रंगभूमि/३५

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सवेरा हो गया था। थोड़ी ही दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली—"बेटा, गरीब हूँ। बन पड़े, तो कुछ दे दो। धरम होगा।"

नायकराम—"सबेरे राम-नाम नहीं लेती, भीख माँगने चल खड़ी हुई। तुझे तो जैसे रात को नींद नहीं आई। माँगने को तो दिन-भर है।"

बुढ़िया—"बेटा, दुखिया हूँ।"

नायकराम—'यहाँ कौन सुखिया है। रात-भर भूखों मरे। मासूक की घुड़कियाँ खाई। पैर तो सीधे पड़ते नहीं, तुम्हें कहाँ से पैसा दें?"

बुढ़िया—"बेटा, धूप में मुझसे चला नहीं जाता, सिर में चक्कर आ जाता है। नई-नई विपत है, भैया, भगवान उस अधम पापी विनयसिंह का बुरा करे, उसी के कारण बुढ़ापे में यह दिन देखना पड़ा; नहीं तो बेटा दूकान करता था, हम घर में रानी बनी बैठी रहती थीं, नौकर-चाकर थे, कौन-सा सुख नहीं था। तुम परदेसी हो, न जानते होगे, यहाँ दंगा हो गया था, मेरा लड़का दूकान से हिला तक नहीं, पर उस निगोड़े विनयसिंह ने सहादत दे दी कि यह भी दंगे में मिला हुआ था। पुलिस हमारे ऊपर बहुत दिनों से दाँत लगाये थी, कोई दाँव न पाती थी। यह सहादत पाते ही दौड़ आ गई, लड़का पकड़ लिया गया और तीन साल की सजा हो गई। एक हजार जरीबाना हुआ। घर की बीस हजार की गृहस्थी तहस-नहस हो गई। घर में बहू है, छोटे बच्चे है, इसी तरह माँग जाँचकर उनको पालती- पोसती हूँ। न जाने उस कलमुँहे ने कब का बैर निकाला!”

विनय ने जेब से एक रुपया निकालकर बुढ़िया को दिया और आकाश की ओर देखकर ठंडी साँस ली। ऐसी मानसिक वेदना उन्हें कभी न हुई थी।

बुढ़िया ने रुपया देखा, तो चौंक पड़ी। समझी, शायद भूल से दिया है। बोली-"बेटा, यह तो रुपया है!"

विनय ने अवरुद्ध कंठ से कहा-"हाँ, ले जाओ, मैंने भूल से नहीं दिया है।"

वृद्धा आशीर्वाद देती हुई चली गई। दोनों आदमी और आगे बढ़े तो राह में एक कुऑ मिला। उस पर पीपल का पेड़ था। एक छोटा-सा मंदिर भी बना हुआ था। नायकराम ने सोचा, यहीं हाथ-मुँह धो लें। दोनों आदमी कुएँ पर गये, तो देखा, एक विप्र महाराज पीपल के नीचे बैठे पाठ कर रहे हैं। जब वह पाठ कर चुके, तो विनय ने पूछा-"आपको मालूम है, सरदार नीलकंठ आजकल कहाँ हैं?"

पण्डितजी ने कर्कश कंठ से कहा-"हम नहीं जानते।"

विनय-"पुलिस के मंत्री तो होंगे?" [ ४०७ ]
पण्डित-"कह दिया, मैं नहीं जानता।"

विनय-"मि० क्लार्क तो दौरे पर होंगे?"

पण्डित-"मैं कुछ नहीं जानता।"

नायकराम-"पूजा-पाठ में देस-दुनिया की सुध ही नहीं!"

पण्डित-"हाँ, जब तक मनोकामना न पूरी हो जाय, तब तक मुझे किसी से कुछ सरोकार नहीं। सवेरे-सवेरे तुमने म्लेच्छों का नाम सुना दिया, न जाने दिन कैसे कटेगा।"

नायकराम-“वह कौन-सी मनोकामना है?"

पण्डित-"अपने अपमान का बदला।"

नायकराम—"किससे?"

पण्डित—"उसका नाम न लूंगा। किसी बड़े रईस का लड़का है। काशी से दोनों की सहायता करने आया था। सैकड़ों घर उजाड़कर न जाने कहाँ चल दिया। उसी के निमित्त यह अनुष्ठान कर रहा हूँ। यहाँ आधा नगर मेरा यजमान था, सेठ-साहूकार मेरा आदर करते थे। विद्यार्थियों को पढ़ाया करता था। बुराई यह थी कि नाजिम को सलाम करने न जाता था। अमलों की कोई बुराई देखता, तो मुँह पर खोलकर कह देता। इसी से सब कर्मचारी मुझसे जलते थे। पिछले दिनों जब यहाँ दंगा हुआ, तो सबों ने उसी बनारस के गुंडे से मुझ पर राजद्रोह का अपराध लगवा दिया। सजा हो गई, बेंत पड़ गये, जरीबाना हो गया, मर्यादा मिट्टी में मिल गई। अब नगर में कोई द्वार पर खड़ा नहीं होने देता। निराश होकर देवी की शरण आया हूँ। पुरश्चरण का पाठ कर रहा हूँ। जिस दिन सुनूंगा क उस हत्यारे पर देवी ने कोप किया, उसी दिन मेरी तपस्या पूरी हो जायगी। द्विज हूँ, लड़ना-भिड़ना नहीं जानता, मेरे पास इसके सिवा और कौन-सा हथियार है?"

विनय किसी शराबखाने से निकलते हुए पकड़े जाते, तो भी इतने शर्मिदा न होते। उन्हें अब इस ब्राह्मण की सूरत याद आई, याद आया कि मैंने ही पुलिस की प्रेरणा से इसे पकड़ा दिया था। जेब से पाँच रुपये निकाले और पण्डितजी से बोले-“यह लीजिए; मेरी ओर से भी उस नर-पिशाच के प्रति मारण-मंत्र का जाप कर दीजिएगा। उसने मेरा भी सर्वनाश किया है। मैं भी उसके खून का प्यासा हो रहा हूँ।"

पण्डित-"महाराज, आपका भला होगा। शत्रु की देह में कीड़े न पड़ जायँ, तो कहिएगा कि कोई कहता था। कुत्तों की मौत मरेगा। यहाँ सारा नगर उसका दुश्मन है। अब तक इसलिए उसकी जान बची कि पुलिस उसे घेरे रहती थी। मगर कब तक? जिस दिन अकेला घर से निकला, उसी दिन देवी का उस पर कोप गिरा। है वह इसी राज्य में, कहीं बाहर नहीं गया है, और न अब बचकर जा ही सकता है। काल उसके सिर पर खेल रहा है। इतने दीनों की हाय क्या निष्फल हो जायगी?" [ ४०८ ]
जब यहाँ से और आगे चले, तो विनय ने कहा-"पण्डाजी, अब जल्दी से एक मोटर ठीक कर लो। मुझे भय लग रहा है कि कोई मुझे पहचान न ले। अपने प्राणों का इतना भय मुझे कभी न हुआ था। अगर ऐसे ही दो-एक दृश्य और सामने आये, तो शायद मैं आत्मघात कर लूँ। आह! मेरा कितना पतन हुआ है। और अब तक मैं यही समझ रहा था कि मुझसे कोई अनौचित्य नहीं हुआ। मैंने सेवा का व्रत लिया था, घर से परोपकार करने चला था। खूब परोपकार किया! शायद ये लोम मुझे जीवन-पयेत न भूलेंगे।"

नायकराम-"भैया, भूल-चूक आदमी ही से होती है, अब उसका पछतावा न करो।"

विनय-"नायकराम, यह भूल-चूक नहीं है, ईश्वरीय विधान है; ऐसा ज्ञात होता है कि ईश्वर सद्बतधारियों की कठिन परीक्षा लिया करते है। सेवक का पद इन परीक्षाओं में सफल हुए बिना नहीं मिलता। मैं परीक्षा में गिर गया; बुरी तरह गिर गया।"

नायकराम का विचार था कि जरा जेल के दारोगा साहब का कुशल-समाचार पूछते चलें; लेकिन मौका न देखा, तो तुरंत मोटर-सर्विस के दफ्तर में गये। वहाँ मालूम हुआ कि दरबार ने सब मोटरों को एक सप्ताह के लिए रोक लिया है।

मिस्टर क्लार्क के कई मित्र बाहर से शिकार खेलने आये हुए थे। अब क्या हो? नायकराम को घोड़े पर चढ़ना न आता था और विनय को यह उचित न मालूम होता था कि आप तो सवार होकर चलें और वह पाँव-पाँव।

नायकराम-“भैया, तुम सवार हो जाओ, मेरी कौन, अभी अवसर पड़ जाय, तो दस कोस जा सकता हूँ।"

विनय-"तो मै ही ऐसा कौन मरा जाता हूँ। अब रात की थकावट दूर हो गई।"

दोनों आदमियों ने कुछ जलपान किया और उदयपुर चले। आज विनय ने जितनी बात की, उतनी शायद और कभी न की थी, और वह भी नायकराम-जैसे लट्ठ गॅवार से। सोफी की तीव्र आलोचना अब उन्हें सर्वथा न्याय-संगत जान पड़ती थी। बोले-“पण्डाजी, यह समझ लो कि अगर दरबार ने उन सब कैदियों को छोड़ न दिया, जो मेरी शहादत से फँसे हैं, तो मैं अपना मुँह किसी को न दिखाऊँगा। मेरे लिए यही एक आशा रह गई है। तुम घर जाकर माताजी से कह देना कि वह कितना दुखी और अपनी भूल पर कितना लजित था।"

