रंगभूमि/३४

विकिस्रोत से
रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ३९५ ]

[३४]

प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जॉन सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर ध्यान देना शुरू किया। बोले—"हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नकशा बनायें। मैं प्रबंधकारिणी समिति के सामने इस प्रस्ताव को रखूँगा। कुलियों के लिए अलग-अलग मकान बनवाने की जरूरत नहीं। लंबे-लंबे बैरक बनवा दिये जायँ, ताकि एक-एक कमरे में १०-१२ मजदूर रह सकें।"

प्रभु सेवक—"लेकिन बहुत-से कुली ऐसे भी तो होंगे, जो बाल-बच्चों के साथ रहना चाहेंगे?"

मिसेज सेवक—"कुलियों के बाल-बच्चों को वहाँ जगह दी जायगी तो एक शहर आबाद हो जायगा। तुम्हें उनसे काम लेना है कि उन्हें बसाना है! जैसे फौज के सिपाही रहते हैं, उसी तरह कुली भी रहेंगे। हाँ, एक छोटा-सा चर्च जरूर होना चाहिए। पादरी के लिए एक मकान भी होना जरूरी है।"

ईश्वर सेवक—"खुदा तुझे सलामत रखे बेटी, तेरी यह राय मुझे बहुत पसंद आई। कुलियों के लिए धार्मिक भोजन शारीरिक भोजन से कम आवश्यक नहीं। प्रभु मसीह, मुझे अपने दामन में छिपा। कितना सुंदर प्रस्ताव है! चित्त प्रसन्न हो गया। वह दिन कब आवेगा, जब कुलियों के हृदय मसीह के उपदेशों से तप्त हो जायँगे।"

जॉन सेवक—"लेकिन यह तो विचार कीजिए कि मैं यह सांप्रदायिक प्रस्ताव समिति के सम्मुख कैसे रख सकूँगा। मैं अकेला तो सब कुछ हूँ नहीं। अन्य मेंबरों ने विरोध किया, तो उन्हें क्या जवाब दूंगा? मेरे सिवा समिति में और कोई क्रिश्चियन नहीं है। नहीं, मैं इस प्रस्ताव को कदापि समिति के सामने न रखूगा। आप स्वयं समझ सकते हैं कि इस प्रस्ताव में कितना धार्मिक पक्षपात भरा हुआ है!"

मिसेज सेवक—"जच कोई धार्मिक प्रश्न आता है, तो तुम उसमें ख्वाहमख्वाह मीन-मेख निकालने लगते हो! हिंदू-कुली तो तुरंत किसी वृक्ष के नीचे दो-चार ईट-पत्थर रखकर जल चढ़ाना शुरू कर देंगे, मुसलमान लोग भी खुले मैदान में नमाज पढ़ लेंगे, तो फिर चर्च से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है!"

ईश्वर सेवक—"प्रभु मसीह, मुझ पर अपनी दया दृष्टि कर। बाइबिल के उपदेश प्राणिमात्र के लिए शांतिप्रद हैं। उनके प्रचार में किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता और अगर एतराज हो भी, तो तुम इस दलील से उसे रद कर सकते हो कि राजा का धर्म भी राजा है। आखिर सरकार ने धर्म-प्रचार का विभाग खोला है, तो कौन एतराज करता है, और करे भी, तो कौन उसे सुनता है? मैं आज ही इस विषय को चर्च में पेश करूंगा और अधिकारियों को मजबूर करूँगा कि वे कंपनो पर अपना दबाव डालें। [ ३९६ ]
मगर यह तुम्हारा काम है, मेरा नहीं; तुम्हें खुद इन बातों का खयाल होना चाहिए। न हुए मि० क्लार्क इस वक्त!"

मिसेज सेवक-"वह होते, तो कोई दिक्कत ही न होती।"

जॉन सेवक-"मेरी समझ में नहीं आता कि मैं इस तजवीज को कैसे पेश करूँगा। अगर कंपनी कोई मंदिर या मस्जिद बनवाने का निश्चय करती, तो मैं भी चर्च बनवाने पर जोर देता। लेकिन जब तक और लोग अग्रसर न हों, मैं कुछ नहीं कर सकता और न करना उचित ही समझता हूँ।"

ईश्वर सेवक-"हम औरों के पीछे-पीछे क्यों चलें ? हमारे हाथों में दीपक है, कंधे पर लाठी है, कमर में तलवार है, पैरों में शक्ति है, हम क्यों आगे न चलें? क्यों दूसरों का मुँह देखें?"

