रंगभूमि/४०

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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[४०]

मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तंबाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तंबाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थना की गई थी और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। इसलिए निर्माण कार्य को उस तिथि तक समाप्त करने के लिए बड़े उत्साह से काम किया जा रहा था। उस दिन तक कोई काम बाकी न रहना चाहिए। मजा तो जब आये कि दावत में इसी मिल का बना हुआ सिगार भी रखा जाय। मिस्टर जॉन सेवक सुबह से शाम तक इन्हीं तैयारियों में दत्तचित्त रहते थे। यहाँ तक कि रात को भी दुगुनी मजदूरी देकर काम कराया जा रहा था। मिल के आस-पास पक्के मकान बन चुके थे। सड़क के दोनों किनारों पर और निकट के खेतों में मजदूरों ने झोपड़ियाँ डाल ली थीं। एक मील तक सड़क के दोनों ओर की झोपड़ियों की श्रेणियाँ नजर आती थीं। यहाँ बड़ी चहल-पहल रहती थी। दुकानदारों ने भी अपने-अपने छप्पर डाल लिये थे। पान, मिठाई, नाज, गुड़, घी, साग, भाजी और मादक वस्तुओं की दूकानें खुल गई थीं। मालूम होता था, कोई पैठ है। मिल के परदेशी मजदूर, जिन्हें न बिरादरी का भय था, न संबंधियों का लिहाज, दिन भर तो मिल में काम करते, रात को ताड़ी-शराब पीते। जुआ नित्य होता था। ऐसे स्थानों पर कुलटाएँ भी आ पहुँचती हैं। यहाँ भी एक छोटा-मोटा चकला आबाद हो गया था। पाँड़ेपुर का पुराना बाजार सर्द होता जाता था। मिठुआ, घीसू, विद्याधर तीनों अक्सर इधर सैर करने आते और जुआ खेलते। घीसू तो दूध बेचने के बहाने आता, विद्याधर नौकरी खोजने के बहाने और मिठुआ केवल उन दोनों का साथ देने आया करता था। दस ग्यारह बजे रात तक वहाँ बड़ी बहार रहती थी। कोई चाट खा रहा है, कोई तँबोली की दूकान के सामने खड़ा है, कोई वेश्याओं से विनोद कर रहा है। अश्लील हास-परिहास, लज्जास्पद नेत्र-कटाक्ष और कुवासना-पूर्ण हाव-भाव का अविरल प्रवाह होता रहता था। पाँड़ेपुर में ये दिलचस्पियाँ कहाँ? लड़कों की हिम्मत न पड़ती थी कि ताड़ी की दूकान के सामने खड़े हों, कहीं घर की कोई आदमी देख न ले। युवकों की मजाल न थी कि किसी स्त्री को छेड़ें, कहीं मेरे घर जाकर कह न दे। सभी एक दूसरे से संबंध रखते थे। यहाँ वे रुकावटें कहाँ? प्रत्येक प्राणी स्वच्छंद था; उसे न किसी का भय था, न संकोच। कोई किसी पर हँसनेवाला न था। तीनों ही युवकों को मना किया जाता था, वहाँ न जाया करो, जाओ भी, तो अपना काम करके चले आया करो; किंतु जबानी दिवानी होती है, कौन किसी की सुनता था। सबसे बुरी दशा बजरंगी की थी। घोसू नित्यं रुपये-आठ आने उड़ा लिया करता। पूछने पर बिगड़कर कहता, क्या मैं चोर हूँ? [ ४६५ ]
एक दिन बजरंगी ने सूरदास से कहा—"सूरे, लड़के बरबाद हुए जाते हैं। जब देखो, चकले ही में डटे रहते हैं। घिसुआ में चोरी की बान कभी न थी। अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दो, खोजकर निकाल लेता है।"