नायकराम-"भैया, तुम घर न जाओगे, तो मैं भी न जाऊँगा। अब तो जहाँ तुम हो, वहीं मैं भी हूँ। जो कुछ बीतेगी, दोनों ही के सिर बीतेगी।"

विनय-"बस, तुम्हारी यही बात बुरी मालूम होती है। तुम्हारा और मेरा कौन-सा साथ है। मैं पातकी हूँ। मुझे अपने पातकों का प्रायश्चित्त करना है। तुम्हारे माथे पर को कलंक नहीं है। तुम अपना जीवन क्यों नष्ट करोगे? मैंने अब तक सोफिया को
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न पहचाना था। आज मालूम हुआ कि उसका हृदय कितना विशाल है। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। हाँ, शिकायत केवल इस बात की है कि उसने मुझे अपना न समझा। वह अगर समझती कि यह मेरे हैं, तो मेरी एक-एक बात क्यों पकड़ती, जरा-जरा-सी बातों पर क्यों गुप्तचरों की भाँति तीव्र दृष्टि रखती! वह यह जानती है कि मैं ठुकरा दूंगी, तो यह जान पर खेल जायँगे। यह जानकर भी उसने मेरे साथ इतनी निर्दयता क्यों की? वह यह क्यों भूल गई कि मनुष्य से भूलें होती ही हैं, संभव है, अपना समझकर ही उसने मुझे यह कठोर दंड दिया हो। दूसरों की बुराइयों की हमें परवा नहीं होती, अपनों ही को बुरी राह चलते देखकर दंड दिया जाता है। मगर अपनों को दंड देते समय इसका तो ध्यान रखना चाहिए कि आत्मीयता का सूत्र न टूटने पाये! यह सोचकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि उसका दिल मुझसे सदैव के लिए फिर गया।"

नायकराम-"ईसाइन है न! किसी अँगरेज को गाँठेगी।"

विनय-"तुम बिलकुल बेहूदे हो, बात करने की तमीज नहीं। मैं कहता हूँ, वह अब उम्र-भर ब्रह्मचारिणी रहेगी। तुम उसे क्या जानो, बात समझो न बूझो, चट से कह उठे, किसी अँगरेज को गाँठेगी। मैं उसे कुछ-कुछ जानता हूँ। मेरे लिए उसने क्या-क्या नहीं किया, क्या-क्या नहीं सहा। जब उसका प्रेम याद आता है, तो कलेजे में ऐसी पीड़ा होती है कि कहीं पत्थरों से सिर टकराकर प्राण दे दूँ। अब वह अजेय है, उसने अपने प्रेम का द्वार बंद कर लिया। मैंने उस जन्म में न जाने कौन-सी तपस्या की थी, जिसका सुफल इतने दिनों भोगा। अब कोई देवता बनकर भी उसके सामने आये, तो वह उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखेगी। जन्म से ईसाइन भले ही हो, पर संस्कारों से, कर्मों से वह आर्य-महिला है। मैंने उसे कहीं का न रखा। आप भी डूबा, उसे भी ले डूबा। अब तुम देखना कि रियासत को वह कैसा नाकों चने चबवाती है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति है कि आन-की-आन में रियासत का निशान मिटा सकती है।"

नायकराम-"हाँ, है तो ऐसी ही आफत की परकाला।"

विनय-"फिर वही मूर्खता की बात! मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि मेरे सामने उसका नाम इजत से लिया करो। मैं उसके विषय में किसी के मुख से एक भी अनुचित शब्द नहीं सुन सकता। वह अगर मुझे भालों से छेदे, तो भी उसके प्रति मेरे मन में उपेक्षा का भाव न आयेगा। प्रेम में प्रतिकार नहीं होता। प्रेम अनंत क्षमा, अनंत उदारता, अनंत धैर्य से परिपूर्ण होता है।"

यों बातें करते हुए दोनों ने दोपहर तक आधी मंजिल काटी। दोपहर को आराम करने लगे, तो ऐसे सोये कि शाम हो गई। रात को वहीं ठहरना पड़ा। सराय मौजूद थी, विशेष कष्ट न हुआ। हाँ, नायकराम को आज जिंदगी में पहली बार भंग न मिली और वह बहुत दुखी रहे। एक तोले भंग के लिए एक से दस रुपये तक देने को तैयार थे, पर आज भाग्य में उपास ही लिखा था। चारों ओर से हारकर वह सिर थाम कुएँ की जगत पर आ बैठे, मानों किसी घर के आदमी की दाह-क्रिया करके आये हों। [ ४१० ]विनय ने कहा—"ऐसा व्यसन क्यों करते हो कि एक दिन भी उसके बिना न रहद जाय? छोड़ो इसे, भले आदमी, व्यर्थ में प्राण दिये देते हो।"

नायकराम—'भैया, इस जनम में तो छूटती नहीं, आगे की दैव जाने। यहाँ तो मरते समय भी एक गोला सिरहाने रख लेंगे, वसीयत कर जायँगे कि एक सेर भंग हमारी चिता में डाल देना। कोई पानी देनेवाला तो है नहीं, लेकिन अगर कभी भगवान ने वह दिन दिखाया, तो लड़कों से कह जाऊँगा कि पिंड के साथ भंग का पिंडा भी जरूर देना। इसका मजा वही जानता है, जो इसका सेवन करता है।"

नायकराम को आज भोजने अच्छा न लगा, नींद न आई, देह टूटती रही। गुस्से में सरायवाले को खूब गालियाँ दी। मारने दौड़े। बनिये को डाँटा कि साफ शकर क्यों न दी। हलवाई से उलझ पड़े कि मिठाइयाँ क्यों खराब दी। देख तो, तेरी क्या गत बनाता हूँ। चलकर सीधे सरदार साहब से कहता हूँ। बच्चा! दूकान न लुटवा दूंँ, तो कहना। जानते हो, मेरा नाम नायकराम है। यहाँ तेल की गंध से घिन है। हलवाई पैरों पड़ने लगा; पर उन्होंने एक न सुनी। यहाँ तक कि धमकाकर उससे २५) वसूल किये! किंतु चलते समय विनय ने रुपये वापस करा दिये। हाँ, हलवाई को ताकीद कर दी कि ऐसी खराब मिठाइयाँ न बनाया करे और तेल की चीज के घी के दाम न लिया करे।

दूसरे दिन दोनों आदमी दस बजते-बजते उदयपुर पहुँच गये। पहला आदमी जो उन्हें दिखाई दिया, वह स्वयं सरदार साहब थे। वह टमटम पर बैठे हुए दरबार से आ रहे थे। विनय को देखते ही घोड़ा रोक दिया और पूछा—"आप कहाँ?"

विनय ने कहा-“यहीं तो आ रहा था।"

सरदार—"कोई मोटर न मिला? हाँ, न मिला होगा। तो टेलीफोन क्यों न कर दिया? यहाँ से सवारी भेज दी जाती। व्यर्थ इतना कष्ट उठाया।"

विनय—"मुझे पैदल चलने का अभ्यास है, विशेष कष्ट नहीं हुआ। मैं आज आप से मिलना चाहता हूँ, और एकांत में। आप कब मिल सकेंगे?'

सरदार—"आपके लिए समय निश्चित करने की जरूरत नहीं। जब जी चाहे, चले आइएगा, बल्कि वहीं ठहरिएगा भी।"

विनय—"अच्छी बात है।"

सरदार साहब ने घोड़े को चाबुक लगाया और चल दिये। यह न हो सका कि विनय को भी बिठा लेते, क्योंकि उनके साथ नायकराम को भी बैठाना पड़ता। विनय-सिंह ने एक ताँगा किया और थोड़ी देर में सरदार साहब के मकान पर जा पहुँचे।

सरदार साहब ने पूछा— "इधर कई दिनों से आपका कोई समाचार नहीं मिला। आपके साथ के और लोग कहाँ हैं। कुछ मिसेज क्लार्क का पता चला?"

विनय—“साथ के आदमी तो पीछे हैं; लेकिन मिसेज क्लार्क का कहीं पता न चला, सारा परिश्रम विफल हो गया। वीरपालसिंह की तो मैंने टोह लगा ली, उसका घर भी देख आया। पर मिसेज क्लार्क की खोज न मिली।" [ ४११ ]
सरदार साहब ने विस्मित होकर कहा—"यह आप क्या कह रहे हैं? मुझे जो सूचना मिली है, वह तो यह कहती है कि आपसे मिसेज क्लार्क की मुलाकात हुई और अब मुझे आपसे होशियार रहना चाहिए। देखिए, मैं वह खत आपको दिखाता हूँ।"

यह कहकर सरदार साहब मेज के पास गये, एक बादामी मोटे कागज पर लिखा हुआ खत उठा लाये और विनयसिंह के हाथ में रख दिया।

जीवन में यह पहला अवसर था कि विनय ने असत्य का आश्रय लिया था। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। बात क्योंकर निबाहें, यह समझ में न आया। नायकराम भी फर्स पर बैठे थे। समझ गये कि यह अजमंजस में पड़े हुए हैं। झूठ बोलने और बातें बनाने में अभ्यस्त थे। बोले-"कुँवर साहब, जरा मुझे दीजिए, किसका खत है?"