मि० जॉन सेवक ने पिता से और ज्यादा तर्क-वितर्क करना व्यर्थ समझा। भोजन के पश्चात् वह आधी रात तक प्रभु सेवक के साथ बैठे हुए भिन्न-भिन्न रूप से नक्शे बनाते-बिगाड़ते रहे-किधर की जमीन ली जाय, कितनी जमीन काफी होगी, कितना व्यय होगा, कितने मकान बनेंगे। प्रभु सेवक हाँ-हाँ करता जाता था। इन बातों में मन न लगता था। कभी समाचार-पत्र देखने लगता, कभी कोई किताब उलटने-पलटने लगता, कभी उठकर बरामदे में चला जाता। लेकिन धुन सूक्ष्मदर्शी नहीं होती। व्याख्याता अपनी वाणी के प्रवाह में यह कब देखता है कि श्रोताओं में कितनों की आँखें खुली हुई हैं। प्रभु सेवक को इस समय एक नया शीर्षक सूझा था और उस पर अपने रचना-कौशल की छटा दिखाने के लिए वह अधीर हो रहा था। नई-नई उपमाएँ, नई-नई सूक्तियाँ, किसी जलधारा में बहकर आनेवाले फूलों के सदृश उसके मस्तिष्क में दौड़ती चली आती थीं और वह उनका संचय करने के लिए उकता रहा था क्योंकि एक बार आकर, एक बार अपनी झलक दिखाकर, वे सदैव के लिए विलुप्त हो जाती हैं। बारह बजे तक वह इसी संकट में पड़ा रहा। न बैठते बनता था, न उठते। यहाँ तक कि उसे झपकियाँ आने लगीं। जॉन सेवक ने भी अब विश्राम करना उचित समझा। लेकिन जब प्रभु सेवक पलँग पर गया, तो निद्रा देवी रूठ चुकी थीं। कुछ देर तक तो उसने देवी को मनाने का प्रयत्न किया, फिर दीपक के सामने बैठकर उसी विषय पर पद्य-रचना करने लगा। एक क्षण में वह किसी दूसरे हो जगत् में था। वह ग्रामीणों की भाँति सराफे में पहुँचकर उसकी चमक-दमक पर लट्ट न हो जाता था। यद्यपि उस जगत् की प्रत्येक वस्तु रसमयी, सुरभित, नेत्र-मधुर, मनोहर मालूम होती थी, पर कितनी ही वस्तुओं को ध्यान से देखने पर ज्ञात होता था कि उन पर केवल सुनहरा आवरण चढ़ा हुआ है; वास्तव में वे या तो पुरानी हैं, अथवा कृत्रिम। हाँ, जब उसे वास्तव में कोई नया रत्न मिल जाता था, तो उसकी मुख-श्री प्रज्वलित हो जाती थी। रचयिता अपनी रचना का सबसे चतुर पारखी होता है। प्रभु सेवक को कल्पना कभी इतनी ऊँची न उड़ी थी। एक-एक पद्य, लिखकर वह उसे स्वर से पढ़ता और झूमता। जब कविता समाप्त हो गई, तो वह
[ ३९७ ]
सोचने लगा—देखूँ, इसका कवि-समाज कितना आदर करता है। संपादकों की प्रशंसा का तो कोई मूल्य नहीं। उनमें बहुत कम ऐसे हैं, जो कविता के मर्मज्ञ हों। किसी नये, अपरिचित कवि की सुंदर-से-सुंदर कविता स्वीकार न करेंगे, पुराने कवियों की सड़ी-गली, खोगीर की भरती, सब कुछ शिरोधार्य कर लेंगे। कवि मर्मज्ञ होते हुए भी कृपण होते हैं। छोटे-मोटे तुकबंदी करनेवालों की तारीफ भले ही कर दें; लेकिन जिसे अपना प्रतिद्वंद्वी समझते हैं, उसके नाम से कानों पर हाथ रख लेते हैं। कुँवर साहब तो जरूर फड़क जायँगे। काश विनय यहाँ होते, तो मेरी कलम चूम लेते। कल कुँवर साहब से कहूँगा कि मेरा संग्रह प्रकाशित करा दीजिए। नवीन युग के कवियों में तो किसी को मुझसे टक्कर लेने का दावा हो नहीं सकता, और पुराने ढंग के कवियों से मेरा कोई मुकाबला नहीं। मेरे और उनके क्षेत्र अलग हैं। उनके यहाँ भाषा-लालित्य है, पिंगल की कोई भूल नहीं, खोजने पर भी कोई दोष न मिलेगा, लेकिन उपज का नाम नहीं, मौलिकता का निशान नहीं, वही चबाये हुए कौर चबाते हैं, विचारोत्कर्ष का पता नहीं होता। दस-बीस पद्य पढ़ जाओ, तो कहीं एक बात मिलती है, यहाँ तक कि उपमाएँ भी वही पुरानी-धुरानी, जो प्राचीन कवियों ने बाँध रखी हैं। मेरी भाषा इतनी मँजी हुई न हो, लेकिन भरती के लिए मैंने एक पंक्ति भी नहीं लिखी। फायदा ही क्या?

प्रातःकाल वह मुँह-हाथ धो, कविता जेब में रख, बिना जलपान किये घर से चला, तो जॉन सेवक ने पूछा—"क्या जलपान न करोगे? इतने सबेरे कहाँ जाते हो?"

प्रभु सेवक ने रुखाई से उत्तर दिया—"जरा कुँवर साहब की तरफ जाता हूँ।"

जॉन सेवक—"तो उनसे कल के प्रस्ताव के संबंध में बात-चीत करना। अगर वह सहमत हो जायँ, तो फिर किसी को विरोध करने का साहस न होगा।"

मिसेज सेवक—"वही चर्च के विषय में न?”

जॉन सेवक—"अजी नहीं, तुम्हें अपने चर्च ही की पड़ी हुई है। मैंने निश्चय किया है कि पाँड़ेपुर की बस्ती खाली करा ली जाय और वहीं कुलियों के मकान बनवाये जायँ। उससे अच्छी वहाँ कोई दूसरी जगह नहीं नजर आती।"

प्रभु सेवक—"रात को आपने उस बस्ती को लेने की चर्चा तो न की थी!"

