रंगभूमि/२६
[२६]
अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती, निकलती हैं और बालक के नन्हें-से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण-किरणों में नहाकर माता का स्नेह-सुंदर मुख निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल-निकालकर, माता के स्नेह-प्लावित मुख की ओर देखता है, हुमुकता है और मुस्किराता है; पर माता बार-बार उसे अंचल से ढक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाय।
सहसा तोप के छूटने की फर्ण-कटु ध्वनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठा, बालक गोद से चिमट गया।
फिर वही भयंकर ध्वनि! माँ दहल उठी, बालक चिमट गया।
फिर तो लगातार तो छूटने लगी। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गये। आज रियासत के नये पोलिटिकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं।
मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आये एक महीना गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातों, दावतों, नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार-बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहती; पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेड़ूँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गया, तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा- "इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगा, और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगता, जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी।" क्लार्क भी सहमत हो गये। एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैं, बड़ी धूमधाम से उनका स्वागत होता है, सलामियाँ उतारी जाती हैं, मान-पत्र मिलते हैं, मुख्य-मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओं, चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है। वह बड़े ध्यान से कैदियों को, उनके भोजनालयों को, जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने ध्यान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थी, मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता था, जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो आता है। पर सोफिया के अविरत प्रयत्न से उनकी दशा सुधरने लगी है। आज जसवंतनगर के मेहमानों के सेवा-सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बा, अर्थात् वहाँ के
राजकर्मचारी, पगड़ियाँ बाँधे इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश-हवास ठिकाने नहीं हैं, जैसे नींद में किसी ने भेड़िये का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसजित कराये हैं, जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया है, बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिये हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तर दिया है। सड़कों के दोनों तरफ सशस्त्र सिपाहियों की सफें खड़ी कर दी गई हैं कि प्रजा की अशांति का कोई चिह्न भी न नजर आने पाये। सभाएँ करने की मनाही कर दी गई है।
संध्या हो गई थी। जुलूस निकला। पैदल और सवार आगे-आगे थे। फौजी बाजे बज रहे थे। सड़कों पर रोशनी हो रही थी, पर मकानो में, छतों पर, अंधकार छाया हुआ था। फूलों की वर्षा हो रही थी, पर छतों से नहीं, सिपाहियों के हाथों से। सोफी सब कुछ समझती थी, पर क्लार्क की आँखों पर परदा-सा पड़ा हुआ था। असीम ऐश्वर्य ने उनकी बुद्धि को भ्रांत कर दिया है। कर्मचारी सब कुछ कर सकते हैं, पर भक्ति पर उनका वश नहीं होता। नगर में कहीं आनंदोत्साह का चिह्न नहीं है, सियापा-सा छाया हुआ है, न पग-पग पर जय-ध्वनि है, न कोई रमणी आरती उतारने आती है, न कहीं गाना-बजाना है। मानों किसी पुत्र-शोक-मग्न माता के सामने बिहार हो रहा हो।
कस्बे का गश्त करके सोफी, क्लार्क, सरदार नीलकंठ और दो-एक उच्च कर्मचारी तो राजभवन में आकर बैठे, और लोग बिदा हो गये। मेज पर चाय लाई गई। मि० क्लार्क ने बोतल से शराब उँडेली, तो सरदार साहब, जिन्हें इसकी दुर्गन्ध से घृणा थी, खिसककर सोफिया के पास आ बैठे और बोले-"जसवंतनगर आपको कैसा पसंद आया?"
सोफिया-"बहुत ही रमणीक स्थान है। पहाड़ियों का दृश्य अत्यन्त मनोहर है। शायद कश्मीर के सिवा ऐसी प्राकृतिक शोभा और कहीं न होगी। नगर की सफाई से चित्त प्रसन्न हो गया। मेरा तो जी चाहता है, यहाँ कुछ दिनों रहूँ।"
नीलकंठ डरे। एक-दो दिन तो पुलिस और सेना के बल से नगर को शांत रखा जा सकता है, पर महीने-दो महीने किसी तरह नहीं। असंभव है। कहीं ये लोग यहाँ जम गये, तो नगर की यथार्थ स्थिति अवश्य ही प्रकट हो जायगी। न जाने उसका क्या परिणाम हो। बोले-“यहाँ की बाह्य छटा के धोखे में न आइए। जल-वायु बहुत खराब है। आगे आपको इससे कहीं सुंदर स्थान मिलेंगे।"
सोफिया—"कुछ भी हो, मैं यहाँ दो हफ्ते अवश्य ठहरूँगी। क्या विलियम, तुम्हें यहाँ से जाने की कोई जल्दी तो नहीं है?"
क्लार्क—"तुम यहाँ रहो, तो मैं दफन होने को तैयार हूँ।"
सोफिया—"लीजिए सरदार साहब, विलियम को कोई आपत्ति नहीं है।"
सोफिया को सरदार साहब को दिक करने में मजा आ रहा था। नीलकंठ—"फिर भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि जसवंतनगर बहुत अच्छी जगह नहीं है। जल-वायु की विषमता के अतिरिक्त यहाँ की प्रजा में अशांति के बोज अंकुरित हो गये हैं।"
सोफिया—"तब तो हमारा यहाँ रहना और भी आवश्यक है। मैंने किसी रियासत में यह शिकायत नहीं सुनी। गवर्नमेंट ने रियासतों को आंतरिक स्वाधीनता प्रदान कर दी है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि रियासतों में अराजकता के कीटाणुओं को सेये जाने दिया जाय। इसका उत्तरदायित्व अधिकारियों पर है, और गवर्नमेंट को अधिकार है कि वह इस असावधानी का संतोष-जनक उत्तर माँगे।"
सरदार साहब के हाथ-पाँव फूल गये। सोफिया से उन्होंने यह बात निश्शंक होकर कही थी। उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर-भेंट ने अपना काम कर दिखाया। कुछ बेतकल्लुफ-से हो गये थे। यह फटकार पड़ी, तो आँखें चौंधिया गई। कातर स्वर में बोले-“मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यद्यपि रियासत पर इस स्थिति का उत्तरदायित्व है; पर हमने यथासाध्य इसके रोकने की चेष्टा की और अब भी कर रहे हैं। यह बीज उस दिशा से आया, जिधर से उसके आने की संभावना न थी, या यों कहिए कि विष-विंदु सुनहरे पात्रों में लाये गये। बनारस के रईस कुँवर भरतसिंह के स्वयंसेवकों ने कुछ ऐसे कौशल से काम लिया कि हमें खबर तक न हुई। डाकुओं से धन की रक्षा की जा सकती है, पर साधुओं से नहीं। सेवकों ने सेवा की आड़ में यहाँ की मूर्ख प्रजा पर ऐसे मंत्र पूँके कि उन मंत्रों के उतारने में रियासत को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषतः कुँवर साहब का पुत्र अत्यन्त कुटिल प्रकृति का युवक है। उसने इस प्रांत में अपने विद्रोहात्मक विचारों का यहाँ तक प्रचार किया कि इसे विद्रोहियों का अखाड़ा बना दिया। उसको बातों में कुछ ऐसा जादू होता था कि प्रजा प्यासों की भाँति उसको ओर दौड़ती थी। उसके साधु भेष, उसके सरल, निःस्पृह जीवन, उसकी मृदुल सहृदयता और सबसे अधिक उसके देवोपम स्वरूप ने छोटे-बड़े सभी पर वशीकरण-सा कर दिया था। रियासत को बड़ी चिंता हुई। हम लोगों की नींद हराम हो गई। प्रतिक्षण विद्रोह की आग के भड़क उठने की आशंका होती थी। यहाँ तक कि हमें सदर से सैनिक-सहायता भेजनी पड़ी। विनयसिंह तो किसी तरह गिरफ्तार हो गया; पर उसके अन्य सहयोगी अभी तक इलाके में छिपे हुए प्रजा को उत्तेजित कर रहे हैं। कई बार यहाँ सरकारी खजाना लुट चुका है कई बार विनय को जेल से निकाल ले जाने का दुष्प्रयत्न किया जा चुका है, और कर्मचारियों को नित्य प्राणों की शंका बनी रहती है। मुझे विवश होकर आपसे यह वृत्तांत कहना पड़ा। मैं आपको यहाँ ठहरने की कदापि राय न दूंगा। अब आप स्वयं समझ सकती हैं कि हम लोगों ने जो कुछ किया उसके सिवा और क्या कर सकते थे।"