विनय—"इंद्रदत्त का।"

नायकराम—"ओहो! उस पगले का खत है! वही लौंडा न, जो सेवा समिति में आकर गाया करता था? उसके माँ-बाप ने घर से निकाल दिया था। सरकार, पगला है। ऐसी ही ऊटपटाँग बातें किया करता है।"

सरदार—"नहीं, किसी पगले लौंडे की लेखन-शैली ऐसी नहीं हो सकती। बड़ा चतुर आदमी है। इसमें कोई संदेह नहीं। उसके पत्र इधर कई दिनों से बराबर मेरे पास आ रहे हैं। कभी मुझे धमकाता है, कभी नीति के उपदेश देता है। किंतु जो कुछ कहता है, शिष्टाचार के साथ। एक भी अशिष्ट अथवा अनर्गल शब्द नहीं होता। अगर यह वही इंद्रदत्त है, जिसे आप जानते हैं, तो और भी आश्चर्य है। संभव है, उसके नाम से कोई दूसरा ही आदमी पत्र लिखता हो। यह कोई साधारण शिक्षा पाया हुआ आदमी नहीं मालूम होता।"

विनयसिंह तो ऐसे सिटपिटा गये, जैसे कोई सेवक अपने स्वामी का संदूक खोलता हुआ पकड़ा जाय। मन में झुंझला रहे थे कि मैंने क्यों मिथ्या भाषण किया? मुझे छिपाने की जरूरत ही क्या थी। लेकिन इंद्रदत्त का इस पत्र से क्या उद्देश्य है? क्या मुझे बदनाम करना चाहता है?

नायकराम—"कोई दूसरा ही आदमी होगा। उसका मतलब यही है कि यहाँ के हाकिमों को कुँवर साहब से भड़का दे। क्यों भैया, समिति में कोई विद्वान आदमी था?"

विनय—"सभी विद्वान् थे, उनमें मूर्ख कौन है? इंद्रदत्त भी उच्च कोटि की शिक्षा पाये हुए है। पर मुझे न मालूम था कि वह मुझसे इतना द्वेष रखता है।"

यह कहकर विनय ने सरदार साहब को लजित नेत्रों से देखा। असस्य का रूप प्रतिक्षण भयंकर तथा मिथ्यांधकार और भी सघन होता जाता था।

तब वह सकुचाते हुए बोले—“सरदार साहब, क्षमा कीजिएगा, मैं आपसे झूठ बोल रहा था। इस पत्र में जो कुछ लिखा है, वह अक्षरशः सत्य है। निस्संदेह मेरी मुलाकात मिसेज क्लार्क से हुई। मैं इस घटना को आपसे गुप्त रखना चाहता था, क्योंकि
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मैंने उन्हें इसका वचन दे दिया था। वह वहाँ बहुत आराम से हैं, यहाँ तक कि मेरे बहुत आग्रह करने पर भी मेरे साथ न आई।"

सरदार साहब ने बेपरवाही से कहा-"राजनीति में वचन का बहुत महत्त्व नहीं है। अब मुझे आपसे चौकन्ना रहना पड़ेगा। अगर इस पत्र ने मुझे सारी बातों का परिचय न दे दिया होता, तो आपने तो मुझे मुगालता देने में कोई बात उठा न रखी थी। आप जानते हैं, हमें आजकल इस विषय में गवर्नमेंट से कितनी धमकियाँ मिल रही हैं। यों कहिए कि मिसेज क्लार्क के सकुशल लौट आने पर ही हमारी कारगुजारी निर्भर है। खैर, यह क्या बात है? मिसेज क्लार्क आई क्यों नहीं? क्या बदमाशों ने उन्हें आने न दिया?"

विनय-"वीरपालसिंह तो बड़ी खुशी से उन्हें भेजना चाहता था। यही एक साधन है, जिससे वह अपनी प्राण-रक्षा कर सकता है। लेकिन वह खुद ही आने पर तैयार न हुई।”

सरदार-"मिस्टर क्लार्क से नाराज तो नहीं हैं?"

विनय-"हो सकता है। जिस दिन विद्रोह हुआ था, मिस्टर क्लार्क नशे में अचेत पड़े थे, शायद इसी कारण उनसे चिढ़ गई हों। ठीक-ठीक कुछ नहीं कह सकता। हाँ, उनसे भेंट होने से यह बात स्पष्ट हो गई कि हमने जसवंतनगरवालों का दमन करने में बहुत-सी बातें न्याय-विरुद्ध की। हमें शंका थी कि विद्रोहियों ने मिसेज क्लार्क को या तो कैद कर रखा है, या मार डाला है। इसी शंका पर हमने दमन-नीति का व्यवहार किया। सबको एक लाठी से हाँका। किंतु दो बातों में से एक भी सच न निकली। मिसेज क्लार्क जीवित हैं और प्रसन्न हैं। वह वहाँ से स्वयं नहीं आना चाहतीं। जसवंत-नगरवाले अकारण ही हमारे कोप के भागी हुए, और मैं आपसे बड़े आग्रह से प्रार्थना करता हूँ कि उन गरीबों पर दया होनी चाहिए। सैकड़ों निरपराधियों की गरदन पर छुरी फिर रही है।"

सरदार साहब जान-बूझकर किसी पर अन्याय न करना चाहते थे, पर अन्याय कर चुकने के बाद अपनी भूल स्वीकार करने का उन्हें साहस न होता था। न्याय करना उतना कठिन नहीं है, जितना अन्याय का शमन करना। सोफी के गुम हो जाने से उन्हें केवल गवर्नमेंट की वक्र दृष्टि का भय था। पर सोफी का पता मिल जाना समस्त देश के सामने अपनी अयोग्यता और नृशंसता का डंका पीटना था। मिस्टर क्लार्क को खुश करके गवर्नमेंट को खुश किया जा सकता था, पर प्रजा की जबान इतनी आसानी से न बंद की जा सकती थी।

सरदार साहब ने कुछ सकुचाते हुए कहा-"यह तो मैं मान सकता हूँ कि मिसेज क्लार्क जीवित हैं। लेकिन आप तो क्या, ब्रह्मा भी आकर कहें कि वह वहाँ प्रसन्न हैं और आना नहीं चाहतीं, तो भी मैं स्वीकार न करूंगा। यह बच्चों की-सी बात है। किसी को अपने घर से इतनी अरुचि नहीं होती कि वह शत्रुओं के साथ रहना पसंद
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करे। विद्रोहियों ने मिसेज क्लार्क को यह कहने के लिए मजबूर किया होगा। वे मिसेज क्लार्क को उस वक्त तक न छोड़ेंगे, जब तक हम सारे कैदियों को मुक्त न कर दें। यह विजेताओं की नीति है और मैं इसे नहीं मान सकता। मिसेज क्लार्क को कड़ी-से-कड़ी यातनाएँ दी जा रही हैं और उन्होंने उन यातनाओं से बचने के लिए आपसे यह सिफारिश की है, और कोई बात नहीं है।"

विनय—"मैं इस विचार से सहमत नहीं हो सकता। मिसेज क्लार्क बहुत प्रसन्न दिखाई देती थीं। पीड़ित हृदय कभी इतना निश्शंक नहीं हो सकता।”

सरदार—"यह आपकी आँखों का दोष है। अगर मिसेज़ क्लार्क स्वयं आकर मुझसे कहें कि मैं बड़े आराम से हूँ, तो भी मुझे विश्वास न आयेगा। आप नहीं जानते, ये लोग किन सिद्धियों से स्वाधीनता पर जान देनेवाले प्राणियों पर भी आतंक जमा लेते हैं, यहाँ तक कि उनके पंजे से निकल आने पर भी कैदी उन्हीं की-सी कहता है और उन्हीं की-सी करता है। मैं एक जमाने में पुलिस का कर्मचारी था। आपसे सच कहता हूँ, मैंने कितने ही राजनीतिक अभियोगों में बड़े-बड़े व्रतधारियों से ऐसे अपराध स्वीकार करा दिये, जिनकी उन्होंने कल्पना तक न की थी। वीरपालसिंह इस विषय में हमसे कहीं चतुर है।”

विनय—"सरदार साहब, अगर थोड़ी देर के लिए मुझे यह विश्वास भी हो जाय कि मिसेज क्लार्क ने दबाव में आकर मुझसे ये बातें कही हैं, तो भी अब ठंडे हृदय से विचार करने पर मुझे ज्ञात हो रहा है कि हमें इतनी निर्दयता से दमन न करना चाहिए था। अब उन अभियुक्तों पर कुछ रिआयत होनी चाहिए।"

सरदार—"रिआयत राजनीति में पराजय का सूचक है। अगर मैं यह भी मान लूँ कि मिसेज क्लार्क वहाँ आराम से हैं और स्वतंत्र हैं, तथा हमने जसवंतनगरवालों पर घोर अत्याचार किया, फिर भी मैं रिआयत करने को तैयार नहीं हूँ। रिआयत करना अपनी दुर्बलता और भ्रांति की घोषणा करना है। आप जानते हैं, रिआयत का परिणाम क्या होगा? विद्रोहियों के हौसले बढ़ जायँगे, उनके दिल से रियासत का भय जाता रहेगा और जब भय न रहा, तो राज्य भी नहीं रह सकता। राज्य व्यवस्था का आधार न्याय नहीं, भय है। भय को आप निकाल दीजिए, और राज्य-विध्वंस हो जायगा, फिर अर्जुन की वीरता और युधिष्ठिर का न्याय भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। सौ-दो सौ निरपराधियों का जेल में रहना राज्य न रहने से कहीं अच्छा है। मगर मैं उन विद्रोहियों को निरपराध क्यों कर मान लूँ? कई हजार आदमियों का सशस्त्र एकत्र हो जाना यह सिद्ध करता है कि वहाँ लोग विद्रोह करने के विचार से ही गये थे।"

विनय—"किंतु जो लोग उसमें सम्मिलित न थे, वे तो बेकसूर हैं?"

