रंगभूमि/२७

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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नायकराम मुहल्लेवालों से विदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रद्धा हो गई। किसी को तंबाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुफाफिर को देखते, जगह नहीं मिल रही है, इधर-उधर भटक रहा है, जिस कमरे में जाता है, धक्के खाता है, उसे बुलाकर अपनी बगल में बैठा लेते। फिर जरा देर में उससे सवालों का ताँता बाँध देते-“कहाँ मकान है? कहाँ जाते हो? कितने लड़के हैं? क्या कारोबार होता है?" इन प्रश्नों का अन्त इस अनुरोध पर होता कि "मेरा नाम नायकराम पंडा है; जब कभी कासी आओ, मेरा नाम पूछ लो, बच्चा-बच्चा जानता है, दो दिन, चार दिन, महीने, दो महीने, जब तक इच्छा हो, आराम से कासीबास करो; घर-द्वार, नौकर-चाकर सब हाजिर हैं, घर का-सा आराम पाओगे; वहाँ से चलते समय जो चाहो, दे दो, न हो, न दो, घर आकर भेज दो, इसकी कोई चिन्ता नहीं; यह कभी मत सोचो, अभी रुपये नहीं हैं, फिर चलेंगे, सुभ काज के लिए महूरत नहीं देखा जाता, रेल का किराया लेकर चल खड़े हो, कासी में तो मैं हूँ ही, किसी बात की तकलीफ न होगी, काम पड़ जाय, तो जान लड़ा दें, तीरथ-यात्रा के लिए टालमटोल मत करो, कोई नहीं जानता, कब बड़ी जात्रा करनी पड़ जाय, संसार के झगड़े तो सदा लगे ही रहेंगे।"

दिल्ली पहुंचे, तो कई नये मुसाफिर गाड़ी में आये। आर्य-समाज के किसी उत्सव में जा रहे थे। नायकराम ने उनसे भी वही जिरह शुरू की। यहाँ तक कि एक महाशय फँसनेवाले नहीं हैं। यहाँ गंगाजी के कायल नहीं, और न काशी ही को स्वर्गपुरी समझते है।

नायकराम जरा भी हताश नहीं हुए, मुस्किराकर बोले-"बाबूजी, आप आरिया होकर ऐसा कहते हैं! आरिया लोगों ही ने तो हिंदू-धरम की लाज रखी, नहीं तो अब तक सारा देस मुसलमान-किरसतान हो गया होता। हिंदू-धरम के उद्धारक होकर आप कासी को भला कैसे न मानेंगे! उसी नगरी में राजा हरिसचंद की परीच्छा हुई थी, वहीं बुद्ध भगवान ने अपना धरम-चक्र चलाया था, वहीं संकर भगवान ने मंडल मिसिर से सास्त्रार्थ किया था, वहाँ जैनी आते हैं, बौध आते हैं, वैस्नव आते हैं, वह हिंदुओं की नगरी नहीं है, सारे संसार की नगरी वही है। दूर-दूर के लोग भी जब तक कासीजी के दरसन न कर लें, उनकी जात्रा सुफल नहीं होती। गंगाजी मुकुत देती हैं, पाप काटती हैं, यह सब तो गँवारों को बहलाने की बातें हैं। उनसे कहो कि चलकर उस पवित्र नगरी को देख आओ, जहाँ कदम-कदम पर आरिया-जाति के निसान मिलते हैं, जिसका नाम लेते ही सैकड़ों महात्माओं, रिसियों-मुनियों की याद आ जाती है, तो उनकी समझ

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में यह बात न आयेगी। पर जथारथ में बात यही है। कासी का महातम इसीलिए है कि वह आरिया-जाति की जीती-जागती पुरातन पुरी है।"

इन महाशयों को फिर काशी की निंदा करने का साहस न हुआ। वे मन में लजित हुए और नायकराम के धार्मिक ज्ञान के कायल हो गये, हालाँकि नायकराम ने ये थोड़े-से वाक्य ऐसे ही अवसरों के लिए किसी व्याख्याता के भाषण से चुनकर रट लिये थे।