सोफिया ने बड़ी गंभीर चिंता के भाव से कहा—“दशा उससे कहीं भयंकर है, जितना मैं समझती थी। इस अवस्था में विलियम का यहाँ से जाना कर्तव्य के विरुद्ध होगा।
वह यहाँ गवर्नमेंट के प्रतिनिधि होकर आये हैं, केवल सैर-सपाटे करने के लिए नहीं। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ रहने में कोई आपत्ति तो नहीं है? यहाँ की रिपोर्ट भी तो करनी पड़ेगी।"
क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा-"तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं नरक में भी स्वर्ग का सुख ले सकता हूँ। रहा रिपोर्ट लिखना, वह तुम्हारा काम है।"
नीलकंठ-"मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि रियासत को सँभालने के लिए कुछ और समय दीजिए। अभी रिपोर्ट करना हमारे लिए घातक होगा।"
इधर तो यह अभिनय हो रहा था, सोफिया प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान थी, ऐश्वर्य चँवर हिलाता था, अष्टसिद्धि हाथ बाँधे खड़ी थी। उधर विनय अपनी अँधेरी कालकोठरी में म्लान और क्षुब्ध बैठा हुआ नारी जाति की निष्ठुरता और अहृदयता पर रो रहा था। अन्य कैदी अपने-अपने कमरे साफ कर रहे थे, उन्हें कल नये कंबल और नये कुरते दिये गये थे, जो रियासत के इतिहास में एक नई घटना थी। जेल के कर्म-चारी कैदियों को पढ़ा रहे थे-"मेम साहब पूछे, तुम्हें क्या शिकायत है, तो सब लोग एक स्वर से कहना, हजूर के प्रताप से हम बहत सुखी हैं और हजर के जान-माल की खैर मनाते हैं। पूछे क्या चाहते हो, तो कहना, हुजूर की दिनोंदिन उन्नति हो, इसके सिवा हम कुछ नहीं चाहते। खबरदार, जो किसी ने सिर ऊपर उठाया और कोई बात मुँह से निकाली, खाल उधेड़ ली जायगी।" कैदी फूले न समाते थे। आज मेम साहब की आमद की खुशी में मिठाइयाँ मिलेंगी। एक दिन की छुट्टी होगी। भगवान् उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभागों पर इतनी दया करती हैं।
किंतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कंबल पड़ा हुआ है, छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक-एक रोम से, मस्तिष्क के एक-एक अणु से, हृदय की एक-एक गति से यही आवाज आ रही है-"सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा?" उसने सोचना शुरू किया—"सोफिया यहाँ क्यों आ रही है? क्या मेरा अपमान करना चाहती है ? सोफी, जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थी, क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैरों से कुचलना चाहती हैं? इतनी निर्दयता, और मुझे-जैसे अभागे पर, जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहीं, वह इतनी वज-हृदया नहीं है, उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि० क्लार्क को शरारत है, वह मुझे सोफी के सामने लजित करना चाहते हैं, पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगा, मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहीं, मुझे बलात् ले जाये, जिसकी जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ? साफ कह दूँगा, मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम है, तो हुआ करे, मुझे ऐसे नियम की परवाह नहीं, जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हूँ, दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैं, क्या प्रजा को पीस ही डालेंगे? अब भी तो मुश्किल से आधे आदमी बच रहे होंगे, सैकड़ों निकाल दिये
गये, सैकड़ों जेल में ठूँस दिये गये, क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैं?"
सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर में बोला-"तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरे, तुमने तो अभी तक कुरता भी नहीं बदला, कंबल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहीं?"
विनय-"हुक्म तो मिला, मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा।"
दारोगा ने और गरम होकर कहा-“इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का-सा सलूक किया जाय। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आये हैं, इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता।"
विनय-“यह बतलाइए कि मुझे पोलिटिकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगा?"
दारोगा-"और यह कंबल और कुरता किसलिए दिया गया है! कभी और भी "किसी ने यहाँ नया कंबल पाया है? तुम लोगों के तो भाग्य खुल गये।"
विनय-"अगर आप मुझ पर इतनी रिआयत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करें, तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ।"
दारोगा-"कैसी वे सिर-पैर की बातें करते हो जी, मेरा कोई अख्तियार है? तुम्हें जाना पड़ेगा।"
विनय ने बड़ी नम्रता से कहा-“मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूँगा।" किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जाते, पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था। बोले-"मगर भाई, यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाय। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जायँगे। मेम साहब को जेलों को देखने की धुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैं, मेम साहब उनसे भी बढ़-चढ़कर हैं। सच पूछो, तो जो कुछ हैं, वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गई, तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जायगी, हम भी पिस जायेंगे।"
विनय-"मालूम होता है, मेम साहब का बड़ा दबाव है।"
दारोगा-"दबाव! अजी, यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटिकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने-भर को हैं। नजर-भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है।"
विनय—"आप मेरे साथ इतनी रिआयत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँ, अगर वह मुझे नाम लेकर बुलायेंगी, तो मैं चला आऊँगा।"
दारोगा—"सरदार साहब मुझे जीता निगल जायँगे।"
विनय—"मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा।" दारोगा—"मैं बुरा आदमी हूँ, मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े-बड़ों की गरदनें ढीली कर दी हैं।"
विनय—"अपने को कोसने का आपको अधिकार है; पर आप जानते हैं, मैं जत्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ।"
दारोगा—"भाई, तुम विचित्र प्राणी हो, उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा है, और फिर भी अपनी जिद किये जाते हो। लेकिन तुम्हें अनी जान भारी हो, मुझे अपनी जान भारी नहीं है।"
विनय—"क्या, शहर खाली कराया जा रहा है? यह क्यों?"
दारोगा-"मेम साहब का हुक्म है, और क्या, जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैं, मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले, तो इसे खुदवाकर फेक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाये। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाय, सदर से मदद माँगी गई है"
दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़ाकर बयान किया, इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था, और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुद्ध होकर अधिकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किये और जनता को यह खबर मिली, तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जाने, मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा हो, उनमें उदंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहीं, हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धैर्य से काम लेना चाहिए। दारोगा से पूछा—"मेम साहब यहाँ किस वक्त आयेंगी?"