सरदार—"कदापि नहीं, उनका कर्तव्य था कि अधिकारियों को पहले ही से सचेत कर देते। एक चोर को किसी के घर में सेंद लगाते देखकर आप घरवालों को जगाने
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की चेष्टा न करें, तो आप स्वयं चोर की सहायता कर रहे हैं। उदासीनता बहुधा अपराध से भी भयंकर होती है।"

विनय—"कम-से-कम इतना तो कीजिए कि जो लोग मेरी शहादत पर पकड़े गये हैं, उन्हें बरी कर दीजिए।"

सरदार—"असंभव है।"

विनय—"मैं शासन-नीति के नाते नहीं, दया और सौजन्य के नाते आपसे यह विनीत आग्रह करता हूँ।"

सरदार—"कह दिया भाईजान कि यह असंभव है। आप इसका परिणाम नहीं सोच रहे हैं।"

विनय—"लेकिन मेरी प्रार्थना को स्वीकार न करने का परिणाम भी अच्छा न होगा । आप समस्या को और जटिल बना रहे हैं।"

सरदार—मैं खुले हुए विद्रोह से नहीं डरता। डरता हूँ केवल सेवकों से, प्रजा के हितैषियों से और उनसे यहाँ की प्रजा का जी भर गया है। बहुत दिन बीत जायँगे, इसके पहले कि प्रजा देश-सेवकों पर फिर विश्वास करे।"

विनय—"अगर इसी नीयत से आपने मेरे हाथों प्रजा का अनिष्ट कराया, तो आपने मेरे साथ घोर विश्वासघात किया, लेकिन मैं आपको सतर्क किये देता हूँ कि यदि आपने मेरा अनुरोध न माना, तो आप रियासत में ऐसा विप्लव मचा देंगे, जो रियासत की जड़ हिला देगा। मैं यहाँ से मिस्टर क्लार्क के पास जाता हूँ। उनसे भी यही अनुरोध करूँगा, और यदि वह भी न सुनेंगे, तो हिज हाइनेस की सेवा में यही प्रस्ताव उपस्थित करूँगा। अगर उन्होंने भी न सुना, तो फिर इस रियासत का मुझसे बड़ा और कोई शत्रु न होगा।"

यहकर विनयसिंह उठ खड़े हुए और नायकराम को साथ लिये मिस्टर क्लार्क के बँगले पर जा पहुँचे। वह आज ही अपने शिकारी मित्रों को बिदा करके लौटे थे और इस समय विश्राम कर रहे थे। विनय ने अरदली से पूछा, तो मालूम हुआ कि साहब कुछ काम कर रहे हैं। विनय बाग में टहलने लगे। जब आध घंटे तक साहब ने न बुलाया, तो उठे और सीधे क्लार्क के कमरे में घुस गये, वह इन्हें देखते ही उट बैठे और बोले-

“आइए—आइए, आप ही की याद कर रहा था। कहिए, क्या समाचार है? सोफिया का पता तो आप लगा ही आये होंगे?"

विनय—"जी हाँ, लगा आया।"

यह कहकर विनय ने क्लार्क से भी वही कथा कहो, जो सरदार साहब से कही थी, और वही अनुरोध किया।

क्लार्क—"मिस सोफी आपके साथ क्यों नहीं आई?"

विनय—"यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन वहाँ उन्हें कोई कष्ट नहीं है।"

क्लार्क—"तो फिर आपने नई खोज क्या की? मैंने तो समझा था, शायद आपके
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आने से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ेगा। यह देखिए, सोफिया का पत्र है। आज ही आया है। इसे आपको दिखा तो नहीं सकता, पर इतना कह सकता हूँ कि वह इस वक्त मेरे सामने आ जाय, तो उस पर पिस्तौल चलाने में एक क्षण भी विलंब न करूँगा। अब मुझे मालूम हुआ कि धर्मपरायणता छल और कुटिलता का दूसरा नाम है। इसकी धर्म-निष्टा ने मुझे बड़ा धोखा दिया। शायद कभी किसी ने इतना बड़ा धोखा न खाया होगा। मैंने समझा था, धार्मिकता से सहृदयता उत्पन्न होती है; पर यह मेरी भ्रांति थी, मैं इसकी धर्म-निष्ठा पर रीझ गया। मुझे इंगलैंड की रँगीली युवतियों से निराशा हो गई थी। सोफिया का सरल स्वभाव और धार्मिक प्रवृत्ति देखकर मैंने समझा, मुझे इच्छित वस्तु मिल गई। अपने समाज की उपेक्षा करके मैं उसके पास आने-जाने लगा और अंत में प्रोपोज किया। सोफिया ने स्वीकार तो कर लिया, पर कुछ दिनों तक लाह को स्थगित रखना चाहा। मैं क्या जानता था कि उसके दिल में क्या है? राजी हो गया। उसी अवस्था में वह मेरे साथ यहाँ आई, बल्कि यों कहिए कि वही मुझे यहाँ लाई। दुनिया समझती है, वह मेरी विवाहिता थी, कदापि नहीं। हमारी तो मँगनी भी न हुई थी। अब जाकर रहस्य खुला कि वह बोलशेविकों की एजेंट है। उसके एक एक शब्द से उसकी बोलशेविक प्रवृत्ति टपक रही है। प्रेम का स्वाँग भरकर वह अँगरेजों के आंतरिक भावों का ज्ञान प्राप्त करना चाहती थी। उसका यह उद्देश्य पूरा हो गया। मुझसे जो काम निकल सकता था, वह निकालकर उसने मुझे दुत्कार दिया है। विनयसिंह, तुम नहीं अनुमान कर सकते कि मैं उससे कितना प्रेम करता था। इस अनुपम रूप-राशि के नीचे इतनी घोर कुटिलता! मुझे धमकी दी है कि इतने दिनों में अँगरेजी समाज का मुझे जो कुछ अनुभव हुआ है, उसे मैं भारतवासियों के विनोदार्थ प्रकाशित कर दूंँगी। वह जो कुछ कहना चाहती है, मैं स्वयं क्यों न बतला दूँ। अँगरेज-जाति भारत को अनंत काल तक अपने साम्राज्य का अंग बनाये रखना चाहती है। कंजरवेटिव हो या लिबरल, रेडिकल हो या लेबर, नैशनलिस्ट हो या सोशलिस्ट, इस विषय में सभी एक ही आदर्श का पालन करते हैं। सोफी के पहले मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि रेडिकल और लेबर नेताओं के धोखे में न आओ। कंजरवेटिव दल में और चाहे कितनी ही बुराइयाँ हों, वह निर्भीक है, तीक्ष्ण सत्य से नहीं डरता। रेडिकल और लेबर अपने पवित्र और उज्ज्वल सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए ऐसी आशाप्रद बातें कह डालते हैं, जिनको व्यवहार में लाने का उन्हें साहस नहीं हो सकता। आधिपत्य त्याग करने की वस्तु नहीं है। संसार का इतिहास केवल इसी एक शब्द 'आधिपत्य-प्रेम' पर समाप्त हो जाता है। मानव-स्वभाव अब भी वही है, जो सृष्टि के आदि में था। अँगरेज-जाति कभी त्याग के लिए, उच्च सिद्धांतों पर प्राण देने के लिए प्रसिद्ध नहीं रही। हम सब-के-सब-मैं लेबर हूँ-साम्राज्यवादी हैं। अंतर केवल उस नीति में है, जो भिन्न भिन्न दल इस जाति पर आधिपत्य जमाये रखने के लिए ग्रहण करते हैं। कोई कठोर शासन का उपासक है, कोई सहानुभूति काम कोई चिकनी-चुपड़ी बातों से काम निकालने का। बस, वास्तव में नीति कोई है ही नहीं,
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केवल उद्देश्य है, और वह यह कि क्योंकर हमारा आधिपत्य उत्तरोत्तर सुदृढ़ हो। यही वह गुप्त रहस्य है, जिसको प्रकट करने की मुझे धमकी दी गई है। यह पत्र मुझे न मिला होता, तो मेरी आँखों पर परदा पड़ा रहता और मैं सोफी के लिए क्या कुछ न कर डालता। पर इस पत्र ने मेरी आँखें खोल दी और अब मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता, बल्कि आपसे भी अनुरोध करता हूँ कि इस बोलशेविक आंदोलन को शांत करने में रियासत की सहायता कीजिए। सोफी-जैसी चतुर, कार्यशील, धुन की पक्की युवती के हाथों में यह आंदोलन कितना भयंकर हो सकता है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है।"

विनय यहाँ से भी निराश होकर बाहर निकले, तो सोचने लगे, अब महाराजा साहब के पास जाना व्यर्थ है, वह साफ कह देंगे, जब मंत्री और एजेंट कुछ नहीं कर सकते, तो मैं क्या कर सकता हूँ। लेकिन जी न माना, ताँगेवाले को राजभवन की ओर चलने का हुक्म दिया।

नायकराम—"क्या गिटपिट करता रहा! आया राह पर?"

विनय—"यही राह पर आ जाता, तो महाराजा साहब के पास क्यों चलते?"

