर दी?" बेचारों के हाथ-पाँव फूल गये।

डिप्टी साहब बिगड़े—"मैं कोई साहब का जाती नौकर नहीं हूँ कि जब चाहा, तलब कर लिया। कचहरी के समय के भीतर जीतनी बार चाहें, तलब करें; लेकिन यह कौन-सी बात है कि जब जी में आया, सलाम भेज दिया।" इरादा किया, न चलूँ; पर इतनी हिम्मत कहाँ कि साफ-साफ इनकार कर दें। बीमारी का बहाना करना चाहा; मगर अरदली ने कहा—"हजूर, इस वक्त न चलेंगे, तो साहब बहुत नाराज होंगे, कोई बहुत जरूरी काम है, तभी तो मोटर से उतरते ही आपको सलाम दिया।"

आखिर डिप्टी साहब को मजबूर होकर आना पड़ा। छोटे अमलों ने जरा भी चूँन की, अरदली की सूरत देखते ही हुक्का छोड़ा, चुपके से कपड़े पहने, बच्चों को दिलास दिया और हाकिम के हुक्म को अकाल-मृत्यु समझते हुए, गिरते-पड़ते बँगले पर आ पहुँचे। साहब के सामने आते ही डिप्टी साहब का सारा गुस्सा उड़ गया, इशारों पर दौड़ने लगे। मि. क्लार्क ने सूरदास की जमीन को मिसिल मँगवाई, उसे बड़े गोर से पढ़वाकर सुना, तब डिप्टी साहब से राजा महेंद्रकुमार के नाम एक परवाना लिखवाया, जिसका आशय यह था—"पाँड़ेपुर में सिगरेट के कारखाने के लिए जमीन ली गई है, वह उस धारा के उद्देश्य के विरुद्ध है, इसलिए मैं अपनी अनुमति वापस लेता हूँ। मुझे इस विषय में धोखा दिया गया है और एक व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कानून का दुरुपयोग किया गया है।"

डिप्टो साहब ने दबी जबान से शंका की—"हुजूर, अब आपको वह हुक्म मंसूख करने का मजाज नहीं; क्योंकि सरकार ने उसका समर्थन कर दिया है।"

मिस्टर क्लार्क ने कठोर स्वर में कहा—"हमी सरकार हैं, हमने वह कानून बनाया है, हमको सब अख्तियार है। आप अभी राजा साहब को परवाना लिख दें, कल लोकल गवर्नमेंट को उसकी नकल भेज दीजिएगा। जिले के मालिक हम हैं, सूबे की सरकार नहीं। यहाँ बलवा हो जायगा, तो हमको उसका इंतजाम करना पड़ेगा, सूबे की सरकार यहाँ न आयेगी।"

अमले थर्रा उठे, डिप्टी साहब को दिल में कोसने लगे-"यह क्यों बीच में बोलते हैं। अँगरेज है, कहीं गुस्से में आकर मार बैठे, तो उसका क्या ठिकाना। जिले का बादशाह है, जो चाहे करे, अपने से क्या मतलब।”

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डिप्टी साहब की छाती भी धड़कने लगी, फिर जबान न खुली। परवाना तैयार हो गया, साहब ने उस पर हस्ताक्षर किया, उसी वक्त एक अरदली राजा साहब के पास परवाना लेकर जा पहुँचा। डिप्टी साहब वहाँ से उठे, तो मि० जॉन सेवक को इस हुक्म की सूचना दे दी।

जॉन सेवक भोजन कर रहे थे। यह समाचार सुना, तो भूख गायब हो गई। बोले-"यह मि० क्लार्क को क्या सूझी?”

मिसेज सेवक ने सोफी की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर पूछा-“तूने इनकार तो नहीं कर दिया? जरूर कुछ गोलमाल किया है।"

सोफिया ने सिर झुकाकर कहा- "बस, आपका गुस्सा मुझी पर रहता है, जो कुछ करती हूँ, मैं ही करती हूँ।"

ईश्वर सेवक-"प्रभु मसीह, इस गुनहगार को अपने दामन में छिपा। मैं अखीर तक मना करता रहा कि बुड्ढे की जमीन मत लो; मगर कौन सुनता है। दिल में कहते होंगे, यह तो सठिया गया है, पर यहाँ दुनिया देखे हुए हैं। राजा डरकर क्लार्क के पास आया होगा।

प्रभु सेवक-"मेरा भी यही विचार है। राजा साहब ने स्वयं मिस्टर क्लार्क से कहा होगा। आजकल उनका शहर में निकलना मुश्किल हो रहा है। अंधे ने सारे शहर में इलचल मचा दी है।"

जॉन सेवक-"मैं तो सोच रहा था, कल शांति-रक्षा के लिए पुलिस के जवान माँगूँगा, इधर यह गुल खिला! कुछ बुद्धि काम नहीं करती कि क्या बात हो गई।"

प्रभु सेवक-"मैं तो समझता हूँ, हमारे लिए इस जमीन को छोड़ देना ही बेहतर होगा। आज सूरदास न पहुँच जाता, तो गोदाम की कुशल न थी, हजारों रुपये का सामान खराब हो जाता। यह उपद्रव शांत होनेवाला नहीं है।"