दारोगा—"उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धोका देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगी, जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इमी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालो; कपड़े बदल लो; कौन जाने, आज हो आ जायँ।"
विनय—"अच्छी बात है; आप जो कुछ कहते हैं, सब कर लूँगा। अब आप निश्चित हो जायँ।"
दारोगा—"सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगे?"
विनय—"जी नहीं; आप मुझे सबसे पहले आँगन में मौजूद पायेंगे।"
दारोगा—"मेरी शिकायत तो न करोगे?"
विनय—"शिकायत करना मेरो आदत नहीं, इसे आप खूब जानते हैं।"
दारोगा चला गया। अँधेरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ लगाई, कपड़े बदले, कंबल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे किसी की दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हो; वह अपनी निरपेक्षा से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गया, पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत में निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराये और कैदियों को विश्राम
करने का हुक्म दिया। विनय लेटे, तो सोचने लगे—सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गया? वही लज्जा और विनय की मूर्ति, वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देविनी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल था, कितना दयाशील, उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्र थे, उसका स्वभाव कितना सरल था, उसकी एक-एक दृष्टि हृदय पर कालिदास की एक-एक उपमा की-सी चोट करती थी, उसके मुँह से जो शब्द निकलता था, वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्त को आलोकित कर देता था, ऐसा मालूम होता था, केवल पुष्प-सुगंध से उसकी सृष्टि हुई है, कितना
निष्कपट, कितना गंभीर, कितना मधुर सौंदर्य था! वही सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है!
चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, मानों कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के आँगन में दारोगा के जानवर न बँधे थे, न बरामदों में घास के ढेर थे। आज किसी कैदी को जेल-कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़े, किसी ने सिपाहियों की चप्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबन्धियों के नजरानों का बाँट-बखग न होता था। कमरों में दीपक थे, दरवाजे भी स्नुले रखे गये थे। विनय के मन में प्रश्न उठा, क्यों न भाग चलूँ? मेरे समझाने से कदाचित् लोग शांत हो जायँ। सदर से सेना आ रही है, जरा-सी बात पर विप्लव हो सकता है। अगर मैं शांति-स्थापन करने में सफल हुआ, तो वह मेरे इस अपराध का प्रायश्चित्त होगा। उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखा, कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया, तो? लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था।
इस हैस-बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुकों की सूचना दी। दारोगा, डॉक्टर, वार्डर, चौकीदार हड़-बडाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजी, कैदी मैदान में निकल आये, उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गया, और उसी क्षण सोफिया, मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए।
सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस दृष्टि में प्रतीक्षा न थी, उत्सुकता न थी, भय था, विकलता थी, अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया था, जो उसे यहाँ तक खींच लाई थी, जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिद्धांतों का बलिदान किया था, उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थी, जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाय। सहसा उसने विनय को सिर झुकाये खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआ, नेत्रों में अँधेरा छा गया। घर वही था, पर उजड़ा हुआ, घास-पात से ढका हुआ, पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ
था, जिस पर कवित्त की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का-सा विशाल वक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ें, उसे अश्रु-जल से धोऊँ, उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात् विनयसिंह मूर्छित होकर गिर पड़े, एक आर्त-ध्वनि थी, जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई। सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल-कूद मचाने लगा—"अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेगी, इसकी हालत इतनी नाजुक थी, तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं
रखा; बड़ी मुसीबत में फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहीं, इसने दम साधा है, बना हुआ है, मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बचा, जाने दो मेम साहब को, तो देखना, तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाय, फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गया, किसी कैदी को आज तक यो मूर्चि्छत होते नहीं देखा। हाँ, किस्सों में लोगों को बात बात में बेहोश हो जाते पढ़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या।"
दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा था, उधर सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रह रहे थे, यह वही युवक है, जिसने रियासत में ऊधम मचा रखा है। सोफ़ी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहा, हट जाओ, और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थीं, मेज पर जरी का मेजपोश था, उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जल-पान को सामग्रियाँ चुनी हुई थीं। तजबीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफ़ी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया। उसकी करुणा और दया प्रसिद्ध थी, किसी को आश्चर्य न हुआ। जब कमरे में कोई न रहा, तो सोफी ने खिड़कियों पर परदे डाल दिये और विनय का सिर अपनी जाँघ पर रखकर अपना रूमाल उस पर झलने लगी। आँसू की गरम-गरम बूंदें उसकी आँखों से निकल-निकलकर विनय के मुख पर गिरने लगीं। उन जल-बिंदुओं में कितनी प्राणप्रद शक्ति थी। उनमें उसकी समस्त मानसिक और आत्मिक शक्ति भरी हुई थी। एक-एक जल-बिंदु उसके जीवन का एक-एक बिंदु था। विनयसिंह की आँखें खुल गई। स्वर्ग का एक पुष्प, अक्षय, अपार, सौरभ में नहाया हुआ, हवा के मृदुल झोंकों से हिलता, सामने विराज रहा था। सौंदर्य की सबसे मनोहर, सबसे मधुर छवि वह है, जब वह सजल शोक से आर्द्र होता है, वही उसका आध्यात्मिक स्वरूप होता है। विनय चौंककर उठे नहीं; यही तो प्रेम योगियों की सिद्धि है, यही तो उनका स्वर्ग है, यही तो स्वर्ण-साम्राज्य है, यही तो उनकी अभिलाषाओं का अंत है, इस स्वर्गीय आनंद में तृप्ति कहाँ! विनय के मन में करुण भावना जाग्रत हुई-"काश इसी भाँति प्रेम-शय्या पर लेटे हुए- सदैव के लिए ये आँखें बंद हो जाती! सारी आकांक्षाओं का लय हो जाता! मरने के लिए इससे अच्छा और कौन-सा अवसर होगा।"
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एकाएक उन्हें याद आ गया, सोफी को स्पर्श करना भी मेरे लिए वर्जित है। उन्होंने तुरंत अपना सिर उसकी जाँघ पर से खींच लिया और अवरुद्ध कंठ से बोले-“मिसेज क्लार्क, आपने मुझ पर बड़ी दया की, इसके लिए आपका अनुगृहीत हूँ।"
सोफ़िया ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा-“अनुग्रह गालियों के रूप में नहीं प्रकट किया जाता।"
विनय ने विस्मित होकर कहा—“ऐसा घोर अपराध मुझसे कभी नहीं हुआ।"
सोफ़िया-"ख्वाहमखाह किसी शख्स के साथ मेरा संबंध जोड़ना गाली नहीं तो क्या है!"
विनय-"मिस्टर क्लार्क?"
सोफिया-"क्लार्क को मैं तुम्हारी जूतियों का तस्मा खोलने के योग्य भी नहीं समझती।"
विनय-"लेकिन अम्माँजी ने......।"
सोफ़िया-"तुम्हारी अम्माँजी ने झूठ लिखा और तुमने उस पर विश्वास करके मुझ पर घोर अन्याय किया। कोयल आम न पाकर भी निमकौड़ियों पर नहीं गिरती।"
इतने में क्लार्क ने आकर पूछा- "इस कैदी की क्या हालत है? डॉक्टर आ रहा है, वह इसकी दवा करेगा। चलो, देर हो रही है।"
सोफिया ने रुखाई से कहा-"तुम जाओ, मुझे फुरसत नहीं।"
क्लार्क-"कितनी देर तक तुम्हारी राह देखूँ?"