जगधर सूरदास के पास बैठा हुआ था। ये बातें सुनकर बोला-"मेरी भी वही दसा है भाई! बिद्याधर को कितना पढ़ाया-लिखाया, मिडिल तक खींच-खाँचकर ले गया, आप भूखा रहता था, घर के लोग कपड़ों को तरसते थे, पर उसके लिए किसी बात की कमी न थी। आशा थी, चार पैसे कमायेगा, मेरा बुढ़ापा कट जायगा, घर-बार सँभालेगा, बिरादरी में मरजाद बढ़ायेगा। सो अब रोज वहाँ जाकर जुआ खेलता है। मुझसे बहाना करता है कि वहाँ एक बाबू के पास काम सीखने जाता हूँ। सुनता हूँ, किसी औरत से उसकी आसनाई हो गई है। अभी पुतली-घर के कई मजूर उसे खोजते हुए मेरे घर आये थे। उसे पा जायँ, तो मार-पीट करें। वे भी उसी औरत के आसना हैं। मैंने हाथ-पैर पड़कर उनको बिदा किया। यह कारखाना क्या खुला, हमारी तबाही आ गई! फायदा जरूर है, चार पैसे की आमदनी है, पहले एक ही, खोंचा न विकता था, अब तीन-तीन बिक जाते हैं, लेकिन ऐसा सोना किस काम का, जिससे कान फटे!"

बजरंगी—"अजी, जुआ ही खेलता, तब तक गनीमत थी, हमारा घीसू तो अबारा हो गया है। देखते नहीं हो, सूरत कैसी बिगड़ गई है! कैसी देह निकल आई थी! मुझे पूरी आसा थी कि अब की दंगल मारेगा, अखाड़े का कोई पट्ठा उसके जोड़ का नहीं है, मगर जब से चकले की चाट पड़ गई है, दिन-दिन घुलता जाता है। दादा को तुमने देखा था न? दस-पाँच कोस के गिर्द में कोई उनसे हाथ न मिला सकता था, चुटकी से सुपारी तोड़ देते थे। मैंने भी जवानी में कितने ही दंगल मारे। तुमने तो देखा ही था, उस पंजाबी को कैसा मारा कि पाँच सौ रुपये इनाम पाये और अखबारों में दूर-दूर तक नाम हो गया। कभी किसी माई के लाल ने मेरी पीठ में धूल नहीं लगाई। तो बात क्या थी? लँगोट के सच्चे थे। मोछे निकल आई थीं, तब तक किसी औरत का मुँह नहीं देखा था। ब्याह भी हो गया, तब भी मेहनत-कसरत की धुन में औरत का ध्यान ही न करते थे। उसो के बल पर अब भी दावा है कि दस-पाँच का सामना हो जाय, तो छक्के छुड़ा दूं, पर इस लौंडे ने डोंगा डुबा दिया। घूरे उस्ताद कहते थे कि इसमें दम ही नहीं है, जहाँ दो पकड़ हुए, बस, भैंसे की तरह हाँफने लगता।"

सूरदास--"मैं अंधा आदमी लौंडों के ये कौतुक क्या जानूँ, पर सुभागी कहती है कि मिठुआ के ढंग अच्छे नहीं हैं। जब से टेसन पर कुली हो गया है, रुपये-आठ आने रोज कमाता है, मुदा कसम ले लो, जो घर पर एक पैसा भी देता हो। भोजन मेरे सिर करता है; जो कुछ पाता है, नसे-पानी में उड़ा देता है।"

जगधर-"तुम भी तो झूठमूठ लाज दो रहे हो। निकाल क्यों नहीं देने घर से? [ ४६६ ]
अपने सिर पड़ेगी, तो आटे दाल का भाव मालूम होगा। अपना लड़का हो, तो एक बात है; भाई-भतीजे किसके होते हैं?"

सूरदास-"पाला तो लड़के ही की तरह है, दिल नहीं मानता।"

जगधर-"अपना बनाने से थोड़े ही अपना हो जायगा?"