जॉन सेवक ने उनकी हँसी उड़ाते हुए कहा-"हाँ, बहुत अच्छी बात है, हम सब मिलकर उस अंधे के पास चलें और उसके पैरों पर सिर झुकायें। आज उसके डर से जमीन छोड़ दूँ, कल चमड़े की आढ़त तोड़ दूँ, परसों यह बँगला छोड़ दूँ और इसके बाद मुँह छिपाकर यहाँ से कहीं चला जाऊँ। क्यों, यही सलाह है न? फिर शांति-ही-शांति है, न किसी से लड़ाई, न झगड़ा। यह सलाह तुम्हें मुबारक रहे। संसार शांति-भूमि नहीं, समर-भूमि है। यहाँ वीरों और पुरुषार्थियों की विजय होती है, निर्बल और कायर मारे जाते हैं। मि० क्लार्क और राजा महेन्द्रकुमार की हस्ती ही क्या है, सारी दुनिया भी अब इस जमीन को मेरे हाथों से नहीं छीन सकती। मैं सारे शहर में हलचल मचा दूँगा, सारे हिंदुस्थान को हिला डालूँगा। अधिकारियों की स्वेच्छाचारिता की यह मिसाल देश के सभी पत्रों में उद्धत की जायगी, कौंसिलों और सभाओं में एक नहीं, सहस्र-सहस्र कंठों से घोषित की जायगी और उसकी प्रतिध्वनि अँगरेजी पार्लियामेंट तक पहुँचेगी। यह स्वजातीय उद्योग और व्यवसाय का प्रश्न है। इस विषय में समस्त भारत
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के रोजगारी, क्या हिंदुस्तानी और क्या अँगरेज, मेरे सहायक होंगे; और गवर्नमेंट कोई इतनी निर्बुद्धि नहीं है कि वह व्यवसायियों की सम्मिलित ध्वनि पर कान बंद कर ले। यह व्यापार-राज्य का युग है। योरप में बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्य पूँजीपतियों के इशारों पर बनते-बिगड़ते हैं, किसी गवर्नमेंट का साहस नहीं कि उनकी इच्छा का विरोध करे। तुमने मुझे समझा क्या है, मैं वह नरम चारा नहीं हूँ, जिसे क्लार्क और महेंद्र खा जायँगे!”

प्रभु सेवक तो ऐसे सिटपिटाये कि फिर जबान न खुली। धीरे से उठ कर चले गये। सोफिया भी एक क्षण के लिए सन्नाटे में आ गई। फिर सोचने लगी-अगर पापा ने आन्दोलन किया भी, तो उसका नतीजा कहीं बरसों में निकलेगा, और यही कौन कह सकता है कि क्या नतीजा होगा; अभी से उसकी क्या चिंता? उसके गुलाबी ओठों पर विजय-गर्व की मुस्किराहट दिखाई दी। इस समय वह इंदु के चेहरे का उड़ता हुआ रंग देखने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकती थी-काश मैं वहाँ मौजूद होती! देखती तो कि इंदु के चेहरे पर कैसी झेप है। चाहे सदैव के लिए नाता टूट जाता; पर इतना जरूर कहती-देखा अपने राजा साहब का अधिकार और बल? इसी पर इतना इतराती थीं? किंतु क्या मालूम था कि क्लार्क इतनी जल्दी करेंगे।

भोजन करके वह अपने कमरे में गई और रानी इन्दु के मानसिक संताप का कल्प-नातीत आनंद उठाने लगी-राजा साहब बदहवास, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, आकर इंदु के पास बैठ जायेंगे। इंदुदेवी लिफाफा देखेंगी, आँखों पर विश्वास न आयेगा; फिर रोशनी तेज करके देखेंगी, तब राजा के आँसू पोंछेगी-"आप व्यर्थं इतने खिन्न होते हैं, आप अपने ओर से शहर में डुग्गी पिटवा दीजिए कि हमने सूरदास की जमीन सरकार से लड़कर वापस दिला दी। सारे नगर में आपके न्याय की धूम मच जायेगी। लोग समझेंगे, आपने लोकमत का सम्मान किया है। खुशामदी टट्ट कहीं का! चाल से विलियम को उल्लू बनाना चाहता था। ऐसी मुँह की खाई है कि याद ही करेगा। खैर, आज न सही, कल, परसों, नरसों, कभी तो इंदुदेवी से मुलाकात होगी ही। कहाँ तक मुँह छिपायेंगी!"