सोफ़िया-"यह मैं नहीं कह सकती। मेरे विचार में एक मनुष्य की सेवा करना सैर करने से कहीं आवश्यक है।"
क्लार्क-"खैर, मैं थोड़ी देर और ठहरूँगा।"
यह कहकर वह बाहर चले गये, तब सोफी ने विनय के माथे से पसीना पोछते हुए कहा-“विनय, मैं डूब रही हूँ, मुझे बचा लो। मैंने रानीजी की शंकाओं को निवृत्त करने के लिए यह स्वाँग रचा था।"
विनय ने अविश्वास-सूचक भाव से कहा-"तुम यहाँ क्लार्क के साथ क्यों आई और उनके साथ कैसे रहती हो?"
सोफ़िया का मुख-मंडल लज्जा से आरक्त हो गया। बोली-“विनय, यह मत पूछो, मगर मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, मैंने जो कुछ किया, तुम्हारे लिए किया। तुम्हें इस कैद से निकालने के लिए मुझे इसके सिवा और कोई उपाय न सूझा। मैंने क्लार्क को प्रमाद में डाल रखा है। तुम्हारे ही लिए मैंने यह कपट-भेष धारण किया है।। अगर तुम इस वक्त कहो, सोफी, तू मेरे साथ जेल में रह, तो मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँगी। अगर तुम मेरा हाथ पकड़कर कहो, तू मेरे साथ चल, तो आज ही तुम्हारे साथ चलूँगी। मैंने तुम्हारा दामन पकड़ लिया है और अब उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकती, चाहे तुम ठुकरा ही क्यों न दो। मैंने आत्मसम्मान तक तुम्हें समर्पित कर दिया
है। विनय, यह ईश्वरीय विधान है, यह उसी को प्रेरणा है, नहीं तो इतना अपमान और उपहास सहकर तुम मुझे जिंदा न पाते।”
विनय ने सोफी के दिल की थाह लेने के लिए कहा—"अगर यह ईश्वरीय विधान है, तो उसने हमारे और तुम्हारे बीच में यह दीवार क्यों खड़ी कर दी है?"
सोफिया—"यह दीवार ईश्वर ने नहीं खड़ी की, आदमियों ने खड़ी की है।"
विनय—"कितनी मजबूत है।"
सोफिया—"हाँ, मगर दुर्भेद्य नहीं।”
विनय—"तुम इसे तोड़ सकोगी?"
सोफिया—"इसी क्षण, तुम्हारी आँखों के एक इशारे पर। कोई समय था, जब मैं उस दीवार को ईश्वर-कृत समझती थी और उसका सम्मान करती थी, पर अब उसका यथार्थ स्वरूप देख चुकी। प्रेम इन बाधाओं की परवा नहीं करता, यह दैहिक संबंध नहीं, आत्मिक संबंध है।"
विनय ने सोफ़ी का हाथ अपने हाथ में लिया, और उसकी ओर प्रेम-विह्वल नेत्रों से देखकर बोले—"तो आज से तुम मेरी, और मैं तुम्हारा हूँ।"
सोफ़ी का मस्तक विनय के हृदय-स्थल पर झुक गया और नेत्रों से जल-वर्षा होने लगी, जैसे काले बादल धरती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी न निकला, मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोध है, पर शुष्क और दाह-युक्त; आनंद की सीमा भी कंठावरोध पर है, पर आद्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक-एक अंग में, नाड़ियों की एक-एक गति में, आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोको या लहरों के प्रवाह के साथ डॉवाडोल न होगी, वरन् व्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी।
विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंध थी, प्रकाश में प्राण, किसी ऐसी-वस्तु का अस्तित्व न था, जो देखने में अप्रिय, सुनने में कटु, छूने में कठोर और स्वाद में कडुई हो। वहाँ के फूलों में काँटे न थे, सूर्य में इतनी उष्णता न थी, जमीन पर व्याधियाँ न थीं, दरिद्रता न थी, चिंता न थी, कलह न था, एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम-सरोवर में विहार कर रहे ये। इस सुख-स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरस, कितना निराशा-जनक था, यह अँधेरो कोठरी कितनी भयंकर?
सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा—“डार्लिङ्ग, अब विलंब न करो, बहुत देर हो रही है, सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा।" सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुणा-कंपित स्वर में बोली—“घबराना नहीं, मैं कल फिर आऊँगी।"
विनय को ऐसा जान पड़ा, मानों नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह ममी-
हत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आई, फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली—"मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनों यहाँ से चले जायँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं।"
सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुर, उत्सुक, प्रेम में डुबे हुए शब्द किसी मधुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूंजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक ओषधियाँ सेवन कराई। पलंग पर नर्म बिछौना था, तकिये लगे थे, पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक-एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता था, और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा- "मैं बिलकुल अच्छा हूँ, आप अब जायँ, शाम को आइएगा।"
डॉक्टर साहब डरते-डरते बोले-"आपको जरा नींद आ जाय, तो मैं चला जाऊँ।"
विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद आ जायगी। डॉक्टर अपने अपराधों की क्षमा माँगते हुए चले गये। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकाया, जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा था, मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगा; पर वह अभिलाषा पूरी न हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा-सत्कार में कोई कसर न रखना, नहीं तो मेम साहब जहन्नुम भेज देंगी।
शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक है, जितनी ध्यान के लिए। वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ-"अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआ, तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ संबद्ध हैं। सोफी के प्रेम-पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित किया, इसीलिए उन्होंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जायगा। दुःख तो पिताजी को भी होगा; पर वह मुझे क्षमा कर देंगे, उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुद्धि-ही-बुद्धि है; पिताजी में हृदय और बुद्धि दोनों ही हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँ? मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँ, जो संसार में किसी ने न किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैं, जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया हो? स्वार्थ के साथ जाति का ध्यान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया है, किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। फिर जिस जाति के अधिकारियों में न्याय और विवेक नहीं, प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहीं, उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधों के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता है?"
शनैः शनैः भावनाओं ने जीवन की सुख-सामग्रियाँ जमा करनी शुरू की-"चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा-सा मकान बनवाऊँगा, साफ, खुला हुआ, हवादार,
ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति निवास करेंगे। आडंबर बढ़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगा, क्यारियाँ बनाऊँगा, कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूंगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधकर कहूँगा-सरकार, कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा-रानीजी, कुछ निगाह हो जाय।कभी-कभी सोफी भी पौदों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर-भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल मात पसीने से और सुंदर वस्त्र पाना से भीग जायगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलूँगा। कभी-कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगी, डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनन्द कहाँ, वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता है, उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डॉडा चलाऊँगा, सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी-कभी प्रभु सेवक भी आयंगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगे, नहाँ मंगल बाहें फैलाये हमारा इंतजार कर रहा है।"
सोफी और क्लार्क की आज संध्या-समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजें सज गई और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किये, तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा-"उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियम, तुमने देखा, उसका मुख कितना पीला पड़ गया था?"