रेल के स्टेशनों पर वह जरूर उतरते और रेल के कर्मचारियों का परिचय प्राप्त करते। कोई उन्हें पान खिला देता, कोई जल-पान करा देता। सारी यात्रा समाप्त हो गई, पर वह लेटे तक नहीं, जरा भी आँख नहीं झपकी। जहाँ दो मुसाफिरों को लड़ते- झगड़ते देखते, तुरंत तीसरे बन जाते और उनमें मेल करा देते। तीसरे दिन वह उदयपुर पहुँच गये और रियासत के अधिकारियों से मिलते-जुलते, घूमते-घामते जसवंतनगर में दाखिल हुए। देखा, मिस्टर क्लार्क का डेरा पड़ा हुआ है। बाहर से आने जानेवालों की बड़ी जाँच-पड़ताल होती है, नगर का द्वार बंद-सा है, लेकिन पंडे को कौन रोकता? कस्बे में पहुँचकर सोचने लगे, विनयसिंह से क्योंकर मुलाकात हो? रात को तो धर्मशाले में ठहरे, सबेरा होते ही जेल के दारोगा के मकान पर जा पहुँचे। दारोगाजी सोफी को बिदा करके आये थे और नौकर से बिगड़ रहे थे कि तूने हुक्का क्यों नहीं भरा, इतने में बरामदे में पण्डाजी की आहट पाकर बाहर निकल आये। उन्हें देखते ही नायकराम ने गंगा-जल की शीशी निकाली और उनके सिर पर जल छिड़क दिया।

दारोगाजी ने अन्यमनस्क होकर कहा-"कहाँ से आते हो?"

नायकराम-"महाराज, अस्थान तो परागराज है; पर आ रहा हूँ बड़ी दूर से। इच्छा हुई, इधर भी जजमानों को आसीरबाद देता चलूँ।"

दारोगाजी का लड़का, जिसकी उम्र अभी चौदह-पंद्रह वर्ष की थी, निकल आया। नायकराम ने उसे नख से शिख तक बड़े ध्यान से देखा, मानों उसके दर्शनों से हार्दिक आनंद प्राप्त हो रहा है और तब दारोगाजी से बोले-“यह आपके चिरंजीव पुत्र हैं न? पिता-पुत्र की सूरत कैसी मिलती है कि दूर ही से पहचान जाय। छोटे ठाकुर साहब, क्या पढ़ते हो?"

लड़के ने कहा—"अँगरेजी पढ़ता हूँ।"

नायकराम—"यह तो मैं पहले ही समझ गया था। आजकल तो इसी बिद्या का दौरदौरा है, राजविद्या ठहरी। किस दफे में पढ़ते हो भैया?"

दारोगा-"अभी तो हाल ही में अँगरेजी शुरू की है, उस पर भी पढ़ने में मन नहीं लगाते, अभी थोड़ी ही पढ़ी है।"

लड़के ने समझा, मेरा अपमान हो रहा है। बोला-"तुमसे तो ज्यादा ही पढ़ा हूँ।"

नायकराम—'इसकी कोई चिंता नहीं, सब आ जायगा, अभी इनकी औस्था ही क्या है। भगवान की इच्छा होगी, तो कुल का नाम रोसन कर देंगे। आपके घर पर कुछ जगह-जमीन भी है?" [ ३११ ]
दारोगाजी ने अब समझा। बुद्धि बहुत तीक्ष्ण न थी। अकड़कर कुर्सी पर बैठ गये और बोले- "हाँ, चित्तौर के इलाके में कई गाँव हैं। पुरानी जागीर है। मेरे पिता महाराना के दरबारी थे। हल्दी-घाटी की लड़ाई में राना प्रताप ने मेरे पूर्वज को यह जागीर दी थी। अब भी मुझे दरबार में कुर्सी मिलती है और पान-इलायची से सत्कार होता है, कोई कार्य-प्रयोजन होता है, तो महाराना के यहाँ से आदमी आता है। बड़ा लड़का मरा था, तो महाराना ने शोकपत्र भेजा था।"

नायकराम-"जागीरदारी का क्या कहना! जो जागीरदार, वही राजा, नाम का फरक है। असली राजा तो जागीरदार ही होते हैं, राना तो नाम के हैं।"

दारोगा-"बराबर राजकुल से आना-जाना लगा रहता है।"

नायकराम-"अभी इनकी कहीं बातचीत तो नहीं हो रही है?"