यह सोचते-सोचते सोफिया मेज पर बैठ गई और इस वृत्तांत पर एक प्रहसन लिखने लगी। ईर्ष्या से कल्पना-शक्ति उर्वर हो जाती है। सोफिया ने आज तक कभी प्रहसनं न लिखा था। किंतु इस समय ईर्ष्या के उद्गार में उसने एक घंटे के अंदर चार दृश्यों का एक विनोद-पूर्ण ड्रामा लिख डाला। ऐसी-ऐसी चोट करनेवाली अन्योक्तियाँ और हृदय में चुटकियाँ लेनेवाली फबतियाँ लेखनी से निकलीं कि उसे अपनी प्रतिभा पर स्वयं आश्चर्य होता था। उसे एक बार यह विचार हुआ कि मैं यह क्या बेवकूफी कर रही हूँ। विजय पाकर परास्त शत्रु को मुँह चिढ़ाना परले सिरे की नीचता है, पर ईर्ष्या में उसके समाधान के लिए एक युक्ति ढूँढ़ निकाली-“ऐसे कपटी, सम्मान-लोलुप, विश्वास-घातक, प्रजा के मित्र बनकर उसकी गरदन पर तलवार चलानेवाले, चापलूस रईसों को यही सजा
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है, उनके सुधार का एकमात्र साधन है, जनता की निगाहों में गिर जाने का भय ही उन्हें सन्मार्ग पर ला सकता है। उपहास का भय न हो, तो वे शेर हो जायँ, अपने सामने किसी को कुछ न समझें।”

प्रभु सेवक मीठी नींद सो रहे थे। आधी रात बीत चुकी थी। सहसा सोफिया ने आकर जगाया, चौंककर उठ बैठे और यह समझकर कि शायद इसके कमरे में चोर घुस आये हैं, द्वार की ओर दौड़े। गोदाम की घटना आँखों के सामने फिर गई। सोफी ने हँसते हुए उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा-'कहाँ भागे जाते हो?”

प्रभु सेवक-"क्या चोर हैं? लालटेन जला लूँ?"

सोफिया-"चोर नहीं हैं, जरा मेरे कमरे में चलो, तुम्हें एक चीज सुनाऊँ। अभी लिखी है।"

प्रभु सेवक-"वाह-वाह! इतनी-सी बात के लिए नींद खराब कर दी। क्या फिर सवेरा न होता, क्या लिखा है?"

सोफिया-"एक प्रहसन है।"

प्रभु सेवक-"प्रहसन! कैसा प्रहसन? तुमने प्रहसन लिखने का कब से अभ्यास किया?”

सोफिया-"आज ही। बहुत जब्त किया कि सबेरे सुनाऊँगी; पर न रहा गया।"

प्रभु सेवक सोफिया के कमरे में आये और एक ही क्षण में दोनों ने ठठे मार-मारकर हँसना शुरू किया। लिखते समय सोफिया को जिन वाक्यों पर जरा भी हँसी न आई थी, उन्हीं को पढ़ते समय उससे हँसी रोके न रुकती थी। जब कोई हँसनेवाली बात आ जाती, तो सोफी पहले ही से हँस पड़ती, प्रभु सेवक मुँह खोले हुए उसकी ओर तकता, बात कुछ समझ में न आती, मगर उसकी हँसी पर हँसता, और ज्यों ही बात समझ में आ जाती, हास्य-ध्वनि और भी प्रचंड हो जाती। दोनों के मुख आरक्त हो गये, आँखों से पानी बहने लगा, पेट में बल पड़ गये, यहाँ तक कि जबड़ों में दर्द होने लगा। प्रहसन के समाप्त होते-होते ठठे की जगह खाँसी ने ले ली। खैरियत थी कि दोनों तरफ से द्वार बंद थे, नहीं तो उस नि:स्तब्धता में सारा बँगला हिल जाता।

प्रभु सेवक-"नाम भी खूब रखा, राजा मुजेंद्रसिंह। महेंद्र और मुछेद्र की तुक मिलती है! पिलपिली साहब के हंटर खाकर मुछेद्रसिंह का झुक-झुककर सलाम करना खूब रहा। कहीं राजा साहब जहर न खा लें।"

सोफिया-“ऐसा हयादार नहीं है।"

प्रभु सेवक-"तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो।"

थोड़ी देर में दोनों अपने-अपने कमरों में सोये। सोफिया प्रातःकाल उठी और मि० क्लार्क का इन्तजार करने लगी। उसे विश्वास था कि वह आते ही होंगे, उनसे सारी बातें स्पष्ट रूप से मालूम होंगी, अभी तो केवल अफवाह सुनी है। संभव है, राजा साहब घबराये हुए उनके पास अपना दुखड़ा रोने के लिए आये हों, लेकिन आठ
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बज गये और क्लार्क का कहीं पता न था। वह भी तड़के ही आने को तैयार थे; पर आते हुए झेपते थे कि कहीं सोफिया यह न समझे कि इस जरा-सी बात का मुझ पर एहसान जताने आये हैं। इससे अधिक भय यह था कि वहाँ लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगा, या तो मुझे देखकर लोग दिल-ही-दिल में जलेंगे, या खुल्लमखुल्ला दोषारोपण करेंगे। सबसे ज्यादा खौफ ईश्वर सेवक का था कि कहीं वह दुष्ट, पापी, शैतान, काफिर न कह बैठे। वृद्ध आदमी हैं, उनकी बातों का जवाब ही क्या। इन्हीं कारणों से वह आते हुए हिचकिचाते थे और दिल में मना रहे थे कि सोफिया ही इधर आ निकले।