नायकराम—"हजार-दो हजार माँगता हो, तो दे क्यों नहीं देते? अफसर छोटे हों या बड़े, सभी लोभी होते हैं।"

विनय—"क्या पागलों की-सी बात करते हो! अँगरेजों में अगर ये बुराइयाँ होती, तो इस देश से ये लोग कब के सिधार गये होते। यों अँगरेज भी रिश्वत लेते हैं, देवता, नहीं हैं, पहले-पहल जो अँगरेज यहाँ आये थे, वे तो पूरे डाकू थे, लेकिन अपने राज्य का अपकार करके ये लोग कभी अपना उपकार नहीं करते। रिश्वत भी लेंगे, तो उसी दशा में, जब राज्य को उससे कोई हानि न पहुँचे!"

नायकराम चुप हो रहे। ताँगा राज-भवन की ओर जा रहा था। रास्ते में कई सड़कं, कई पाठशालाएँ, कई चिकित्सालय मिले। इन सबों के नाम अँगरेजी थे। यहाँ तक कि एक पार्क मिला, वह भी किसी अँगरेज ऐजेंट के नाम से संस्कृत था। ऐसा जान पड़ता था, कोई भारतीय नगर नहीं, अँगरेजों का शिविर है। ताँगा जब राजभवन के सामने पहुँचा, तो विनयसिंह उतर पड़े और महाराजा के प्राइवेट सेक्रटरी के पास गये। यह एक अँगरेज था। विनय से हाथ मिलाते हुए बोला-"महाराजा साहब तो अभी पूजा पर है। ग्यारह बजे बैठा था, चार बजे उठेगा। क्या आप लोग इतनी देर तक पूजा किया करता है?"

विनय—"हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे पूजा करनेवाले हैं, जो कई-कई दिनों तक समाधि में मग्न रहते हैं। पूजा का वह भाग, जिसमें परमात्मा या अन्य देवतों से कल्याण की याचना की जाती है, शीघ्र ही समाप्त हो जाता है; लेकिन वह भाग, जिसमें योग-क्रियाओं द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है, बहुत विशद होता है।"

सेक्रटरी—हम जिस राजा के साथ पहले था, वह सबेरे से दो बजे तक पूजा करता
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था, तब भोजन करता था और चार बजे सोता था। फिर नौ बजे पूजा पर बैठ जाता था और दो बजे रात को उठता था। वह एक घंटे के लिए सूर्यास्त के समय बाहर निकलता था। पर इतनी लंबी पूजा मेरे विचार में अस्वाभाविक है। मैं समझता हूँ कि यह न तो उपासना है, न आत्मशुद्धि की क्रिया, केवल एक प्रकार की अकर्मण्यता है।"

विनय का चित्त इस समय इतना व्यग्र हो रहा था कि उन्होंने इस कटाक्ष का कुछ उत्तर न दिया। सोचने लगे-अगर राजा साहब ने भी साफ जवाब दिया, तो मेरे लिए क्या करना उचित होगा? अभी इतने बेगुनाहों के खून से हाथ रंगे हुए हैं, कहीं सोफी ने गुप्त हत्याओं का अभिनय आरंभ किया, तो उनका खून भी मेरी ही गरदन पर होगा। इस विचार से वह इतने व्याकुल हुए कि एक ठंडी साँस लेकर आराम-कुर्सी पर लेट गये और आँखें बंद कर लीं। यों वह नित्य संध्या करते थे, पर आज पहली बार ईश्वर से दया-प्रार्थना की। रात-भर के जागे, दिन-भर के थके थे ही, एक झपकी आ गई। जब आँखें खुलीं, तो चार बज चुके थे। सेक्रटरी से पूछा-'अब तो हिज हाइनेस पूजा पर से उठ गये होंगे?”

सेक्रटरी—"आपने तो एक लंबी नींद ले ली।"

यह कहकर उसने टेलीफोन द्वारा कहा—"कुँवर विनयसिंह हिज हाईनेस से मिलना चाहते हैं।”

एक क्षण में जवाब आया—"आने दो।"

विनयसिंह महाराज के दीवाने खास में पहुँचे। वहाँ कोई सजावट न थी, केवल दीवारों पर देवतों के चित्र लटके हुए थे। कालीन के फर्श पर सफेद चादर बिछी हुई थी। महाराजा साहब मसनद पर बैठे हुए थे। उनकी देह पर केवल एक रेशमी चादर थी और गले में एक तुलसी की माला। मुख से साधुता झलक रही थी। विनय को देखते ही बोले-"आओ जी, बहुत दिन लगा दिये। मिटर क्लार्क की मेम का कुछ पता चला?"

विनय—"जी हाँ, वीरपालसिंह के घर है, और बड़े आराम से है। वास्तव में अभी मिस्टर क्लार्क से उसका विवाह नहीं हुआ है, केवल मांगनी हुई है। इनके पास आने पर राजी नहीं होती है। कहती है, मैं यहीं बड़े आराम से हूँ और मुझे भी ऐसा हो ज्ञात होता है।"

महाराजा—"हरि-हरि! यह तो तुमने विचित्र बात सुनाई! इनके पास आती ही नहीं! समझ गया, उन सबों ने वशीकरण कर दिया होगा। शिव-शिव! इनके पास आती ही नहीं!"

विनय—"अब विचार कीजिए कि वह तो जीवित है और सुखी है और यहाँ हम लोगों ने कितने ही निरपराधियों को जेल में डाल दिया, कितने ही घरों को बरबाद कर दिया और कितनों ही को शारीरिक दंड दिये।"

महाराजा—"शिव-शिच! घोर अनर्थ हुआ।" [ ४१८ ]विनय—"भ्रम में हम लोगों ने गरीबों पर कैसे-कैसे अत्याचार किये कि उनकी याद ही से रोमांच हो आता है। महाराज बहुत उचित कहते हैं, घोर अनर्थ हुआ। ज्यों हो यह बात लोगों को मालूम हो जायगी, जनता में हाहाकार मच जायगा। इसलिए अब यही उचित है कि हम अपनी भूल स्वीकार कर लें और कैदियों को मुक्त कर दें।"

महाराजा—"हरि हरि, यह कैसे होगा बेटा? राजों से भी कहीं भूल होती है। शिव-शिव! राजा तो ईश्वर का अवतार है। हरि-हरि! वह एक बार जो कर देता है, उसे फिर नहीं मिटा सकता। शिव-शिव! राजा का शब्द ब्रह्मलेख है, वह नहीं मिट सकता, हरि-हरि!”

विनय—"अपनी भूल स्वीकार करने में जो गौरव है, वह अन्याय को चिरायु रखने में नहीं। अधीश्वरों के लिए क्षमा ही शोभा देती है। कैदियों को मुक्त करने की आज्ञा दी जाय, जुरमाने के रुपये लौटा दिये जाय और जिन्हें शारीरिक दंड दिये गये हैं, उन्हें धन देकर संतुष्ट किया जाय। इससे आपकी कीर्ति अमर हो जायगी, लोग आपका यश गायेगे और मुक्त कंठ से आशीर्वाद देंगे।”

महाराजा—"शिव-शिव! बेटा, तुम राजनीति की चालें नहीं जानते। यहाँ एक कैदो भी छोड़ा गया और रियासत पर वज्र गिरा। सरकार कहेगी, मेम को न जाने किस नीयत से छिपाये हुए है, कदाचित् उस पर मोहित है, तभी तो पहले दंड का स्वाँग भर-कर अब विद्रोहियों को छोड़ देता है! शिव-शिव! रियासत धूल में मिल जायगी, रसातल को चली जायगी। कोई न पूछेगा कि यह बात सच है या झूठ। कहीं इस पर विचार न होगा। हरि-हरि! हमारी दशा साधारण अपराधियों से भी गई-बीती है। उन्हें तो सफाई देने का अवसर दिया जाता है, न्यायालय में उन पर कोई धारा लगाई जाती है और उसी धारा के अनुसार उन्हें दंड दिया जाता है। हमसे कौन सफाई लेता है, हमारे लिए कौन-सा न्यायालय है! हरि-हरि! हमारे लिए न कोई कानून है, न कोई धारा। जो अपराध चाहा, लगा दिया; जो दंड चाहा, दे दिया। न कहीं अपील है, न फरियाद। राजा विषय-प्रेमी कहलाते ही हैं, उन पर यह दोषारोपण होते कितनी देर लगती है! कहा जायगा, तुमने क्लार्क की अति रूपवती मेम को अपने रनिवास में छिपा लिया और झूठमूठ उड़ा दिया कि वह गुम हो गई। हरि-हरि! शिव-शिव! सुनत हूँ, बड़ी रूपवती स्त्री है, चाँद का टुकड़ा है, अप्सरा है। बेटा, इस अवस्था में यह कलंक न लगाओ वृद्धावस्था भी हमें ऐसे कुत्सित दोषों से नहीं बचा सकती। मशहूर है, राजा लोग रसादि का सेवन करते हैं, इसलिए जीवन-पर्यंत हृष्ट-पुष्ट बने रहते हैं। शिक्-शिव! यह राज्य नहीं है, अपने कर्मों का दंड है। नकटा जिया बुरे हवाल। शिव-शिव! अब कुछ नहीं हो सकता। सौ पचास निर्दोष मनुष्यों का जेल में पड़ा रहना कोई असाधारण बात नहीं। वहाँ भी तो भोजन-वस्त्र मिलता ही है। अब तो जेलखानों की दशा बहुत अच्छी है। नये-नये कुरते दिये जाते हैं, भोजन भी अच्छा दिया जाता है। हाँ, तुम्हारी
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खातिर से इतना कर सकता हूँ कि जिन परिवारों का कोई रक्षक न रह गया हो, अथवा जो जुरमाने के कारण दरिद्र हो गये हों, उन्हें गुप्त रीति से कुछ सहायता दे दी जाय। हरि-हरि! तुम अभी क्लार्क के पास तो नहीं गये थे?"