ठाकुरदीन भी आ गया था। जगधर की बात सुनकर बोला-"भगवान ने क्या तुम्हारे करम में काँटे ही बोना लिखा है, किसी का भी भला नहीं देख सकते!"

सूरदास-“उसके मन में जो आये, करे, पर मेरे हाथों तो यह नहीं हो सकता कि मैं आप खाकर सोऊँ और उसकी बात न पूछूँ।”

ठाकुरदीन-"कोई बात कहने के पहले सोच लेना चाहिए कि सुननेवाले को अच्छी लगेगी या बुरी। जिस लड़के को बालपन से पाला, और इस तरह पाला कि कोई अपने बेटे को भी न पालता होगा, उसे अब छोड़ दें?"

जमुनी-“अब के कलजुगी लड़के जो कुछ न करें, थोड़ा है। अभी दूध के दाँत नहीं टूटे, सुभागी ने घीसू को गोद खेलाया है, सो आज वह उसी से दिल्लगी करता है। छोटे-बड़े का लिहाज उठ गया। वह तो कहो, सुभागी की काठी अच्छी है, नहीं बाल-बच्चे हुए होते, तो घीसू से जेठे होते।”

यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर तीनों लौंडे नायकराम के दालान में बैठे हुए मंसूबे बाँध रहे थे। घीसू ने कहा—"सुभागी मारे डालती है। देखकर यही जी चाहता है कि गले लगा लें। सिर पर साग की टोकरी रखकर बल खाती हुई चलती है, सो जान ले लेती है। बड़ो काफर है!”

विद्याधर-"तुम तो हो घामड़, पढ़े-लिखे तो हो नहीं, बात क्या समझो। मासूक कभी अपने मुँह से थोड़े ही कहता है कि मैं राजी हूँ। उसकी आँखों से ताड़ जाना चाहिए। जितनी ही बिगड़े, उतनी ही दिल से राजी समझो। कुछ पढ़े होते तो जानते कि औरतें कैसे नखरे करती हैं।"

मिठुआ-"पहले सुभागी मुझसे भी इसी तरह बिगड़ती थी, किसी तरह हत्थे ही न चढ़े, बात तक न सुने पर मैंने हिम्मत करके एक दिन कलाई पकड़ ली; और बोला-“अब न छोडूंँगा, चाहे मार ही डाल। मरना तो एक दिन है ही, तेरे ही हाथों मरूँगा। यों भी तो मर रहा हूँ, तेरे हाथों मरूँगा, तो सीधे सरग जाऊँगा।" पहले तो बिगड़कर गालियाँ देने लगी, फिर कहने लगी-छोड़ दो, कहीं कोई देख ले, तो गजब हो जाय। मैं तेरी बुवा लगती हूँ। पर मैंने एक न सुनी। बस, फिर क्या था। उसी दिन से आ गई चंगुल में।"

मिठुआ अपनी प्रेम-विजय की कल्पित कथाए गढ़ने में निपुण था। निरक्षर होने पर भी गप्पें मारने में उसने विद्याधर को मात कर दिया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ ऐसा रंग भरता था कि मित्रों को उन गपोड़ों पर विश्वास आ जाता था। घीसू बोला-
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"क्या करूँ, मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती। डरता कहीं शोर मचा दे, तो आफत आ जाय। तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ गई थी?"

विद्याधर—"तुम्हारा सिर, जाहिल-जपाट तो हो। मासूक अपने आसिक को आज-माता है कि इसमें कुछ जीवट भी है कि यों ही छैला बना फिरता है। औरत उसी को प्यार करती है, जो दिलावर हो, निडर हो, आग में कूद पड़े।"

घीसू—"तुम तैयार हो?"