दारोगा--"अजी, लोग जान तो खा रहे हैं, रोज एक-न-एक जगह से संदेसा आता रहता है; पर मैं सबों को टका-सा जवाब दे देता हूँ। जब तक लड़का पढ़-लिख न ले, तब तक उसका विवाह कर देना नादानी है।”

नायकराम-"यह आपने पक्की बात कही। जथारथ में ऐसा ही होना चाहिए। बड़े आदमियों की बुद्धि भी बड़ी होती है। पर लोक-रीति पर चलना ही पड़ता है। अच्छा, अब आज्ञा दीजिए, कई जगह जाना है। जब तक मैं लौटकर न आऊँ, किसी को जवाब न दीजिएगा। ऐसी कन्या आपको न मिलेगी और न ऐसा उत्तम कुल ही पाइएगा।"

दारोगा-“वाह-वाह! इतनी जल्द चले जाइएगा? कम-से-कम भोजन तो कर लीजिए। कुछ हमें भी तो मालूम हो कि आप किसका सँदेसा लाये हैं? वह कौन हैं, कहाँ रहते हैं?"

नायकराम-"सब कुछ मालूम हो जायगा, पर अभी बताने का हुकुम नहीं है।" दारोगा ने लड़के से कहा-"तिलक, अंदर जाओ, पण्डितजी के लिए पान बनवा लाओ, कुछ नाश्ता भी लेते आना।"

यह कहकर तिलक के पीछे-पीछे खुद अन्दर गये और गृहिणी से बोले-"लो, कहीं से तिलक के ब्याह का सँदेसा आया है। पान तश्तरी में भेजना। नाश्ते के लिए कुछ नहीं है? वह तो मुझे पहले हो मालूम था। घर में कितनी ही चीज आये, दुबारा देखने को नहीं मिलती। न जाने कहाँ के मरभुखे जमा हो गये हैं। अभी कल ही एक कैदी के घर से मिठाइयों का पूरा थाल आया था, क्या हो गया?"

स्त्री-"इन्हीं लड़कों से पूछो, क्या हो गया। मैं तो हाथ से छूने की भी कसम-खाती हूँ। यह कोई संदूक में बंद करके रखने की चीज तो है नहीं। जिसका जब जी चाहता है, निकालकर खाता है। कल से किसी ने रोटियों की ओर नहीं ताका।"

दारोगा-"तो आखिर तुम किस मरज की दवा हो? तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जो चीज घर में आये, उसे यत्न से रखो, हिसाब से खर्च करो। वह लौंडा कहाँ गया?" [ ३१२ ]स्त्री-"तुम्हीं ने तो अभी उसे डाँटा था, बस चला गया। कह गया है कि घड़ी-घड़ी की डाँट-फटकार वरदाश्त नहीं हो सकती।”

दारोगा-"यह और मुसीबत हुई। ये छोटे आदमी दिन-दिन सिर चढ़ते जाते हैं, कोई कहाँ तक इनकी खुशामद करे, अब कौन बाजार से मिठाइयाँ लाये? आज तो किसी सिपाही को भी नहीं भेज सकता, न जाने सिर से कब यह बला टलेगी। तुम्हीं चले जाओ तिलक!”

तिलक-"शर्बत क्यों नहीं पिला देते?”

स्त्री-"शकर भी तो नहीं है। चले क्यों नहीं जाते?”