नौ बजे तक क्लार्क का इंतजार करने के बाद सोफिया अधीर हो उठी। इरादा किया, मैं ही चलूँ कि सहसा मि० जॉन सेवक आकर बैठ गये और सोफिया को क्रोधो-न्मत्त नेत्रों से देखकर बोले-"सोफी, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। तुमने मेरे सारे मंसूबे खाक में मिला दिये।"

सोफिया-"मैंने! क्या किया? मैं आपका आशय नहीं समझी।"

जॉन सेवक-"मेरा आशय यह है कि तुम्हारी ही दुष्प्रेरणा से मि० क्लार्क ने आना पहला हुक्म रद्द किया है।”

सोफिया-"आपको भ्रम है।"

जॉन सेवक-"मैंने बिना प्रमाण के आज तक किसी पर दोषारोपण नहीं किया। मैं अभी इंदुदेवी से मिलकर आ रहा हूँ। उन्होंने इसके प्रमाण दिये कि यह तुम्हारी करतूत है।"

सोफिया-"आपको विश्वास है कि इंदु ने मुझ पर जो इलजाम रखा है, वह ठीक है?"

जॉन सेवक-"उसे असत्य समझने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है।"

सोफिया-"उसे सत्य समझने के लिए यदि इंदु का वचन काफी है, तो उसे असत्य समझने के लिए मेरा वचन क्यों काफी नहीं है?"

जॉन सेवक-"सच्ची बात विश्वासोत्पादक होती है।"

सोफिया—"यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अपनी बातों में वह नमक-मिर्च नहीं लगा सकता; लेकिन मैं इसका आपको विश्वास दिलातो हूँ कि इंदु ने हमारे और विलिमय के बीच में द्वष डालने के लिए वह स्वाँग रचा है।”

जॉन सेवक ने भ्रम में पड़कर कहा—"सोफी, मेरी तरफ देख। क्या तू सच कह रही है?"

सोफिया ने लाख यत्न किये कि पिता की ओर निश्शंक दृटि से देखे; किंतु आँखें आप-ही-आप झुक गई। मनोवृत्ति वाणी को दृषित कर सकती है; अंगों पर उसका जोर नहीं चलता। जिह्वा चाहे निश्शब्द हो जाय; पर आँखें बोलने लगती हैं। मिस्टर जॉन सेवक ने उसकी लजा-पीड़ित आँखें देखीं और क्षुब्ध होकर बोले-"आखिर तुमने क्या समझकर ये काँटे बोये?" [ २३२ ]सोफिया—“आप मेरे ऊपर घोर अन्याय कर रहे हैं। आपको विलियम ही से इसका स्पष्टीकरण कराना चाहिए। हाँ, इतना अवश्य कहूँगी कि सारे शहर में बदनाम होने की अपेक्षा मैं उस जमीन का आपके अधिकार से निकल जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।"

जॉन सेवक—"अच्छा! तो तुमने मेरी नेकनामी के लिए यह चाल चली है? तुम्हारा बहुत अनुगृहीत हूँ। लेकिन यह विचार तुम्हें बहुत देर में हुआ। ईसाई जाति यहाँ केवल अपने धर्म के कारण इतनी बदनाम है कि उससे ज्यादा बदनाम होना असंभव है। जनता का वश चले, तो आज हमारे सारे गिरजाघर मिट्टी के ढेर हो जायँ। अँगरेजों से लोगों को इतनी चिढ़ नहीं है। वे समझते हैं कि अँगरेजों का रहन-सहन और आचार-व्यवहार स्वजातीय है उनके देश और जाति के अनुकूल है। लेकिन जब कोई हिंदुस्थानी, चाहे वह किसी मत का हो, अँगरेजी आचरण करने लगता है, तो जनता उसे बिलकुल गया-गुजरा समझ लेती है, वह भलाई या बुराई के बन्धनों से मुक्त हो जाता है, उससे किसी को सत्कार्य की आशा नहीं होती, उसके कुकर्मों पर किसी को आश्चर्य नहीं होता। मैं यह कभी न मानूँगा कि तुमने मेरी सम्मान-रक्षा के लिए यह प्रयास किया है। तुम्हारा उद्देश्य केवल मेरे व्यापारिक लक्ष्यों का सर्वनाश करना है। धार्मिक विवेचनाओं ने तुम्हारी व्यावहारिक बुद्धि को डांवाडोल कर दिया है। तुम्हें इतनी समझ भी नहीं है कि त्याग और परोपकार केवल एक आदर्श है-कवियों के लिए, भक्तों के मनोरंजन के लिए, उपदेशकों की वाणी को अलंकृत करने के लिए। मसीह बुद्ध और मूसा के जन्म लेने का समय अब नहीं रहा, धन-ऐश्वर्य निन्दित होने पर भी मानवीय इच्छाओं का स्वर्ग है और रहेगा। खुदा के लिए तुम मुझ पर अपने धर्म-सिद्धान्तों की परीक्षा मत करो, मैं तुमसे नीति और धर्म के पाठ नहीं पढ़ना चाहता। तुम समझती हो, खुदा ने न्याय, सत्य और दया का तुम्हीं को इजारेदार बना दिया है, और संसार में जितने धनीमानी पुरुष हैं, सब-के-सब अन्यायी, स्वेच्छाचारी और निर्दयी हैं; लेकिन ईश्वरीय विधान की कायल होकर भी तुम्हारा विचार है कि संसार में असमता और विषमता का कारण केवल मनुष्य की स्वार्थपरायणता है, तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने धर्म-ग्रन्थों का अनुशीलन आँखें बन्द करके किया है, उनका आशय नहीं समझा। तुम्हारे इस दुर्व्यवहार से मुझे जितना दुःख हो रहा है, उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, और यद्यपि मैं कोई वली या फकीर नहीं हूँ; लेकिन याद रखना, कभी-न-कभी तुम्हें पितृद्रोह का खमियाजा उठाना पड़ेगा।"