विद्याधर—"हाँ, आज ही।"

मिठुआ-"मगर देख लेना, दादा द्वार पर नीम के नीचे सोते हैं।"

घीसू-"इसका क्या डर। एक धक्का दूँगा, दूर जाके गिरेगा।"

तीनों मिस्कौट करते, इस षड्यंत्र के दाँव-पेंच सोचते हुए, कुली बाजार की तरफ चले गये। वहाँ तीनों ने शराब पी, दस-ग्यारह बजे रात तक बैठे गाना-बजाना सुनते रहे। मदिरालयों में स्वर-हीन कानों के लिए संगीत की कभी कमी नहीं रहती। तीनों नशे में चूर होकर लौटे, तो घीसू बोला-"सलाह पक्की है न? आज वारा-न्यारा हो जाय, चित पड़े, या पट।”

आधी रात बीत चुकी थी। चौकीदार पहरा देकर जा चुका था। घीसू और विद्या-धर सूरदास के द्वार पर आये।

घीसू-"तुम आगे चलो, मैं यहाँ खड़ा हूँ।"

विद्याधर-"नहीं, तुम जाओ। तुम गँवार आदमी हो। कोई देख लेगा, तो बात भी न बना सकोगे।"

नशे ने घीसू को आपे से बाहर कर रखा था। कुछ यह दिखाना भी मंजूर था कि तुम लोग मुझे जितना बोदा समझते हो, उतना बोदा नहीं हूँ। झोपड़ी में घुस ही तो पड़ा, और जाकर सुभागी की बाँह पकड़ ली। सुभागी चौंककर उठ बैठी और जोर से बोली-“कौन है? हट।”

घीसू-"चुप-चुप, मैं हूँ।"

सुभागी-"चोर-चोर! चोर चोर!"

सूरदास जगा। उठकर मड़ैया में जाना चाहता था कि किसी ने उसे पकड़ लिया। उसने डाँटकर पूछा, कौन है? जब कुछ उत्तर न मिला, तब उसने भी उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया-चोर! चोर! मुहल्ले के लोग ये आवाजें सुनते ही लाठियाँ लेकर निकल पड़े। बजरंगी ने पूछा, कहाँ गया कहाँ? सुभागी बोली, मैं पकड़े हुए हूँ। सूरदास ने कहा, एक को मैं पकड़े हुए हूँ। लोगों ने आकर देखा, तो भीतर सुभागी घीसू को को पकड़े हुए है, बाहर सूरदास विद्याधर को। मिठुआ नायकराम के द्वार पर खड़ा था। यह हुल्लड़ सुनते ही भाग खड़ा हुआ। एक क्षण में सारा मुहल्ला टूट पड़ा। चोर को पकड़ने के लिए बिरले ही निकलते हैं, पकड़े गये चोर पर पँचलत्तियाँ

३० [ ४६८ ]
जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। लेकिन यहाँ आकर देखते हैं, तो न चोर, न चोर का भाई, बल्कि अपने ही मुहल्ले के लौंडे हैं।

एक स्त्री बोली—“यह जमाने की खूबी है कि गाँव-घर का विचार भी उठ गया, किसकी आबरू बचेगी!"

ठाकुरदीन—"ऐसे लौंडों का सिर काट लेना चाहिए।"

नायकराम—"चुप रहो ठाकुरदीन, यह गुस्सा करने की बात नहीं, रोने की बात है।

जगधर, बजरंगी, जमुनी सिर झुकाये चुप खड़े थे, मुँह से बात न निकलती थी। बजरंगी को तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि घिसू का गला दबा दे। यह जमाव और हल-चल देखकर कई कांस्टेबिल भी आ पहुचे। अच्छा शिकार फँसा, मुठ्ठियाँ गरम होंगी। तुरंत दोनों युवकों की कलाइयाँ पकड़ लो। जमुनी ने रोकर कहा-"ये लौंडे मुँह में कालिख लगानेवाले हैं। अच्छा होगा, छ-छ महीने की सजा काट आयेगे, तब इनकी आँखें खुलेंगी। समझाते-समझाते हार गई कि बेटा, कुराह मत चलो, लेकिन कौन सुनता है? अब जाके चक्की पीसो। इससे तो अच्छा था कि बाँझ ही रहती।"

नायकराम—"अच्छा, अब अपने-अपने घर जाते जाव। जमादार, लौंडे हैं, छोड़ दो, आओ चलें।"

जमादार—"ऐसा न कहो पण्डाजी, कोतवाल साहब को मालूम हो जायगा, तो समझेंगे, इन सबों ने कुछ ले-देकर छोड़ दिया होगा।"

नायकराम—"क्या कहते हो सूरे, अब ये लोग जायँ न?"