जॉन सेवक—"नहीं, आओ जरा यह नक्शा देखो। बस्ती के बाहर किसी तरक काफी जमीन नहीं है। एक तरफ सरकारी पागलखाना है, दूसरी तरफ रायसाहब का बाग, तीसरी तरफ हमारी मिल। बस्ती के सिवा और जगह ही कहाँ हैं? और, बस्ती है ही कौन-सी बड़ी! मुश्किल से १५-२० या अधिक-से-अधिक ३० घर होंगे। उनका मुआवजा देकर जमीन लेने की क्यों न कोशिश की जाय?"

प्रभु सेवक—"अगर बस्ती को उजाड़कर मजदूरों के लिए मकान बनवाने हैं, तो रहने ही दीजिए; किसी-न-किसी तरह गुजर तो हो ही रहा है।"

जॉन सेवक—"अगर ऐसी बस्तियों की रक्षा का विचार किया गया होता, तो आज यहाँ एक बँगला भी न नजर आता। ये बँगले ऊसर में नहीं बने हैं।" [ ३९८ ]
प्रभु सेवक-"मुझे ऐसे बँगले से झोपड़ा ही पसंद है, जिसके लिए कई गरीबों के घर गिराने पड़ें। मैं कुँवर साहब से इस विषय में कुछ न कहूंगा। आप खुद कहिएगा।"


जॉन सेवक-"यह तुम्हारी अकर्मण्यता है। इसे संतोष और दया कहकर तुम्हें धोखे में न डालूंगा। तुम जीवन की सुख-सामग्रियाँ तो चाहते हो, लेकिन उन सामग्रियों के लिए जिन साधनों की जरूरत है, उनसे दूर भागते हो। हमने तुम्हें नियात्मक रूप से कभी धन और विभव से घृणा करते नहीं देखा। तुम अच्छे-से-अच्छा मकान, अच्छे-से-अच्छा भोजन, अच्छे-से-अच्छा वस्त्र चाहते हो, लेकिन बिना हाथ-पैर हिलाये ही चाहते हो कि कोई तुम्हारे मुँह में शहद और शर्बत टपका दे।"


प्रभु सेवक-"रस्म-रिवाज से विवश होकर मनुष्य को बहुधा अपनी आत्मा के विरुद्ध आचरण करना पड़ता है।"


जॉन सेवक-"जब सुख-भोग के लिए तुम रस्म-रिवाज से विवश हो जाते हो, तो सुख-भोग के साधनों के लिए क्यों उन्हीं प्रथाओं से विवश नहीं होते? तुम मन और वचन से वर्तमान सामाजिक प्रणाली की कितनी ही उपेक्षा क्यों न करो, मुझे जरा भी आपत्ति न होगी। तुम इस विषय पर व्याख्यान दो, कविताएँ लिखो, निबंध रचो, मैं खुश होकर उन्हें पद गा और तुम्हारी प्रशंसा करूँगा; लेकिन कर्मक्षेत्र में आकर उन भावों को उसी भाँति भूल जाओ, जैसे अच्छे-से-अच्छा सूट पहनकर मोटर पर सैर करते समय तुम त्याग, संतोष और आत्मनिग्रह को भूल जाते हो।"