विनय—"गया था, वहीं से तो आ रहा हूँ।"

महाराजा—(घबराकर) "उनसे यह तो नहीं कह दिया कि मेम साहब बड़े आराम से हैं और आने पर राजी नहीं हैं?"

विनय—"यह भी कह दिया, छिपाने की कोई बात न थी। किसी भाँति उन्हें धैर्य तो हो।"

महाराजा—(जाँघ पर हाथ पटककर) "सर्वनाश कर दिया! हरि-हरि! चौपटनाश कर दिया। शिव-शिव! आग तो लगा दी, अव मेरे पास क्यों माये हो? शिव शिव! क्लार्क कहेगा, कैदी कैद में आराम से है, तो इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य है। अवश्य कहेगा! ऐसा कहना स्वाभाविक भी है। मेरे अदिन आ गये, शिव-शिव! मैं इस आक्षेप का क्या उत्तर दूँगा! भगवन् , तुमने घोर संकट में डाल दिया। यही कहते हैं बचपन की बुद्धि! वहाँ न जाने कौन-सा शुभ समाचार कहने दौड़े थे। पहले प्रजा को भड़काया, रियासत में आग लगाई, अब यह दूसरा आघात किया। मूर्ख! तुझे क्लार्क से कहना चाहिए था, वहाँ मेम को नाना प्रकार के कष्ट दिये जा रहे हैं, अनेक यातनाएँ मिल रही हैं। ओह! शिव-शिव!"

सहसा प्राइवेट सेक्रटरी ने फोन में कहा—“मिस्टर क्लार्क आ रहे हैं।"

महाराजा ने खड़े होकर कहा—"आ गया यमदूत, आ गया। कोई है? कोट-पत-लून लाओ। तुम जाओ विनय, चले जाओ, रियासत से चले जाओ। फिर मुझे मुँह मत दिखाना, जल्दी पगड़ी लाओ, यहाँ से उगालदान हटा दो।"

विनय को आज राजा से घृणा हो गई। सोचा, इतना नैतिक पतन, इतनी कायरता! यो राज्य करने से डूब मरना अच्छा है! वह बाहर निकले, तो नायकराम ने पूछा-"कैसी छनी?"

विनय—"इनको तो मारे भय के आर ही जान निकली जाती है। ऐसा डरते हैं, मानों मिस्टर क्लार्क कोई शेर हैं और इन्हें आते-ही-आते खा जायँगे। मुझसे तो इस दशा में एक दिन भी न रहा जाता।"

नायकराम—"भैया, मेरी तो अब सलाह है कि घर लौट चलो, इस जंजाल में कब तक जान खपाओगे?"

विनय ने सजल नयन होकर कहा—"पण्डाजी, कौन मुँह लेकर घर जाऊँ? मैं अब घर जाने योग्य नहीं रहा। माताजी मेरा मुँह न देखेंगी। चला था जाति की सेवा करने, जाता हूँ सैकड़ों परिवारों का सर्वनाश करके। मेरे लिए तो अब डूब मरने के सिवा और कुछ नहीं रहा। न घर का रहा, न घाट का। मैं समझ गया नाय कराम, मुझसे कुछ न होगा, मेरे हाथों किसी का उपकार न होगा, मैं विष बोने ही के लिए पैदा किया गया
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थे। यह काम वह सेवकों से नहीं लेते थे। कहते—'यह भी एक विद्या है, कोई हल्दी-मसाला तो है नहीं कि जो चाहे, पीस दे। इसमें बुद्धि खर्च करनी पड़ती है, तब जाकर बूटी बनती है।" कल नागा भी हो गया था। तन्मय होकर भंग पीसते और रामायण की दो-चार चौपाइयाँ, जो याद थीं, लय से गाते जाते थे। इतमे में विनय ने बुलाया।

नायकराम—"क्या है भैया? आज मजेदार बूटी बन रही है। तुमने कभी काई को पी होगी। आज थोड़ी-सी ले लेना, सारी थकावट भाग जायगी।"

विनय—"अच्छा, इस वक्त बूटी रहने दो। अम्माजी का पत्र आया है, घर चलना है, एक ताँगा ठीक कर लो।"

नायकराम—"भैया, तुम्हारे तो सब काम उतावली के होते हैं। घर चलना है, तो कल आराम से चलेंगे। बूटो छानकर रसोई बनाता हूँ। तुमने बहुत कशमीरी रसोइयों का बनाया हुआ खाना खाया है, आज जरा मेरे हाथ के भोजन का भी स्वाद लो।"

विनय—"अब घर पहुँचकर ही तुम्हारे हाथ के भोजन का स्वाद लूँगा।"

नायकराम-"माताजी ने बुलाया होगा।"

विनय—"हाँ, बहुत जल्द।"

नायकराम—"अच्छा, बूटी तो तैयार हो जाय। गाड़ी तो नौ बजे रात को जाती है।"

विनय—"नौ बजने में देर नहीं है। सात तो बन ही गये होंगे।"

नायकराम—"जब तक असबाब बँधवाओ, मैं जल्दी से बनाये लेता हूँ। तकदीर में इतना सुख भी नहीं लिखा है कि निश्चित होकर बूटी तो बनाता।"

विनय—"असबाब कुछ नहीं जायगा। मैं घर से कोई असबाब लेकर नहीं आया था। यहाँ से चलते समय घर की कुंजी सरदार साहब को दे देनी होगी।”

नायकराम—"और यह सारा असबाब?”

विनय—"कह दिया कि मैं कुछ न ले जाऊँगा।"

नायकराम—"भैया, तुम कुछ न लो, पर मैं तो यह दुशाला और यह संदूक जरूर लूंगा। जिधर से दुशाला ओढ़कर निकल जाऊँगा, देखनेवाले लोट जायँगे।"

विनय—"ऐसी घातक वस्तु लेकर क्या करोगे, जिसे देख कर ही सुथराव हो जाय। यहाँ की कोई चीज मत छूना, जाओ।"

नायकराम भाग्य को कोसते हुए घर से निकले, तो घंटे-भर तक गाड़ी का किराया ठीक करते रहे। आखिर जब यह जटिल समस्या किसी विधि न हल हुई, तो एक को जबरदस्ती पकड़ लाये। ताँगेवाला भुनभुनाता हुआ आया--"सब हाकिम-ही-हाकिम तो हैं, मुदा जानवर के पेट को भी तो कुछ मिलना चाहिए। कोई माई का लाल यह नहीं सोचता कि दिन-भर तो बेगार में मरेगा, क्या आप खायगा, क्या जानवर को खिलायेगा, क्या बाल-बच्चों को देगा। उस पर निरखनामा लिखकर गली-गली लटका दिया। बस, ताँगेवाले ही सबको लूटे खाते हैं, और तो जितने अमले-मुलाजिम हैं, सब दूध के धोये हुए हैं। बकचा दो ले, भीख माँग खाय, मगर ताँगा कभी न चलाय।" [ ४२१ ]
ज्यों ही ताँगा द्वार पर आया, विनय आकर बैठ गये, लेकिन नायकराम अपनी अधघुटी बूटी क्योंकर छोड़ते। जल्दी-जल्दी रगड़ी, छानकर पी, तमाखू खाई, आईना के सामने खड़े होकर पगड़ी बाँधी, आदमियों को राम-राम कहा और दुशाले को सचेष्ट नेत्रों से ताकते हुए बाहर निकले। ताँगा चला। सरदार साहब का घर रास्ते ही में था। वहाँ जाकर नायकराम ने कुंजी उनके द्वारपाल के हवाले की और आठ बजते-बजते स्टेशन पर पहुँच गये। नायकराम ने सोचा, राह में तो कुछ खाने को मिलेगा नहीं, और गाड़ी पर भोजन करेंगे कैसे, दौड़कर पूरियाँ लीं, पानी लाये और खाने बैठ गये। विनय ने कहा, मुझे अभी इच्छा नहीं हैं। वह खड़े गाड़ियों की समय-सूची देख रहे थे कि यह गाड़ी अजमेर कब पहुँचेगी, दिल्ली में कौन-सी गाड़ी मिलेगी। सहसा क्या देखते हैं कि एक बुढ़िया आर्तनाद करती हुई चली आ रही है। दो-तीन आदमी उसे सँभाले हुए हैं। वह विनयसिंह के समीप ही आकर बैठ गई। विनय ने पूछा, तो मालूम हुआ कि इसका पुत्र जसवंतनगर की जेल का दारोगा था, उसे दिन दहाड़े किसी ने मार डाला। अभी समाचार आया है, और यह बेचारी शोकातुरा माता यहाँ से जसवंतनगर जा रही है। मोटरवाले किराया बहुत माँगते थे, इसलिए रेलगाड़ी से जाती है। रास्ते में उतरकर बैलगाड़ी कर लेगी। एक ही पुत्र था; बेचारी को बेटे का मुंह देखना भी न बदा था।

विनयसिंह को बड़ा दुःख हुआ-"दारोगा बड़ा सीधा-सादा आदमी था। कैदियों पर बड़ी दया किया करता था। उससे किसी को क्या दुश्मनी हो सकती थी। उन्हें तुरंत संदेह हुआ कि यह भी वीरपालसिंह के अनुयायियों की क्रूर लीला है। सोफो ने कोरी धमकी न दी थी। मालूम होता है, उसने गुप्त हत्याओं के साधन एकत्र कर लिये हैं। भगवान्, मेरे दुष्कृत्यों का क्षेत्र कितना विस्तृत है? इन हत्याओं का अपराध मेरी गर्दन पर है, सोफी की गर्दन पर नहीं। सोफिया-जैसी करुणामयी, विवेकशीला, धर्म- निष्ठा रमणी मेरी ही दुर्बलता से प्रेरित होकर हत्या मार्ग पर अग्रसर हुई है। ईश्वर! क्या अभी मेरी यातनाओं की मात्रा पूरी नहीं हुई? मैं फिर सोफिया के पास जाँऊँगा, अवश्य जाऊँगा, और उसके चरणों पर सिर रखकर विनीत भाव से कहूँगा-देवी। मैं अपने किये का दंड पा चुका, अब यह लीला समाप्त कर दो, अन्यथा यहीं तुम्हारे सामने प्राण त्याग दूंगा! लेकिन सोफ़ी को पाऊँ कहाँ? कौन मुझे उस दुर्गम दुर्ग तक ले जायगा?"