ठाकुरदीन—"हाँ और क्या। लड़कों से भूल-चूक हो ही जाती है। काम तो बुरा किया, पर अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ।"

सूरदास—"मैं कौन होता हूँ कि जाने दूँ! जाने दें कोतवाल, डिपटी, हाकिम लोग!"

बजरंगी—"सूरे, भगवान जानता है, जान का डर न होता, तो इस दुष्ट को कच्चा हो चबा जाता।”

सूरदास—"अब तो हाकिम लोगों के हाथ में है, छोड़ें चाहे सजा दें।"

बजरंगी—"तुम कुछ न करो, तो कुछ न होगा। जमादारों को हम मना लेंगे।"

सूरदास—"तो भैया, साफ-साफ बात यह है कि मैं बिना सरकार में रपट हिये न मानूँगा, चाहे सारा मुहल्ला मेरा दुसमन हो जाय।"

बजरंगी—"क्या यही होगा सूरदास? गाँव-घर, टोले-मुहल्ले का कुछ लिहाज न करोगे? लड़कों से भूल तो हो ही गई, अब उनकी जिंदगानी खराब करने से क्या मिलेगा?"

जगघर—"सुभागी ही कहाँ की देवी है! जब से भैरो ने छोड़ दिया, सारा मुहल्ला उसका रंग-ढंग देख रहा है। बिना पहले की साँठ-गाँठ के कोई किसी के घर नहीं घुसता! [ ४६९ ]सूरदास—'तो यह सब मुझसे क्या कहते हो भाई, सुभागी देबी हो, चाहे हरजाई हो, वह जाने, उसका काम जाने। मैंने अपने घर में चोरों को पकड़ा है, इसकी थाने में जरूर इत्तला करूँगा, थानेवाले न सुनेंगे, तो हाकिम से कहूँगा। लड़के लड़कों की राह रहें तो लड़के हैं ; सोहदों की राह चलें, तो सोहदे हैं। बदमासों के और क्या सींग-पूँछ होती है?"

बजरंगी—"सूरे, कहे देता हूँ, खून हो जायगा।"

सूरदास—"तो क्या हो जायगा। कौन कोई मेरे नाम को रोनेवाला बैठा हुआ है?"

नायकराम ने वहाँ ठहरना व्यर्थ समझा। क्यों नींद खराब करें? चलने लगे, तो जगधर ने कहा "पंडाजी, तुम भी जाते हो, यहाँ क्या होगा?" नायकराम ने जवाब दिया-"भाई, सूरदास मानेगा नहीं, चाहे लाख कहो। मैं भी तो कह चुका, कहो और हाथ-पैर पड़, पर होना-हवाना कुछ नहीं। घीसू और विद्या की तो बात ही क्या, मिठुआ भी होता, तो सूरे उसे भी न छोड़ता। जिद्दी आदमी है।"

जगधर—“ऐसा कहाँ का धन्ना सेठ है कि अपने मन ही की करेगा। तुम चलो, जरा डाँटकर कहो तो।"

नायकराम लौटकर सूरदास से बोले—"सूरे, कभी-कभी गाँव-घर के साथ मुलाहजा भी करना पड़ता है। लड़कों की जिंदगानी खराब करके क्या पाओगे?"

सूरदास-"पंडाजी, तुम भी औरों की-सी कहने लगे! दुनिया में कहीं नियाव है कि नहीं? क्या औरत की आबरू कुछ होती ही नहीं? सुभागी गरीब है, अबला है, मजूरी करके अपना पेट पालती है, इसलिए जो कोई चाहे, उसकी आबरू बिगाड़ दे? जो चाहे, उसे हरजाई समझ ले?"