क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुद्ध उत्तर दिया—"मूर्छा में बहुधा मुख पीला हो जाता है।"
सोफ़ी—"वही तो मैं भी कह रही हूँ कि उसकी दशा अच्छी नहीं, नहीं तो मूर्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराध की काफी सजा पा चुका है, उसे मुक्त कर देना उचित होगा।"
नीलकंठ—"मेम साहब, उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहीं, यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जायगा। बड़ा ही जिद्दी है, रियासत से बाहर जाने-पर राजी ही नहीं होता।"
क्लार्क—“ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है।"
सोफी ने उत्तेजित होकर कहा—"मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय-शून्य हो!"
क्लार्क—"मुझे तुम्हारा-जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं।"
सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की दृष्टि से देखा। यह गर्व, यह आत्मगौरव कहाँ से आया? तिरस्कार-भाव से बोली—“एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं।" क्लार्क—“साम्राज्य-रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया से, जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता हो, उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता हो, किसी दुखी जीव को सांत्वना मिलती हो, उसका मैं कायल हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं उस संपत्ति से वंचित नहीं हूँ; लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर दे, विद्रोहियों को सिर उठाने का अवसर दे, प्रजा में अराजकता का प्रचार करे, उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहीं, पागलपन समझता हूँ।”
सोफी के मुख-मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दी। पर उसने जब्त किया कदाचित् इतने धैर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धर्म-परायणता को सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता था। नर्म होकर बोली—"हाँ, इस विचार-दृष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर न गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाय, तो फिर इस रियासत में कदम न रखेगा, और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धनी है।"
नीलकंठ—"क्या आपसे उसने इसका वादा किया है?"
सोफी—"हाँ, वादा ही समझिए, मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ।"
नीलकंठ—"इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता।"
क्लार्क— "जब तक उसका लिखित प्रार्थना-पत्र मेरे सामने न आये, मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता।"
नीलकंठ—"हाँ, यह तो परमावश्यक ही है।"
सोफी—“प्रार्थना-पत्र का विषय क्या होगा?"
क्लार्क—"सबसे पहले वह अपना अपराध स्वीकार करे और अपनी राज-भक्ति का विश्वास दिलाने के बाद हलफ लेकर कहे कि इस रियासत में फिर कदम न रखूँगा। उसके साथ जमानत भी होनी चाहिए। या तो नकद रुपये हों, या प्रतिष्ठित आदमियों की जमानत। तुम्हारी जमानत का मेरी दृष्टि में कितना ही महत्व हो, जाबते में उसका कुछ मूल्य नहीं।"
दावत के बाद सोफी राजभवन में आई, तो सोचने लगी—"यह समस्या क्योंकर हल हो? यों तो मैं विनय की मिन्नत-समाजत करूँ, तो वह रियासत से चले जाने पर राजी हो जायेंगे, लेकिन कदाचित् वह लिखित प्रतिज्ञा न करेंगे। अगर किसी भाँति मैंने रो-धोकर उन्हें इस बात पर भी राजी कर लिया, तो यहाँ कौन प्रतिष्ठित आदमी उनकी जमानत करेगा? हाँ, उनके घर से नकद रुपये आ सकते हैं! पर रानी साहब कमी इसे मंजूर न करेंगी। विनय को कितने ही कष्ट सहने पड़ें, उन्हें इन पर दया न
आयेगी। मजा तो जब है कि लिखित प्रार्थना-पत्र और जमानत की कोई शर्त ही न रहे। वह अवैध रूप से मुक्त कर दिये जायें। इसके सिवा कोई उपाय नहीं।"
राजभवन विद्युत्-प्रकाश से ज्योतिर्मय हो रहा था। भवन के बाहर चारों तरफ सावन की काली घटा थी और अथाह अंधकार। उस तिमिर-सागर में प्रकाशमय राज-भवन ऐसा मालूम होता था, मानों नीले गगन पर चाँद निकला हो।-सोफ़ी अपने सजे हुए कमरे में आईने के सामने बैठी हुई उन सिद्धियों को जगा रही है, जिनकी शक्ति अपार है—आज उसने मुद्दत के बाद बालों में फूल गूंथे हैं, फीरोजी रेशम की साड़ी पहनी है और कलाइयों में कंगन धारण किये हैं। आज, पहली बार उसने उन लालित्य-प्रसारिणी कलाओं का प्रयोग किया है, जिनमें स्त्रियाँ निपुण होती हैं। यह मंत्र उन्हीं को आता है कि क्योंकर केशों की एक तड़प, अंचल की एक लहर चित्त को चंचल कर देती है। आज उसने मिस्टर क्लार्क के साम्राज्यवाद को विजय करने का निश्चय किया है, वह आज अपनी सौंदर्य-शक्ति की परीक्षा करेगी।
रिम झिम बूँदें गिर रही थीं, मानों मौलसिरी के फूल झड़ रहे हों। बूंदों में एक मधुर स्वर था। रामभवन, पर्वत-शिखर के ऊपर, ऐसा मालूम होता था, मानों देवताओं ने आनंदोत्सव की महफील सजाई है। सोफिया प्यानो पर बैठ गई और एक दिल को मसोसनेवाला राग गाने लगी। जैसे ऊषा की स्वर्ण-छटा प्रस्फुटित होते ही प्रकृति के प्रत्येक अंग को सजग कर देती है, उसी भाँति सोफी की पहली ही तान ने हृदय में एक चुटकी-सी ली। मिस्टर क्लार्क आकर एक कोच पर बैठ गये और तन्मय होकर सुनने लगे, मानों किसी दूसरे ही संसार में पहुँच गये हैं। उन्हें कभी कोई नौका उमड़े हुए सागर में झकोले खाती नजर आती, जिस पर छोटी-छोटी सुंदर चिड़ियाँ मँडलाती थीं। कभी किसी अनंत वन में एक भिक्षुक, झोली कंधे पर रखे, लाठी टेकता हुआ नजर आता। संगीत से कल्पना चित्रमय हो जाती है।
जब तक सोफी गाती रही, मिस्टर क्लार्क बैठे सिर धुनते रहे। जब वह चुप हो गई, तो उसके पास गये और उसकी कुर्सी की बाँहों पर हाथ रखकर, उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर बोले-"इन उँगलियों को हृदय में रख लूँगा।"
सोफी—"हृदय कहाँ है?"