जब गाड़ी आई, तो विनय ने वृद्धा को अपनी ही गाड़ी में बैठाया। नायकराम दूसरी गाड़ी में बैठे, क्योंकि विनय के सामने उन्हें मुसाफिरों से चुहल करने का मौका न मिलता। गाड़ी चली। आज पुलिस के सिपाही प्रत्येक स्टेशन पर टहलते हुए नजर आते थे। दरबार ने मुसाफिरों की रक्षा के लिए यह विशेष प्रबंध किया था। किसी स्टेशन पर मुसाफिर सवार होते न नजर आते थे। विद्रोहियों ने कई जागीरदारों को लूट लिया था।

पाँचवें स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एकाएक गाड़ी रुक गई। वहाँ कोई स्टेशन न था। लाइन के नीचे कई आदमियों की बातचीत सुनाई दी। फिर किसी ने विनय के
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कमरे का द्वार खोला। विनय ने पहले तो आगंतुक को रोकना चाहा, गाड़ी में बैठते ही उनका साम्यवाद स्वार्थवाद का रूप धारण कर लेता था, यह भी संदेह हुआ कि डाकू न हों, लेकिन निकट से देखा, तो किसी स्त्री के हाथ थे, अलग हट गये, और एक क्षण में एक स्त्री गाड़ी पर चढ़ आई। विनय देखते ही पहचान गये। वह मिस सोफिया थी। उसके बैठते ही गाड़ी फिर चलने लगी।

सोफिया ने गाड़ी में आते ही विनय को देखा, तो चेहरे का रंग उड़ गया। जी में आया, गाड़ी से उतर जाऊँ। पर वह चल चुकी थी। एक क्षण तक वह हतबुद्धि-सी खड़ी रही, विनय के सामने उसकी आँखें न उठती थीं, तब उसी वृद्धा के पास बैठ गई ओर खिड़की की ओर ताकने लगी। थोड़ी देर तक दोनों मौन बैठे रहे, किसी को बात करने की हिम्मत न पड़ती थी।

वृद्धा ने सोफी से पूछा—“कहाँ जाओगी बेटी?"

सोफिया-"बड़ी दूर जाना है।"

वृद्धा-“यहाँ कहाँ से आ रही हो?"

सोफिया—'यहाँ से थोड़ी दूर एक गाँव है, वहीं से आती हूँ।”

वृद्धा-"तुमने गाड़ी खड़ी करा दी थी क्या?"

सोफिया-"स्टेशनों पर आज कल डाके पड़ रहे हैं। इसी से बीच में गाड़ी रुकवा दी।"

वृद्धा-"तुम्हारे साथ और कोई नहीं है क्या? अकेले कैसे जाओगी?"

सोफिया-"आदमी न हो, ईश्वर तो है!"

वृद्धा-"ईश्वर है कि नहीं, कौन जाने। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि संसार का करता-धरता कोई नहीं है, जभी तो दिन-दहाड़े डाके पड़ते हैं, खून होते हैं। कल मेरे बेटे को डाकुओं ने मार डाला। (रोकर) गऊ था, गऊ। कभी मुझे जवाब नहीं दिया। जेल के कैदी उसको असीस दिया करते थे। कभी किसी भलेमानस को नहीं सताया। उस पर यह वज्र गिरा, तो कैसे कहूँ कि ईश्वर है।"

सोफिया-"क्या जसवंतनगर के जेलर आपके बेटे थे?"

वृद्धा-"हाँ बेटी, यही एक लड़का था, सो भगवान ने हर लिया।"

यह कहकर वृद्धा सिसकने लगी। सोफिया का मुख किसी मरणासन्न रोगी के मुख की भाँति निष्प्रभ हो गया। जरा देर तक वह करुणा के आवेश को दबाये हुए खड़ी रही। तब खिड़की के बाहर सिर निकालकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका कुत्सित प्रतिकार नम रूप में उसके सामने खड़ा था।

सोफी आध घंटे तक मुँह छिपाये रोती रही, यहाँ तक कि वह स्टेशन आ गया, जहाँ वृद्धा उतरना चाहती थी। जब वह उतरने लगी, तो विनय ने उसका असबाब, उतारा और उसे सांत्वना देकर बिदा किया।

अभी विनय गाड़ी में बैठे भी न थे कि सोफी नीचे आकर वृद्धा के सम्मुख खड़ी
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हो गई और बोली-"माता, तुम्हारे पुत्र की हत्या करनेवाली मैं हूँ जो दंड चाहो, दो! तुम्हारे सामने खड़ी हूँ।"

वृद्धा ने विस्मित होकर कहा-"क्या तू ही वह पिशाचिनी है, जिसने दरबार से लड़ने के लिए डाकुओं को जमा किया है! नहीं, तू नहीं हो सकती। तू तो मुझे करुणा और दया की मूर्ति-सी दीखती है।"

सोफी-"हाँ माता, मैं ही वह पिशाचिनी हूँ।"

वृद्धा-"जैसा तूने किया, वैसा तेरे आगे आयेगा। मैं तुझे और क्या कहूँ। मेरी भाँति तेरे दिन भी रोते बीतें।"

एंजिन ने सीटी दी। सोफी संज्ञा-शून्य-सी खड़ी थी। वहाँ से हिली तक नहीं। गाड़ी चल पड़ी। सोफी अब भी वहीं खड़ी थी। सहसा विनय गाड़ी से कूद पड़े, सोफिया का हाथ पकड़कर गाड़ी में बैठा दिया और बड़ी मुश्किल से आप भी गाड़ी में चढ़ गये। एक पल का भी विलंब होता, तो वहीं रह जाते।

सोफिया ने ग्लानि-भाव से कहा-"विनय, तुम मेरा विश्वास करो या न करो; पर मैं सत्य कहती हूँ कि मैंने वीरपाल को एक हत्या की भी अनुमति नहीं दी। मैं उसकी घातक प्रवृत्ति को रोकने का यथाशक्ति प्रयत्न करती रही। पर यह दल इस समय प्रत्याघात की धुन में उन्मत्त हो रहा है। किसी ने मेरी न सुनी। यही कारण है कि मैं अब यहाँ से जा रही हूँ। मैंने उस रात को. आमर्ष की दशा में तुमसे न जाने क्या-क्या बातें की, लेकिन ईश्वर ही जानते हैं, इसका मुझे कितना खेद और दुःखं है। शांत मन से विचार करने पर मुझे मालूम हो रहा है कि निरंतर दूसरों के मारने और दूसरों के हाथों मारे जाने के लिए आपत्काल में ही हम तत्पर हो सकते हैं। यह दशा स्थायी नहीं हो सकती। मनुष्य स्वभावतः शांतिप्रिय होता है। फिर जब सरकार की दमन-नीति ने निर्बल प्रजा को प्रत्याधात पर आमादा कर दिया, तो क्या सबल सरकार और भी कठोर नीति का अवलंबन न करेगी। लेकिन मैं तुमसे ऐसी बातें कर रही हूँ, मानों तुम घर के आदमी हो। मैं भूल गई थी कि तुम राजभक्तों के दल में हो। पर इतनी दया करना कि मुझे पुलिस के हवाले न कर देना। पुलिस से बचने के लिए ही मैंने रास्ते में गाड़ी को रोककर सवार होने की व्यवस्था की। मुझे संशय है कि इस समय भी तुम मेरी ही तलाश में हो।"

विनयसिंह की आँखें सजल हो गई। खिन्न स्वर में बोले-"सोफिया, तुम्हें अख्तियार है, मुझे जितना नीच और पतित चाहो, समझो; मगर एक दिन आयेगा, जब तुम्हें इन वाक्यों पर पछताना पड़ेगा और तुम समझोगी कि तुमने मेरे ऊपर कितना अन्याय किया है। लेकिन जरा शांत मन से विचार करो, क्या घर पर, यहाँ आने के पहले, मेरे पकड़े जाने की खबर पाकर तुमने भी वही नीति न धारण की थी? अंतर केवल इतना था कि मैंने दूसरों को बरबाद किया, तुम अपने ही को बरबाद करने पर तैयार हो गई। मैंने तुम्हारी नीति को क्षम्य समझा, वह आपद्धर्म था। तुमने मेरी नीति को अक्षम्य
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समझा और कठोर-से-कठोर आघात जो तुम कर सकती थीं, वह कर बैठी। किंतु बात एक ही है! तुम्हें मुझको पुलिस की सहायता करते देखकर इतना शोकमय आश्चर्य न हुआ होगा, जितना मुझको तुम्हें मिस्टर क्लार्क के साथ देखकर हुआ। इस समय भी तुम उसी प्रतिहिंसक नोति का अवलंबन कर रही हो, या कम-से-कम मुझसे कह चुकी हो। इतने पर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती। तुम्हारी झिड़कियाँ सुनकर मुझे जितना मानसिक कष्ट हुआ और हो रहा है, वही मेरे लिए असाध्य था। उस पर तुमने इस समय और भी नमक छिड़क दिया। कभी तुम इस निर्दयता पर खून के आँसू बहाओगी। खैर।"