तिलक-"हाँ, चले क्यों नहीं जाते! लोग देखेंगे, हजरत मिठाई लिये जाते हैं।”

दारोगा-"तो इसमें क्या गाली है, किसी के घर चोरी तो नहीं कर रहे हो? बुरे काम से लजाना चाहिए, अपना काम करने में क्या लाज?"

तिलक यों तो लाख सिर पटकने पर भी बाजार न जाते, पर इस वक्त अपने विवाह की खुशी थी, चले गये। दारोगाजी ने तश्तरी में पान रखे और नायकराम के पास लाये।

नायकराम-"सरकार, आपके घर पान नहीं खाऊँगा।"

दारोगा-"अजी, अभी क्या हरज है, अभी तो कोई बात भी नहीं हुई।"

नायकराम-"मेरा मन बैठ गया, तो सब ठीक समझिए।"

दारोगा-“यह तो आपने बुरी पख लगाई। यह बात नहीं हो सकती कि आप हमारे द्वार पर आयें और हम बिना यथेष्ट आदर-सत्कार किये आपको जाने दें। मैं तो मान भी जाऊँगा, पर तिलक की माँ किसी तरह राजी न होंगी।"

नायकराम-"इसी से मैं यह सँदेसा लेकर आने से इनकार कर रहा था। जिस भले आदमी के द्वार पर जाइए, वह भोजन और दच्छिना के बगैर गला नहीं छोड़ता। इसी से तो आजकल कुछ लबाड़ियों ने बर खोजने को ब्यौसाय बना लिया है। इससे यह काम करते हुए और भी संकोच होता है।"

दारोगा-"ऐसे धूर्त यहाँ नित्य ही आया करते हैं; पर मैं तो पानी को भी नहीं पूछता। जैसा मुँह होता है, वैसा बीड़ा मिलता है। यहाँ तो आदमी को एक नजर देखा और उसकी नस-नस पहचान गया। आप यों न जाने पायँगे।"

नायकराम-"मैं जानता कि आप इस तरह पीछे पड़ जायेंगे, तो लबाड़ियों ही की-सी बातचीत करता। गला तो छूट जाता!"

दारोगा-“यहाँ ऐसा अनाड़ी नहीं हूँ, उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ।"

नायकराम डट गये। दोपहर होते-होते बच्चे-बच्चे से उनकी मैत्री हो गई। दारोगाइन ने भी पालागन कहला भेजा। इधर से भी आशीर्वाद दिया गया। दारोगा तो दस बजे दफ्तर चले गये। नायकराम के लिए घर में पूरियाँ-कचौरियाँ, रायता, दही, चटनी, हलवा बड़ी विधि से बनाया गया। पण्डितजी ने भीतर जाकर भोजन किया। स्वामिनी ने
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स्वयं पंखा झला । फिर तो उन्होंने और भी रंग जमाया। लड़के-लड़कियों के हाथ देखे। दारोगाइन ने भी लजाते हुए हाथ दिखाया। पण्डितजी ने अपने भाग्य-रेखा-ज्ञान का अच्छा परिचय दिया। और भी धाक जम गई। शाम को दारोगाजी दफ्तर से लौटे, तो पण्डितजी शान से मशनद लगाये बैठे हुए थे और पड़ोस के कई आदमी उन्हें घेरे खड़े थे।