क्लार्क ने छाती पर हाथ रखकर कहा—“यहाँ तड़प रहा है।"
सोफी—"शायद हो, मुझे तो विश्वास नहीं आता। मेरा तो खयाल है, ईश्वर ने तुम्हें हृदय दिया ही नहीं।"
क्लार्क—"संभव है, ऐसा ही हो। पर ईश्वर ने जो कसर रखी थी, वह तुम्हारे मधुर स्वर ने पूरी कर दी। शायद उसमें सृष्टि करने की शक्ति है।"
सोफी—"अगर मुझ में यह विभूति होती, तो आज मुझे एक अपरिचित व्यक्ति के सामने लजित न होना पड़ता।"
क्लार्क ने अधीर होकर कहा-"क्या मैंने तुम्हें लजित किया? मैंने!" सोफी—“जी हाँ, आपने। मुझे आज तुम्हारी निर्दयता से जितना दुःख हुआ, उतना शायद और कभी न हुआ था। मुझे बाल्यावस्था से यह शिक्षा दी गई है कि प्रत्येक जीव पर दया करनी चाहिए, मुझे बताया गया है कि यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। धार्मिक ग्रंथों में भी दया और सहानुभूति ही मनुष्य का विशेष गुण बतलाई गई है। पर आज विदित हुआ कि निर्दयता का महत्त्व दया से कहीं अधिक है। सबसे बड़ा दुःख मुझे इस बात का है कि अनजान आदमी के सामने मेरा अपमान हुआ।"
क्लार्क—"खुदा जानता है सोफी, मैं तुम्हारा कितना आदर करता हूँ। हाँ, इसका खेद मुझे अवश्य है कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करने के लिए वाध्य हुआ। इसका कारण तुम जानती ही हो। हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता है, जब तक प्रजा पर हमारा आतंक छाया रहे, जब तक वह हमें अपना हितचिंतक, अपना रक्षक, अपना आश्रय समझती रहे, जब तक हमारे न्याय पर उसका अटल विश्वास हो। जिस दिन प्रजा के दिल से हमारे प्रति विश्वास उठ जायगा, उसी दिन हमारे साम्राज्य का अंत हो जायगा। अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है, तो व्यक्तिगत भारों और विचारों का यहाँ कोई महत्त्व नहीं। साम्राज्य के लिए हम बड़े-से-बड़े नुकसान उठा सकते हैं, बड़ी-से-बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय है, और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेश-मात्र भी शंका हो, उसे हम कुचल डालना चाहते हैं, उसका नाश कर देना चाहते हैं, उसके साथ किसी भाँति की रिआयत, सहानुभूति, यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते।"
सोफी—"अगर तुम्हारा खयाल है कि मुझे साम्राज्य से इतना प्रेम नहीं, जितना तुम्हें है, और मैं उसके लिए इतने बलिदान नहीं कर सकती, जितने तुम कर सकते हो, तो तुमने मुझे बिलकुल नहीं समझा। मुझे दावा है, इस विषय में मैं किसी से जौ-भर भी पीछे नहीं। लेकिन यह बात मेरे अनुमान में भी नहीं आती कि दो प्रेमियों में कभी इतना मतभेद हो सकता है कि सहृदयता और सहिष्णुता के लिए गुंजाइश न रहे, और विशेषतः उस दशा में, जब कि दीवार के कानों के अतिरिक्त और कोई कान भी सुन रहा हो। दीवान देश-भक्ति के भावों से शून्य है; उसकी गहराई और उसके विस्तार से
जरा भी परिचित नहीं। उसने तो यही समझा होगा कि जब इन दोनों में मेरे सम्मुख इतनी तकरार हो सकती है, तो घर पर न जाने क्या दशा होगी। शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया। उसने औरों से भी यह वृत्तांत कहा होगा। मेरी तो नाक-सी कट गई। समझते हो, मैं गा रही हूँ। यह गाना नहीं, रोना है। जब दांपत्य के द्वार पर यह दशा हो रही है, जहाँ फूलों से, हर्ष-नादों से, प्रेमालिंगनों से, मृदुल हास्य से मेरा अभिवादन होना चाहिए था, तो मैं अंदर कदम रखने का क्योंकर साहस कर सकती हूँ? तुमने मेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। शायद तुम मुझे Sentimental समझ रहे होंगे; पर अपने चरित्र को मिटा देना मेरे वश की बात नहीं। मैं अपने को धन्य-वाद देती हूँ कि मैंने विवाह के विषय में इतनी दूर-दृष्टि से काम लिया।"
यह कहते-कहते सोफी की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। शोकाभिनय में भी बहुधा यथार्थ शोक की वेदना होने लगती है। मिस्टर क्लार्क खेद और असमर्थता का राग अलापने लगे; पर न उपयुक्त शब्द ही मिलते थे, न विचार। अश्रु-प्रवाह तर्क और शब्द-योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा-"सोफी, मुझे क्षमा करो, वास्तव में मैं न समझता था कि इस जरा-सी बात से तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा होगी।"
सोफो—"इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। तुम मेरे गुलाम नहीं हो कि मेरे इशारों पर नाचो। मुझमें वे गुण ही नहीं, जो पुरुषों का हृदय खींच लेते हैं, न वह रूप है, न वह छवि है, न वह उद्दीपन कला। नखरे करना नहीं जानती, कोप-भवन में बैठना नहीं जानती। दुःख केवल इस बात का है कि उस आदमी ने तो मेरे एक इशारे पर मेरी बात मान ली और तुम इतना अनुनय विनय करने पर भी इनकार करते जाते हो। वह भी सिद्धांतवादी मनुष्य है; अधिकारियों की यंत्रणाएँ सहीं, अपमान सहा, कारागार की अंधेरी कोठरी में कैद होना स्वीकार किया, पर अपने वचन पर सुखद रहा। इससे कोई मतलब नहीं कि उसको टेक जा थी या बेजा, वह उसे जा समझता था। वह जिस बात को न्याय समझता था, उससे भय या लोभ या दंड उसे विचलित नहीं कर सके। लेकिन जब मैंने नरमी के साथ उसे समझाया कि तुम्हारी दशा चिंताजनक है, तो उसके मुख से ये करुण शब्द निकले—"मेम साहब, जान की तो परवा नहीं, अपने मित्रों और सहयोगियों की दृष्टि में पतित होकर जिंदा रहना श्रेय की बात नहीं; लेकिन आपकी बात नहीं टालना चाहता। आपके शब्दों में कठोरता नहीं, सहृदयता है, और मैं अभी तक भाव-विहीन नहीं हुआ हूँ।" मगर तुम्हारे ऊपर मेरा कोई मंत्र न चला। शायद तुम उससे बड़े सिद्धांतवादी हो, हालाँकि अभी इसकी परीक्षा नहीं हुई। खैर, मैं तुम्हारे सिद्धांतों से सौतियाडाह नहीं करना चाहती। मेरो सवारी का प्रबंध कर दो, मैं कल ही चली जाऊँगी और फिर अपनी नादानियों से तुम्हारे मार्ग का कंटक बनने न आऊँगी।"
मिस्टर क्लार्क ने घोर आत्मवेदना के साथ कहा—"डार्लिंग, तुम नहीं जानतों, यह कितना भयंकर आदमी है। हम क्रांति से, षड्यंत्रों से, संग्राम से इतना नहीं डरते, जितना इस भाँति के धैर्य और धुन से। मैं भी मनुष्य हूँ-जोफो, यद्यपि इस समय मेरे मुँह से यह दावा समयोचित नहीं, पर कम-से-कम उस पवित्र आत्मा के नाम पर, जिसका मैं एक अत्यंत दीन भक्त हूँ, मुझे यह कहने का अधिकार है-मैं उस युवक का हृदय से सम्मान करता हूँ। उसके दृढ़ संकल्प की, उसके साहस की, उसको सत्य-वादिता की दिल से प्रशंसा करता हूँ। जानता हूँ, वह एक ऐश्वर्यशाली पिता का पुत्र है और राजकुमारों की भाँति आनंद-भोग में मग्न रह सकता है, पर उसके ये ही सद्गुण हैं, जिन्होंने उसे इतना अजेय बना रखा है। एक सेना का मुकाबला करना इतना कठिन नहीं, जितना ऐसे गिने-गिनाये व्रतधारियों का, जिन्हें संसार में कोई भय नहीं है। मेरा जाति-धर्म मेरे हाथ बाँधे हुए है।"