अहित-कामना क्रोध की पराकाष्ठा है। "इसका फल तुम ईश्वर से पाओगे"—यह वाक्य कृपाण और भाले से ज्यादा घातक होता है। जब हम समझते हैं कि किसी दुष्कर्म का दंड देने के लिए भौतिक शक्ति काफी नहीं है, तब हम आध्यात्मिक दंड का विधान करते हैं। उससे न्यून कोई दंड हमारे सन्तोष के लिए काफी नहीं होता।

जॉन सेवक ये कोसने सुनाकर उठ गये। किन्तु सोफिया को इन दुर्वचनों से लेश-
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मात्र भी दुःख न हुआ। उसने यह ऋण भी इन्दु ही के खाते में दर्ज किया ओर उसको प्रतिहिंसा ने और उग्र रूप धारण किया, उसने निश्चय किया—इस प्रहसन को आज ही प्रकाशित करूँगा। अगर एडीटर ने न छापा, तो स्वयं पुस्तकाकार छपवाऊँगी और मुफ्त बाँटूँगी। ऐसी कालिख लग जाय कि फिर किसी को मुँह न दिखा सके।

ईश्वर सेवक ने जॉन सेवक की कठोर बातें सुनीं, तो बहुत नाराज हुए। मिसेज सेवक को भी यह व्यवहार बुरा लगा। ईश्वर सेवक ने कहा-“न जाने तुम्हें अपने हानि-लाभ का ज्ञान कब होगा। बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है। तुम्हें इस अवसर पर इतने धैर्य और गम्भीरता से काम लेना था कि जितनी क्षति हो चुकी है, उसकी पूर्ति हो जाय। घर का एक कोना गिर पड़े, तो सारा घर गिरा देना बुद्धिमता नहीं है। जमीन गई तो ऐसी कोई तदवीर सोचो कि उस पर फिर तुम्हारा कब्जा हो। यह नहीं कि जमीन के साथ अपनी मान-मर्यादा भी खो बैठो। जाकर राजा साहब को मि० क्लार्क के फैसले की अपील करने पर तैयार करो और मि० क्लार्क से अपना मेल-जोल बनाये रखो। यह समझ लो कि उनसे तुम्हें कोई नुकसान ही नहीं पहुँचा। सोफी को बरहम करके तुम क्लार्क को अनायास अपना शत्रु बना रहे हो। हाकिमों तक पहुँच रहेगी, तो ऐसी कितनी ही जमीनें मिलेंगी। प्रभु मसीह, मुझे अपने दामन में छिपाओ, और यह संकट टालो।"

मिसेज सेवक-"मैं तो इतनी मिन्नतों से उसे यहाँ लाई और तुम सारे किये-धरे पर पानी फेरे देते हो।"

ईश्वर सेवक-"प्रभु, मुझे आसमान की बादशाहत दे। अगर यही मान लिया जाय कि सोफी के इशारे से यह बात हुई, तो भी हमें उससे कोई शिकायत न होनी चाहिए, बल्कि मेरे दिल में तो उसका सम्मान और बढ़ गया है, उसे खुदा ने सच्ची रोशनी प्रदान की है, उसमें भक्ति और विश्वास की बरकत है। उसने जो कुछ किया है, उसकी प्रशंसा न करना न्याय का गला घोटना है। प्रभु मसीह ने अपने को दीन-दुखी प्राणियों पर बलिदान कर दिया। दुर्भाग्य से हममें उतनो श्रद्धा नहीं। हमें अपनी स्वार्थ-परता पर लजित होना चाहिए। सोफी के मनोभावों की उपेक्षा करना उचित नहीं। पापी पुरुष किसी साधु को देखकर दिल में शरमाता है, उससे वैर नहीं ठानता।”

जॉन सेवक-"यह न भक्ति है और न धर्मानुराग, केवल दुराग्रह और द्वेष है।"

ईश्वर सेवक ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपनी लकड़ी टेकते हुए सोफी के कमरे में आये और बोले—"बेटी, मेरे आने से तुम्हारा कोई हरज तो नहीं हुआ?"