प्रभु सेवक और कितने ही विलास-भोगियों की भाँति सिद्धांत-रूप से जनवाद के कायल थे। जिन परिस्थितियों में उनका लालन-पालन हुआ था, जिन संस्कारों से उनका मानसिक और आत्मिक विकास हुआ था, उनसे मुक्त हो जाने के लिए जिस नैतिक साहस की, उद्यंडता की जरूरत है, उससे वह रहित थे। वह विचार-क्षेत्र में त्याग के भावों को स्थान देकर प्रसन्न होते थे और उन पर गर्व करते थे। उन्हें शायद कभी सूझा ही न था कि इन भावों को व्यवहार-रूप में भी लाया जा सकता है। वह इतने संयमशील न थे कि अपनी विलासिता को उन भावों पर बलिदान कर देते। साम्यवाद उनके लिए मनोरंजन का एक विषय था, और बस। आज तक कभी किसी ने उनके आचरण की आलोचना न की थी, किसी ने उनको व्यंग्य का निशाना न बनाया था, और मित्रों पर अपने विचार-स्वातंत्र्य की धाक जमाने के लिए उनके विचार काफो थे। कुँवर भरतसिंह के संयम और विराग का उन पर इसलिए असर न होता था कि वह उन्हें उच्चतर श्रेणी का मनुष्य समझते थे। अशर्फियों की थैली मखमल की हो या खद्दर की, अधिक अंतर नहीं। पिता के मुख से यह व्यंग्य सुनकर ऐसे तिलमिला उठे, मानों चाबुक पड़ गया हो। आग चाहे फूस को न जला सके, लोहे की कील मिट्टी में चाहे न समा सके, काँच चाहे पत्थर की चोट से न टूट सके, व्यंग्य विरले ही कभी हृदय को प्रज्वलित करने, उसमें चुभने और उसे चोट पहुँचाने में असफल होता है, विशेष करके
[ ३९९ ]
जब वह उस प्राणी के मुख से निकले, जो हमारे जीवन को बना या बिगाड़ सकता है। प्रभु सेवक को मानों काली नागिन ने डस लिया, जिसके काटे को लहर भी नहीं आती, उनकी सोई हुई लज्जा जाग उठी। अपनी अधोगति का ज्ञान हुआ। कुँवर साहब के यहाँ जाने को तैयार थे, गाड़ी तैयार कराई थी; पर वहाँ न गये। आकर अपने कमरे में बैठ गये। उनकी आँखें भर आई, इस वजह से नहीं कि मैं इतने दिनों तक भ्रम में पड़ा रहा, बल्कि इस ख्याल से कि पिताजी को मेरा पालन-पोषण अखरता है-यह लताड़ पाकर मेरे लिए डूब मरने की बात होगी, अगर मैं उनका आश्रित बना रहूँ। मुझे स्वयं अपनी जीविका का प्रश्न हल करना चाहिए। इन्हें क्या मालूम नहीं था कि मैं प्रथाओं से विवश होकर ही इस विलास-वासना में पड़ा हुआ हूँ? ऐसी दशा में इनका मुझे ताना देना घोर अन्याय है। इतने दिनों तक कृत्रिम जीवन व्यतीत करके अब मेरे लिए अपना रूपांतर कर लेना असंभव है। यही क्या कम है कि मेरे मन में ये विचार पैदा हुए। इन विचारों के रहते हुए कम-से-कम मैं औरों की भाँति स्वार्थीध और धन-लोलुप तो नहीं हो सकता। लेकिन मैं व्यर्थ इतना खेद कर रहा हूँ। मुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि पापा ने वह काम कर दिया, जो सिद्धांत और विचार से न हुआ था। अब मुझे उनसे कुछ कहने-सुनने की जरूरत नहीं। उन्हें शायद मेरे जाने से दुःख भी न होगा, उन्हें खूब मालूम हो गया है कि मेरी जात से उनकी धन-तृष्णा तृप्त नहीं हो सकती। आज यहाँ से डेरा कूच है, यही निश्चय है। चलकर कुँवर साहब से कहता हूँ, मुझे भी स्वयंसेवकों में ले लीजिए। कुछ दिनों उस जीवन का आनंद भी उठाऊँ। देखू, मुझमें और भी कोई योग्यता है, या केवल पद्य-रचना ही कर सकता हूँ। अब गिरि-शृगों की सैर करूँगा, देहातों में घूमूंगा, प्राकृतिक सौंदर्य की उपासना करूँगा, नित्य नया दाना, नया पानी, नई सैर, नये दृश्य। इससे ज्यादा आनंदप्रद और कौन जीवन हो सकता है। कष्ट भी होंगे, धूप है, वर्षा है, सरदी है, भयंकर जंतु हैं ; पर कष्टों से मैं कभी भयभीत नहीं हुआ। उलझन तो मुझे गृहस्थी के झंझटों से होती है। यहाँ कितने अपमान सहने पड़ते हैं। रोटियों के लिए दूसरों की गुलामी! अपनी इच्छाओं को पराधीन बना देना ! नौकर अपने स्वामी को देखकर कैसा दबक जाता है, उसके मुख मंडल पर कितनी दीनता, कितना भय छा जाता है! न, मैं अपनी स्वतंत्रता की अब से ज्यादा इजत करना सीखूँगा।"

दोपहर को जब घर के सब प्राणी पंखों के नीचे आराम से सोये, तो प्रभु सेवक ने चुपके से निकलकर कुँवर साहब के भवन का रास्ता लिया। पहले तो जी में आया कि कपड़े उतार दूँ और केवल एक कुरता पहनकर चला जाऊँ। पर इन फटे हालों घर से कभी न निकला था। वस्त्र-परिवर्तन के लिए कदाचित् विचार-परिवर्तन से भी अधिक नैतिक बल की जरूरत होती है। उसने केवल अपनी कविताओं की कापी ले ली और चल खड़ा हुआ। उसे जरा भी खेद न था, जरा भी ग्लानि न थी। ऐसा खुश था, मानों कैद से छूटा है—"आप लोगों को अपनी दौलत मुबारक हो। पापा ने मुझे बिल
[ ४०० ]
कुल निर्लज, आत्मसम्मान-हीन, विलास-लोलुप समझ रखा है, तभी तो जरा-सी बात पर उबल पड़े। अब उन्हें मालूम हो जायगा कि मैं बिलकुल मुरदा नहीं हूँ।"

कुँवर साहब दोपहर को सोने के आदी नहीं थे। फर्श पर लेटे कुछ सोच रहे थे। प्रभु सेवक जाकर बैठ गये। कुँवर साहब ने कुछ न पूछा, कैसे आये, क्यों उदास हो? आध घंटे तक बैठे रहने के बाद भी प्रभु सेवक को उनसे अपने विषय में कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी, कोई भूमिका ही न सूझती थी-“यह महाशय आज सुम-गुम क्यों हैं? क्या मेरी सूरत से ताड़ तो नहीं गये कि कुछ स्वार्थ लेकर आया है? यों तो मुझे देखते ही खिल उठते थे, दौड़कर छाती से लगा लेते थे, आज मुखातिब ही नहीं होते। परमुखापेक्षी होने का यही दंड है। मैं भी घर से चला, तो ठीक दोपहर को, जब चिड़ियाँ तक घोंसले से नहीं निकलतीं। आना ही था, तो शाम को आता। इस जलती हुई धूप में कोई गरज का बावला हो घर से निकल सकता है। खैर, यह पहला अनुभव है।" वह निराश होकर चलने के लिए उठे कि भरतसिंह बोले-"क्यों-क्यों, जल्दी क्या है? क्या इसीलिए कि मैंने बातें नहीं की? बातों की कमी नहीं है; इतनी बातें तुमसे करनी हैं कि समझ में नहीं आता, शुरू क्योंकर करूँ! तुम्हारे विचार में विनय ने रियासत का पक्ष लेने में भूल की?"