सारा मुहल्ला एक हो गया, यहाँ तक कि दोनों चौकीदार भी मुहल्लेवालों की सी कहने लगे। एक बोला-"औरत खुद हरजाई है।”

दूसरा—"मुहल्ले के आदमी चाहें, तो खून पचा लें, यह कौन-सा बड़ा जुर्म है।"

पहला—"सहादत ही न मिलेगी, तो जुर्म क्या साबित होगा।"

सूरदास —'सहादत तो जब न मिलेगी, जब मैं मर जाऊँगा। वह हरजाई है?"

चौकीदार—'हरजाई तो है ही। एक बार नहीं, सौ बार उसे बाजार में तरकारी बेचते और हँसते देखा है।"

सूरदास—"तो बजार में तरकारी बेचना और हँसना हरजाइयों का काम है?"

चौकीदार—"अरे, तो जाओगे तो थाने ही तक न! वहाँ भी तो हमीं से रपट करोगे?".

नायकराम—"अच्छी बात है, इसे रपट करने दो। मैं देख लूँगा। दरोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं।"

सूरदास—"हाँ, दरोगाजी के मन में जो आये करें, दोस-पाप उनके साथ है।"

नायकराम—"कहता हूँ, मुहल्ले में न रहने पाओगे।" [ ४७० ]सूरदास—'जब तक जीता हूँ, तब तक तो रहूँगा, मरने के बाद देखी जायगी।"

कोई सूरदास को धमकाता था, कोई समझाता था। वहाँ वही लोग रह गये थे, जो इस मुआमले को दबा देना चाहते थे। जो लोग इसे आगे बढ़ाने के पक्ष में थे, वे बजरंगी और नायकराम के भय से कुछ कह न सकने के कारण अपने-अपने घर नले गये थे। इन दोनों आदमियों से वैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी। पर सूरदास अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि किसी भाँति मानता ही न था, अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो। हम लोग थानेदार हो को राजी कर लेंगे। दस-बीस रुपये से गम खायेंगे।

नायकराम—“अरे, वही लाला थानेदार हैं न? उन्हें मैं चुटकी बजाते-बजाते गाँठ लूँगा। मेरी पुरानी जान-पहचान है।"

जगधर—"पंडाजी, मेरे पास तो रुपये भी नहीं हैं, मेरी जान कैसे बचेगी?"

नायकराम—"मैं भी तो परदेस से लौटा हूँ। हाथ खाली हैं। जाके कहीं रुपये की फिकिर करो।"

जगधर—"मैं सूरे को अपना हितू समझता था। जब कभी काम पड़ा है, उसकी मदद की है। इसी के पीछे भैरो से मेरी दुसमनी हुई। और, अब भी यह मेरा न हुआ!"

नायकराम—"यह किसी का नहीं है और सबका है। जाकर देखो, जहाँ से हो सके, २५) तो ले ही आओ।"

जगधर—"भैया, रुपये किससे माँगने जाऊँ? कौन पतियायेगा?"

नायकराम—"अरे, विद्या की अम्माँ से कोई गहना ही माँग लो। इस बखत तो प्रान बचें, फिर छुड़ा देना।"

जगधर बहाने करने लगा—"वह छल्ला तक न देगी; मैं मर भी जाऊँ, तो कफन के लिए रुपये न निकालेगी।" यह कहते-कहते वह रोने लगा। नायकराम को उस पर दया आ गई। रुपये देने का वचन दे दिया।

सूरदास प्रातःकाल थाने की ओर चला, तो बजरंगी ने कहा-"सूरे, तुम्हारे सिर पर मौत खेल रही है, जाओ।"

जमुनी सूरे के पैरों से लिपट गई और रोती हुई बोली—“सूरे, तुम हमारे बैरी हो जाओगे, यह कभी आसा न थी।"

बजरंगी ने कहा—"नीच है, और क्या। हम इसको पालते ही चले आते हैं। भूखों कभी नहीं सोने दिया। बीमारी-आरामी में कभी साथ नहीं छोड़ा। जब कभी दूध माँगने आया, खाली हाथ नहीं जाने दिया। इस नेकी का यह बदला! सच कहा है, अंधों में मुरौवत नहीं होती। एक पासिन के पीछे!"