सोफिया-"नहीं-नहीं, आइए, बैठिए।"

ईश्वर सेवक-"ईसू, इस गुनहगार को ईमान की रोशनी दे। अभी जॉन सेवक ने तुम्हें बहुत कुछ बुरा-भला कहा है, उन्हें क्षमा करो। बेटी, दुनिया में खुदा की जगह अपना पिता ही होता है, उसकी बातों को बुरा न मानना चाहिए। तुम्हारे ऊपर खुदा का हाथ है, खुदा का बरकत है। तुम्हारे पिता का सारा जीवन स्वार्थ-सेवा में गुजरा है
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और वह अभी तक उसका उपासक है। खुदा से दुआ करो कि उसके हृदय का अंध-कार ज्ञान की दिव्य ज्योति से दूर कर दे। जिन लोगों ने हमारे प्रभु मसीह को नाना प्रकार के कष्ट दिये थे, उनके विषय में प्रभु ने कहा था—"खुदा, उन्हें मुआफ कर। वे नहीं जानते कि हम क्या करते हैं।"

सोफी-"मैं आपसे सच कहती हूँ, मुझे पापा की बातों का जरा भी मलाल नहीं है; लेकिन वह मुझ पर मिथ्या दोष लगाते हैं। इंदु की बातों के सामने मेरी बातों को कुछ समझते ही नहीं।"

ईश्वर सेवक—"बेटी, यह उनकी भूल है। मगर तुम अपने दिल से उन्हें क्षमा कर दो। सांसारिक प्राणियों की इतनी निंदा की गई है; पर न्याय से देखो, तो वे कितनी दया के पात्र हैं। आखिर आदमी जो कुछ करता है, अपने बाल-बच्चों के लिए तो करता हैं—उन्हीं के सुख और शांति के लिए, उन्हीं को संसार की वक्र दृष्टि से बचाने के लिए वह निंदा, अपमान, सब कुछ सहर्ष सह लेता है, यहाँ तक कि अपनी आस्मा और धर्म को भी उन पर अर्पित कर देता है। ऐसी दशा में जब वह देखता है कि जिन लोगों के हित के लिए मैं अपना रक्त और पसीना एक कर रहा हूँ, वे ही मुझसे विरोध कर रहे हैं, तो वह झुंझला जाता है। तब उसे सत्यासत्य का विवेक नहीं रहता। देखो, क्लार्क से भूलकर भी इन बातों का जिक्र न करना, नहीं तो आपस में मनोमालिन्य बढ़ेगा। वचन देती हो?"

ईश्वर सेवक जब उठकर चले गये, तो प्रभु सेवक ने आकर पूछा- "वह प्रहमन कहाँ भेजा?"

सोफिया—"अमी तो कहीं नहीं भेजा, क्या भेज ही दूँ?"

प्रभु सेवक—"जरूर-जरूर, मजा आ जायगा, सारे शहर में धूम मच जायगी।"

सोफिया—"जरा दो-एक दिन देख लूँ।"

प्रभु सेवक—"शुभ कार्य में विलंब न होना चाहिए, आज ही भेजो। मैंने भी आज अपनी कथा समाप्त कर दी। सुनाऊँ?"

सोफिया—"हाँ-हाँ, पढ़ो।"

प्रभु सेवक ने अपनी कविता सुनानी शुरू की। एक-एक शब्द करुण रस में सराबोर था। कथा इतनी दर्दनाक थी कि सोफी की आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। प्रभु सेवक भी रो रहे थे। क्षमा और प्रेम के भाव एक-एक शब्द से उसी भाँति टपक रहे थे, जैसे आँखों से आँसू की बूंदें। कविता समाप्त हो गई, तो सोफ़ी ने कहा-"मैंने कभी अनुमान भी न किया था कि तुम इस रस का आस्वादन इतनी कुशलता से करा सकते हो! जी चाहता है, तुम्हारी कलम चूम लूँ। उफ्! कितनी अलौकिक क्षमा है! बुरा न मानना, तुम्हारी रचना तुमसे कहीं ऊँची है। ऐसे पवित्र, कोमल और ओजस्वी भाव तुम्हारी कलम से कैसे निकल आते हैं?" [ २३५ ]प्रभु सेवक—“उसी तरह, जैसे इतने हास्योत्पादक और गर्वनाशक भाव तुम्हारी कलम से निकले। तुम्हारी रचना तुमसे कहीं नीची है!"

सोफी—“मैं क्या, और मेरी रचना क्या। तुम्हारा एक-एक छंद बलि जाने के योग्य है। वास्तव में क्षमा मानवीय भावों में सर्वोपरि है। दया का स्थान इतना ऊँचा नहीं। दया वह दाना है, जो पोली धरती पर उगता है। इसके प्रतिकूल क्षमा वह दान है, जो काँटों में उगता है। दया वह धारा है, जो समतल भूमि पर बहती है, क्षमा कंकड़ों और चट्टानों में बहनेवाली धारा है। दया का मार्ग सीधा और सरल है, क्षमा का मार्ग टेढ़ा और कठिन। तुम्हारा एक एक शब्द हृदय में चुभ जाता है। आश्चर्य है, तुममें क्षमा का लेश भी नहीं है!"