यह कहते-कहते बिनय का गला भर आया। फिर वह और कुछ न कह सके। सोफिया ने आँखों में असीम अनुराग भरकर कहा-"आओ, अब हमारी तुम्हारी मैत्री हो जाय। मेरी उन बातों को क्षमा कर दो।"

विनय ने कंठ-स्वर को सँभालकर कहा—"मैं कुछ कहता हूँ! अगर जी न भरा हो, तो और जो चाहो, कह डालो। जब बुरे दिन आते हैं, तो कोई साथी नहीं होता। तुम्हारे यहाँ से आकर मैंने कैदियों को मुक्त करने के लिए अधिकारियों से, मिस्टर क्लार्क से, यहाँ तक कि महाराजा साहब से भी जितनी अनुनय-विनय की, वह मेरा दिल ही जानता है। पर किसी ने मेरी बातें तक न सुनीं। चारों तरफ से निराश होना पड़ा।

सोफो--"यह तो मैं जानती थी। इस वक्त कहाँ जा रहे हो?"

विनय-"जहन्नुम में।"

सोफी-"मुझे भी लेते चलो।"

विनय-"तुम्हारे लिए स्वर्ग है।"

एक क्षण बाद फिर बोले--"घर जा रहा हूँ। अम्माँजी ने बुलाया है। मुझे देखने के लिए उत्सुक हैं।"

सोफिया-"इंद्रदत्त तो कहते थे, तुमसे बहुत नाराज हैं?"

विनय ने जेब से रानीजी का पत्र निकालकर सोफी को दे दिया और दूसरी ओर ताकने लगे। कदाचित् वह सोच रहे थे कि यह तो मुझसे इतनी खिंच रही है, और मैं बरबस इसकी ओर दौड़ा जाता हूँ। सहसा सोफिया ने पत्र फाड़कर खिड़की के बाहर फेंक दिया और प्रेम-विह्वल होकर बोली-“मैं तुम्हें न जाने दूंगी। ईश्वर जानता है, न जाने दूंगी। तुम्हारे बदले मैं स्वयं रानीजी के पास जाऊँगी और उनसे कहूँगी, तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ....' यह कहते-कहते उसकी आवाज फँस गई। उसने विनय के कंधे पर सिर रख दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। आवाज हलकी हुई, तो फिर बोली-"मुझसे वादा क्रो कि न जाऊँगा। तुम नहीं जा सकते। धर्म और न्याय के नियम से नहीं जा सकते। बोलो, वादा करते हो?"

उन सजल नयनों में कितनी करुणा, कितनी याचना, कितनी विनय, कितना आग्रह था! [ ४२५ ]
विनय ने कहा—"नहीं सोफी, मुझे जाने दो। तुम माताजी को खूब जानती हो। मैं न जाऊँगा, तो वह अपने दिल में मुझे निर्लज्ज, बेहया, कायर समझने लगेंगी और इस उद्विग्नता की दशा में न जाने क्या कर बैठे।"

सोफिया—"नहीं विनय, मुझ पर इतना जुल्म न करो। ईश्वर के लिए दया करो। मैं रानीजी के पास जाकर रोऊँगी, उनके पैरों पर गिरूँगी और उनके मन में तुम्हारे प्रति जो गुबार भरा हुआ है, उसे अपने आँसुओं से धो डालूंगी। मुझे दावा है कि मैं उनके पुत्र-वात्सल्य को जाग्रत कर दूगो। मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ। उनका हृदय दया का आगार है। जिस वक्त मैं उनके चरणों पर गिरकर कहूँगी, अम्माँ, तुम्हारा बेटा मेरा मालिक है, मेरे नाते उसे क्षमा कर दो, उस वक्त वह मुझे पैरों से ठुकरायेंगी नहीं। वहाँ से झुल्लाई हुई उठकर चली जायँगी, लेकिन एक क्षण बाद मुझे बुलायेंगी और प्रेम से गले लगायेंगी। मैं उनसे तुम्हारी प्राण-भिक्षा माँगूंगी, फिर तुम्हें माँग लूँगी। माँ का हृदय कभी इतना कठोर नहीं हो सकता। वह यह पत्र लिखकर शायद इस समय पछता रही होंगी, मना रही होगी कि पत्र न पहुँचा हो। बोलो, वादा करो।"

ऐसे प्रेम में सने, अनुराग में डूबे वाक्य विनय के कानों ने कभी न सुने थे। उन्हें अपना जीवन सार्थक मालूम होने लगा। आह! सोफी अब भी मुझे चाहती है, उसने मुझे क्षमा कर दिया! वह जीवन, जो पहले मरुभूमि के समान निर्जन, निर्जल, निर्जीव था, अब पशु-पक्षियों, सलिल-धाराओं और पुष्प-लतादि से लहराने लगा। आनन्द के कपाट खुल गये थे और उसके अंदर से मधर गान की ताने, विद्यद्वीपों की झलक, सुगंधित वायु की लपट बाहर आकर चित्त को अनुरक्त करने लगी। विनयसिंह को इस सुरम्य दृश्य ने मोहित कर लिया। जीवन के सुख जीवन के दुःख हैं। विराग और आत्मग्लानि ही जीवन के रत्न हैं। हमारी पवित्र कामनाएँ, हमारी निर्मल सेवाएँ, हमारी शुभ कल्पनाएँ विपत्ति ही की भूमि में अंकुरित और पल्लवित होती हैं।

विनय ने विचलित होकर कहा-"सोफी, अम्माँजी के पास एक बार मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि जब तक वह फिर स्पष्ट रूप से न कहेंगी......"

सोफिया ने विनय की गरदन में बाँहें डालकर कहा-"नहीं-नहीं, मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं, तुम अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकते। तुममें साहस है, आत्माभिमान है, शील है, सब कुछ है, पर धैर्य नहीं। पहले मैं अपने लिए तुम्हें आवश्यक समझती थी, अब तुम्हारे लिए अपने को आवश्यक समझती हूँ। विनय, जमीन की तरफ क्यों ताकते हो? मेरी ओर देखो। मैंने तुम्हें जो कटु वाक्य कहे, उन पर लजित हूँ। ईश्वर साक्षी है, सच्चे दिल से पश्चात्ताप करती हूँ। उन बातों को भूल जाओ। प्रेम जितना ही आदर्शवादी होता है, उतना ही क्षमाशील भी। बोलो। वादा करो। अगर तुम मुझसे गला छुड़ाकर चले जाओगे, तो फिर......तुम्हें सोफी फिर न मिलेगी।"

विनय ने प्रेम-पुलकित होकर कहा—"तुम्हारी इच्छा है, तो न जाऊँगा।"

रोफ़ी—"तो हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे।" [ ४२६ ]विन—"नहीं, पहले बनारस चलें। तुम अम्माँजी के पास जाना। अगर वह मुझे क्षमा कर देंगी......"

सोफी—"विनय, अभी बनारस मत चलो, कुछ दिन चित्त को शांत होने दो, कुछ दिन मन को विश्राम लेने दो। फिर रानीजी का तुम पर क्या अधिकार है? तुम मेरे हो, उन समस्त नीतियों के अनुसार, जो ईश्वर ने और मनुष्य ने रची हैं, तुम मेरे हो। मैं रिआयत नहीं, अपना स्वत्व चाहती हूँ। हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे। इसके बाद सोचेगे, हमें क्या करना है, कहाँ जाना है।"

विनय ने सकुचाते हुए कहा—"जीवन का निर्वाह कैसे होगा? मेरे पास जो कुछ है, वह नायकराम के पास है। वह किसी दूसरे कमरे में है। अगर उसे खबर हो गई, तो वह भी हमारे साथ चलेगा।"

सोफी—"इसकी क्या चिंता। नायकराम को जाने हो। प्रेम जंगलों में भी सुखी रह सकता है।"

अँधेरी रात में गाड़ी शैल और शिविर को चीरती चली जाती थी। बाहर दौड़ती हुई पर्वत-मालाओं के सिवा और कुछ न दिखाई देता था। विनय तारों की दौड़ देख रहे थे, सोफिया देख रही थी कि आस-आस कोई गाँव है या नहीं।

इतने में स्टेशन नजर आया। सोफी ने गाड़ी का द्वार खोल दिया और दोनों चुपके से उतर पड़े, जैसे चिड़ियों का जोड़ा घोंसले से दाने की खोज में उड़ जाय। उन्हें इसकी चिंता नहीं कि आगे व्याध भी है, हिंसक पक्षी भी हैं, किसान की गुलेल भी है। इस समय तो दोनों अपने विचारों में मग्न हैं, दाने से लहराते हुए खेतों की बहार देखरहे हैं। पर वहाँ तक पहुँचना भी उनके भाग्य में है, यह कोई नहीं जानता।