दारोगा ने कुर्सी पर लेटकर कहा-"यह पद तो इतना ऊँचा नहीं, और न वेतन ही कुछ ऐसा अधिक मिलता है; पर काम इतना जिम्मेदारी का है कि केवल विश्वास-पात्रों को ही मिलता है। बड़े-बड़े आदमी किसी-न-किसी अपराध के लिए दंड पाकर आते हैं। अगर चाहूँ, तो उनके घरवालों से एक-एक मुलाकात के लिए हजारों रुपये ऐंठ लूँ; लेकिन अपना यह ढंग नहीं। जो सरकार से मिलता है, उसी को बहुत समझता हूँ। किसी भीरु पुरुष का तो यहाँ घड़ी-भर निबाह न हो। एक-से-एक खूनी, डकैत, बदमाश आते रहते हैं, जिनके हजारों साथी होते हैं; चाहें, तो दिन-दहाड़े जेल को लुटवा लें, पर ऐसे ढंग से उन पर रोब जमाता हूँ कि बदनामी भी न हो और नुकसान भी न उठाना पड़े। अब आज-ही-कल देखिए, काशी के कोई करोड़पती राजा हैं महारजा भरतसिंह, उनका पुत्र राजविद्रोह के अभियोग में फंस गया है। हुक्काम तक उसका इतना आदर करते हैं कि बड़े साहब की मेम साहब दिन में दो-दो बार उसका हाल-चाल पूछने आती हैं और सरदार नीलकंठ बराबर पत्रों द्वारा उसका कुशल-समाचार पूछते रहते हैं। चाहूँ तो महाराजा भरतसिंह से एक मुलाकात के लिए लाखों रुपये उड़ा लूँ; पर यह अपना धर्म नहीं।"

नायकराम—"अच्छा! क्या राजा भरतसिंह का पुत्र यहीं कैद है?"

दारोगा—"और यहाँ सरकार को किस पर इतना विश्वास है?"

नायकराम—"आप-जैसे महात्माओं के दरसन दुरलभ हैं। किन्तु बुरा न मानिए, तो कहूँ, बाल-बच्चों का भी ध्यान रखना चाहिए। आदमी घर से चार पैसे कमाने ही के लिए निकलता है।”

दारोगा—"अरे, तो क्या कोई कसम खाई है, पर किसी का गला नहीं दबाता। चलिए, आपको जेलखाने की सैर कराऊँ। बड़ी साफ-सुथरी जगह है। मेरे यहाँ तो जो कोई मेहमान आता है, उसे वहीं ठहरा देता हूँ। जेल के दारोगा की दोस्ती से जेल की हवा खाने के सिवा और क्या मिलेगा।"

यह कहकर दारोगाजी मुस्किराये। वह नायकराम को किसी बहाने से यहाँ से टालना चाहते थे। नौकर भाग गया था, कैदियों और चपरासियों से काम लेने का मौका न था। सोचा-"अपने हाथ चिलम भरनी पड़ेगी, बिछावन बिछाना पड़ेगा, मर्यादा में बाधा उपस्थित होगी, घर का परदा खुल जायगा। इन्हें वहाँ ठहरा दूँगा, खाना भिजवा दूँगा, परदा ढका रह जायगा।" [ ३१४ ]नायकराम—"चलिए, कौन जाने, कभी आपकी सेवा में आना ही पड़े। पहले से ठौर-ठिकाना देख लूँ। महाराजा साहब के लड़के ने कौन कसूर किया था?"

दारोगा—“कसूर कुछ नहीं था, बस, हाकिमों की जिद है। यहाँ देहातों में घूम-घूमकर लोगों को उपदेश करता था, बस, हाकिमों को उस पर सन्देह हो गया कि यह राजविद्रोह फैला रहा है। यहाँ लाकर कैद कर दिया। मगर आप तो अभी उसे देखिएगा ही, ऐसा गंभीर, शांत, विचार-शील आदमी आज तक मैंने नहीं देखा, हाँ, किसी से दबता नहीं । खुशामद करके चाहे कोई पानी भरा ले; पर चाहो कि रोब से उसे दबा लें, तो जौ-भर भी न दबेगा।"

नायकराम दिल में खुश थे कि "बड़ी अच्छी साइत से चला था कि भगवान् आप ही सब द्वार खोले देते हैं। देखूँ, अब विनयसिंह से क्या बात होती है। यों तो वह न जायेंगे, पर रानीजी की बीमारी का बहाना करना पड़ेगा। वह राजी हो जायँ, यहाँ से निकाल ले जाना तो मेरा काम है। भगवान् की इतनी दया हो जाती, तो मेरी मनो-कामना पूरी हो जाती, घर बस जाता, जिन्दगी सुफल हो जाती।"