प्रभु सेवक—"सोफ़ी, भावों के सामने आचरण का कोई महत्त्व नहीं है। कवि का कर्म-क्षेत्र सीमित होता है, पर भाव-क्षेत्र अनंत और अपार है। उस प्राणी को तुच्छ मत समझो, जो त्याग और निवृत्ति का राग अलापता हो, पर स्वयं कौड़ियों पर जान देता हो। संभव है, उसकी वाणी किसी महान् पापी के हृदय में जा पहुँचे।"

सोफी—"जिसके वचन और कर्म में इतना अंतर हो, उसे किसी और ही नाम से पुकारना चाहिए।"

प्रभु सेवक—"नहीं सोफी, यह बात नहीं है। कवि के भाव बतलाते हैं कि यदि उसे अवसर मिलता, तो वह क्या कुछ हो सकता था। अगर वह अपने भावों की उच्चता को न प्राप्त कर सका, तो इसका कारण केवल यह है कि परिस्थिति उसके अनुकूल न थी।"

भोजन का समय आ गया। इसके बाद सोफी ने ईश्वर सेवक को बाइबिल सुनाना शुरू किया। आज की भाँति विनीत और शिष्ट वह कभी न हुई थी। ईश्वर सेवक की ज्ञान-पिपासा उनकी चेतना को दबा बैठती थी। निद्रावस्था ही उनकी आंतरिक जागृति थी। कुरसी पर लेटे हुए वह खर्राटे ले-लेकर देव-ग्रंथ का श्रवण करते थे। पर आश्चर्य यह था कि पढ़नेवाला उन्हें निद्रा-मग्न समझकर ज्यों ही चुप हो जाता, वह तुरंत बोल उठते-"हाँ-हाँ, पढ़ो, चुप क्यों हो, मैं सुन रहा हूँ।”

सोफी को बाइबिल का पाठ करते-करते संध्या हो गई, तो उसका गला छूटा। ईश्वर सेवक बाग में टहलने चले गये और प्रभु सेवक को सोफ़ी से गपशप करने का मौका मिला।

सोफी—बड़े पापा एक बार पकड़ पाते हैं, तो फिर गला नहीं छोड़ते।"

प्रभु सेवक-"मुझसे कभी बाइबिल पढ़ने को नहीं कहते। मुझसे तो क्षण-भर भी वहाँ न बैठा जाय। तुम न जाने कैसे बैठी पढ़ती रहती हो।”

सोफी—"क्या करूँ, उन पर दया आती है।”

प्रभु सेवक—"बना हुआ है। मतलब की बात पर कभी नहीं चूकता। यह सारी भक्ति केवल दिखाने की है।" [ २३६ ]सोफ़ी—"यह तुम्हारा अन्याय है। उनमें और चाहे कोई गुण न हो, पर प्रभु मसीह पर उनका दृढ़ विश्वास है। चलो, कहीं सैर करने चलते हो?”

प्रभु सेवक—"कहाँ चलोगी? चलो, यहीं हौज के किनारे बैठकर कुछ काव्य-चर्चा करें। मुझे तो इससे ज्यादा आनंद और किसी बात में नहीं मिलता।”

सोफ़ी—"चलो, पाँडेपुर की तरफ चलें। कहीं सूरदास मिल गया, तो उसे यह खबर सुनायेंगे।"

प्रभु सेवक—"फूला न समायेगा, उछल पड़ेगा।”

सोफ़ी—"जरा शह पा जाय, तो इस राजा को शहर से भगाकर ही छोड़े।"

दोनों ने सड़क पर आकर एक ताँगा किराये पर किया और पाँडेपुर चले। सूर्यास्त हो चुका था। कचहरी के अमले बगल में बस्ते दबाये, भीरुता और स्वार्थ की मूर्ति बने चले आते थे। बँगलों में टेनिस हो रहा था। शहर के शोहदे दीन-दुनिया से बेखबर पानवालों की दुकानों पर जमा थे। बनियों की दुकानों पर मजदूरों की स्त्रियाँ भोजन की सामग्रियाँ ले रही थीं। ताँगा बरना नदी के पुल पर पहुँचा था कि अकस्मात् आदमियों की एक भीड़ दिखाई दी। सूरदास खँजरी बजाकर गा रहा था, सोफ़ी ने ताँगा रोक दिया और ताँगेवाले से कहा-"जाकर उस अंधे को बुला ला।"

एक क्षण में सूरदास लाठी टेकता हुआ आया और सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

सोफी—"मुझे पहचानते हो सूरदास?"

सूरदास—"हाँ, भला हुजूर ही को न पहचानूँगा!”

सोफी—"तुमने तो हमलोगों को सारे शहर में खूब बदनाम किया।"

सूरदास—“फरियाद करने के सिवा मेरे पास और कौन बल था?”

सोफी—“फरियाद का क्या नतीजा निकला?"