प्रभु सेवक ने द्विविधा में पड़कर कहा—"इस पर भिन्न-भिन्न पहलुओं से विचार किया जा सकता है।"

कुँवर—"इसका आशय यह है कि बुरा किया। उसकी माता का भी यही विचार है। वह तो इतनी चिढ़ी हुई हैं कि उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहतीं। लेकिन मेरा विचार है कि उसने जिस नीति का अनुसरण किया है, उस पर उसे लजित होने का कोई कारण नहीं। कदाचित् उन दशाओं में मैं भी यही करता। सोफी से उसे प्रेम न होता, तो भी उस अवसर पर जनता ने जो विद्रोह किया, वह उसके साम्यवाद के सिद्धान्तों को हिला देने को काफी था। पर जब यह सिद्व है कि सोफिया का अनुराग उसके रोग-रोम में समाया हुआ है, तो उसका आचरण क्षम्य ही नहीं, सर्वथा स्तुत्य है। वह धर्म केवल जत्थेबन्दी है, जहाँ अपनी बिरादरी से बाहर विवाह करना वर्जित हो, क्योंकि इससे उसकी क्षति होने का भय है। धर्म और ज्ञान दोनों एक हैं, और इस दृष्टि से संसार में केवल एक धर्म है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, ये धर्म नहीं हैं, भिन्न-भिन्न स्वाथों के दल हैं, जिनसे हानि के सिवा आज तक किसी को लाभ नहीं हुआ। अगर विनय इतना भाग्यवान् हो कि सोफिया को विवाह-सूत्र में बाँध सके, तो कम-से-कम मुझे जरा भी आपत्ति न होगी।”

प्रभु सेवक—"मगर आप जानते हैं, इस विषय में रानीजी को जितना दुराग्रह है, उतना ही मामा को भी है।"

कुँवर—"इसका फल यह होगा कि दोनों का जीवन नष्ट हो जायगा। ये दोनों अमूल्य रत्न धर्म के हाथों मिट्टी में मिल जायँगे।" [ ४०१ ]प्रभु सेवक—"मैं तो खुद इन झगड़ों से इतना तंग आ गया हूँ कि मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है, घर से अलग हो जाऊँ। घर के सांप्रदायिक जल-वायु और सामाजिक बंधनों से मेरी आत्मा दुर्बल हुई जा रही है। घर से निकल जाने के सिवा अब मुझे और कुछ नहीं सूझता। मुझे व्यवसाय से पहले ही बहुत प्रेम न था, और अब, इतने दिनों के अनुभव के बाद, तो मुझे उससे घृणा हो गई है।"

कुँवर—“लेकिन व्यवसाय तो नई सभ्यता का सबसे बड़ा अंग है, तुम्हें उससे क्यों इतनी अरुचि है?"

प्रभु सेवक—"इसलिए कि यहाँ सफलता प्राप्त करने के लिए जितनी स्वार्थपरता और नर-हत्या की जरूरत है, वह मुझसे नहीं हो सकती। मुझमें इतना उत्साह ही नहीं है। मैं स्वभावतः एकांतप्रिय हूँ और जीवन-संग्राम में उससे अधिक नहीं पड़ना चाहता जितना मेरी कला के पूर्ण विकास और उसमें यथार्थता का समावेश करने के लिए काफी हो। कवि प्रायः एकान्तसेवी हुआ किये हैं, पर इससे उनकी कवित्व-कला में कोई दूषण नहीं आने पाया। सम्मव था, वे जीवन का विस्तृत और पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करके अपनी कविता को और भी मार्मिक बना सकते, लेकिन साथ ही यह शंका भी थी कि जीवन- संग्राम में प्रवृत्त होने से उनकी कवि-कल्पना शिथिल हो जाती। होमर अंधा था, सूर भी अंधा था, मिल्टन भी अंधा था, पर ये सभी साहित्य-गगन के उज्ज्वल नक्षत्र हैं; तुलसी, वाल्मीकि आदि महाकवि संसार से अलग, कुटियों में बसनेवाले प्राणी थे; पर कौन कह सकता है कि उनकी एकान्तसेवा से उनकी कवित्व-कला दूषित हो गई! नहीं कह सकता कि भविष्य में मेरे विचार क्या होंगे, पर इस समय द्रव्योपासना से बेजार हो रहा हूँ।"

कुँवर—"तुम तो इतने विरक्त कभी न थे, आखिर बात क्या है?"