नायकराम पहले ही लपकर थाने जा पहुँचे और थानेदार से सारा वृत्तांत सुनाकर कहा—“पचास का डौल है, कम न ज्यादा। रपट ही न लिखिए।" [ ४७१ ]दारोगा ने कहा—"पंडाजी, जब तुम बीच में पड़े हुए हो, तो सौ-पचास की कोई बात नहीं; लेकिन अंधे को मालूम हो जायगा कि रपट नहीं लिखी गई, तो सीधा डिप्टी साहब के पास जा पहुँचेगा। फिर मेरी जान आफत में पड़ जायगी। निहायत रूखा अफसर है, पुलिस का तो जानी दुश्मन ही समझो। अंधा यों माननेवाला असामी नहीं है। जब इसने चतारी के राजा साहब को नाकों चने चबवा दिये, तो दूसरों की कौन गिनती है। बस, यही हो सकता है कि जब मैं तफतीश करने आऊँ, तो आप लोग किसी को शहादत न देने दें। अदम सबूत में मुआमला खारिज हो जायगा। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि शहादत के लिए किसी को दबाऊँगा नहीं, गवाहों के बयान में भी कुछ काट-छाँट कर दूंँगा।"

दूसरे दिन संध्या-समय दारोगाजी तहकीकात करने आये। मुहल्ले के सब आदमी जमा हुए; मगर जिससे पूछो, यही कहता है-"मुझे कुछ मालूम नहीं, मैं कुछ नहीं जानता, मैंने रात को किसी की 'चोर-चोर' आवाज नहीं सुनी, मैंने किसी को सूरदास के द्वार पर नहीं देखा, मैं तो घर में द्वार बंद किये पड़ा सोता था। यहाँ तक कि ठाकुरदोन ने भी साफ कहा -“साहब, मैं कुछ नहीं जानता।" दारोगा ने सूरदासं पर बिगड़कर कहा-"झूठी रपट करता है बदमाश!"

सूरदास—"रपट झूठी नहीं है, सच्ची है।"

दारोगा—"तेरे कहने से सच्ची मान लूँ? कोई गवाह भी है?"

सूरदास ने मुहल्लेवालों को संबोधित करके कहा—“यारो, सच्ची बात कहने से मत डरो। मेल-मुरौवत इसे नहीं कहते कि किसी औरत की आबरू बिगाड़ दो जाय और लोग उस पर परदा डाल दें। किसी के घर में चोरी हो जाय और लोग छिपा लें। अगर यही हाल रहा, तो समझ लो कि किसी की आबरू न बचेगी। भगवान ने सभी को बेटियाँ दी हैं, कुछ उनका खियाल करो। औरत की आबरू कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके पीछे सिर कट जाते हैं, लहू की नदी बह जाती है। मैं और किसी से नहीं पूछता, ठाकुरदीन, तुम्हें भगवान का भय है, पहले तुम्ही आये थे, तुमने यहाँ क्या देखा? क्या मैं और सुभागी, दोनों घीसू और विद्याधर का हाथ नहीं पकड़े हुए थे? देखो; मुँहदेखी नहीं, साथ कोई न जायगा, जो कुछ देखा हो, सच कह दो।"

ठाकुरदीन धर्म-भीरु प्राणी था। ये बातें सुनकर भयभीत हो गया। बोला—"चोरी- डाके की बात तो मैं कुछ नहीं जानता, यही पहले भी कह चुका, बात बदलनी नहीं आती। हाँ, जब मैं आया तो तुम और सुभागी दोनों लड़कों को पकड़े चिल्ला रहे थे।"

सूरदास—"मैं उन दोनों को उनके घर से तो नहीं पकड़ लाया था?"