सूरदास—"मेरी मनोकामना पूरी हो गई। हाकिमों ने मेरी जमीन मुझे दे दी। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई काम तन-मन से किया जाय, और उसका कुछ फल न निकले। तपस्या से तो भगवान् मिल जाते हैं। बड़े साहब के अरदली ने कल रात ही को मुझे यह हाल सुनाया। आज पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराना है। कल घर चला जाऊँगा।"

प्रभु सेवक—"मिस साहब ही ने बड़े साहब से कह-सुनकर तुम्हारी जमीन दिलवाई है, इनके पिता और राजा साहब दोनों ही इनसे नाराज हो गये हैं। इनकी तुम्हारे ऊपर बड़ी दया है।"

सोफी—"प्रभु, तुम बड़े पेट के हलके हो। यह कहने से क्या फायदा कि मिस साहब ने जमीन दिलवाई है। यह तो कोई बहुत बड़ा काम नहीं है।"

सूरदास—“साहब, यह तो मैं उसी दिन जान गया था, जब मिस साहब से पहले-पहले बातें हुई थीं। मुझे उसी दिन मालूम हो गया था कि इनके चित्त में दया और धरम है। इसका फल भगवान् इनको देंगे।" [ २३७ ]
सोफी-सूरदास, यह मेरी सिफारिश का फल नहीं, तुम्हारी तपस्या का फल है। राजा साहब को तुमने खूब छकाया। अब थोड़ी-सी कसर और है। ऐसा बदनाम कर दो कि शहर में किसी को मुँह न दिखा सके, इस्तीफा देकर अपने इलाके की राह लें।"

सूरदास—"नहीं मिस साहब, यह खेलाड़ियों की नीति नहीं है। खेलाड़ी जीतकर हारनेवाले खेलाड़ी की हँसी नहीं उड़ाता, उससे गले मिलता है और हाथ जोड़कर कहता है-'भैया, अगर हमने खेल में तुमसे कोई अनुचित बात कही हो, या कोई अनुचित ब्योहार किया हो, तो हमें माफ करना।' इस तरह दोनों खेलाड़ी हँसकर अलग होते हैं, खेल खतम होते ही दोनों मित्र बन जाते हैं, उनमें कोई करट नहीं रहता। मैं आज राजा साहब के पास गया था और उनके हाथ जोड़ आया। उन्होंने मुझे भोजन कराया। जब चलने लगा, तो बोले, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है, कोई संका मत करना।”

सोफिया—“ऐसे दिल के साफ तो नहीं हैं, मौका पाकर अवश्य दगा करेंगे, मैं तुमसे कहे देती हूँ।"

सूरदास-"नहीं मिस साहब, ऐसा मत कहिए। किसी पर संदेह करने से अपना चित्त मलीन होता है। वह बिदवान् हैं, धर्मात्मा हैं, कभी दगा नहीं कर सकते। और जो दगा ही करेंगे, तो उन्हीं का धरम जायगा; मुझे क्या, मैं फिर इसी तरह फरियाद करता रहूँगा। जिस भगवान् ने अबकी बार सुना है, वही भगवान् फिर सुनेंगे।"

प्रभु सेवक—"और जो कोई मुआमला खड़ा करके कैद करा दिया, तो?"

सूरदास—(हँसकर) "इसका फल उन्हें भगवान् से मिलेगा। मेरा धरम तो यही है कि जब कोई मेरी चीज पर हाथ बढ़ाये, तो उसका हाथ पकड़ लूँ। वह लड़े, तो लड़ें, और उस चीज के लिए प्रान तक दे दूँ। चीज मेरे हाथ आयेगी; इससे मुझे मतलब नहीं, मेरा काम तो लड़ना है, और वह भी धरम की लड़ाई लड़ना। अगरः राजा साहब दगग भी करें, तो मैं उनसे दगा न करूँगा।"

सोफिया—"लेकिन मैं तो राजा साहब को इतने सस्ते न छोड़ेगी।"

सूरदास—"मिस साहब, आप बिदवान् होकर ऐसी बातें करती हैं, इसका मुझे अचरज है। आपके मुँह से ये बातें सोभा नहीं देतीं। नहीं, आप हँसी कर रही हैं। आपसे कभी ऐसा काम नहीं हो सकता।”

इतने में किसी ने पुकारा—"सूरदास, चलो, ब्राह्मण लोग आ गये हैं।"

सूरदास लाठी टेकता हुआ घाट की ओर चला। ताँगा भी चला।

प्रभु सेवक ने कहा—"चलोगी मि० क्लार्क की तरफ?”

सोफिया ने कहा—"नहीं, घर चलो।"

रास्ते में कोई बातचीत नहीं हुई। सोफिया किसी विचार में मग्न थी। दोनों आदमी सिगरा पहुँचे, तो चिराग जल चुके थे। सोफी सीधे अपने कमरे में गई, मेज़ का ड्राअर खोला, प्रहसन का हस्त-लेख निकाला और टुकड़े-टुकड़े करके जमीन पर फेक दिया।

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