प्रभु सेवक ने झेंपते हुए कहा-"अब तक जीवन के कुटिल रहस्यों को न जानता था। पर अब देख रहा हूँ कि वास्तविक दशा उससे कहीं जटिल है, जितनी मैं समझता था। व्यवसाय कुछ नहीं है, अगर नर-हत्या नहीं है। आदि से अन्त तक मनुष्यों को पशु समझना और उनसे पशुवत् व्यवहार करना इसका मूल-सिद्धान्त है। जो यह नहीं कर सकता, वह सफल व्यवसायी नहीं हो सकता। कारखाना अभी बनकर तैयार नहीं हुआ, और भूमि-विस्तार की समस्या उपस्थित हो गई। मिस्त्रियों और कारीगरों के लिए बस्ती में रहने की जगह नहीं है। मजदूरों की संख्या बढ़ेगी, तब वहाँ निर्वाह ही न हो सकेगा। इसलिए पापा की राय है कि उसी कानूनी दफा के अनुसार पाँड़ेपुर पर भी अधिकार कर लिया जाय और बाशिंदों को मुआवजा देकर अलग कर दिया जाय। राजा महेंद्रकुमार की पापा से मित्रता है ही और वर्तमान जिलाधीश मि० सेनापति रईसों से उतना ही मेल-जोल रखते हैं, जितना मि० क्लार्क उनसे दूर रहते थे। पापा का प्रस्ताव बिना किसी कठिनाई के स्वीकृत हो जायगा और मुहल्लेवाले जबरदस्ती निकाल दिये जायेंगे। मुझसे यह अत्याचार नहीं देखा जाता। मैं इसे रोक नहीं सकता हूँ कि उससे अलग रहूँ।" [ ४०२ ]कुँवर-"तुम्हारे विचार में कंपनी को नफा होगा?"

प्रभु सेवक-"मैं समझता हूँ, पहले ही साल २५) सैकड़े नफा होगा।"

कुँवर-"तो क्या तुमने कारखाने से अलग होने का निश्चय कर लिया?"

प्रभु सेवक-"पक्का निश्चय कर लिया।”

कुँवर -"तुम्हारे पापा काम सँभाल सकेंगे?"

प्रभु सेवक-“पापा ऐसे आधे दर्जन कारखानों को सँभाल सकते हैं। उनमें अद्-भुत अध्यवसाय है। जमीन का प्रस्ताव बहुत जल्द कार्यकारिणी समिति के सामने आयेगा। मेरी आपसे यह विनीत प्रार्थना है कि आप उसे स्वीकृत न होने दें।"

कुँवर-(मुस्किराकर) "बुड्ढा आदमी इतनी आसानी से नई शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता। बूढ़ा तोता पढ़ना नहीं सीखता। मुझे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं नजर आती कि बस्तीवालों को मुआवजा देकर जमीन ले ली जाय। हाँ, मुआवजा उचित होना चाहिए। जब तुम कारखाने से अलग ही हो रहे हो, तो तुम्हें इन झगड़ों से क्या मतलब? ये तो दुनिया के धंधे हैं, होते आये हैं और होते जायँगे।"

प्रभु सेवक-"तो आप इस प्रस्ताव का विरोध न करेंगे?"

कुँवर-"मैं किसी ऐसे प्रस्ताव का विरोध न करूँगा, जिससे कारखाने को हानि हो। कारखाने से मेरा स्वार्थ-संबंध है, मैं उसकी उन्नति में बाधक नहीं हो सकता। हाँ, तुम्हारा वहाँ से निकल आना मेरी समिति के लिए शुभ लक्षण है। तुम्हें मालूम है, समिति के अध्यक्ष डॉक्टर गंगुली हैं; पर कुछ वृद्धावस्था और कुछ काउंसिल के कामों में व्यस्त रहने के कारण वह इस भार से मुक्त होना चाहते हैं। मेरो हार्दिक इच्छा है कि तुम इस भार को ग्रहण करो। समिति इस समय मँझधार में है, विनय के आचरण ने उसे 'एक भयंकर दशा में डाल दिया है। तुम्हें ईश्वर ने विद्या, बुद्धि, उत्साह, सब कुछ दिया है। तुम चाहो, तो समिति को उबार सकते हो, और मुझे विश्वास है, तुम मुझे निराश न करोगे।"

प्रभु सेवक की आँखें सजल हो गई। वह अपने को इस सम्मान के योग्य न समझते थे। बोले-“मैं इतना बड़ा उत्तरदायित्व स्वीकार करने के योग्य नहीं हूँ। मुझे भय है "कि मुझ-जैसा अनुभव-हीन, आलसी प्रकृति का मनुष्य समिति की उन्नति नहीं कर सकता। यह आपकी कृपा है कि मुझे इस योग्य समझते हैं। मेरे लिए सफ हो काफी है।"