सोफी को ज्ञात हो गया कि मेरी धमकी सर्वथा निष्फल नहीं हुई। विवशता का शब्द जबान पर, खेद का भाव मन में आया, और अनुमति की पहली मंजिल पूरी हुई। उसे यह भी ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे हाव-भाव का इतना असर नहीं हो सकता, जितना बल-पूर्ण आग्रह का। सिद्धांतवादी मनुष्य हाव-भाव का प्रतिकार करने के लिए अपना दिल मजबूत कर सकता है, वह अपने अंतःकरण के सामने अपनी दुर्बलता स्त्री-कार नहीं कर सकता, लेकिन दुराग्रह के मुकाबले में वह निष्क्रिय हो जाता है। तब उसकी एक नहीं चलती। सोफी ने कटाक्ष करते हुए कहा-"अगर तुम्हारा जातीय कर्तव्य तुम्हे प्यारा है, तो मुझे भी आत्मसम्मान प्यारा है। स्वदेश की अभी तक किसी ने व्याख्या नहीं की; पर नारियों की मान-रक्षा उसका प्रधान अंग है और होनी चाहिए, इससे तुम इनकार नहीं कर सकते।”
यह कहकर वह स्वामिनी-भाव से मेज के पास गई और एक डाकेट का पत्र निकाला, जिस पर एजेंट आज्ञा-पत्र लिखा करता था।
क्लार्क-"क्या करती हो सोफी? खुदा के लिए जिद मत करो।"
सोफी-"जेल के दारोगा के नाम हुक्म लिखूँगी।"
यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई।
क्लार्क-"यह अनर्थ न करो सोफी, गजब हो जायगा।"
सोफी-"में गजब से क्या, प्रलय से भी नहीं डरती।"
सोफी ने एक-एक शब्द का उच्चारण करते हुए आज्ञा-पत्र टाइप किया। उसने एक जगह जान-बूझकर एक अनुपयुक्त शब्द टाइप कर दिया, जिसे एक सरकारी पत्र में न आना चाहिए था। क्लार्क ने टोका-"यह शब्द मत रखो।"
सोफी-"क्यों, धन्यवाद न दूँ?"
क्लार्क-"आज्ञा-पत्र में धन्यवाद का क्या जिक्र? कोई निजी थोड़े ही है।"
सोफी-"हाँ, ठीक है, यह शब्द निकाले देती हूँ। नीचे क्या लिखूँ?"
क्लार्क-"नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं। केवल मेरा हस्ताक्षर होगा।"
सोफी ने संपूर्ण आज्ञा-पत्र पढ़कर सुनाया।
क्लार्क-"प्रिये, यह तुम बुरा कर रही हो।"
सोफी-"कोई परवा नहीं, मैं बुरा ही करना चाहती हूँ। हस्ताक्षर भी टाइप कर दूँ? नहीं (मुहरनिकालकर) यह मुहर किये देती हूँ।"
क्लार्क-"जो चाहे, करो। जब तुम्हें अपनी जिद के आगे कुछ बुरा-भला नहीं सूझता, तो मैं क्या कहूँ?"
सोफी-"कहीं और तो इसको नकल न होगी?"
क्लार्क-"मैं कुछ नहीं जानता।"
यह कहकर मि०-क्लार्क अपने शयन-गृह की ओर जाने लगे। सोफी ने कहा-"आज इतनी जल्दी नींद आ गई?" क्लार्क-"हाँ, थक गया हूँ, अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्र से रियासत में तहलका पड़ जायगा।"
सोफी-"अगर तुम्हें इतना भय है, तो मैं इस पत्र को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाय। बैठते हो, या देखो, यह लिफाफा फाड़ती हूँ।"
क्लार्क-"कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गये और बोले-“लो बैठ गया, क्या कहती हो?"
सोफी-"कहती कुछ नहीं हूँ, धन्यवाद का गीत सुनते जाओ।"
क्लार्क-"धन्यवाद की जरूरत नहीं।"
सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे। उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तक? इस क्रीड़ा का कोई अन्त भी है? इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिन्ता से मुक्त कर दिया-आह! काश अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उदीप्त किया और तब सहसा प्यानो बन्द कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहे, जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो।
सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्र खींचने में काटी, पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखती, तो विदित होता, धूप की जगह छाँह है, छाँह की जगह धूप, लाल रंग का आधिक्य है, बाग में अस्वाभाविक रमणीयता, पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियाली, नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्रुटियों को सुधारने लगती, तो सारा दृश्य जरूरत से ज्यादा नीरस, उदास और मलिन हो जाता। उसकी धार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। भब ईश्वर ही उसका कर्णधार था, वह अपने कर्माकर्म के गुण-दोष से मुक्त थी।
प्रातःकाल वह उठी, तो मि० क्लार्क सो रहे थे। मूसलधार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चली, जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े।
उसके जेल पहुँचते ही हलचल-सी पड़ गई। चौकीदार आँखेंमलते हुए दौड़-दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागे, याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे, और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गये सोये थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल-कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैंप न बुझा था, मानों विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगन्ध उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम
किया और वह उन्हें लिये विनय के कमरे में आई। देखा, तो नींद में हैं। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हल्की-सी मुस्किराहट है, मानों फूल पर किरणें चमक रही हो, सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था।
सोफी ने डॉक्टर से पूछा-"रात को इसकी कैसी दशा थी?"
डॉक्टर-“हुजूर, कई बार मूर्छा आई; पर मैं एक क्षण के लिए भी यहाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गई, तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है।"
सोफी-"हाँ, मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरी जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ का जल-वायु इसके अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँ, तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँ और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्किराकर) डॉक्टर साहब, मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँ, पर खतर-जान नहीं।"
जब कमरे में एकांत हो गया, तो सोफ़ो ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धीरे-धीरे उसका माथा सुहलाने लगी। विनय की आँखें खुल गई। इस तरह झपटकर उठा, जैसे नींद में किसी नदी में फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो।
सोफी ने मुस्किराकर कहा-"तुम अभी तक सो रहे हो; मेरी आँखों की तरफ देखो, रात-भर नहीं झपकीं।"
विनय-"संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठो नींद न लूँ, तो मुझसे भाग्य-हीन और कौन होगा?"
सोफो—“मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाय। नींद का सुख अभाव में है, जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छा, अब तैयार हो जाओ।"
विनय-"किस बात के लिए?"