ठाकुरदीन—“यह दैव जाने। हाँ, चोर-चोर की आवाज मेरे कान में आई थी।"

सूरदास—"अच्छा, अब मैं तुमसे पूछता हूँ जमादार, तुम आये थे न? बोलो, यहाँ जमाव था कि नहीं?" [ ४७२ ]
चौकीदार ने ठाकुरदीन को फूटते देखा, तो डरा कि कहीं अंधा दो-चार आदमियों को और फोड़ लेगा, तो हम झूठे पड़ेंगे। बोला—"हाँ, जमाव क्यों नहीं था।"

सूरदास—"घीसू को सुभागी पकड़े हुए थी कि नहीं? बिद्याधर को मैं पकड़े हुए था कि नहीं?"

चौकीदार—"चोरी होते हमने नहीं देखी।"

सूरदास—"हम इन दोनों लड़कों को पकड़े थे कि नहीं?"

चौकीदार—"हाँ, पकड़े तो थे, पर चोरी होते नहीं देखी।"

सूरदास—"दारोगाजी, अभी सहादत मिली कि और दूँ? यहाँ नंगे-लुच्चे नहीं बसते, भलेमानसों ही की बस्ती है। कहिए, बजरंगी से कहला दूँ; कहिए, खुद घीसू से कहला दूंँ। कोई झूठी बात न कहेगा। मुरौवत-मुरौवत की जगह है, मुहब्बत-मुहब्बत की जगह है। मुरौवत और मुहब्बत के पीछे कोई अपना परलोक न बिगाड़ेगा।"

बजरंगी ने देखा, अब लड़के की जान नहीं बचती, तो अपना ईमान क्यों बिगाड़े, दारोगा के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला—"दारोगाजी, सूरे जो बात कहते हैं, वह ठीक है। जिसने जैसो करनी की है, वैसी भोगे। हम क्यों अपनी आकबत बिगाड़ें। लड़का ऐसा नालायक न होता, तो आज मुँह में कालिख क्यों लगती? जब उसका चलन ही बिगड़ गया, तो मैं कहाँ तक बचाऊँगा। सजा भोगेगा, तो आप आँखें खुलेंगी।”

हवा बदल गई। एक क्षण में साक्षियों का तांता बँध गया। दोनों अभियुक्त हिरासत में ले लिये गये। मुकदमा चला, तीन-तीन महीने की सजा हो गई। बजरंगी और जगधर, दोनों सूरदास के भक्त थे। नायकराम का यह काम था कि सब किसी से सूरदास का गुन गाया करे। अब ये तीनों उसके दुश्मन हो गये। दो बार पहले भी वह अपने मुहल्ले का द्रोही बन चुका था, पर उन दोनों अवसरों पर किसी को उसकी जात से इतना आगात न पहुंचा था, अबकी तो उसने घोर अपराध किया था। जमुनी जब सूरदास को देखती, तो सौ काम छोड़कर उसे कोसती। सुभागी को घर से निकलना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि मिठुआ ने भी साथ छोड़ दिया। अब वह रात को भी स्टेशन पर ही रह जाता। अपने साथियों की दशा ने उसकी आँखें खोल दी। नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दिया, चक्कर खाकर आते-जाता बस, उसके संबंधियों में ले-देके एक भैरो रह गया। हाँ, कभी-कभी दूसरों की निगाह बचा कर ठाकुरदीन कुशल-समाचार पूछ जाता। और तो और, दयागिर भी उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं लोग उसका मित्र समझकर मेरी दक्षिणा-भिक्षा न बन्द कर दें।सत्य के मित्र कम होते हैं, शत्रुओं से कहीं कम।

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