कुँवर साहब ने उत्साह बढ़ाते हुए कहा-"तुम-जैसे आदमियों को सफ में रखू,-तो नायकों को कहाँ से लाऊँ? मुझे विश्वास है कि कुछ दिनों डॉ० गंगुली के साथ रह-कर तुम इस काम में निपुण हो जाओगे। सजन लोग सदैव आनो क्षमता की उपेक्षा करते हैं, पर मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुम में अद्भुत विद्यु त-शक्ति है; उससे कहीं अधिक,जितनी तुम समझते हो। अरबी घोड़ा हल में नहीं चल सकता, उसके लिए मैदान चाहिए। तुम्हारी स्वतन्त्र आत्मा कारखाने में संकुचित हो रही थी, संसार के वीस्तीर्ण क्षेत्र में निकलकर उसके पर लग जायेंगे । मैंने विनय को इस पद के लिए चुन रखा था,
[ ४०३ ]
लेकिन उसकी वर्तमान दशा देखकर मुझे अब उस पर विश्वास नहीं रहा। मैं चाहता हूँ, इस संस्था को ऐसी सुव्यवस्थित दशा में छोड़ जाऊँ कि यह निर्विघ्न अपना काम करती रहे। ऐसा न हुआ, तो मैं शांति से प्राण भी न त्याग सकूँगा। तुम्हारे ऊपर मुझे भरोसा है, क्योंकि तुम निस्स्वार्थ हो। प्रभु, मैंने अपने जीवन का बहुत दुरुपयोग किया है। अब पीछे फिरकर उस पर नजर डालता हूँ, तो उसका कोई भाग ऐसा नहीं दिखाई देता, जिस पर गर्व कर सकूँ। एक मरुस्थल है, जहाँ हरियाली का निशान नहीं। इस संस्था पर मेरे जीवन-पर्यन्त के दुष्कृत्यों का बोझ लदा हुआ है। यही मेरे प्रायश्चित्त का साधन और मेरे मोक्ष का मार्ग है। मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा यही है कि मेरा सेवक-दल संसार में कुछ कर दिखाये, उसमें सेवा का अनुराग हो, बलिदान का प्रेम हो, जातीय गौरव का अभिमान हो। जब मैं ऐसे प्राणियों को देश के लिए प्राण-समर्पण करते हुए देखता हूँ, जिनके पास प्राण के सिवा और कुछ नहीं है, तो मुझे अपने ऊपर रोना आता है कि मैंने सब कुछ रखते हुए भी कुछ न किया। मेरे लिए इससे घातक और कोई चोट नहीं है कि यह संस्था विफल-मनोरथ हो। मैं इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हूँ। मैंने दस लाख रुपये इस खाते में जमा कर दिये हैं और इच्छा है कि इस पर प्रतिवर्ष १ लाख और बढ़ाता जाऊँ। इतने विशाल देश के लिए १०० सेवक बहुत कम हैं। कम-से-कम ५०० आदमी होने चाहिए। अगर दस साल भी और जीवित रहा, तो शायद मेरी यह मनो-कामना पूरी हो जाय। इंद्रदत्त में और सब गुण तो हैं, पर वह उदंड स्वभाव का आदमी है। इस कारण मेरा मन उस पर नहीं जमता। मैं तुमसे साग्रह......"

डॉक्टर गंगुली आ पहुँचे, और प्रभु सेवक को देखकर बोले-"अच्छा, तुम यहाँ कुँबर साहब को मंत्र दे रहा है, तुम्हारा पाना महेंद्रकुमार को पट्टी पढ़ा रहा है। पर मैंने साफ-साफ कह दिया कि ऐसा बात नहीं हो सकता। तुम्हारा मील है, उसका हानि-लाभ तुमको और तुम्हारे हिस्सेदारों को होगा, गरीबों को क्यों उनके घर से निकालता है; पर मेरी कोई नहीं सुनता। हम कड़वा बात कहता है न, वह काहे को अच्छा लगेगा। मैं काउंसिल में इस पर प्रश्न करूँगा। यह कोई बात नहीं है कि आप लोग अपने स्वार्थ के लिए दूसरों पर अन्याय करें। शहर का रईस लोग हमसे नाराज हो जायगा, हमको परवा नहीं है! हम तो वहाँ वही करेगा, जो हमारा आत्मा कहेगा। तुमको दूसरे किसिम का आदमी चाहिए, तो बाबा, हम से इस्तीफा ले लो। पर हम पाँड़ेपुर को उजड़ने न देगा।"

कुँवर—"यह बेचारे तो खुद उस प्रस्ताव का विरोध करते हैं। आज इसी बात पर पिता और पुत्र में मनमुटाव भी हो गया है। यह घर से चले आये हैं ओर कारखाने से कोई संपर्क नहीं रखना चाहते।”

गंगुली—"अच्छा, ऐसा बात है। बहुत अच्छा हुआ। ऐसा विचारवान् लोग मील का काम नहीं कर सकता। ऐसा लोग मील में जायगा, तो हम लोग कहाँ से आदमी
[ ४०४ ]
लायेगा? प्रभु, हम बूढ़ा हो गया, कल मर जायगा। तुम हमारा काम क्यों नहीं सँभा-लता? हमारा सेवक-दल तुम्हारा रेस्पेक्ट करता है। तुम हमें इस भार से मुक्त कर सकता है। बुड्ढा आदमी और सब कुछ कर सकता है, उत्साह तो उसके बस का बात नहीं! हम तुमको अब न छोड़ेगा। काउंसिल में इतना काम है कि हमको इस काम के लिए अवकाश ही नहीं मिलता। हम काउंसिल में न गया होता, तो उदयपुर में यह सब कुछ नहीं होने पाता। हम जाकर सबको शांत कर देता। तुम इतना विद्या पढ़कर उसको धन कमाने में लगायेगा, छि:-छिः!”

प्रभु सेवक- "मैं तो सेवकों में भरती होने के लिए घर से आया ही हूँ, पर मैं उसका नायक होने के योग्य नहीं हूँ। वह पद आप ही को शोभा देता है। मुझे सिपा-हियों ही में रहने दीजिए। मैं इसी को अपने लिए गौरव की बात समझूँगा।"

गंगुली-(हँसकर) "हः हः, काम तो अयोग्य ही लोग करता है। योग्य आदमी काम नहीं करता, वह बस बातें करता है। योग्य आदमी का आशय है बातूनी आदमी, खाली बात, बात, जो जितना ही बात करता है, उतना ही योग्य होता है। वह काम का ढंग बता देगा ; कहाँ कौन भूल हो गया, यह बता देगा; पर काम नहीं कर सकता। हम ऐसा योग्य आदमी नहीं चाहता। हमारे यहाँ बातें करने का काम नहीं है। हम तो ऐसा आदमी चाहता है, जो मोटा खाय, मोटा पहने, गली-गली, नगर-नगर दौड़े, गरीबों का उपकार करे, कठिनाइयों में उनका मदद करे। तो कब से आयेगा?"