सोफी-"भूल गये? इस अंधकार से प्रकाश में आने के लिए, इस काल-कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँ, तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा-पत्र मेरी जेब में है। कोई अपमान-सूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओ, चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट आऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूंगी, और फिर विधाता भी हमें अलग न कर सकेगा।" विनयसिंह की दशा उस बालक की-सी थी, जो मिठाइयों के खोंचे को देखता है, "पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगी, मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों
के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैं, मालूम होता है, दाँत किसी रसकुंड में फिसल पड़े। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैं, उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधी होती है कि खाता ही चला जाय। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहीं, किससे माँगेंगी, ज्यादा हठ करूँगा, तो रोने लगेंगी। सजल-नेत्र होकर बोला—“सोफी, मैं भाग्य-हीन आदमी हूँ, मुझे इसी दशा में रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधाता ने दुःख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम..........।"
सोफी ने बात काटकर कहा—"विनय, मैं विपत्ति ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख-संपन्न होते, अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होता, अगर तुम वासनाओं के दास होते, तो कदाचित् मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है।"
विनय—"अम्माँजी को तुम जानतो हो, वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी।"
सोफी—"तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोध को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहीं, तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँ, तो उनका हृदय पिघल जायगा।"
विनय ने सोफी को स्नेह-पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—"तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिन्दू-धर्म पर जान देती हैं।"
सोफी—"मैं भी हिंदू-धर्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिली, वह गोपियों की प्रेम-कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतार, जिसने गोपियों को प्रेम-रस पान कराया, जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगाया, जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्र किया, उसी की चेरी बनकर जाऊँगी, तो वह कौन सच्चा हिंदू है, जो मेरी उपेक्षा करेगा?"
विनय ने मुस्किराकर कहा—"उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दिया? मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम-कथा सर्वथा भक्त-कल्पना है।"
सोफी—"हो सकती है। प्रभु मसीह को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना-मात्र है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई है? लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्र कीर्ति के भक्त हैं, और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहीं, सूक्ष्म कल्पना से हुई है। ये व्यक्तियों के नाम हों या न हों, पर आदर्शों के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक-एक आदर्श है।"
विनय—"सोफी, मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल-हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफी, तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाय, तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों की जंजीर चाहे न
बन सको, पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच-समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधन से मुक्त हुआ, तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जायगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफी, मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो। मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल-चरित्र, विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँ, मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसो दूसरी जगह प्रस्थान कर दो।"
सोफी-"क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते हो?"
विनय-"नहीं-नहीं, इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाय। कोई जवान आदमो कस्बे में न रहने पाये। मैं तो समझता हूँ, सरदार साहब ने तुम्हारी-रक्षा के लिए यह व्यवस्था की है; पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं।"
सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क-वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति-रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा-"क्या ऐसा हुक्म दिया गया है?"
विनय-"हाँ, मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था।"
सोफी- "मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जायगा, पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा।"
विनय-"नहीं सोफी, मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा दृश्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी दृष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगा? तुम्हें पाकर फिर मेरा जीवन नीरस हो जायगा, मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जायगी। सोफी, मेरे मुँह से न जाने क्या-क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राज सिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्त हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरो तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ।"
सोफी-"मेरी स्मरण-शक्ति इतनी शिथिल नहीं है।"
विनय-"कम-से-कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करो; क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया है, मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा।”
सोफी ने गंभीर भाव से कहा-"जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल-हृदय समझती थी, तुम उससे कहीं बढ़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँ;
और इसीलिए कहती हूँ, जैसी तुम्हारी इच्छा। पर शायद तुम्हें मालूम नहीं कि युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिए मना करो, उसी तरफ लपकेगा। अगर तुम आत्मप्रशंसा करते, अपने कृत्यों की अप्रत्यक्ष रूप से डींग मारते, तो शायद मुझे तुमसे अरुचि हो जाती। अपनी त्रुटियों और दोषों का प्रदर्शन करके तुमने मुझे और भी वशीभूत कर लिया। तुम मुझसे डरते हो, इसलिए तुम्हारे सम्मुख न आऊँगी, पर रहूँगी तुम्हारे ही साथ। जहाँ-जहाँ तुम जाओगे, मैं परछाई की भाँति तुम्हारे साथ रहूँगी। प्रेम एक भावनागत विषय है, भावना ही से उसका पोषण होता
है, भावना ही से वह जीवित रहता है और भावना ही से लुप्त हो जाता है। वह भौतिक वस्तु नहीं है। तुम मेरे हो, यह विश्वास मेरे प्रेम को सजीव और सतृष्ण रखने के लिए काफी है। जिस दिन इस विश्वास की जड़ हिल जायगी, उसी दिन इस जीवन का अंत हो जायगा। अगर तुमने यही निश्चय किया है कि इस कारागार में रहकर तुम अपने जीवन के उद्देश्य को अधिक सफलता के साथ पूरा कर सकते हो, तो इस ‘फैसले के आगे सिर झुकाती हूँ। इस विराग ने मेरी दृष्टि में तुम्हारे आदर को कई गुना बढ़ा दिया है। अब जाती हूँ। कल शाम को फिर आऊँगी। मैंने इस आज्ञा-पत्र के लिए जितना त्रिया चरित्र खेला है, वह तुमसे बता दूँ, तो तुम आश्चर्य करोगे। तुम्हारी एक नहीं ने मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर दिया। क्लार्क कहेगा, मैं कहता था, वह राजी न होगा, कदाचित् व्यंग्य करे; पर कोई चिंता नहीं, कोई बहाना कर दूँगी।"
यह कहते-कहते सोफी के सतृष्ण अधर विनयसिंह की तरफ झुके, पर वह कोई पैर फिसलनेवाले मनुष्य की भाँति गिरते-गिरते सँभल गई। धीरे से विनयसिंह का हाथ दबाया और द्वार की ओर चली; पर बाहर जाकर फिर लौट आई और अत्यंत दीन भाव से बोली-"विनय, तुमसे एक बात पूछती हूँ। मुझे आशा है, तुम साफ-साफ बतला दोगे। मैं क्लार्क के साथ यहाँ आई, उससे कौशल किया, उसे झूठी आशाएँ दिलाई और अब उसे मुगालते में डाले हुए हूँ। तुम इसे अनुचित तो नहीं समझते, तुम्हारी दृष्टि में मैं कलंकिनो तो नहीं हूँ?"
विनय के पास इसका एक ही संभावित उत्तर था। सोफी का आचरण उसे आपत्ति-जनक प्रतीत होता था। उसे देखते हो उसने इस बात को आश्चर्य के रूप में प्रकट भी किया था। पर इस समय वह इस भाव को प्रकट न कर सका। यह कितना बड़ा अन्याय होता, कितनी घोर निर्दयता! वह जानता था कि सोफी ने जो कुछ किया है, वह एक धार्मिक तत्त्व के अधीन होकर। वह इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझ रही है। अगर ऐसा न होता, तो शायद अब तक वह हताश हो गई होती। ऐसी दशा में कठोर सत्य वज्रपात के समान होता। श्रद्धा-पूर्ण तत्परता से बोले—“सोफी, तुम यह प्रश्न करके अपने ऊपर और उससे अधिक मेरे ऊपर अन्याय कर रही हो। मेरे लिए तुमने अब तक त्याग-ही-त्याग किये हैं; सम्मान, समृद्धि, सिद्धान्त एक की भी परवा नहीं की। संसार में मुझसे बढ़कर कृतन और कौन प्राणी होगा, जो मैं इस अनुराग का निरादर करूँ!"
यह कहते-कहते वह रुक गये। सोफी बोली-“कुछ और कहना चाहते हो, रुक क्यों गये? यही न कि तुम्हें मेरा क्लार्क के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। जिस दिन मुझे निराशा हो जायगी कि मैं मिथ्याचरण से तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकती, उसी दिन मैं क्लार्क को पैरों से ठुकरा दूँगी। इसके बाद तुम मुझे प्रेम-योगिनी के रूप में देखोगे, जिसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य होगा तुम्हारे ऊपर समर्पित हो जाना।"