प्रभु सेवक-"मैं तो अभी से हाजिर हूँ।"

गंगुली-(मुस्किराकर) "तो पहला लड़ाई तुमको अपने पापा से लड़ना पड़ेगा।"

प्रभु सेवक- "मैं समझता हूँ, पापा स्वयं इस प्रस्ताव को न उठायेंगे।" गंगुली-"नहीं-नहीं, वह कभी अपना बात नहीं छोड़ेगा। हमको उससे युद्ध करना पड़ेगा, तुमको उससे लड़ना पड़ेगा। हमारी संस्था न्याय को सर्वोपरि मानती है, न्याय हमको माता-पिता से, धन-दौलत से, नाम और जस से प्यारा है। हम और सब कुछ छोड़ देगा, न्याय को न छोड़ेगा, यही हमारा व्रत है। तुमको खूब सोच-विचारकर तब यहाँ आना होगा।"

प्रभु सेवक-"मैंने खूब सोच-विचार लिया है।"

गंगुली-“नहीं-नहीं, जल्दी नहीं है, खूब सोच-विचार लो, यह तो अच्छा नहीं होगा कि एक बार आकर तुम फिर भाग जाय।"

प्रभु सेवक—"अब मृत्यु ही मुझे इस संस्था से अलग कर सकती है।"

गंगुली—"मि० जॉन सेवक तुमसे कहेगा, हम न्याय-अन्याय के झगड़े में नहीं पड़ता, तुम हमारा बेटा है, हमारा आज्ञा-पालन करना तुम्हारा धर्म है, तो तुम क्या जवाब देगा? (हँसकर) मेरा बाप ऐसा कहता, तो मैं उससे कभी न कहता कि हम तुम्हारा बात न मानेगा। वह हमसे बोला, तुम बैरिस्टर हो जाय, हम इँगलैंड चला<ब्र> [ ४०५ ]
गया। वहाँ से बैरिस्टर होकर आ गया। कई साल तक कचहरी जाकर पेपर पढ़ा करता था। जब फादर का डेथ हो गया, तो डाक्टरी पढ़ने लगा। पिता के सामने हमको यह कहने का हिम्मत नहीं हुआ कि हम कानून नहीं पड़ेगा।"

प्रभु सेवक-"पिता का सम्मान करना दूसरी बात है, सिद्धांत का पालन करना दूसरी बात। अगर आपके पिता कहते कि जाकर किसी के घर में आग लगा दो, तो आर आग लगा देते?"

गंगुली-"नहीं नहीं, कभी नहीं, हम कभी आग न लगाता, चाहे पिताजी हमी को क्यों न जला देता। लेकिन पिता ऐसी आज्ञा दे भी तो नहीं सकता।"

सहसा रानी जाह्नवी ने पदार्पण किया, शोक और क्रोध की मूर्ति, भौंएँ झुकी हुई, माथा सिकुड़ा हुआ, मानों स्नान करके पूजा करने जाते समय कुत्ते ने छू लिया हो। गंगुली को देखकर बोली-"आपकी तबियत काउंसिल से नहीं थकती, मैं तो जिंदगी से थक गई। जो कुछ चाहती हूँ, वह नहीं होता; जो नहीं चाहती, वही होता है। डॉक्टर साहब, सब कुछ सहा जाता है, बेटे का कुत्सित व्यवहार नहीं सहा जाता, विशेषतः ऐसे बेटे का, जिसके बनाने के लिए कोई बात उठा न रखी गई हो। दुष्ट जसवंतनगर के विद्रोह में मर गया होता, तो मुझे इतना दुःख न होता।"

कुँवर साहब और ज्यादा न सुन सके। उठकर बाहर चले गये। रानी ने उसो धुन में कहा-'यह मेरा दुःख क्या समझेंगे! इनका सारा जीवन भोग-विलास में बीता है। आत्मसेवा के सामने इन्होंने आदर्शों की चिंता नहीं की। अन्य रईसों की भाँति सुख-भोग में लिप्त रहे। मैंने तो विनय के लिए कठिन तप किया है, उसे साथ लेकर महीनों पहाड़ों में पैदल चली हूँ, केवल इसीलिए कि छुटपने से ही उसे कठिनाइयों का आदी बनाऊँ। उसके एक-एक शब्द, एक-एक काम को ध्यान से देखती रही हूँ कि उसमें बुरे संस्कार न आ जायँ। अगर वह कभी नौकर पर बिगड़ा है, तो तुरंत उसे समझाया है; कभी सत्य से मुँह मोड़ते देखा, तो तुरंत तिरस्कार किया। यह मेरी व्यथा क्या जानेंगे?”

यह कहते-कहते रानी की निगाह प्रभु सेवक पर पड़ गई, जो कोने में खड़ा किताबें उलट-पलट रहा था। उनकी जबान बंद हो गई। आगे कुछ न कह सकी। सोफिया के प्रति जो कठोर वचन मन में थे, वे मन ही में रह गये। केवल गंगुली से इतना बोली-“जाते समय मुझसे मिल लीजिएगा" और चली गई।